मुंबई का एम-ईस्ट वार्ड- ये वो इलाक़ा हैं जहां सबसे ज़्यादा घनी आबादी वाली कुछ झुग्गियां हैं. यहां रहने वाले पहली और दूसरी पीढ़ी के प्रवासी समुदाय के लोगों के लिए मार्च आम तौर पर इम्तिहान, आने वाली छुट्टी को लेकर जोश, घर जाने की योजना और पारिवारिक समारोह की तैयारी करने का महीना होता है. लेकिन इस बार मार्च वैश्विक महामारी की ख़बर लेकर आया जो धीरे-धीरे भारत की तरफ़ बढ़ रहा था. वायरस को लेकर कुछ डर था लेकिन काफ़ी हद तक ज़िंदगी सामान्य तरीक़े से चल रही थी. मार्च के मध्य तक लोगों की गतिविधियों पर धीरे-धीरे पाबंदी लगने लगी लेकिन 23 तारीख़ को राष्ट्रीय लॉकडाउन के एलान के साथ ही तबाही की पहली दस्तक आई. पिछले कुछ हफ़्तों में ये तबाही और तीव्र हो गई है. मौजूदा हाल भारी कठिनाई और डर का है जिसने यहां की अनियमित बस्ती और फिर से बसाई गई कॉलोनी में रहने वाले कमज़ोर लेकिन दृढ़ लोगों को निराश कर दिया है, उनके परिवार को राहत और मदद पर निर्भर कर दिया है.
एम-ईस्ट वार्ड संक्रमित लोगों की बढ़ती संख्या के साथ महामारी के हॉटस्पॉट में से एक बन गया है (27 मई को 1,140 संक्रमित थे). इससे भी ख़तरनाक ये है कि वार्ड में काफ़ी ज़्यादा क़रीब 10 प्रतिशत मृत्यु दर है (108 मौतें). इस प्रकार शहर में न्यूनतम मानव विकास सूचकांक वाला वार्ड लोगों के लिए अधिकतम दुख वाला वार्ड बन गया है.
पिछले दो महीने के दौरान ज़्यादातर प्रवासियों के मेहनत से कमाए गए पैसे ख़त्म हो चुके हैं और उनके पास गुज़र-बसर का कोई साधन नहीं है. कई मामलों में कारख़ानों के मालिकों ने प्रवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया है
ये लेख अनियमित बस्तियों में रहने वाले लोगों ने तबाही के जिन अलग-अलग पहलुओं को अनुभव किया, उसका पता लगाता है. लेख में मौजूदा सिस्टम और लोगों को दिलासा देने और देखभाल के लिए उठाए गए सरकार के कल्याणकारी क़दमों की नाकामी के बारे में बताया गया है. लेख में गहरी पैठ बना चुकी शहर की मौजूदा ग़लतियों की प्रक्रिया का भी पर्दाफ़ाश किया गया है. ऐसी ग़लती जिसके तहत अनियमित बस्तियों को शहर में महामारी के फैलने की बड़ी वजह बताया गया है.
मोर्चे पर कमज़ोर: प्रवासी मज़दूर
एम-ईस्ट दूसरे दर्जे का वार्ड है जहां प्रवासियों की बड़ी आबादी किराये के घर में रहती है. साथ ही बहुत से लोग काम-काज की जगह यानी इलाक़े के छोटे कारख़ानों में रहते हैं. अचानक लॉकडाउन के ऐलान के फ़ौरन बाद सैकड़ों प्रवासियों ने ट्रक के ज़रिए शहर छोड़ने की कोशिश की क्योंकि परिवहन के दूसरे साधन उपलब्ध नहीं थे. इलाक़े के लोगों ने कम-से-कम छह ट्रक किराये पर लिए. लेकिन इनमें से तीन ट्रकों को टोल नाके पर पकड़ लिया गया और शहर छोड़कर जा रहे प्रवासियों को लौटने के लिए कहा गया. पिछले दो महीने के दौरान ज़्यादातर प्रवासियों के मेहनत से कमाए गए पैसे ख़त्म हो चुके हैं और उनके पास गुज़र-बसर का कोई साधन नहीं है. कई मामलों में कारख़ानों के मालिकों ने प्रवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया है. कई प्रवासियों को उनकी बकाया मज़दूरी नहीं दी गई. कबाड़ के कारख़ानों, ज़री फैक्ट्री और छोटे कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले मज़दूरों के पास उनके औज़ार के अलावा कुछ नहीं बचा. कई के पास राशन कार्ड नहीं होने की वजह से सरकारी मदद उन तक नहीं पहुंची. बिना राशन कार्ड वालों को सूखा राशन नहीं देने के फ़ैसले और इसकी जगह खाने का पैकेट मिलने से वो खाने-पीने के सामान के लिए न सिर्फ़ दूसरों पर निर्भर हो गए बल्कि सरकार की बदलती नीतियों और डिलीवरी सिस्टम के पीड़ित भी बन गए. प्रवासी मज़दूर मौजूदा भूख और अनिश्चितता के संकट के पीड़ित बन गए हैं.
आजीविका का नुक़सान
2011 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) के द्वारा एम-ईस्ट वार्ड में 23 हज़ार से ज़्यादा घरों के एक सर्वे के मुताबिक़ नौकरी कर रहे 20 प्रतिशत से कम लोग मासिक वेतन वाले नियमित रोज़गार में थे. 40 प्रतिशत लोग अस्थायी मज़दूरी करते थे और बाक़ी लोग स्व-रोज़गार पर निर्भर थे (ज़्यादातर लघु उद्योग जैसे वेंडिंग, मरम्मत, ड्राइविंग). नियमित नौकरी करने वाले 88 प्रतिशत लोगों के पास काम-काज से जुड़े फ़ायदे जैसे पेड लीव, मेडिकल कवर, प्रॉविडेंट फंड और इंश्योरेंस नहीं थे. इस तरह ज़्यादातर परिवार आर्थिक रूप से कमज़ोर थे. पिछले कुछ वर्षों के दौरान हो सकता है कि आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ हो लेकिन इस वार्ड में अभी भी आर्थिक कमज़ोरी पूरी तरह से वास्तविकता है. लॉकडाउन की वजह से वेंडिंग, गैर-ज़रूरी सामानों की बिक्री करने वाली दुकानों और कंस्ट्रक्शन, घरेलू काम-काज, मरम्मत जैसी आर्थिक गतिविधियों पर पाबंदी लग गई. लॉकडाउन ने नियमित नौकरी करने वालों पर भी असर डाला. अपनी बचत के सहारे कुछ दिन उन्होंने बिताए. अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से बेहतर निवासियों की बचत भी दो महीने के लॉकडाउन में ख़त्म हो गई.
राशन के लिए हंगामा
राशन के लिए बढ़ता हंगामा नज़दीकी तौर पर आजीविका के नुक़सान से जुड़ा है. मुंबई में खाद्य राहत नीति का स्वभाव बिना अधिकार की समझ के साथ-साथ निश्चित डिलीवरी की जगह की गैर-मौजूदगी का भी रहा है. हालांकि, सीमित क्षमता के साथ NGO और सिविल सोसायटी ने इस अंतर को भरने की कोशिश की है. समानांतर डिलीवरी की प्रक्रिया के कारण भी कुछ गड़बड़ी है. जब हर घर राशन की मांग कर रहा है तो ये कोशिश की गई कि किसी को दो बार राशन नहीं मिले लेकिन दूसरी तरफ़ एक बड़ी आबादी राहत पैकेज से वंचित रह गई. राशन ट्रक और खाद्य वितरण की दूसरी गाडियां आने पर बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हो जाते हैं और इस दौरान खाद्य सामग्रियों की लूट और मारपीट की घटनाएं भी होती हैं. खाद्य वितरण के दूसरे तरीक़ों में छल-कपट, जमाखोरी और पक्षपात के आरोप लगते हैं. इसका परिणाम ये हुआ है कि खाद्य सुरक्षा की जगह व्यापक अनिश्चितता और भूख पैदा हुई है. नतीजतन दशकों से साथ रहने वाले लोगों के बीच आपसी अविश्वास बढ़ा है.
सरकार अपने कर्मचारियों और प्रतिनिधियों के ज़रिए काम करती है. लेकिन महामारी के दौरान पुलिस सरकार का चेहरा बन गई है. बस्तियों में नियम तोड़ने वालों पर पुलिस नज़र रखती है और शहर के बाहर आने-जाने के लिए पास जारी करती है.
सोशल डिस्टेंसिंग कहां है?
मीडिया में इस बात की काफ़ी चर्चा हुई है कि किस तरह अनियमित बस्तियों में रहने वाले लोग अंदरुनी सड़कों पर भीड़ जमा कर सोशल डिस्टेंसिंग को नाकाम कर रहे हैं और इसकी वजह से संक्रमण का फैलाव बढ़ा है. लेकिन मीडिया में जिस बात को नही कहा गया, वो है इस तरह के इलाक़ों में पानी और साफ़-सफ़ाई की कमी. एम-ईस्ट वार्ड में ऐसी बस्तियां भरी पड़ी हैं जहां एक शौचालय का इस्तेमाल 276 से ज़्यादा लोग करते हैं. साथ ही 10 से ज़्यादा बस्तियों में क़ानूनी तौर पर पानी की सप्लाई नहीं है. इस हालात के बारे में स्थानीय प्रशासन को पता है. TISS के एम-वार्ड प्रोजेक्ट के तहत महानगरपालिका अधिकारियों से विचार-विमर्श का आयोजन किया गया है, साफ-सफ़ाई की हालत बेहतर करने के लिए वैकल्पिक प्रस्ताव तैयार किया गया है, 300 घरों में शौचालय बनाने के लिए आवेदन दिया गया है और बस्तियों में पानी की सप्लाई के लिए कई बार कोशिशें की गई हैं. इनमें से कुछ ही पहल का ठोस नतीजा निकला है. ऐसे में शौचालय के बाहर लंबी लाइन, दो-तीन दिन पर एक बार आने वाले टैंकर के पानी के लिए लोगों की भीड़ लाजमी है. TISS के सर्वे के मुताबिक़ 73 प्रतिशत परिवार टिन की छत वाले 10×15 के एक कमरे वाले घर में रहते हैं. ऐसे परिवारों के लिए लॉकडाउन के दौरान घर पर रहना एक अलग मतलब हासिल करता है. जब दरवाज़े पर कुछ उपलब्ध नहीं हो तो बाहर निकलना विकल्प नहीं ज़रूरत है.
कहां है सरकार? कौन है सरकार?
सरकार अपने कर्मचारियों और प्रतिनिधियों के ज़रिए काम करती है. लेकिन महामारी के दौरान पुलिस सरकार का चेहरा बन गई है. बस्तियों में नियम तोड़ने वालों पर पुलिस नज़र रखती है और शहर के बाहर आने-जाने के लिए पास जारी करती है. जब किसी गली या इमारत को कंटेनमेंट ज़ोन घोषित किया जाता है तो पुलिस वहां पर मौजूद रहती है. जब सरकार के द्वारा राहत का काम शुरू किया जाता है तो वहां भी पुलिस सुरक्षा के लिए रहती है. अवैध धंधों का अड्डा (साथ ही गैर-क़ानूनी ताक़त का स्रोत भी) कही जाने वाली अनियमित बस्तियों के साथ पुलिस प्रणाली के संबंधों की कमज़ोरी को देखते हुए सवाल ये है कि क्या महामारी के वक़्त पुलिस को सरकार का सबसे बड़ा चेहरा होना चाहिए. एम-ईस्ट जैसे वार्ड जहां ऐसी हालत में अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं हैं- अस्पताल के नाम पर दूसरे दर्जे का शताब्दी अस्पताल सबसे शीर्ष पर और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा में भारी कमी- वहां पुलिस को सरकार का सबसे बड़ा चेहरा नहीं होना चाहिए. स्वास्थ्य पर काम करने वाले लोगों को चेहरा बनाना चाहिए था जो लोगों को बचने का तरीक़ा बताते, फीवर क्लिनिक की शुरुआत करते, क्वॉरंटीन और केयर सेंटर बनाते, आइसोलेशन का महत्व बताते और बीमारियों का इलाज करते. लेकिन इसकी जगह पाया गया है कि दूसरी देखभाल जैसे गर्भावस्था को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया है, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के ज़रिए पोषण को छोड़ दिया गया है, इलाक़े में प्राइवेट क्लिनिक बंद हैं और निजी और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को ऊपर से नीचे तक सुझावों से भर दिया गया है. उदाहरण के तौर पर कंटेनमेंट ज़ोन घोषित कर दिए गए हैं लेकिन लोगों को ये नहीं बताया गया है कि इसका मतलब क्या है. किसी भी हिदायत का पालन नहीं किया जा रहा है. फीवर क्लिनिक में जिन लोगों के बुखार का पता लगाया गया है, उन्हें ये नहीं मालूम है कि इसके बाद क्या करना है. दूसरी कई बीमारियों के इलाज के लिए कोई ठिकाना नहीं है. कोविड-19 पॉज़िटिव लोगों के लिए भी तौर-तरीक़े बेहद जटिल हैं. ज़्यादातर चुने हुए पार्षदों को लोग राशन के लिए खदेड़ रहे हैं और इसकी वजह से समानांतर डिलीवरी सिस्टम बना है जिसकी चर्चा ऊपर की गई है. कुल मिलाकर एम-ईस्ट वार्ड में सरकार की मौजूदगी जो पहले ही कम थी, इस संकट काल में व्यापक होने के बदले अब और कम हो गई है. नतीजतन लोगों की देखभाल के बदले निगरानी बढ़ गई है और पुलिस का मतलब रक्षा और सेवा हो गया है.
कुल मिलाकर एम-ईस्ट वार्ड में सरकार की मौजूदगी जो पहले ही कम थी, इस संकट काल में व्यापक होने के बदले अब और कम हो गई है
निष्कर्ष
एम-ईस्ट वार्ड मुंबई की योजना और शासन प्रणाली की कई ग़लतियों का प्रतीक है. शहर की दूसरी बड़ी अनियमित बस्तियों की तरह इसकी मज़बूती अलग-अलग समुदायों की मौजूदगी है. लेकिन बार-बार के संकट ने लोगों को शहर पर भरोसा खोने के लिए मजबूर कर दिया है. बड़े पैमाने पर लोगों के पलायन और बस्तियों के खाली होने को संकेत के तौर पर लिया जाए तो भरोसे की जगह डर कायम हो गया है.
कई महत्वपूर्ण सवाल हैं जिनका जवाब मिलना चाहिए. उदाहरण के तौर पर, क्या लोगों का वापस लौटना मुमकिन है. इसके अलावा जो लोग एम-ईस्ट जैसे वार्ड में अभी भी रहते हैं, उन्हें क्या हम कुछ सहायता और मौक़े की निश्चितता दे सकते हैं. ये समझना ज़रूरी है कि यहां रहने वाले लोग भी हमारे देश के नागरिक हैं और महामारी से उनकी कमज़ोरी दशकों तक नज़रअंदाज़ करने से जुड़ी हुई है. ये सभी सवाल और चिंताएं इस वक़्त की ज़रूरत पर ख़त्म होती हैं जो है ज़्यादा निष्पक्ष तरीक़े से महामारी का जवाब.
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