बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित सात देशों के समूह ‘बिम्सटेक’ का आइडिया अपने-आप में बड़ा ही दमदार है। दक्षिण एशिया में उप-क्षेत्रीय एकीकरण को मूर्त रूप देने के पूर्ववर्ती प्रयासों से अस्तित्व में आए सार्क की विफलताओं के कारण अब बिम्सटेक से ही ये उम्मीदें की जा रही हैं कि वह न केवल अपने दक्षिण एशियाई सदस्य देशों को और करीब लाने में, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया से इस क्षेत्र के संपर्क सूत्र को मजबूत करने में भी सफल साबित होगा। इस पेपर में बिम्सटेक की पुरजोर तरफदारी करने वाले कारकों (फैक्टर्स) पर करीबी निगाहें दौड़ाई गई हैं जिनमें निवेशकों की दिलचस्पी के साथ-साथ भौगोलिक दूरियों को कम करने में मददगार कनेक्टिविटी परियोजनाएं भी शामिल हें। इस पेपर में ठोस दलीलों के साथ यह कहा गया है कि बिम्सटेक आगे चलकर एक जीवंत समूह बन सकता है।
परिचय
भारत के प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल के दौरान अपनी पहली विदेश यात्रा बहुक्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक) के आरंभिक शिखर सम्मेलन में शिरकत करने के लिए की थी, जो जुलाई 2004 में बैंकॉक में आयोजित किया गया था। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अपनी अंतिम आधिकारिक यात्रा भी मार्च 2014 में एक बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में ही शिरकत करने के उद्देश्य से की थी, जो अपनी तरह की तीसरी बैठक थी और जिसे म्यांमार के नाय पी ताव में आयोजित किया गया था। बिम्सटेक के प्रथम शिखर सम्मेलन के बारह साल बाद इस क्षेत्रीय समूह के लिहाज से समय काफी तेजी से बदल रहा है। भारत ने अक्टूबर 2016 के मध्य में गोवा में आयोजित किए गए आठवें ब्रिक्स (ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका) शिखर सम्मेलन में इस समूह के राष्ट्राध्यक्षों को भी इस उम्मीद में आमंत्रित किया था कि सम्मेलन से इन दोनों समूहों के आपसी रिश्ते प्रगाढ़ होंगे। इस शिखर सम्मेलन में सीमित महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) करने की दिशा में तेजी लाने का निर्णय लिया गया।
भारत, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के सदस्य देशों वाले समूह दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की अत्यंत धीमी प्रगति के चलते ही बिम्सटेक को बढ़ावा देने की चर्चाएं अब जोर पकड़ने लगी हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव के चलते इस क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की जरूरत की निरंतर अनदेखी होती रही है। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान भारत को एक सर्वाधिक वरीयता प्राप्त राष्ट्र का दर्जा देने से इनकार करता रहा है। [1] हाल ही में सीमा पार आतंकवाद के बढ़ते खतरे के कारण 19वें सार्क शिखर सम्मेलन को स्थगित करना पड़ा, जिसे नवंबर 2016 में ही पाकिस्तान में आयोजित किया जाना था। जम्मू-कश्मीर के उरी स्थित एक भारतीय सैन्य अड्डे पर सितंबर महीने में हुए हमले के बाद ही यह निर्णय लिया गया।
अक्टूबर के आरंभ में अपनी भारत यात्रा के दौरान श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने आतंकवाद के मुद्दे का समाधान करने में नाकाम रहने के मद्देनजर सार्क के सदस्य देशों से इस दिशा में आगे आने को कहा है। उन्होंने कहा, ‘सीमा पार आतंकवाद के मसले पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करने की जरूरत है।’ उन्होंने कहा, ‘सार्क को इस पर गौर करना होगा और इस पर चर्चा करनी होगी कि आखिरकार क्या हुआ है [इस्लामाबाद में शिखर सम्मेलन का स्थगन]। हम इस समस्या से आखिरकार किस तरह निपटेंगे? सार्क को दो मुद्दों पर फैसला करना है - सीमा पार आतंकवाद और किन-किन क्षेत्रों में हम साथ मिलकर काम कर सकते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो सार्क का कोई भविष्य नहीं है।’
बिम्सटेक को इस संदर्भ में एक अत्यंत अभिनव रणनीति माना जाता है जिसके जरिए दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण के वर्तमान जटिल स्वरूप से निजात दिलाई जा सकती है। बिम्सटेक के जरिए ‘पाकिस्तान के बिना सार्क’ का अस्तित्व संभव है। वहीं, बेहतरी की उम्मीद में म्यांमार और थाईलैंड को इसमें जगह दी गई है। सार्क के अन्य सदस्य जैसे कि अफगानिस्तान और मालदीव बाद में सदस्यों के रूप में इसमें शामिल हो सकते हैं। बिम्सटेक वास्तव में दक्षिण एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच एक पुल है और मुख्यत: भारत की ही पहल पर इस क्षेत्रीय समूह से संबंधित हालिया कदम उठाए गए हैं। विभिन्न सदस्य देशों के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंधों के आधार पर इस समूह में नई जान फूंकने के लिहाज से भारत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैसे तो थाईलैंड अब तक इसका बीड़ा उठाता रहा है, लेकिन भारत की अगुवाई के बिना इस दिशा में भरपूर प्रगति संभव नहीं हो पाती।
इसके बावजूद जून 1997 में बड़े जोर-शोर से शुभारंभ होने के लगभग 20 वर्ष बाद भी बिम्सटेक सही अर्थों में कामयाबी की सीढि़यां नहीं चढ़ पाया है। पहले इसका नाम ‘बिस्ट-ईसी’ तब रखा गया था, जब इसने बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड को एकजुट किया था। बाद में नेपाल एवं भूटान वर्ष 2004 में इसमें शामिल हो गए। म्यांमार ने एक पर्यवेक्षक के रूप में वर्ष 1997 में इसकी पहली बैठक में भाग लिया था और उसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में आयोजित एक विशेष मंत्रिस्तरीय बैठक में वह एक पूर्णकालिक सदस्य के रूप में इसमें शामिल हो गया था। इसके बाद जुलाई 2004 में आयोजित प्रथम शिखर सम्मेलन में इस समूह के राष्ट्राध्यक्षों ने इसका नाम बदल कर ‘बिम्सटेक’ रखने पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी।
बिम्सटेक का मुख्य उद्देश्य बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित देशों के बीच तकनीकी और आर्थिक सहयोग सुनिश्चित करना है। गोवा में आयोजित बिम्सटेक आउटरीच शिखर सम्मेलन में ‘प्राथमिकता वाले 14 क्षेत्रों’ की पहचान की गई, जिनमें आतंकवाद, आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा और कृषि क्षेत्र में सहयोग भी शामिल हैं। खासकर ऐसे समय में जब पड़ोस में क्षेत्रीय एकीकरण के मिशन को गंभीर बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए गोवा बैठक में यह वादा किया गया कि भारतीय नेतृत्व में इस समूह को प्रगति पथ पर अग्रसर किया जाएगा। चीन से जुड़ा मसला भी उतना ही महत्वपूर्ण है : दरअसल चीन इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का दायरा बढ़ाता जा रहा है, ऐसे में भारत का यही मानना है कि उसे अपने पड़ोसी देशों के साथ अपनी संलग्नता या सहभागिता अवश्य ही बढ़ानी चाहिए।
एफडीआई को नई गति प्रदान करने की आवश्यकता
आज की तारीख में बिम्सटेक का आधार और भी सुदृढ़ हो चुका है। दरअसल, इसके आर्थिक बुनियादी तत्व अत्यंत मजबूत हैं और इसकी प्रगति भी तेज रफ्तार पकड़ती जा रही है। 7.6 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर के साथ भारत को दुनिया की सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार किया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2 ट्रिलियन डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और 1.2 अरब की आबादी के साथ भारत ही इस समूह के भीतर सबसे प्रभुत्वशाली अर्थव्यवस्था है। कुछ छोटे देश जैसे कि म्यांमार इससे भी ज्यादा 8.1 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार, वर्ष 2016 में बिम्सटेक की विकास दर 6.9 प्रतिशत रहने के आसार नजर आ रहे हैं, जबकि विश्व अर्थव्यवस्था को 3.1 प्रतिशत की सुस्त विकास दर ही नसीब होने की संभावना है। वर्ष 2016 में बिम्सटेक का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 3 ट्रिलियन डॉलर या वैश्विक जीडीपी का चार प्रतिशत आंका गया है।
हालांकि, भारत भले ही आर्थिक विकास के लिहाज से इस समूह में सबसे आगे हो, लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति आय के रूप में दर्शाए जाने वाला जीवन स्तर वर्ष 2016 में केवल 1.719 डॉलर ही आंका गया, जो कई अन्य सदस्य देशों जैसे कि थाईलैंड, श्रीलंका और भूटान की तुलना में बेहद कम है (तालिका 1 देखें)। यही नहीं, भूटान को ‘सकल राष्ट्रीय खुशी’ के आकलन में भी अग्रणी पाया गया है। बांग्लादेश भी सामाजिक-आर्थिक विकास के विभिन्न संकेतकों जैसे कि श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत से आगे है। इस तरह के सकारात्मक बुनियादी तत्वों को ध्यान में रखने पर यही प्रतीत होता है कि यदि बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित देशों का और ज्यादा एकीकरण हो जाए, तो यह सभी के लिए फायदेमंद साबित होगा।
तालिका 1 बिम्सटेक में विकास दर और जीवन स्तर (अमेरिकी डॉलर और %)
|
जीडीपी वृद्धि दर (प्रतिशत) |
जीडीपी (अरब डॉलर) |
प्रति व्यक्ति जीडीपी (डॉलर) |
भारत |
7.6 |
2250.987 |
1718.687 |
बांग्लादेश |
6.9 |
226.76 |
1403.086 |
भूटान |
6.028 |
2.085 |
2635.086 |
म्यांमार |
8.072 |
68.277 |
1306.649 |
थाईलैंड |
3.234 |
390.592 |
5662.305 |
श्रीलंका |
5 |
82.239 |
3869.778 |
नेपाल |
0.561 |
21.154 |
733.665 |
स्रोत:: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
अत्यंत आवश्यक न्यूनतम निवेश ही और अधिक व्यापार एवं क्षेत्रीय एकीकरण को नई गति प्रदान कर सकता है। [2] भारत और थाईलैंड द्वारा बिम्सटेक के अन्य सदस्य देशों में व्यापक निवेश करने से यह प्रक्रिया शुरू हो सकती है। अन्य देशों जैसे कि जापान द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) करने से भी इस समूह में और ज्यादा एकीकरण संभव हो सकता है। वैसे तो जापान का फोकस फिलहाल दक्षिण पूर्व एशिया, उदाहरण के लिए थाईलैंड पर है, लेकिन जापान दक्षिण एशिया विशेषकर म्यांमार में उपलब्ध अवसरों पर भी अपनी नजरें जमाए हुए है। इसी तरह जापानी कंपनियां बांग्लादेश में निवेश की संभावनाओं को लेकर भी उत्साहित हैं क्योंकि वहां इसकी उत्पादन लागत स्वदेश के मुकाबले आधी है। [3]
द इकोनॉमिस्ट में छपे एक हालिया लेख के अनुसार, ‘जापान ने हाल ही में 6.7 अरब डॉलर की परियोजना के जरिए एक नए समुद्री बंदरगाह के निर्माण के लिए चीन द्वारा की गई पेशकश पर कहीं ज्यादा कीमत की मांग कर दी है। इस परियोजना में तरलीकृत प्राकृतिक गैस आधारित एक टर्मिनल और कोयला आधारित चार बिजली संयंत्र शामिल हैं।’ इसके अलावा, भारत अपने ग्रिड से बांग्लादेश को बिजली की आपूर्ति कर रहा है और यह 1.5 अरब डॉलर की लागत वाले कोयला आधारित एक और बड़े बिजली संयंत्र के वित्तपोषण के लिए सहमत हो गया है। [4] भारत ने 2015-16 में म्यांमार में भी लगभग 224 मिलियन डॉलर का निवेश किया है। हालांकि, इसने वर्ष 2016-17 में अब तक कोई नया निवेश नहीं किया है। इस तरह के निवेश से बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादकता और विकास को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।
बिम्सटेक को अब तक प्राप्त विदेशी निवेश भले ही आसियान देशों को हासिल विदेशी निवेश का केवल आधा ही हो, लेकिन यह प्रवाह सार्क को हासिल विदेशी निवेश से कहीं ज्यादा है (तालिका 2 देखें)। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (अंकटाड) के अनुसार, इस समूह को वर्ष 2015 में 61 अरब डॉलर का एफडीआई प्राप्त हुआ, जिसका बड़ा हिस्सा भारत के खाते में गया है। इसके बाद थाईलैंड का नंबर आता है, जिसे कुल एफडीआई का छठा हिस्सा प्राप्त हुआ है। म्यांमार जैसे छोटे देशों में भी एफडीआई का प्रवाह बढ़ रहा है। म्यांमार में नवीन (ग्रीनफील्ड) परियोजनाओं में वर्ष 2015 के दौरान कुल मिलाकर 11 अरब डॉलर और वर्ष 2016 की पहली तिमाही में 2 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है। [5]
तालिका 2 चुनिंदा क्षेत्रीय व्यापार समूहों में वर्ष 2015 के दौरान एफडीआई प्रवाह (अरब अमेरिकी डॉलर और %)
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एफडीआई प्रवाह |
वैश्विक एफडीआई में हिस्सा (प्रतिशत में) एफडीआई की कुल आवक |
आरसीईपी |
330 |
19 |
4156 |
ब्रिक्स |
256 |
15 |
2373 |
बिम्सटेक |
61 |
3.4 |
502 |
आसियान |
126 |
7 |
1704 |
सार्क |
48 |
3 |
342 |
एपेक |
953 |
54 |
12799 |
जी-20 |
926 |
53 |
14393 |
स्रोत: अंकटाड
चूंकि बिम्सटेक में इस हद तक एफडीआई की आवक हुई है, इसलिए इस समूह के कुल व्यापार में अच्छी वृद्धि होना तय है। गोवा शिखर सम्मेलन के परिणाम दस्तावेज के अनुसार, इस तरह के निवेश के लिए प्राथमिकता वाला एक क्षेत्र ‘समुद्र आधारित अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनॉमी)’ : टिकाऊ मत्स्य पालन, गहरे समुद्र में खनिज और पर्यटन है जो तटों और उष्णकटिबंधीय द्वीपों पर निर्भर करते हैं। टिकाऊ मत्स्य पालन आवश्यक है क्योंकि जालदार जहाजों के जरिए जरूरत से कहीं ज्यादा महंगी मछलियों को पकड़ा जा चुका है। बंगाल की खाड़ी में जालदार जहाजों का अवतरण वर्ष 2010 में नए रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया, लेकिन पकड़ी गई कुल मछलियों के 40 प्रतिशत से भी अधिक हिस्से को ‘अज्ञात’ के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया था, जो नए क्षेत्रों और नई प्रजातियों में इसके अनियंत्रित विस्तार को दर्शाता है।[6] टिकाऊ मत्स्य पालन को निश्चित तौर पर कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे इस क्षेत्र की ब्लू इकोनॉमी को नई मजबूती मिले। आखिरकार, दुनिया के 30 प्रतिशत मछुआरों ने बंगाल की खाड़ी के आसपास स्थित क्षेत्र को ही अपना आशियाना बना रखा है और इनकी बड़ी आबादी अपनी आजीविका के लिए इसी पर निर्भर करती है। दुर्भाग्यवश, समुद्री मत्स्य पालन से जुड़े राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय कानून में टिकाऊपन के उद्देश्य कभी भी प्राथमिकता नहीं रहे हैं। समुद्र के पानी में प्रवासी मछलियों के साथ-साथ पैर फैलाकर खड़ी हो सकने वाली मछलियां जैसे कि टूना एवं टूना की भांति प्रजातियां, शार्क और छोटी समुद्री मछलियां (मैकेरल) भी रहती हैं। हालांकि, इन मछलियों को पकड़ने में भारत असमर्थ है, क्योंकि गहरे समुद्र में मछली पकड़ने में वह अब तक माहिर नहीं हो पाया है। इस मामले में मुख्यत: मालदीव, श्रीलंका, थाईलैंड और इंडोनेशिया को बढ़त हासिल है, क्योंकि उनके पास टूना मछली पकड़ने के विशिष्ट बेड़े हैं। [7]
ढाका में सितंबर 2014 में ब्लू इकोनॉमी पर आयोजित सम्मेलन में बांग्लादेश ने सतत रूप से समुद्री संसाधनों का उपयोग करने के लिए तटीय एवं समुद्र तटवर्ती देशों जैसे कि मालदीव, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड का एक क्षेत्रीय गुट बनाने का अह्वान किया। भारत और बांग्लादेश अपनी तरफ से ब्लू इकोनॉमी को विकसित करने पर द्विपक्षीय तौर पर सहमत हो गए हैं। जून 2015 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान कई द्विपक्षीय समझौते हुए थे जिनमें समुद्र विज्ञान के क्षेत्र में संयुक्त अनुसंधान के लिए ढाका विश्वविद्यालय और भारत की वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के बीच हुआ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) भी शामिल था। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के तुरंत बाद ही चीन ने ब्लू इकोनॉमी पर बांग्लादेश के साथ सहयोग करने की अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी। दरअसल, भारत की ही तरह चीन भी बंगाल की खाड़ी में उपलब्ध समुद्री संसाधनों का दोहन करने के लिए बांग्लादेश के साथ गठबंधन करना चाहता है। भारत की ही भांति बांग्लादेश में भी गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की क्षमता का अभाव है। ढाका ट्रिब्यून में छपी एक रिपोर्ट में एक अधिकारी के हवाले से बताया गया है, ‘बांग्लादेश को 200 समुद्री मील की दूरी तक मछली पकड़ने का संप्रभु अधिकार है, लेकिन जहाज केवल 40 समुद्री मील की दूरी तक ही जा सकते हैं।’ समुद्री संसाधनों से विभिन्न दवाओं जैसे कि कॉड लिवर ऑयल, सौंदर्य प्रसाधन और प्रसाधन सामग्री का उत्पादन किया जा सकता है, लेकिन बांग्लादेश में इस क्षेत्र में निवेश नहीं हो रहा है। [8]
बिम्सटेक कनेक्टिविटी
बंगाल की खाड़ी के आसपास स्थित देशों के समुदाय को समृद्ध बनाने का वादा कनेक्टिविटी के बिना महज बयानबाजी ही साबित होगा। मुक्त व्यापार का स्तर आगे भी अपेक्षा से कम ही रहेगा। भारत बिम्सटेक के सदस्यों का सहयोग अपने पूर्वोत्तर क्षेत्र में ले रहा है, जहां से दक्षिण-पूर्व एशिया की राह शुरू होती है। थाईलैंड के साथ कनेक्टिविटी में सड़क व रेल सहित ऐसे अन्य संपर्कों की स्थापना के कार्य भी शामिल हैं जो बांग्लादेश और म्यांमार से होकर गुजरते हों। इन बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं.को जल्द से जल्द चालू अवस्था में लाने की जरूरत है, ताकि यह क्षेत्रीय समूह सड़क, रेल, हवाई और शिपिंग सेवाओं के जरिए आपस में जुड़े अपने सदस्य देशों के साथ निर्बाध रूप से एकीकृत हो सके।
भारत ने म्यांमार के समक्ष यह प्रस्ताव रखा है कि वह सितवे बंदरगाह का पुनर्निर्माण करेगा और कलादान नदी को जहाजों के चलने लायक बनाएगा, ताकि मिजोरम एवं भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में जाने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग सुलभ हो सके। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के मुताबिक, कलादान परियोजना के मूल जलमार्ग घटक के 90 प्रतिशत हिस्से का काम पूरा हो चुका है; इसका निर्माण कार्य इसी साल पूरा हो जाने की उम्मीद है। 18 फरवरी, 2016 को दिल्ली संवाद VII के दौरान अपने मुख्य संबोधन में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यह भी कहा कि सड़क घटक के साथ-साथ जलमार्ग से जुड़े अन्य ढांचों पर भी काम शुरू हो गया है और इसे वर्ष 2019 तक पूरा करना तय किया गया है।
इसके अलावा सितवे बंदरगाह भी है जो, बिम्सटेक के हालिया सूचना-पत्र के अनुसार,[9] उद्घाटन के लिए तैयार है। हालांकि, इस बंदरगाह में निवेश आकर्षित करने के लिए एक विशेष आर्थिक जोन की स्थापना करने की जरूरत है। म्यांमार अपनी तरफ से दावेई, क्यायूकफ्यू और थिलावा में भी बंदरगाह आधारित विशेष आर्थिक जोन (सेज) की स्थापना कर रहा है, जिनसे बिम्सटेक में और अधिक व्यापार प्रवाह एवं निवेश को बढ़ावा मिलने की आशा है।
भारत के पूर्वोत्तर में मोरेह जैसी जगहों पर म्यांमार के साथ व्यापार के लिए भूतल परिवहन बुनियादी ढांचे का बेहद अभाव है। भ्रष्टाचार व्याप्त है और बिजली की आपूर्ति सीमित है। म्यांमार के लिए वीजा मुक्त यात्रा की अनुमति अवश्य ही दी जानी चाहिए। अन्य परियोजनाओं जैसे कि मिजोरम और पश्चिमी म्यांमार को आपस में जोड़ने वाले रिह टेडिम राजमार्ग के निर्माण कार्य को जल्द से जल्द पूरा किया जाना चाहिए। वहीं, दूसरी ओर म्यांमार, चीन, थाईलैंड और लाओस के बीच सीमा व्यापार काफी तेजी से पनप रहा है। चीन इन देशों के साथ जुड़ने के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश कर रहा है, जिनमें युन्नान और म्यांमार के बीच ऑप्टिकल केबल कनेक्शन भी शामिल है। .
भारत और म्यांमार ने वर्ष 2001 में 250 किलोमीटर लंबे तामू-कलेवा-कलेम्यो (टीकेके) राजमार्ग का उद्घाटन किया था। यह 1,360 किलोमीटर लंबे त्रिपक्षीय राजमार्ग का हिस्सा है, जो थाईलैंड तक जाता है। इस परियोजना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए विदेश मंत्री स्वराज ने कहा कि अगस्त 2014 में हनोई की यात्रा के दौरान ‘थाईलैंड के माई सोत तक जाने वाले त्रिपक्षीय राजमार्ग के एक भाग के रूप में टीकेके मैत्री सड़क के 160 किमी हिस्से को अब तक पूरा कर लिया गया है ... म्यांमार और थाईलैंड द्वारा अपने-अपने संबंधित खंडों का निर्माण करना अभी बाकी है।’ 69 पुलों के लिए निविदा प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई है।
इसके अलावा भारत, म्यांमार और थाईलैंड के बीच ठीक वैसे ही मोटर वाहन करार के लिए भारत उत्सुक है, जैसे करार पर बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल (बीबीआईएन) ने जून 2015 में हस्ताक्षर किए थे। इस तरह के समझौते से इन देशों के बीच वस्तुओं, सेवाओं एवं लोगों की आवाजाही सुगम होगी और इस प्रक्रिया में उत्पादकता एवं व्यापार को बढ़ावा मिलेगा। उदाहरण के लिए, 27 अगस्त 2016 को एक ट्रक ढाका से खुलने के बाद कोलकाता में प्रवेश किया और 1,850 किलोमीटर से भी अधिक की दूरी तय करने के क्रम में झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली से होकर गुजरा और आखिर में नई दिल्ली स्थित एक अंतर्देशीय सीमा शुल्क डिपो तक पहुंचा। चूंकि बीबीआईएन-एमवीए के तहत एक प्रणाली स्थापित की गई थी, इसलिए सीमा शुल्क-मुक्त आवाजाही के लिए एक ऑनलाइन प्रणाली के माध्यम से बतौर परीक्षण ट्रक को एक ई-परमिट आसानी से जारी किया गया था। ठीक इसी तरह का समझौता करना भारत, म्यांमार और थाईलैंड के लिए उचित साबित होगा, क्योंकि इसमें अपार वाणिज्यिक एवं आर्थिक संभावनाएं हैं।
क्षेत्रीय समझौतों से बतौर उदाहरण पर्यटन के रूप में संबंधित देशों के लोगों के बीच आपसी संपर्क भी बढ़ेंगे। म्यांमार में आयोजित तीसरे बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘अंततोगत्वा कनेक्टिविटी का एक और पहलू पर्यटन है जो आर्थिक विकास का एक शक्तिशाली स्रोत है और लोगों एवं संस्कृतियों के बीच एक सेतु का काम करता है। बिम्सटेक पर्यटन पैकेजों तथा बिम्सटेक के भीतर भ्रमण दोनों को ही बढ़ावा देने के लिए हम 2015 को बिम्सटेक पर्यटन का वर्ष घोषित करते हैं।’ [10] भारत नवंबर 2016 में एक त्रिपक्षीय फ्रेंडशिप कार रैली आयोजित कर रहा है, जो असम के गुवाहाटी से रवाना होगी और म्यांमार एवं थाईलैंड तक जाएगी। इस रैली का उद्देश्य वाहन समझौते को बढ़ावा देना है।
मुक्त व्यापार समझौता
बिम्सटेक की पूर्ण संभावनाओं का दोहन तभी हो सकता है, जब मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर जल्द से जल्द हस्ताक्षर हो जाएंगे। चूंकि विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर की वार्ताएं अब भी ठप पड़ी हुई हैं, इसलिए भारत को अपने फायदे के लिए क्षेत्रीय एफटीए का लाभ निश्चित रूप से उठाना चाहिए। इस मोर्चे पर प्रगति धीमी रही है। भारत के वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार [11], बिम्सटेक की व्यापार वार्ता समिति (टीएनसी) ने (i) वस्तुओं के व्यापार, (ii) सीमा शुल्क सहयोग, (iii) सेवाओं और (iv) निवेश पर टैरिफ रियायतें जैसे क्षेत्रों पर वार्ताओं के 19 सत्र आयोजित किए हैं।
वैसे तो तीसरे बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में टीएनसी को वर्ष 2014 के आखिर तक ही वस्तुओं से संबंधित एफटीए करने के लिए अपने काम में तेजी लाने का निर्देश दिया गया था, लेकिन यह समझौता अभी तक नहीं हो पाया है। इस दिशा में सौदेबाजी के लिए सितंबर 2015 में हुई बातचीत अपने निष्कर्ष तक पहुंचने में विफल साबित हुई थी क्योंकि एक दशक पहले शुल्कों (टैरिफ) में की गई कटौती को संशोधित करने संबंधी भारत के प्रस्ताव पर थाईलैंड ने विरोध जताया था। [12] किसी भी व्यापार वार्ता में सौदेबाजी होना अवश्यंभावी है। लेकिन अभी तक मिली सीमित सफलता को देखते हुए अब यह आवश्यक हो गया है कि एफटीए का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वाकांक्षा के स्तर को कम किया जाए। गोवा ब्रिक्स-बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में जल्द से जल्द इस तरह का समझौता करने की प्रतिबद्धता दोहराई गई।
सार्क को जिस मुकाम पर नाकामी हाथ लगी है, वहां अगर बिम्सटेक को कामयाबी हासिल करनी है तो भारत को सही सबक सीखने ही होंगे क्योंकि व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया जा रहा है। भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की बात को अगर छोड़ दें तो भी दक्षिण एशिया के एकीकरण की प्रक्रिया इसलिए कठिन साबित हुई क्योंकि अन्य सदस्य देश भारत के प्रभुत्व की बात को पचा नहीं पाए। एकतरफा व्यापार उदारीकरण के जरिए अगर और ज्यादा बाजार पहुंच सुनिश्चित कर दी जाती तो इसका काफी फर्क पड़ता और तब एक आर्थिक शक्ति के रूप में भारत के अभ्युदय से सार्क के सदस्य देश लाभान्वित होते। उनकी नाराजगी घटने के बजाय बढ़ती ही चली गई, क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया है। यह कटु तथ्य कि भारत के साथ व्यापार में हर सदस्य देश का घाटा बढ़ता ही चला गया, अपनी कहानी खुद ही बयां कर रहा है।
उदाहरण के लिए, वर्ष 2015-16 में बांग्लादेश का व्यापार घाटा 5.3 अरब डॉलर आंका गया। नेपाल का व्यापार घाटा भी बढ़कर 3.4 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है। भारत के वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, भूटान ने 188 मिलियन डॉलर का व्यापार घाटा दर्ज किया है और भारत के साथ श्रीलंका का व्यापार असंतुलन 4.5 अरब डॉलर का रहा है। [13] चूंकि ये भी बिम्सटेक के सदस्य देश हैं, इसलिए एफटीए में अवश्य ही ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि वे भारत को और अधिक निर्यात करने में सक्षम हो सकें। चूंकि इस क्षेत्रीय समूह में भारत की अगुवाई वाली भूमिका बढ़ रही है, इसलिए इन छोटे सदस्य देशों को भारत की मजबूत विकास गाथा पर अवश्य ही बड़ा दांव लगाने का मौका मिलना चाहिए। जब ये शिकायतें बाकायदा दूर कर दी जाएंगी, तभी पड़ोस में एकीकरण का सुखानुभव हो पाएगा, भले ही इसे कुछ और नाम क्यों न दे दिया जाए।
भारत के साथ श्रीलंका का अनुभव एक अच्छा उदाहरण है। वैसे तो प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने और ज्यादा द्विपक्षीय आर्थिक सहभागिता पर विशेष जोर दिया है, लेकिन भारत के साथ उसके एफटीए में सेवाओं एवं निवेश को शामिल करने के लिए एक व्यापक समझौता करना उतना आसान नहीं है। श्रीलंका के साथ भारत का एफटीए वर्ष 2000 में ही हो चुका है और उसके साथ व्यापार में भारत का अधिशेष (सरप्लस) बढ़ता जा रहा है। ऐसे में भारत को यह अधिशेष कम करने के तरीके अवश्य ही ढूंढने चाहिए, जिसमें श्रीलंका के वस्त्रों एवं अन्य जिंसों को शुल्क मुक्त कोटा दर पर प्रवेश की भी अनुमति हो। श्रीलंका में भारत का निवेश अच्छा-खासा है, अत: इसके मद्देनजर भारत में भी श्रीलंका के निवेश को अवश्य ही प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि परस्पर निर्भरता की स्थिति बन सके।
यदि प्रस्तावित व्यापक भारत-श्रीलंका आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग समझौते को अपेक्षा के मुताबिक ही वर्ष 2016 के आखिर तक बाकायदा कर लेना है, तो यह बिम्सटेक के अन्य सदस्य देशों जैसे कि बांग्लादेश, भूटान और नेपाल के साथ ठीक इसी तरह का एफटीए करने के लिए एक आदर्श साबित हो सकता है। लब्बोलुआब यह है कि इस तरह के समझौतों में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रमुख भागीदारों के साथ अपेक्षाकृत अधिक मुक्त व्यापार करने से छोटे देशों के हितों पर कोई आंच नहीं आए। भारत को अपने व्यापार संतुलन में त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए, ताकि बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित देशों का क्षेत्रीय समूह कामयाब साबित हो सके। यदि ये देश भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें, तो म्यांमार और थाईलैंड का भी साथ पाने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
हालांकि, भारतीय उद्योग जगत के कुछ वर्गों को एक ऐसा एफटीए करने पर गहरी आपत्ति है जैसा समझौता थाईलैंड के साथ करने की पहल भारत ने वर्ष 2004 में की थी, जिसमें विशेष रूप से अर्ली हार्वेस्ट स्कीम (ईएचएस) शामिल है। ईएचएस के मुताबिक, जब यह सितंबर 2004 में प्रभावी हुई तो 82 वस्तुओं पर शुल्क को हटा दिया गया। इससे थाईलैंड में अपनी व्यापक मौजूदगी दर्ज करा चुकी जापानी और अमेरिकी कंपनियों को शून्य या निम्न दरों पर ऑटो कलपुर्जों, इलेक्ट्रॉनिक्स इत्यादि को भारतीय बाजार में सप्लाई करने का अनुचित अवसर मिला। ईएचएस से जुड़ी 82 वस्तुओं पर अधिकतर व्यापारिक लाभ थाईलैंड को हुआ, जिस वजह से द्विपक्षीय व्यापार संतुलन उसके ही पक्ष में हो गया।
भारत को इस पिछले अनुभव को भुलाकर अवश्य ही आगे बढ़ना चाहिए, ताकि बिम्सटेक एफटीए को एक वास्तविकता में तब्दील किया जा सके। हालांकि, आगे की राह आसान नहीं है। उदाहरण के लिए, भारत को थाईलैंड और म्यांमार में सैन्य शासकों से निपटना होगा। पाकिस्तान के साथ रचनात्मक सहभागिता की अपेक्षा रखने में हुए कटु अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह बेशक मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के लिए आसान नहीं है। मई 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने यह भी संकेत दिया है कि वह अपने सभी एफटीए पर फिर से गौर करेगी। कम महत्वाकांक्षा वाले किसी व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करते वक्त इन चिंताओं पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए।
एफटीए के मामले में कम महत्वाकांक्षा का मतलब यह है कि इसे शुरुआत में केवल वस्तुओं तक ही सीमित रखा जाएगा। वैसे तो गोवा शिखर सम्मेलन में बिम्सटेक की टीएनसी को सेवाओं और निवेश संबंधी वार्ताओं में तेजी लाने का जिम्मा सौंपा गया है, लेकिन सेवा क्षेत्र के पेशेवरों (प्रोफेशनल) की आवाजाही को भी इन वार्ताओं में शामिल किया जाना शायद फिलहाल उचित न होगा। सेवाओं का व्यापार यहां तक कि आसियान में भी कठिन साबित हुआ है; फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे सदस्य देश इस बात को लेकर बेहद आशंकित रहे हैं कि भारतीय प्रोफेशनल ‘उनकी नौकरियां खा जाएंगे’। इसी तरह बिम्सटेक के सदस्य देश भी भारतीय प्रोफेशनलों को और ज्यादा मुक्त आवाजाही की अनुमति देने के लिए फिलहाल संभवत: तैयार नहीं हैं।
निष्कर्ष
इस पेपर में यह दलील दी गई है कि बिम्सटेक के लिए वास्तव में पूरी मुस्तैदी के साथ आगे कदम बढ़ाने का समय अब आ गया है। मुख्यत: सार्क की विफलताओं की लंबी गाथा को ध्यान में रखते हुए ही दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच एक सेतु के रूप में बिम्सटेक का आइडिया काफी दमदार प्रतीत हो रहा है। वैसे तो बिम्सटेक का धमाकेदार आगाज वर्ष 1997 में ही हो गया था, लेकिन बंगाल की खाड़ी के आसपास अवस्थित देशों का यह क्षेत्रीय समूह आगे चलकर शिथिल पड़ गया क्योंकि एकीकरण की प्रक्रिया को परवान चढ़ाने वाले अहम कदम नदारद हो गए थे। हालांकि, स्थिति अब बदल गई है और म्यांमार एवं बांग्लादेश जैसे छोटे देशों सहित समूचे बिम्सटेक में इस क्षेत्र के बाहर के विदेशी निवेशक काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
व्यापक निवेश संभावनाओं वाले क्षेत्रों में समुद्र आधारित अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनॉमी) भी शामिल है, जिसके लिए एक विशिष्ट नीति को अपनाना बंगाल की खाड़ी के समुदाय को एकीकृत करने की खातिर सबसे ज्यादा लाभकारी है। नि:संदेह तेजी से क्रियान्वित की जा रही कनेक्टिविटी परियोजनाओं से भी एकीकरण को काफी बढ़ावा मिलेगा। अब तक दुष्कर साबित होते रहे एफटीए से भी इस दिशा में काफी प्रगति होगी, भले ही यह शुरू में महज वस्तुओं तक ही सीमित क्यों न रहे। चूंकि बिम्सटेक का स्थायी सचिवालय बांग्लादेश में है, इसलिए इसे एक जीवंत समूह में तब्दील करने की बुनियादी जरूरत पहले ही पूरी की जा चुकी है। यही नहीं, भारत की अगुवाई में बिम्सटेक सफलता की गाथा लिखने में भी सक्षम साबित हो सकता है।
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