Published on Dec 23, 2020 Updated 0 Hours ago

शहरों में गाड़ियों के चलने से ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में काफ़ी योगदान देता है. पिछले 40 वर्षों के दौरान भारत में गाड़ियों की संख्या में तेज़ बढ़ोतरी देखी गई है जिसकी वजह से भारतीय शहरों में प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से काफ़ी आगे पहुंच गया है.

जलवायु में बेहतरी की ओर: शहरी भारत में स्वच्छ आवागमन की पहल का अर्थ

दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने 2020 की शुरुआत में जलवायु आपातकाल का एलान किया. हाल के वर्षों में बेहद ख़राब मौसम की घटनाओं में बढ़ोतरी को देखते हुए पहली नज़र में एक मूलभूत धारणा जैसे जलवायु में बेहतरी अलग-अलग शहरी एजेंडा और विकास की योजना की परिकल्पना में महत्वपूर्ण जगह पाने लगी है.

अनुमानों के मुताबिक़ 2050 तक दुनिया भर की दो-तिहाई आबादी शहरों में रहने लगेगी. शहरों में रहने के जोख़िम, ख़ास तौर पर पर्यावरण से जुड़े जोख़िम में कई गुना बढ़ोतरी को देखते हुए शहरों की बेहतरी मुख्य मुद्दा बनने लगा है. पूरे विश्व में शहरों में प्रदूषण का बढ़ता स्तर पर्यावरण में उथल-पुथल का मूल कारण है. शहरों में गाड़ियों के चलने से ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में काफ़ी योगदान देता है. पिछले 40 वर्षों के दौरान भारत में गाड़ियों की संख्या में तेज़ बढ़ोतरी देखी गई है जिसकी वजह से भारतीय शहरों में प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से काफ़ी आगे पहुंच गया है. प्राइवेट गाड़ियों की बढ़ती संख्या की वजह से शहरों में ट्रैफिक सुस्त हो गया है. ये समस्या हमें शहरों की जलवायु में बेहतरी करने के साथ स्वच्छ आवागमन की पहल पर फौरन ध्यान देने की ज़रूरत बताती है.

प्राइवेट गाड़ियों की बढ़ती संख्या की वजह से शहरों में ट्रैफिक सुस्त हो गया है. ये समस्या हमें शहरों की जलवायु में बेहतरी करने के साथ स्वच्छ आवागमन की पहल पर फौरन ध्यान देने की ज़रूरत बताती है.

वर्तमान में भारत में 53 शहर ऐसे हैं जिनकी आबादी 10 लाख से ज़्यादा है. 2030 तक भारत में ऐसे शहरों की संख्या बढ़कर 87 हो जाएगी. इन शहरों में होने वाली औद्योगिक और आर्थिक गतिविधियां जीडीपी में 60-65% का योगदान देती हैं. इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि ये शहरी इलाक़े भारत के आर्थिक विकास के इंजन हैं. किसी भी शहर की कार्यक्षमता और उत्पादकता सीधे तौर पर स्वच्छ पर्यावरण और आने-जाने में आसानी पर निर्भर हैं. ऐसे में भारतीय शहरों को स्वच्छ रखने के लिए उचित योजना के साथ कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है.

शहरीकरण का नतीजा यात्रा में बढ़ोतरी के रूप में सामने आया है और इसकी वजह से गाड़ियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. ज़्यादा गाड़ियों ने शहरों को ख़तरे में डाल दिया है क्योंकि गाड़ियों की वजह से वायु प्रदूषण बढ़ता है और लोगों की सेहत और जलवायु पर ख़राब असर पड़ता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़ दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित 15 शहरों में से 14 शहर  भारत में हैं. वायु प्रदूषण न सिर्फ़ सेहत पर असर डालता है बल्कि विश्व बैंक के मुताबिक़ वायु प्रदूषण की वजह से भारत के आर्थिक कल्याण में भी जीडीपी के 7.7% के बराबर नुक़सान का अनुमान है. भारत के बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और पुणे में पहले से वायु प्रदूषण के सुरक्षित स्तर से 40% ज़्यादा प्रदूषण है (पीएम 2.5 के मुताबिक़). गाड़ियों से निकलने वाली गैस का उत्सर्जन वायु प्रदूषण में 30-35% योगदान करता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़ दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित 15 शहरों में से 14 शहर  भारत में हैं.

ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण से भारतीय शहरों को बड़ा नुक़सान

वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी के अलावा गाड़ियों के चलने से ट्रैफिक की रफ़्तार भी सुस्त होती है. भारत के संदर्भ में ट्रैफिक जाम का परिदृश्य इस तरह है कि दुनिया के 10 में से 4 सबसे ज़्यादा भीड़भाड़ वाले शहर भारत में हैं. शहरों में भीड़भाड़ की वजह से कहीं आने-जाने में ज़्यादा समय लगता है. इसकी वजह से कामकाज करने वाले लोगों का काफ़ी समय बर्बाद होता है. इस समय का इस्तेमाल उत्पादक काम में किया जा सकता था. यानी भीड़भाड़ की वजह से पूरे शहर की उत्पादकता कम होती है. उदाहरण के लिए, दुनिया के सबसे ज़्यादा भीड़ भरे शहर बेंगलुरु के आकलन बताते हैं कि शहर के 1.18 करोड़ नागरिक हर साल भीड़भाड़ की वजह से 60 करोड़ घंटे बर्बाद करते हैं. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरु- चारों शहरों को मिलाकर हर साल 22 अरब अमेरिकी डॉलर का नुक़सान भीड़भाड़ की वजह से होता है. अकेले राजधानी दिल्ली को हर साल 10 अरब अमेरिकी डॉलर का नुक़सान होता है. साफ़ है कि गाड़ियों के चलने से होने वाले ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण ने भारतीय शहरों को बहुत नुक़सान पहुंचाया है.

आने-जाने की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कई दूसरे देशों की तरह भारत ने भी सड़क और फ्लाइओवर निर्माण को प्राथमिकता दी है जबकि परिवहन के दूसरे साधनों और पैदल चलने वालों के लिए बुनियादी ढांचे को बेहतर करने को नज़रअंदाज़ किया है. टहलने और साइकिल चलाने के बुनियादी ढांचे या तो नहीं हैं या जहां हैं भी वहां ज़रूरत से कम हैं. इस तरह साइकिल से या पैदल चलना ख़तरनाक बन गया है और इससे अपनी गाड़ियों से चलने को प्रोत्साहन मिला है. नतीजतन भारत में हर दशक में प्राइवेट गाड़ियां दोगुनी हो रही हैं जबकि पहले से ही ख़तरनाक प्रदूषण की वजह से शहरों का दम घुट रहा है.

पहले ही इतना ज़्यादा नुक़सान हो चुका है कि भारत में आने-जाने को कम करना बेहद ज़रूरी है ताकि शहरों में ज़हरीली गैस का उत्सर्जन कम हो सके. ऐसा करने से न सिर्फ़ शहरों की कार्यक्षमता बढ़ेगी बल्कि अंतत: जलवायु भी अच्छी होगी.

ये ध्यान रखने योग्य बात है कि केंद्रीय और स्थानीय- दोनों सरकारें कई तरह की पहल लेकर आई हैं जैसे राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति, ऑटो ईंधन विज़न और नीति, और राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन प्लान 2020. स्थानीय स्तर पर मुंबई, दिल्ली और बेंगलुरु की नगर निगमों ने सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने के लिए इनोवेटिव फाइनेंसिंग के साथ डिजिटल और क्वालिटी बेहतरी के तरीक़ों को चुना है.

ये पुरानी दलील है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने से सड़कों पर गाड़ियों की संख्या में कमी आएगी और प्राइवेट गाड़ियों का इस्तेमाल घटेगा. लेकिन भारत में प्रति हज़ार नागरिकों पर बसों की उपलब्धता सिर्फ़ 1.2 है. विकासशील देशों में ये सबसे कम है. इसलिए मुद्दे की जटिलता को देखते हुए भारतीय संदर्भ में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा एक ठोस समाधान है. हालांकि ये एकमात्र समाधान नहीं है. विस्तार से वायरस के फैलने की जानकारी के अभाव में और मौजूदा सामाजिक दूरी के उपाय पर्याप्त हैं या नहीं, इस पर बहस को देखते हुए सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल से संक्रमण के जोख़िम को लेकर मानसिक उन्माद में बढ़ोतरी हुई है. इसका नतीजा भारतीय शहरों में रोज़ाना सार्वजनिक परिवहन के यात्रियों में कुछ लाख की कमी के रूप में सामने आया है. इस तरह पहले से बदहाल सार्वजनिक परिवहन का सेक्टर कठिन दौर से गुजर रहा है.

इससे पता चलता है कि बिना गाड़ी वाले परिवहन के हिस्से को समान रूप से बढ़ाने की ज़रूरत है. इसके लिए ये करना होगा कि गाड़ी से आने-जाने को इस तरह बनाया जाए कि लोग पैदल चलना ज़्यादा पसंद करें. पैदल लोगों के लिए बुनियादी ढांचे और सुरक्षित पैदल रास्ते की उपलब्धता शहर विशेष के मुताबिक शहरी डिज़ाइन के दिशा-निर्देश बनाकर किया जा सकता है. पुणे इस तरह का समाधान लेकर आया है. इसके लिए वहां सड़कों की डिज़ाइन नीति का मसौदा तैयार करने में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाई गई है.

स्वच्छ परिवहन और आने-जाने में आसानी के लिए पहल के साथ एक व्यापक, आवागमन की योजना की रूपरेखा को जोड़ने की ज़रूरत है.

भारत में आवागमन की चुनौतियों के आकार और जटिलता को देखते हुए एक व्यापक रूपरेखा की ज़रूरत है जो समस्या को पूरी तरह से ख़त्म कर सके. आबादी का ज़्यादा घनत्व, गाड़ियों की संख्या में बढ़ोतरी और भारतीय शहरों में पहले से काफ़ी ज़्यादा प्रदूषण को देखते हुए भारतीय संदर्भ में अनुकूल दृष्टिकोण की ज़रूरत है. चूंकि जलवायु परिवर्तन का असर लगातार भारतीय शहरों में साफ़-साफ़ दिख रहा है, ऐसे में स्वच्छता बनाने के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के उद्देश्य में महामारी की वजह से कमी नहीं आनी चाहिए. इसके बदले इसे आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग पर वित्तीय बोझ घटाने के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए जो मुख्य रूप से सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का इस्तेमाल करते हैं. लोगों के इकट्ठा होने, अलग होने और हाज़िरी की रणनीति के लिए क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नियम बनाने के लिए मौजूदा प्रचलित नियमों के अलावा प्राइवेट सेक्टर से बड़े बदलाव की ज़रूरत है. स्वच्छ परिवहन और आने-जाने में आसानी के लिए पहल के साथ एक व्यापक, आवागमन की योजना की रूपरेखा को जोड़ने की ज़रूरत है. ये भारतीय शहरों को जलवायु के हिसाब से बेहतर करने और टिकाऊ भविष्य के लिए अनिवार्य है.

अतिरिक्त टिप्पणी:

चूंकि ज़्यादातर भारतीय शहर पहले से प्रदूषित हैं, ऐसे में शहरों के बुनियादी ढांचे की क्षमता को लेकर ख़तरनाक चिंता है. वर्तमान में इन बुनियादी ढांचों में बढ़ोतरी और सुधार करने या नये निर्माण की ज़रूरत है. उधर शहरों में बेहद ख़राब मौसम की वजह से हर साल 900-1000 करोड़ रुपये का नुक़सान  हो रहा है. सिर्फ़ 2018 में इसकी वजह से 3,700 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ जो उस साल पर्यावरण बजट के एक-तिहाई हिस्से से ज़्यादा है. वैश्विक जलवायु जोख़िम इंडेक्स 2020 के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन के असर के मामले में भारत दुनिया का पांचवां सबसे संवेदनशील देश है.

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