Published on Nov 15, 2016 Updated 10 Days ago
भारत के सामने संक्रामक रोगों का बढ़ता खतरा

भारत की सुरक्षा को सीमा पार से खतरे के बारे में तो काफी कुछ कहा जा चुका है। लेकिन सुरक्षा को एक और तरह का खतरा है। एक ऐसा खतरा जो अभी भले ही ठीक तरह से नहीं दिख रहा हो, लेकिन आने वाले समय में इसका भारी नुकसान हो सकता है। यह तेजी से बढ़ते संक्रामक रोगों का खतरा है।

वर्ष 2016 के दौरान हमने चिकनगुनिया का प्रसार होते देखा जो उसी मच्छर के जरिए फैलता है जिससे डेंगू फैलता है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित जीका वायरस का प्रसार भी होते देखा। डेंगू, चिकनगुनिया, जीका और ऐसे कई रोगों के बारे में लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ये इमर्जिंग (उभरते) या (रीइमर्जिंग) दुबारा उभरते संक्रामक रोग हैं। इसका मतलब है कि ये ऐसे रोग हैं जो बिल्कुल नए हैं, या उस इलाके में इसका पहली बार प्रसार हो रहा है अथवा उसी इलाके में बहुत लंबे अंतराल के बाद दुबारा इसका प्रभाव हो रहा है।

डेंगू के मामले तो अब भारत ही नहीं पूरे एशिया में आम हो गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का आकलन है कि हर साल 39 करोड़ लोग इससे संक्रमित होते हैं। इनमें से 9.6 करोड़ लोगों में लक्षण साफ दिखाई देने लगते हैं। डेंगू नई बीमारी नहीं है। रोग, लक्षण और इलाज के चीन के उस एनसाइक्लोपीडिया में इसे दर्ज किया गया है जो पहली बार जिन वंश (265 से 420 ईस्वी) [i] के दौरान प्रकाशित हुआ। लेकिन 1970 से पहले सिर्फ नौ देशों ने ही इसके गंभीर प्रसार के बारे में जानकारी दी थी। लेकिन 2014 तक सौ से ज्यादा देशों में गंभीर किस्म का प्रसार होने लगा।

चिकनगुनिया वायरस की पहचान पहली बार 1952-53 में तंजानिया के उस मरीज में की गई थी, जो बहुत तेज बुखार का शिकार था। माना जाता है कि ‘चिकनगुनिया’ शब्द स्वाहिली या मकोंडे शब्द से बना है जिसका मतलब होता है विकृत या टेढ़ा हो जाना। चिकनगुनिया के कुछ मरीजों को इतना ज्यादा दर्द होता है कि वे अपने शरीर को मोड़ लेते हैं। इस वायरस का प्रसार भारत सहित पूरे एशिया में हो चुका है। भारत में अंतिम बार इसके मामले की पुष्टि 1971 में महाराष्ट्र के बारसी में हुई थी। [iii]

उसके बाद लगभग तीस साल तक यह छुपा रहा और फिर 2006 में नए सिरे से सामने आया।[iv] 2006 में इसने 13 राज्यों के 13 लाख से ज्यादा लोगों को प्रभावित किया। पुडुचेरी के वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के शोध के मुताबिक उस वर्ष इसका राष्ट्रीय बोझ 25,588 डिसेबलिटी एडजस्टेड लाइफ ईयर (यानी स्वस्थ्य जीवन के इतने वर्ष का नुकसान) हुआ। साथ ही इससे कम से कम 39 करोड़ रुपये की उत्पादकता प्रभावित हुई। हालांकि 2016 के वर्ष में हुए आउटब्रेक की वजह से पड़े कुल बोझ का अब तक आकलन नहीं हो सका है। चिकनगुनिया अब 60 से ज्यादा देशों में लोगों को प्रभावित कर रहा है और जन स्वास्थ्य की एक अहम समस्या बन चुका है। [v]

विश्व प्रसिद्ध स्वास्थ्य प्रकाशन लैंसेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक जीका वायरस भी चिकनगुनिया की ही राह पर है। हालांकि भारत में अब तक इसके एक भी मामले की पुष्टि नहीं हुई है। कुछ समय पहले तक इंसान में जीका वायरस के संक्रमण के मामले छिटपुट रूप से ही दिखते थे, लेकिन अब यह दुनिया भर में फैल गया है।

संक्रामक रोगों के लगभग एक तिहाई मामले वेक्टर जनित ही होते हैं जो मच्छर जैसे संवाहकों के जरिए फैलते हैं। इसके अलावा वायरल या बैक्टीरियल हो सकते हैं। जबकि कई मामलों में दवा प्रतिरोधी ओग्रेनिज्म की वजह से भी बीमारियां दुबारा आ रही हैं। पश्चिमी अफ्रीका में इबोला, मध्य-पूर्व में मर्स-सीओवी, चीन में एच7एन9 इनफ्लूएंजा, दक्षिण एशिया में नीपा, 2004 में सार्स, गुजरात में वेस्ट नील वायरस, क्रिमियन कांगो हेमरेजिक फीवर… नई उभर रही और दुबारा उभर रही बीमारियों की सूची लंबी है।

1940 के बाद से संक्रामक रोगों से प्रभावित होने वालों की संख्या बहुत बढ़ी है। हालांकि इसकी एक वजह ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में आई बढ़ोतरी भी है। अब कई नई बीमारियां आ गई हैं और आने वाले समय में हमारे सामने कई और नई बीमारियां आ सकती हैं, जिनसे लडऩे के लिए ना हमारे शरीर की क्षमता है और ना ही दवाएं हैं।

2008 में ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक संक्रामक रोगों के बढऩे की एक बड़ी वजह मानवशास्त्रीय और जनसांख्यिकीय बदलाव हैं। मच्छर जनित बीमारियों सहित वेक्टर जनित रोगों में आने वाली बढ़ोतरी को 1990 के दशक के दौरान जलवायु में आए बदलावों से जुड़ा पाया गया। इनमें तेज गर्मी और असामान्य बारिश जैसी मौसम की आक्रामकता शामिल हैं। इसलिए यह भी मुमकिन है कि जलवायु परिवर्तन इन बीमारियों के बढऩे की वजह बन रहा हो।

तेज जनसंख्या विस्फोट और तेजी से होता शहरीकरण भी इसके कारण बनते हैं क्योंकि इनकी वजह से इंसान और मच्छरों की निकटता बहुत बढ़ जाती है। इसी तरह तेजी से होने वाले शहरीकरण के लिए होने वाले निर्माण कार्य की वजह से डेंगू, चिकनगुनिया और जीका जैसे वायरसों को फैलाने वाले एडिस एजिप्टी और एडिस एलबोपिक्टस जैसे मच्छरों को पनपने की जगह पर्याप्त रूप से मिल जाती है।

इंसानों को हो रही संक्रामक बीमारियों में से कम से कम दो तिहाई जानवरों से आई हैं। इनमें सबसे ज्यादा की उत्पत्ति जंगलों में हुई है। इसलिए उन कारकों को समझना अहम हो जाता है जिनकी वजह से इंसान और जानवरों की निकटता बढ़ी है। जनसंख्या बढ़ोतरी और औद्योगीकरण या दूसरे कारणों से वनों का कटाव नई बीमारियों के पैदा होने में अहम भूमिका निभाता है। जब जंगल काट दिए जाते हैं तो जानवरों के पास मानवों के बसने वाले इलाके के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता, जिसकी वजह से मानव और जानवरों के बीच निकटता बढ़ जाती है।

उदाहरण के तौर पर मलेशिया में 1990 के दशक के दौरान एयरपोर्ट बनाने के लिए जंगल को काटा गया तो उसके बाद वहां नीपा वायरस का बड़ा हमला हुआ था क्योंकि उन जंगलों में रहने वाले चमगादड़ बड़ी तादाद में शहरों की ओर चले गए थे। ऐसे में अगर हम वन्य जीवन में मानवीय गतिविधियों को सीमित कर इसकी समृद्ध विविधता को बनाए रखने की कोशिश करें तो नई बीमारियों के फैलने का खतरा कम होगा।

कृषि संबंधी आदतें भी इसमें अपनी भूमिका निभा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर बहुत से इनफ्लूएंजा वायरस लोगों तक पोल्ट्री से ही पहुंचे हैं। बर्ड फ्लू के नाम से जाना जाने वाला एएच5एन1 वायरस हो या हाल में चीन में फैला ए(एच7एन9) इसी तरह के उदाहरण हैं।

आर्थिक रूप से इसका विभिन्न देशों पर होने वाला असर बहुत अधिक है। श्रमिकों को खोने की वजह से उत्पादकता में कमी आती है। सियेरा लियोन में इबोला की बीमारी फैलने के दौरान उन मजदूरों ने भी खदानों में जाने से इंकार कर दिया जो स्वस्थ थे। क्योंकि उन्हें संक्रमण का डर था। व्यापार और पर्यटन में होने वाले गिरावट की वजह से भारी घाटा होता है। सार्स के फैलने के दौरान चीन, हांग-कांग, सिंगापुर और वियतनाम में जीडीपी में 20 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

अपने अंदर के दुश्मन को काबू करना बहुत अहम है। इस लिहाज से पहला कदम होगा अपने दुश्मन की पहचान करना। इसके लिए हमें बेहतर निगरानी तंत्र खड़ा करना होगा ताकि लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह जान सकें कि किस इलाके में किसी बीमारी का प्रसार हो रहा है। उस बीमारी का प्रसार किस तरह हो रहा है। साथ ही इस आधार पर वे इसके अगले प्रसार के बारे में कुछ अनुमान भी कर सकेंगे। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी अनिवार्य है। ऐसी बीमारियों के प्रसार को रोकने के लिए शोध और अनुसंधान पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए सभी संसाधनों से लैस प्रयोगशालाएं खड़ी करने पर भी ध्यान देना होगा। अंत में यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे किसी भी प्रयास में आम लोगों को साथ लेना भी उतना ही जरूरी है।

लेखिका लोक स्वास्थ्य के क्षेत्र में 15 साल काम कर चुकी हैं। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से मोलीक्यूलर बायोलॉजी में पीएचडी की है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.