Published on Oct 09, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत को शरणार्थियों से संबंधित पुख्ता कानून बनाने की क्यों आवश्यकता है?

भारत और अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी: नए सिरे से विचार करने का समय?

बांग्लादेश में कुटुपालोंग शरणार्थी शिविर में एक बालक यूएनएचसीआर तिरपाल पर टेक लगाए खड़ा है।

स्रोत : यूएनएचसीआर/ट्विटर

भारत पिछले कई दशकों से बड़ी तादाद में शरणार्थियों को पनाह देता आया है, जिनमें मुख्यत: अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से आने वाले लोग तथा तिब्बती शामिल रहे हैं।  इसके बावजूद देश में शरणार्थियों के प्रवाह को सुगम और नियंत्रित बनाने के लिए कोई नीतिगत व्यवस्था या कोई पुख्ता कानून नहीं बनाया गया है। भारत ने शरणार्थियों की स्थिति के बारे में 1951 के संयुक्त राष्ट्र समझौते और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए थे और इसलिए भारत इस संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर कोई वैध व्यवस्था तैयार करने के लिए कभी विवश नहीं रहा।

गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजु की ओर से संसद में दिए वक्तव्य के अनुसार 2014 के ​आखिर तक विभिन्न राज्यों में तीन लाख से ज्यादा शरणार्थी आ चुके थे। बिना किसी कानून के भारत राजनीतिक और प्रशासनिक उपायों के माध्यम से शरणार्थियों के प्रवाह को संभालता आया है। इसलिए इनके प्रति भारत के रुख को काफी हद तक अनौपचारिक कहा जा सकता है, जिसके तहत अनेक तरह की प्रक्रियाएं और राहत एवं पुनर्वास के उपाय किए जाते हैं।शरणार्थियों का दर्जा तय करने के लिए उत्तरदायी कोई विशिष्ट एजेंसी या मशीनरी भी नहीं है। ऐसे में उनका दर्जा आवश्यक तौर पर भारत में विदेशियों पर लागू होने वाले घरेलू कानूनों के अंतर्गत निर्धारित किया जाता है जिनमें विदेशी अधिनियम, 1946, विदेशी पंजीकरण अधिनियम, 1939, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश), 1920, पासपोर्ट अधिनियम (1967), प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962, नागरिकता अधिनियम, 1954 और विदेशी आदेश, 1948 जैसे कानून शामिल हैं।

विभिन्न स्थानों पर लगभग 500,000 शरणार्थियों की मेजबानी कर चुके भारत को अपने कानूनों को अंतिम रूप देना चाहिए। ऐसा कानून विभिन्न शरणार्थी समूहों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करने के स्थान पर उनके साथ होने वाले व्यवहार के संदर्भ में बेहतर सामंजस्य स्थापित करेगा।


उदाहरण के तौर पर, चकमा शरणार्थियों के साथ व्यवहार के मामले में भारत का रिकॉर्ड ज्यादा अच्छा नहीं रहा और जिसकी वजह से सभी संदर्भों में भारत की ओर से किए गए अच्छे प्रयासों पर भी पानी फिर गया।


दो शरणार्थी समूह जो अच्छे से फले-फूले वे हैं श्रीलंकाई ​तमिल और तिब्बती, लेकिन कानून के अभाव में भारत को अक्सर शरणार्थियों के बीच भेदभावपूर्ण व्यवहार करता देखा गया है। इस साल अगस्त में संसद में एक प्रश्न के उत्तर में गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने कुछ शरणार्थी समूहों के लिए सरकार की ओर से किए गए प्रावधानों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। श्रीलंकाई तमिलों के बारे में, सरकार तमिलनाडु और ओडिशा के शिविरों में रहने वाले “श्रीलंकाई शरणार्थियों को राहत सहायता पहुंचाने के लिए योजना का संचालन करती है। उन्हें मासिक नकदी सहायता, सस्ता राशन, निशुल्क कपड़े, बर्तन, अंतिम संस्कार और श्राद्धकर्म के लिए अनुदान तथा शिविरों में बुनियादी सुविधाओं जैसी कुछ खास तरह की अनिवार्य राहत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।” इसी तरह, तिब्बती शरणार्थियों के लिए, सरकार ने 2014 में “तिब्बती पुनर्वास नीति का निर्माण किया और राज्यों को तिब्बती शरणार्थियों को सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं चाहे वे योजनाएं केंद्र सरकार की हों या राज्य सरकार की उन योजनाओं के लाभ उपलब्ध कराने का परामर्श दिया। सरकार ने देश में तिब्बती शरणार्थियों के सामाजिक कल्याण के लिए केंद्रीय तिब्बती राहत समिति (सीटीआरसी)को 2015-16 से 2019-20 तक पांच साल की अवधि के लिए 40 करोड़ रुपये का सहायता अनुदान प्रदान करने की योजना को भी मंजूरी दी है।”

समस्त शरणार्थी समूहों के लिए व्यापक उपाय भी बहुत कम रहे हैं हालांकि 2011 के आखिर में, भारत में शरणार्थी के दर्जे की मांग करने वाले विदेशी नागरिकों के मामलों से निपटने के लिए भारत ने मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) पेश की। इस प्रक्रिया के अनुसार, शरणार्थी के दर्जे का दावा करने वाले विदेशी की जांच की जाएगी और यदि उसका मामला वास्तविक पाया गया, तो उस महिला/पुरुष को दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) जारी किया जाएगा।


भारत को नीतिगत मसले पर बेहतर कदम उठाने होंगे, क्योंकि वह बहुत बड़ी मात्रा में वित्तीय और अन्य संसाधनों का आवंटन करता है और अपने मौजूदा मनमाने रवैये के कारण उसने अच्छा नाम नहीं कमाया… न तो शरणार्थियों के बीच और न ही पर्यवेक्षकों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच


इसके अलावा, यदि भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनसीएचआर) और प्रवासन के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईओएम) जैसी एजेंसियों के साथ समन्वय कायम करने में समर्थ हो सके, तो बोझ साझा करने पर विचार किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, अवैध प्रवासियों के रूप से चिन्हित किए गए लोगों की वापसी में सहायता कर सकता है। इस तरह की एजेंसियों के साथ जुड़ने से कुछ हद तक नियंत्रित पारदर्शिता सुनिश्चित हो सकेगी और इस प्रकार भारत के दृष्टिकोण और कार्यों की विश्वसनीयता को मजबूती मिलेगी।

साथ ही भारत जैसा देश, जिसने शरणार्थियों की मेजबानी में काफी हद तक उदारता बरती है, उसका लक्ष्य सामान्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में अपने रिकॉर्ड को बेहतर बनाना होना चाहिए। इसमें भारत द्वारा ऐसा कानून बनाने के लिए प्रयत्न करना शामिल होगा, जो शरणार्थियों और आश्रय मांगने वालों के साथ अपने व्यवहार में मानवाधिकार संबंधी मानकों को शामिल करते हुए वर्तमान में प्रदर्शित हो रहे अपने मनमानेपन से भी छुटकारा पा सके। उदाहरण के लिए, यदि कोई ऐसा कानून होता, जिसमें शरणार्थियों और आश्रय मांगने वालों के सत्यापन की प्रक्रियाएं और प्रणालियां निर्धारित होतीं, तो रोहिंग्या मामले से ज्यादा बेहतर ढंग से निपटा गया होता। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी वैश्विक शासन व्यवस्थाओं में व्यापक भूमिका की मांग कर रहा है।

बड़ी तादाद में शरणार्थियों को प्रवेश कराने के बावजूद, इस बारे में किसी तरह का राष्ट्रीय कानून न होने तथा इस पर अनौपचारिक दृष्टिकोण के साथ काम करने की वजह से भारत इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका नहीं निभा सका है। दूसरी ओर, यदि शरणार्थियों और आश्रय मांगने वालों के बारे में राष्ट्रीय कानून बनाया जाए, तो भारत के दृष्टिकोण में मौजूद अनियमितताएं दूर हो जाएंगी, उसे शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों को बेहतर रूप से वर्गीकृत करने में सहायता मिलेगी (एक बड़ी समस्या जिससे भारत कुशलतापूर्वक नहीं निपट सका है) और शरणार्थियों की बड़ी तादाद से निपटने के लिए बेहतर संसाधन भी जुटाए जा सकेंगे। इसकी बदौलत प्रक्रिया और मंजूरी के लिए गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक ही एजेंसी होगी, बेवजह का विलम्ब दूर किया जा सकेगा तथा तथा भारत के दृष्टिकोण में व्यापक सामंजस्य स्थापित हो सकेगा।


कानून बनाने को भारत द्वारा 1951 के समझौते में शामिल होने से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यदि भारत अभी तक इस समझौते के बारे में प्रभावशाली ढंग से कुछ महसूस करता है, तो वह इसका अंग बने बिना भी राष्ट्रीय स्तर पर कोई कानून बना सकता है।


शुरूआत में इस समझौते को शीत युद्ध के एक साधन के रूप में देखा गया था और इसलिए भी भारत इसमें शामिल नहीं हुआ था। लेकिन आज समीकरण बदल चुके हैं और भारत के लिए अब शायद अपनी स्थिति की समीक्षा करने का वक्त आ चुका है। संभवत: क्षमताओं से जुड़ी कुछ चिंताएं भी हो सकती हैं, जिनकी वजह से भारत इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करने के लिए विवश रहा हो। उदाहरण के लिए, इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से भारत को पड़ोस में बड़ा संघर्ष होने पर बड़ी संख्या में शरणार्थियों को अपने देश में दाखिल होने की अनुमति देनी होगी। प्रश्न यह उठता है कि भारत के पास इतनी बड़ी तादाद में शरणार्थियों को संभालने के लिए आवश्यक उपाय हैं या नहीं।

इसके अलावा, भारत को कुछ व्यवहारिक मामलों पर भी गौर करना होगा। उदाहरण के लिए, इस पर हस्ताक्षर करते ही भारत को शरणार्थियों को जबरन उनके देश नहीं भेजने संबंधी प्रावधानों का पालन करने सहित इस समझौते का पूरी तरह अनुपालन करना होगा। लेकिन इस प्रावधान का पालन तो भारत समझौते पर हस्ताक्षर किए बगैर भी कर रहा है। भारत यातना एवं अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड के विरुद्ध समझौता,1984 (जिसे यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौते के नाम से जाना जाता है — यूएनसीएटी) पर हस्ताक्षर करने की वजह से पहले से ही ये सभी कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध है। यूएनसीएटी के अनुच्छेद 3 “राष्ट्र के उत्तरादायित्व” के अंतर्गत “कोई भी राष्ट्र किसी व्यक्ति का किसी अन्य ऐसे देश के लिए निष्कासन, वापसी (दमन) या प्रत्यर्पण नहीं करेगा, जब इस बात पर यकीन करने का पुख्ता आधार हो कि उस व्यक्ति को उस देश में यातनाएं दिए जाने का खतरा है।” इसलिए, ऐसा नहीं है कि 1951 के समझौते पर हस्ताक्षर से भारत को अपनी मौजूदा कार्य पद्धतियों और रुख में बदलाव लाना होगा। फिर भी, भारत को समझौते में शामिल होने से पहले उसके भले-बुरे की पड़ताल करने के लिए इसकी व्यापक समीक्षा करनी चाहिए। इस समीक्षा का निष्कर्ष चाहे कुछ भी निकले, वह बीते दशकों के स्थान पर मौजूदा वातावरण और चिंताओं पर आधारित होना चाहिए। इस समझौते में शामिल होकर भारत इसमें प्रभावी बदलाव लाने की दिशा में बेहतर ढंग से प्रयास कर सकेगा।

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