Author : Harsha Kakar

Published on Dec 15, 2017 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान की सेना आंतरिक धार्मिक और कट्टरपंथी समूहों का खुल कर समर्थन कर रही है। अगर ये पार्टियां सत्ता में आ गईं तो पाकिस्तान के आंतरिक समीकरण बहुत तेजी से बदल सकते हैं।

बढ़ रहा है पाकिस्तान से खतरा

खादिम हुसैन रिजवी के नेतृत्व वाले तहरीक लबैक या रसूल अल्लाह (टीएलवाईआरए) की ओर से इस्लामाबाद में हाल में समाप्त हुआ प्रदर्शन तभी थम सका जब सेना ने मध्यस्थता कर शांति समझौता करवाया। इस दौरान लगभग तीन हफ्ते तक इसने शहर को लगभग बंधक बनाए रखा। इस्लामाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद सरकार को मजबूरन प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए सुरक्षा बल को लगाना पड़ा। इसने लगभग 8,000 पुलिस बल और रेंजर्स को इस काम में लगा दिया, लेकिन फिर भी ये नाकाम रहे और इस दौरान छह लोग मारे गए और बहुत से घायल हुए। यह ऑपरेशन शुरू से ही बहुत गलत तरीके से प्लान किया गया था और इसमें आपसी तालमेल भी ठीक नहीं था।

पुलिस कार्रवाई शुरू होने से पहले ही, पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के महानिदेशक ने ट्वीट कर दिया था कि सेना को उम्मीद है कि ‘दोनों पक्ष संयम दिखाएंगे।’ जाहिर है यह इसके अधिकार क्षेत्र के बाहर के मामले में दखल देना था। इसने राज्य की तुलना प्रदर्शनकारियों से की थी। पुलिस कार्रवाई के नाकारा साबित होने के बाद, सरकार ने आधिकारिक तौर पर सेना को स्थिति के नियंत्रण के लिए बुला लिया।

सेना ने सरकार के आदेश को स्वीकार कर लिया, लेकिन एक आधिकारिक बयान जारी किया जिसमें दावा किया गया था, ‘जहां यह काम करने को तैयार है, कुछ बिंदुओं पर चर्चा की जरूरत है।’ इसका मतलब है कि सेना के मन में नागरिक सरकार को समर्थन करने को ले कर संदेह था, वह भी तब जब सरकार संकट की घड़ी में थी। इसने कभी भी अपने सैनिकों को तैनात नहीं किया, बल्कि यह शांति के लिए मध्यस्थता में लग गई। प्रदर्शन के आयोजक खादिम रिजवी ने बाद में कहा कि सेना ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि उनकी सभी मांगे मान ली जाएंगी।

यह जाहिर था कि सेना ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शनकारियों को खुल कर समर्थन किया था, जिसकी वजह से सरकार को हथियार डालने पड़े थे। अंतिम समझौते में प्रदर्शनकारियों की सभी मांगें मान ली गई थीं, जिसमें केंद्रीय मंत्री का इस्तीफा भी शामिल था। साथ ही जिन लोगों ने उनके खिलाफ कार्रवाई की थी, उनके खिलाफ कार्रवाई करने का वादा भी इसमें मौजूद था। यहां तक कि समझौते के आखिरी वाक्य में सेना प्रमुख का धन्यवाद भी अदा किया था कि उन्होंने ‘देश को एक बड़े बवंडर से बचा लिया।’

जाहिर है कि सेना ने खुल कर सरकार के खिलाफ प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया जिसकी वजह से सरकार को समर्पण करने को मजबूर होना पड़ा। अंतिम समझौते में प्रदर्शनकारियों की सभी मांगें मान ली गई थीं।

इस समझौते पर सेना की ओर से आईएसआई के एक वरिष्ठ सदस्य जो सेवारत मेजर जनरल हैं, के दस्तखत किए गए थे। प्रदर्शन के समाप्त होने के बाद ऐसी तस्वीरें सामने आईं, जिसमें कराची रेंजर्स के प्रमुख, जो एक मेजर जेनरल हैं, प्रदर्शनकारियों को हजार रुपये का नोट बांट रहे हैं। उनका दावा है कि यह घर जाने के लिए बस के किराये के हैं, लेकिन वास्तव में उन्हें प्रदर्शन करने के लिए यह भुगतान किया जा रहा है।

हाल के प्रदर्शन 2007 के लाल मस्जिद मामले की ही पुनरावृत्ति हैं। लाल मस्जिद मामले में, शुरुआती प्रदर्शन के दौरान राज्य कार्रवाई करने में नाकाम रहा था। लगभग 18 महीने बाद ही सैन्य ऑपरेशन शुरू किए गए। जब यह हुआ भी तो इसकी वजह से सैकड़ों मौतें हुईं और टीटीपी नाम का पाकिस्तान विरोधी तालिबान संगठन उभरा। इसी तरह मौजूदा प्रदर्शनों में भी शुरुआती दौर में सिर्फ कुछ सौ प्रदर्शनकारी ही थी। अगर सरकार समय से कार्रवाई करती तो स्थिति को आसानी से संभाल सकती थी।

किसी और लोकतंत्र की तरह वहां की विपक्ष की राजनीतिक पार्टियां भी प्रदर्शन का फायदा उठाने लगीं और सरकार को घरने की कोशिश में और फैसलों को प्रभावित करने में जुट गईं। उन्होंने प्रदर्शनकारियों को समर्थन का वादा किया और प्रदर्शन को काफी ताकत दे दी। तब उन्होंने यह ध्यान नहीं दिया कि वे सेना के हाथ में खेल रही हैं जो भविष्य के राजनीतिक परिदृष्य को बदलने में जुटी हुई है।

कश्मीर और अफगानिस्तान में सक्रिय आंतकवादी समूहों को पाकिस्तानी सेना का समर्थन पूरी तरह प्रमाणित है। काबुल में पाकिस्तान समर्थक सरकार स्थापित करने और कश्मीर में भारतीय सेना के साथ संघर्ष जारी रखने को ले कर इसकी कोशिश की वजह से अमेरिका और भारत की ओर से इसे उपेक्षित किया जाने लगा है। यहां तक कि बातचीत की सभी मांग पर भारत प्रतिक्रिया भी नहीं देता। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इस कथ्य को बदलने की कोशिश की और जेल की तैयारी कर रहे हैं।

हाल के घटनाक्रमों में पाकिस्तानी सेना ने खुल कर कहा है कि वह आंतरिक धार्मिक और कट्टरपंथी तत्वों को समर्थन करती है। इसने मुख्य पार्टियों को परेशान किया है और देश के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। अगर ये पार्टियां मजबूत होती हैं तो पाकिस्तान के आंतरिक समीकरणों को तेजी से बदल सकती हैं। ऐसे में यह भरोसे के लायक देश नहीं रह जाएगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी खतरनाक और अलग-थलग देश हो जाएगा।

इस घटनाक्रम के दौरान पाकिस्तानी सेना ने आंतरिक धार्मिक और कट्टरपंथी समूहों को भी खुल कर समर्थन किया है, जिसकी वजह से मुख्य राजनीतिक दलों की मुश्किल बढ़ गई है और देश के भविष्य को खतरा पैदा हो गया है।

प्रदर्शन के दौरान टीएलवाईआरए को इसके खुले समर्थन और साथ ही हाफिज सईद को उसके राजनीतिक दल मिल्ली मुस्लिम लीग के गठन में सहयोग इस बात की ही ताकीद करते हैं। हाफिज सईद ने सप्ताहांत के दौरान यह एलान किया है कि वह अगला चुनाव लड़ेगा तो यह सेना के आशीर्वाद के साथ ही किया है। पिछले उप-चुनाव से पहले सरकार ने हाफिज सईद की पार्टी के रजिस्ट्रेशन की इजाजत देने से मना कर दिया था, लेकिन सेना के सीधे समर्थन की वजह से इसे अब भविष्य में रोक पाने में कामयाब नहीं होगी।

प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाली टीएलवाईआरए इस्लामी पार्टी है, जिसका गठन 2015 में किया गया और यह पाकिस्तान को इस्लामिक स्टेट में बदलना चाहती है। अचानक बढ़ती उनकी ताकत ने पाकिस्तान के लिए धर्म और राजनीति के खतरनाक मिश्रण का खतरा पैदा कर दिया है। इसके नेता अपने आक्रामक भाषणों में जिस घटिया स्तर की भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह कम पढ़े-लिखे आम लोगों में भावनात्मक अपील करती है और उन्हें हिंसा के लिए आंदोलित करती है। इसके बारे में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त टिप्पणी की थी, लेकिन उसका निश्चित तौर पर कोई असर नहीं होगा। अगर यह सेना के समर्थन से राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति के तौर पर उभरी तो यह देश को कट्टरपंथी आधार पर बांट देगी और आंतरिक अस्थायित्व बढ़ेगा।

मौजूदा प्रमुख राजनीतिक दलों के खिलाफ पाकिस्तानी धार्मिक और कट्टरपंथी संगठनों के नेता जम कर आग उगलते रहे हैं, जिसकी वजह से आम जनता में इन पार्टियों को ले कर शंका बढ़ रही है और जनाधार कम हो रहा है। रिजवी ने पूरे प्रदर्शन के दौरान यही किया और हाफिज सईद ने आजाद होने के तुरंत बाद यही किया। ये पार्टियां शरिया लागू करना चाहती हैं और ईश निंदा को ले कर बहुत सख्त कानून लाना चाहती हैं। इसको कम पढ़े-लिखे स्थानीय आम लोगों का समर्थन भी है। मुख्य राजनीतिक दलों में नवाज शरीफ के हटाए जाने के बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) का जनाधार पहले ही कम हो रहा है और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को अभी अपनी खोई जमीन हासिल करनी है।

सेना के समर्थन से ये कट्टरपंथी ताकतें जल्दी ही मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को कमजोर कर पाकिस्तानी राजनीति में प्रमुख स्थान हासिल कर लेंगी। जो दरवाजे उनके लिए बंद थे, अब खुल जाएंगे, लोकप्रियता बढ़ेगी और जोरदार वक्ता होने के नाते आम लोग इनके समर्थन में जुटेंगे।

सेना के समर्थन से चलने वाला कट्टरपंथी या इस्लामी आंदोलन जो राजनीति को बदनाम करता हो वो अगर देश पर अधिकार जमा ले जो पहले से ही एक अस्थिर परमाणु शक्ति है तो आंतरिक अस्थिरता और असुरक्षा बढ़ेगी जबकि अंतरराष्ट्रीय तनाव भी बढ़ेंगे। देश ईरान या उत्तरी कोरिया की दिशा में बढ़ सकता है, जो दोनों देश इस क्षेत्र के लिए खतरा बने हुए हैं। इसके साथ ही सेना को बाहरी अभियान चलाने की पूरी आजादी मिल जाएगी जिसमें यह अपने पड़ोसियों के खिलाफ और बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के आंतरिक इलाकों में नस्ली नरसंहार का मौका मिल सकेगा। यह भारत-पाक रिश्तों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा और भारत के खतरों को कई स्तर पर बढ़ा देगा।

पाकिस्तान ईरान या उत्तरी कोरिया के रास्ते पर जा सकता है, जो दोनों ही क्षेत्र के लिए खतरा हैं।

आंतरिक तौर पर पाकिस्तान के अंदर इसके पश्चिमी सीमा के इलाके में ज्यादा विरोध होगा। ऐसे में पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर पाकिस्तान विरोधी आतंकवादी गुट ज्यादा सक्रिय हो सकते हैं जबकि बलूचिस्तान स्वतंत्रता संग्राम और तेज हो सकता है। कट्टरपंथी हिंसा और अल्पसंख्यकों के नरसंहार में बढ़ोतरी की आशंका है जिसकी वजह से आंतरिक विभेद बढ़ेगा। आर्थिक रूप से पाकिस्तान नीचे की दिशा में बढ़ेगा।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्लामी और कट्टरपंथी ताकतों के सरकार में प्रभावी हो जाने के बाद पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा को भी खतरा बढ़ जाएगा। अमेरिका को अफगानिस्तान में चल रहे आतंकवादी संगठनों को काबू करने के लिहाज से पाकिस्तान से बहुत कम सहयोग मिल सकेगा। सीपीईसी और दूसरे विभिन्न औद्योगिक पार्कों के निर्माण में भारी निवेश कर पाकिस्तान में इतना अधिक निवेश कर चुके चीन को यहां मुश्किल हो सकती है। आंतरिक अस्थायित्व, बढ़ी हुई हिंसा और उतार-चढ़ाव भरा माहौल अस्थिरता में बदलेगा, जिसकी वजह से सीपीईसी के स्थायित्व को खतरा पैदा होगा और चीन को अपने निवेश का सही नतीजा हासिल करने में समस्या होगी।

भारत विरोधी ताकतों के मजबूत होने, कट्टर दृष्टिकोण अपनाने और सत्ता में प्रभावी होने के बाद भारत को कश्मीर और बाकी हिस्सों में भी खतरे बढ़ेंगे। पाकिस्तानी सेना ज्यादा कट्टरपंथी हो जाएगी और इस वजह से ज्यादा सनकी भी हो जाएगी। ऐसे में संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाएं बढ़ेंगी। बातचीत या शांति की मांग ही नहीं रहेगी और पाकिस्तान की सेना कश्मीर के मामले में अपने मुताबिक फैसले ले सकेगी। यह कश्मीर में घुसपैठ के प्रयास बढ़ाएगी और साथ ही कश्मीरी नौजवानों को विशुद्ध मुस्लिम राज का सपना दिखा कर लुभाने की कोशिश भी बढ़ाएगी, जिससे आंतरिक हिंसा में बढ़ोतरी होगी। ऐसे में अगर पाकिस्तानी सेना अपने इरादे में कामयाब हो जाती है तो भारत को आने वाले समय में ज्यादा तनाव और हिंसा के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। यह उप महाद्वीप भी ऐसे में ज्यादा अस्थायी हो जाएगा जिसका पूरे क्षेत्र पर असर पड़ेगा।

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