Author : Renita D'souza

Published on Jan 04, 2021 Updated 0 Hours ago

कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए लागू किए जा रहे उपायों को सरकार इस तरह लागू नहीं कर सकती कि वह कृषि संकट के विभिन्न आयामों को एक दूसरे से कट कर यानी अलग अलग रूप से देखें और उनसे निपटने की कार्रवाई करें.

(तीन) नए कृषि क़ानून: गंवाया जा रहा एक अवसर या हो रहा है कृत्रिम हस्तक्षेप?

भारत में कृषि व्यवस्था में सुधार से जुड़े तीन विवादास्पद विधेयक यानी- किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य, संवर्धन व सुविधा विधेयक (Farmers’ Produce Trade and Commerce Promotion and Facilitation), मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण व संरक्षण) समझौता अध्यादेश (Agreement of Price Assurance and Farm Services) और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम (Essential Commodities Amendment Act) को संसद द्वारा पारित किए जाने और राष्ट्रपति के द्वारा मंज़ूरी दिए जाने के बाद क़ानूनों का दर्जा हासिल हो चुका है. इन बिलों को प्रस्तावित करने को लेकर सरकार का तर्क स्पष्ट रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास को बढ़ावा देना रहा है. सरकार का मानना है कि ये क़ानून खेती-किसानी से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं के विकास और कृषि उत्पादन के लिए आपूर्ति श्रृंखलाओं को मज़बूत बनाने के लिए निजी संस्थाओं द्वारा निवेश को आकर्षित करने की दिशा में काम करेंगे.

यह उम्मीद की जा रही है कि अनुबंध खेती (contract farming) यानी ठेके पर होने वाली खेती से जुड़े क़ानून से किसानों को अपनी उपज के लिए, पूर्व-बातचीत के ज़रिए तय की गई कीमतों पर कृषि-व्यवसाय से जुड़े उद्यमों के साथ अनुबंध करने की सुविधा मिलेगी.

कृषि बाज़ार से जुड़ा विधेयक किसानों को यह छूट प्रदान करता है कि वह कृषि उपज बाज़ार समिति यानी एपीएमसी (Agricultural Produce Market Committee-APMC) की ‘मंडियों’ के बाहर अपनी पसंद के यानी चुने हुए ग्राहकों को उपज बेच सकते हैं. यह माना जा रहा है कि इससे किसानों को अपनी उपज को प्रतिस्पर्धी दामों पर बेचने का अवसर मिलेगा और परिवहन पर आने वाली लागत पर की गई बचत के माध्यम से वह बेहतर पारिश्रमिक मूल्य अर्जित करने में सक्षम होंगे. यह उम्मीद की जा रही है कि अनुबंध खेती (contract farming) यानी ठेके पर होने वाली खेती से जुड़े क़ानून से किसानों को अपनी उपज के लिए, पूर्व-बातचीत के ज़रिए तय की गई कीमतों पर कृषि-व्यवसाय से जुड़े उद्यमों के साथ अनुबंध करने की सुविधा मिलेगी. इसके अलावा आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल उत्पादों जैसे खाद्य तेलों, प्याज और आलू को इस सूची से हटाकर उन पर लगी स्टॉक-होल्डिंग की सीमा को समाप्त कर देगा. ये बिल छोटे और सीमांत किसानों के लिए कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए निजी संस्थाओं के साथ सहयोग के माध्यम से और तकनीक के उपयोग के ज़रिए उन्हें सहयोग प्रदान किए जाने की कल्पना करते हैं. सवाल यह है कि यह तर्क और दावे क्या पूरी तरह से खोखले और बेमानी हैं, या फिर इनके तहत वो सभी लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं, जो कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़ी समस्याओं को ख़त्म करने और किसानों के दुख का समाधान ढूंढने का काम करें? क्या यह विधेयक कृषि से जुड़ी आय को दोगुना करने की क्षमता रखते हैं?

कृषि बाज़ारों में सुधार से जुड़े बिल प्रस्तावित किए जाने से पहले, कृषि उपज बाज़ार समितियां, व्यापारियों और कमीशन एजेंटों के बीच गुट बना कर काम करने के लिए कुख्यात थीं, जिससे प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं मिल पाता था और किसानों के पास अपनी उपज का सही दाम तय करने की ताक़त नहीं रहती थी. इसके चलते, कृषि उपज बाज़ार समितियों में किसानों का पक्ष कमज़ोर पड़ जाता था और उन्हें बेहतर ढंग से सौदेबाज़ी करने का अवसर नहीं मिलता था. अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि सही मूल्य खोजने में पारदर्शिता की कमी, जमाखोरी और किसानों को नुकसान में रख कर की जाने वाली गुटबाज़ी लंबे समय से इन बाज़ारों के सही ढंग से काम न करने के लिए ज़िम्मेदार है. राज्य-विशिष्ट एपीएमसी अधिनियमों यानी कृषि उपज बाज़ार समितियों के संचालन को लेकर बनाए गए अलग अलग राज्यों के अलग अलग नियमों व तौर तरीकों ने एकीकृत राष्ट्रीय बाज़ार के उद्भव की नींव डाली. यह विधेयक, जिसे इन्हीं स्पष्ट कारणों के लिए “एपीएमसी बाईपास बिल (APMC Bypass Bill)” के रूप में भी जाना जाता है, इन अक्षमताओं से निपटने का उद्देश्य रखता है और इसके लिए “किसानों और व्यापारियों को अपनी पसंद के चुनाव की स्वतंत्रता दिए जाने से संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र बनाने” और “इलेक्ट्रॉनिक व्यापार के लिए सुविधाजनक ढांचा” तैयार करने की पहल करता है.

आवश्यक वस्तु अधिनियम 2020

आवश्यक वस्तु अधिनियम के संशोधन से पहले, आवश्यक वस्तुओं पर लगी स्टॉकिंग सीमाएं और प्रतिबंध बहुत हद तक यादृच्छिक यानी बिना किसी परिपाटी व सोच विचार के लागू किए गए थे. यह प्रतिबंध अक्सर कटाई के बाद के भंडारण और भंडारण व प्रसंस्करण में निजी निवेश को रोकने का काम भी करते थे. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020, मूल्य परिवर्तन के आधार पर पूर्व-निर्धारित तंत्र की स्थापना करके उस व्यवस्था में बदलाव की शुरुआत का लक्ष्य रखता है, जिसके तहत वर्तमान में स्टॉकिंग सीमाएं निर्धारित की जाती हैं और जिसके चलते स्टॉकिंग सीमाओं को लेकर लगातार अनिश्चितता बनी रहती है.

इसके अवाला, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौते से जुड़ा अध्यादेश, 2020 या फिर अनुबंध कृषि से जुड़ा विधेयक, किसानों और प्रायोजकों के बीच लिखित समझौतों का एक खाका तैयार करने का प्रयास करता है.

एक मज़बूत विनियामक ढांचे की अनुपस्थिति में कार्टेलिज़ेशन यानी व्यापारियों व बिचौलियों की गुटबाज़ी के ख़िलाफ़ छोटे और सीमांत किसानों की सौदेबाजी की ताक़त को बढ़ावा देने का लक्ष्य पूरी तरह से विफल हो जाएगा.  

ये तीनों ही बिल किसानों के लिए नए अवसर प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इनसे जुड़ा एक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या यह अवसर वास्तव में किसानों की क्षमताओं के हिसाब से सटीक और प्रासंगिक हैं. उदाहरण के लिए यह माना जाता है कि एपीएमसी बाईपास बिल किसानों को कृषि उपज बाज़ार समितियों से इतर दूसरी जगहों पर व्यापार करने का विकल्प प्रदान करता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या किसानों के पास इस स्वतंत्रता का उपयोग करने के लिए साधन हैं? इस बिल के तहत कई नए तरह के व्यापार क्षेत्रों और बिक्री व खरीद के लिए डिजिटल पोर्टल बनाए जाने की बात की गई है, लेकिन इन सभी माध्यमों के एकीकरण के लिए कोई तंत्र प्रदान नहीं किया गया है. ऐसे परिदृश्य को देखते हुए इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि इन नए क़ानूनों के तहत अमल में लाए जा रहे नए व्यापार क्षेत्रों व डिजिटल माध्यमों में काम करने वाले व्यापारी और कमीशन एजेंट, एक-दूसरे के साथ गुट नहीं बना लेंगे या फिर इस गुटबाज़ी से रोकने के लिए क्या विकल्प तैया किए गए हैं? एक मज़बूत विनियामक ढांचे की अनुपस्थिति में कार्टेलिज़ेशन यानी व्यापारियों व बिचौलियों की गुटबाज़ी के ख़िलाफ़ छोटे और सीमांत किसानों की सौदेबाजी की ताक़त को बढ़ावा देने का लक्ष्य पूरी तरह से विफल हो जाएगा.

इन सभी बिलों का उद्देश्य निजी संस्थाओं और किसानों के बीच लेन देन को बढ़ावा देना है. हालांकि हमेशा यह देखा गया है कि निजी खिलाड़ियों द्वारा किया जाने वाला निवेश, बेहतर ढंग से विकसित बुनियादी ढांचे वाले भौगोलिक क्षेत्रों और बड़े व इसके परिणामस्वरूप अधिक उत्पादकता वाले किसानों  के प्रति झुका रहता है,  ताकि उनके संचालन की लागत कम रहे. छोटे और सीमांत किसान, मंडियों में जाने के बजाय छोटे व्यवसायियों व डीलरों और आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़े अन्य हितधारकों के साथ सबसे अधिक व्यापार करते हैं. छोटे आकार के होल्डिंग्स यानी व्यापार के छोटे स्तर के चलते, निजी खिलाड़ियों के लिए इन छोटे किसानों (स्मॉलहोल्डर्स) के साथ अनुबंध आधार पर खेती करना महंगा सौदा साबित होता है. इसलिए, आम तौर पर प्राथमिकता बिचौलियों को दी जाती है, जो छोटे किसानों के साथ लेन देन करते हैं, या स्वयं कृषि उपज मंडियों से उनका माल खरीद कर उत्पादन जमा करते हैं. इस बात की बहुत कम संभावना है कि छोटे किसान अपनी उपज के लिए खरीददारों के विस्तारित पूल का एक हिस्सा बन सकेंगे और अनुबंध खेती के लिए निजी खिलाड़ियों के साथ मिलकर काम कर सकेंगे. ध्यान रहे कि भारत में 87 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत श्रेणी के हैं. यह तथ्य हमें इस बात को सोचने पर मजबूर करता है कि इन विधेयकों के ज़रिए बहुसंख्क किसानों की बेहतरी के लिए किस तरह काम किया जा सकेगा.

रणनीति और ज़मीनी सच्चाई में अंतर

सरकार के माध्यम से पारित किए गए कृषि बिल अपने परिणामों, उन्हें लागू किए जाने की रणनीतियों और ज़मीनी सच्चाई के मामले में बहुत हद तक अनिश्चितता का संचार करते हैं. हमारे देश में कृषि क्षेत्र में फैला गंभीर कृषि संकट इस हद तक अनिश्चितताओं को बर्दाश्त नहीं कर सकता है. देश में कृषि संकट को बेहतर व पूरी तरह से सोचे समझे हस्तक्षेप की ज़रूरत है. सैद्धांतिक रूप से देखें तो यह हस्तक्षेप इस तरह के होने चाहिए जो किसानों को सशक्त बनाएं. केवल नए अवसर उपलब्ध कराना इन हस्तेक्षेपों का लक्ष्य नहीं हो सकता. यह ज़रूरी है कि यह हस्तक्षेप आवश्यक रूप से बेहतर उत्पादकता की गारंटी दें और कृषि आय में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करें. सच यह है कि अब तक, कृषि क्षेत्रों में किए गए हस्तक्षेप वर्तमान कृषि बिलों की समान प्रकृति के ही रहे हैं. इसका परिणाम भी हमारे सामने है. आज़ादी के बाद से ले कर आज तक, कृषि आय में कम से कम वृद्धि.

देश में कृषि संकट को बेहतर व पूरी तरह से सोचे समझे हस्तक्षेप की ज़रूरत है. सैद्धांतिक रूप से देखें तो यह हस्तक्षेप इस तरह के होने चाहिए जो किसानों को सशक्त बनाएं. केवल नए अवसर उपलब्ध कराना इन हस्तेक्षेपों का लक्ष्य नहीं हो सकता. 

भारतीय अर्थव्यवस्था को रेखांकित करने वाले और लंबे समय से चले आ रहे गंभीर कृषि संकट के पीछे के बुनियादी कारणों में कृषि बाज़ारों व मंडियों में मौजूद विसंगतियां और अक्षमताएं शामिल हैं, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ है जो इस संकट को बढ़ावा देता है: खेती-किसानी की मानसून पर निर्भरता और प्रकृति की चरम अनिश्चितताओं व संघर्षों का सामना करने की किसान की कम से कम क्षमता, तकनीक तक किसानों की पहुंच में कमी जिसे अगर सुनिश्चित किया जा सके तो उपज व उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है साथ ही, सस्ती किस्तों पर संस्थागत ऋण यानी वित्तीय सहयोग की कमी. इन समस्याओं से निपटने के लिए कई तरह के उपायों को लागू किया गया है जैसे- रियायती ब्याज़ दर और प्राथमिकता क्षेत्रों के लिए ऋण की उपलब्धता. हालांकि, इनका प्रभाव शायद ही कभी ग़रीब किसानों को कर्ज़ के जाल से छुड़ाने और उनकी आय के स्तर को सुधारने से संबंधित रहा है. एक बार फिर ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि ये हस्तक्षेप अपनी प्रकृति में इस तरह सुझाए गए हैं कि उन्होंने कई तरह की संभावनाओं के लिए जगह छोड़ दी है.

सरकार के लिए ज़रूरी है कि छोटे और सीमांत किसानों को उन लोगों के साथ जुड़ने में सक्षम बनाया जाए जो प्राकृतिक अनिश्चितताओं से निपटने और उत्पादकता में सुधार करने के लिए तकनीकी समाधान प्रदान कर सकते हैं.

इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि कृषि बिल किसानों के हित में काम करें, उन्हें अन्य उपायों के साथ पूरक के रूप में देखा जाना चाहिए और उनके लागू होने से सामने आने वाली विभिन्न प्रतिकूल घटनाओं को दूर किए जाने के प्रयासों को भी अमल में लाने की आवश्यकता है. किसानों को इस तरह से सशक्त बनाने की आवश्यकता है जिस के ज़रिए वो कार्टेलिज़ेशन यानी गुटबाज़ी से लड़ सकें और बड़े कृषि व्यवसायियों के साथ बेहतर ढंग से बातचीत करने के लिए उन्हें सौदेबाज़ी की पर्याप्त ताक़त प्रदान की जाए. इन विधेयकों को उन उपायों के माध्यम से समर्थित किया जाना चाहिए जो किसानों को प्रकृति की अनिश्चितताओं से निपटने में सक्षम बनाते हैं. फसल ख़राब होने की स्थिति में बीमा उपलब्ध कराना समस्या को केवल एक ढंग से हल करने का नज़रिया है. सरकार के लिए ज़रूरी है कि छोटे और सीमांत किसानों को उन लोगों के साथ जुड़ने में सक्षम बनाया जाए जो प्राकृतिक अनिश्चितताओं से निपटने और उत्पादकता में सुधार करने के लिए तकनीकी समाधान प्रदान कर सकते हैं. यह देखते हुए कि छोटे और सीमांत किसान नवीनतम अत्याधुनिक तकनीक का खर्च नहीं उठा सकते हैं, उदाहरण के लिए ऐसी तकनीक जो खेती के नाज़ुक व सटीक तौर तरीकों को सक्षम बना सकती है, ऐसे में कृषि स्टार्टअप को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए (न कि मौजूदा कृषि बिल की तरह केवल प्लेटफॉर्म विकसित की रणनीति अपनाना). किराये पर उपकरण उपलब्ध कराने की अवधारणा पर आधारित व्यावसायिक मॉडल को बढ़ावा देने और उन तक पहुंच को सुनिश्चित करने की कोशिश किया जाना भी ज़रूरी है और जहां भी संभव हो वहां स्वामित्व से संबंधित मॉडल भी पेश किए जाने चाहिए.

वित्तीय समावेशी उपायों की ज़रूरत

इसके अलावा, वित्तीय समावेशन के उपाय जैसे कि क्रेडिट और बीमा यानी इंश्योरेंस को, एक ऐसे एजेंट को नियुक्त करने के साथ जोड़ा जाना चाहिए जो छोटे और सीमांत किसान को उर्वरकों यानी फर्टीलाइज़र और बीजों से संबंधित ज़रूरी जानकारियों के संदर्भ में निर्देशित करें और ताकि वह प्राप्त किए गए क्रेडिट का उपयोग सही रूप में करने को ले कर सक्षम हो सकें. इस में अंतर्निहित तर्क यह है कि किसानों को अधिकतम उत्पादकता की गारंटी मिले. इसे सुनिश्चित करने के लिए लागत प्रभावी और कुशल सिंचाई सुविधाओं के साथ आगे बढ़ना होगा. मार्गदर्शक सिद्धांत फसल की विफलता के दौरान समर्थन की गारंटी भी देता है, और सामान्य परिस्थितियों में आय का एक सभ्य स्तर लागू करने के साथ किसी भी अन्य घटना की संभावना को कम करता है. यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि ग़रीब और कमज़ोर किसान सबसे ख़राब स्थिति में क़र्ज के जाल में न फंसे और फसल व उपज के सब से बेहतर समय में वह अधिकतम लाभ प्राप्त करने में सक्षम हो सके.

यदि कोई इस मार्गदर्शक सिद्धांत पर विचार-विमर्श करता है, तो यह पता चलता है कि किसी भी परिस्थिति में सरकार उन उपायों को लॉन्च नहीं कर सकती है, जो कृषि संकट के विभिन्न आयामों को एक दूसरे से अलग करके देखते हैं, और अलग अलग तौर पर उन से निपटने की दृष्टि रखते हैं. कृषि की मानसून पर निर्भरता और संस्थागत ऋण की पर्याप्त कमी से निपटने के लिए ज़रूरी समाधानों को उपलब्ध करवाए बग़ैर, कृषि बाज़ारों में सुधार से संबंधित विधेयक पास करना इस समस्या को अलग-थलग रूप से हल करने की एक कोशिश है. ऐसा कर के सरकार ने इन क़ानूनों के तहत लघु और सीमांत किसानों के लिए उपलब्ध लाभ के अवसरों और इनसे मिलने वाली मदद का फ़ायदा उठाने की किसान की क्षमता का खाका बदल दिया है. इसलिए यह ज़रूरी है कि इन कानूनों के समर्थन में किसानों को एकजुट करने के लिए ऊपर सुझाए गए बहु-आयामी दृष्टिकोण को अपनाया जाए. नहीं तो, इस बात को सुनिश्चित करने का दारोमदार, कि इन कानूनों से होने वाले लाभ छोटे और सीमांत किसानों तक पहुंचें, निजी निवेशकों व खिलाड़ियों पर निर्भर करेगा, जिन के पास आमतौर पर ऐसा करने के लिए अधिक प्रोत्साहन नहीं होता है. कम से कम पारंपरिक अर्थों में हम ने अभी तक यह देखा है.

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