Published on Dec 26, 2016 Updated 0 Hours ago
ट्रम्प का ताईवान को लेकर पुनर्विचार और भारत

ताईवान की प्रथम महिला राष्ट्रपति त्साइ इंग-वेन द्वारा पिछले सप्ताह राष्ट्रपति-निर्वाचित डोनाल्ड ट्रम्प को किए गए फोन कॉल से चीन, अमेरिका एवं उससे आगे की विदेश नीति हलकों में एक बड़ा तूफान खड़ा हो गया है। हालांकि साइ ने बधाई देने वाले इस कॉल को केवल एक अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार करार दिया लेकिन सारा मामला संभवतः केवल वैसा ही नहीं है जैसा ऊपर से दिखता है।

10 मिनट की टेलीफोन की बातचीत को लेकर कई सारी वजहों से विदेश नीति विश्लेषकों की भृकुटि तन गई है। सबसे पहले तो, ट्रम्प 40 वर्ष पुराने राजनयिक प्रोटोकॉल को समाप्त करते हुए 1979 के बाद रिपब्लिक ऑफ चाइना (आरओसी) के राष्ट्रपति के साथ बातचीत करने वाले पहले राष्ट्रपति बन गए। वर्ष 1979 इस मायने में एक महत्वपूर्ण वर्ष था क्योंकि इसने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ इंडिया को चीन की एकमात्र वैध सरकार के रूप में अमेरिका की मान्यता को चिन्हित किया था।

दूसरी बात यह कि क्रॉस-स्ट्रेट संबंध अर्थात चीन और ताईवान के बीच के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सैन्य विचारधारा के बीच वर्तमान विभाजन से जुड़े तीन आयाम हैं। जहां अमेरिका ने ‘वन चाइना‘ नीति के प्रति अपनी आधिकारिक प्रतिबद्धता जाहिर की है, पीआरसी ताईवान को एक विश्वासघाती प्रांत मानता है। राष्ट्रपति त्साइ ‘वन चाइना‘ की अवधारणा को मानने से इंकार करती हैं। पिछले सप्ताह, त्साइ से इस अभूतपूर्व फोन कॉल की पुष्टि करते हुए, राष्ट्रपति ट्रम्प ट्विटर पर सइ को ‘ताईवान की राष्ट्रपति‘ के रूप में उद्धृत किया। रिपब्लिक ऑफ चाइना के बजाये ताईवान शब्द का उपयोग करना यह जताता है कि पदस्थ अमेरिकी प्रशासन ताईवान को एक अलग इकाई के देखना पसंद करेगा और देश की राष्ट्रीय संप्रभुता को प्रोत्साहित करेगा।

तीसरी बात, इसकी परवाह किए बगैर कि यह फोन कॉल पहले से विचारित थी या नहीं, निश्चित रूप से यह घटना चीन को ट्रम्प के रणनीतिक इरादों का आभास दे देगी। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति ट्रम्प का फॉक्स न्यूज संडे को हाल में दिया गया साक्षात्कार, जिसमें उन्होंने ‘वन चाइना‘ नीति से जुड़े रहने के द्वारा पीआरसी को दी गई विशिष्ट स्थिति पर सवाल खड़े किए थे, और करेंसी अवमूल्यन, दक्षिण चीन सागर में एवं उत्तर कोरिया के प्रति पीआरसी के रुख जैसे मुद्वों पर चीन की कटु आलोचना की थी, से ताईवान को लेकर चीन-अमेरिका तनाव और भड़क सकता है।

चौथी बात, हाल की घटना उस कट्टरतापूर्ण रणनीति का एक स्पष्ट संकेत है जो ट्रम्प प्रशासन चीन के मामले में अपनाएगी। हालांकि अमेरिका आधिकारिक रूप से चीन की ‘शांतिपूर्ण प्रगति‘ की सराहना करता है, सामुद्रिक विवाद, साइबर जासूसी एवं पीआरसी द्वारा स्थापित संस्थान जिन्होंने आर्थिक शासन के पश्चिमी मॉड्यूल को चुनौती दी है, बार बार इन दो महाशक्तियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते रहे हैं। ट्रम्प एवं उनके रिपब्लिकन अनुयायियों की संकीर्णतावादी नीतियों को देखते हुए, इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि नया प्रशासन चीन को लेकर उतना उदार नहीं रहेगा जितने ओबामा प्रशासन के तहत लिबरल डेमोक्रैट्स थे। ट्रम्प के चुनाव अभियान के दौरान यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया था जब उन्होंने चीन पर ‘इस ग्रह पर अब तक के सबसे बड़े एकल करेंसी धोखेबाज होने‘ का आरोप लगाया।

राष्ट्रपति सइ ने अपनी तरफ से गुप्त तरीके से डोनाल्ड ट्रम्प को फोेन करने की योजना बनाई थी जिससे कि ताईवान मुद्वे को बातचीत की मेज पर वापस लाया जा सके। जुलाई 2016 में, ताईवान ने ‘गलती से‘ चीन की तरफ एक सुपरसोनिक एंटी-शिप मिसाइल लांच कर दिया था। घटनाओं के ऐसे क्रम स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं कि साइ इंग-वेंग क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों से निपटने में सख्त रवैया अपना रही हैं। उधर, ट्रम्प भी चीनी नेतृत्व को एक मजबूत संकेत देने के लिए ताईवान कार्ड खेल रहे हैं।

यह देखना दिलचस्प है कि अमेरिका और ताईवान के बीच इस उभरते रणनीतिक तालमेल का भारत के लिए निश्चित निहितार्थ है। भारत एवं अमेरिका दोनों ही ‘वन चाइना‘ नीति के प्रति वचनबद्ध हैं और चीन सभी तीनों शक्तियों के लिए एक समान पारंपरिक सुरक्षा खतरा बना हुआ है। 1960 के बाद से ही , चीन के साथ अनसुलझे सीमा विवाद, आतंकवाद एवं पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से संबंधित मु़द्वों पर पाकिस्तान को चीन का समर्थन, एनएसजी में सदस्यता हासिल करने की भारत की कोशिशों को रोकने के लिए चीन के कदम, हिन्द महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती उपस्थिति और फिर (सबसे महत्वपूर्ण) दक्षिण एशिया के देशों के साथ चीन के बढ़ते सैन्य रिश्तों के कारण भारत की विदेश नीति में चीन के मसले की बहुत बड़ी भूमिका रही है। बहरहाल, टेलीफोन पर ताईवान से संबंधित ट्रम्प की बातचीत के अप्रत्याशित रवैये ने भारत के लिए अमेरिका के समर्थन के साथ चीन की दिशा में एक सख्त रणनीतिक रुख अख्तियार करने की रूपरेखा तैयार कर दी है।

दूसरी बात यह कि हालांकि ताईवान भारत को अपनी ‘गो साउथ‘ नीति के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में देखता है, आरओसी भारत की ‘एक्ट ईस्ट‘ नीति का कोई अहम हिस्सा नहीं रहा है। भारत दक्षिण पूर्व एशिया में ताईवान को एक महत्वपूर्ण साझीदार मान कर अपनी ‘एक्ट ईस्ट‘ नीति को और मजबूत बना सकता है। ट्रम्प प्रशासन के चीन के मुकाबले ताईवान के पक्ष में मजबूत रुख से एक क्षेत्रीय ढांचे के उभरने के संकेत मिलते हैं जिसका भारत एवं ताईवान द्वारा निश्चित रूप से इस क्षेत्र में अपनी स्थितियों को मजबूत बनाने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए।

तीसरी बात यह कि डेमोक्रैटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सइ इंग-वेन द्वारा ‘न्यू साउथवार्ड पॉलिसी‘ अपनाए जाने के साथ भारत को निश्चित रूप से ताईवान के साथ अपने आर्थिक संबंधों की संभावना के दोहन का प्रयास करना चाहिए। 2014 में, दोनों देशों के बीच व्यापार 6 अरब डॉलर का था जो वास्तविक क्षमता स काफी कम है। इस अवसर का अधिकतम लाभ उठाने तथा मेक इन इंडिया पहल जैसे सरकारी कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार को अनिवार्य रूप से ताईवान की ‘गो साउथ‘ नीति के प्रति अपनी प्रतिक्रिया जताने में अधिक व्यावहारिकता का परिचय देना चाहिए।

अमेरिका-चीन के बीच मौजूदा शक्ति परिवर्तन के साथ अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में नए बन रहे रणनीतिक संबंधों को देखते हुए क्षेत्रीय व्यवस्था वर्तमान में काफी अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। वास्तव में, यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत किस प्रकार वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति का अधिकतम लाभ उठाने के लिए इस अवसर का उपयोग करता है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.