मेकिंग इंडिया ग्रेट: द प्रॉमिस ऑफ ए रेलकटैंट ग्लोबल पावर में अपर्णा पांडेय लिखती हैं कि ‘भारत अभी भी दार्शनिक विवादों और व्यावहारिक मामलों में संतुलन नहीं बना पाया है. दूसरे लोगों की आस्था या इतिहास पर दृष्टिकोण को लेकर जज़्बाती हो जाने की वजह से अक्सर मौजूदा हालात में अगला क़दम तय नहीं हो पाता है.’ पांडेय के मुताबिक धर्म, सांस्कृतिक मान्यताएं और विवादों ने दिक़्क़तें पैदा की हैं और इनकी वजह से भारत की कामयाबी नाकामी में बदल सकती है. ऐसी हालत श्रीलंका समेत दक्षिण एशिया के कई और देशों में भी है. ऐसा लगता है कि श्रीलंका का भी एक हिस्सा हमारी गौरवशाली सभ्यता और धार्मिक रूढ़िवाद के प्राचीन गौरव से बंधा हुआ है. श्रीलंका में जातीय-धार्मिक भावनाओं का ज़्यादा इस्तेमाल और हिंदुत्व पर भारत का ज़्यादा ध्यान इसके साफ़ उदाहरण हैं.
वी.एस. नायपॉल बड़ी संख्या में मौक़े गंवाने को ‘अपमानित पुरानी सभ्यता’ के संकट के तौर पर देखते थे जो इस जालसाज़ी की बेड़ी की वजह से है. इस बोझ को हटाने के लिए सबसे पहले विविधता को मान्यता देने और उसे अपनाने की ज़रूरत है. नीतियों और संवैधानिक सुधार के ज़रिए आर्थिक और सामाजिक विकास को आगे बढ़ाया जा सकता है. एक तरफ़ जहां ये देश अपनी घरेलू मजबूरियों में फंसे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आर्थिक अवसरों को गंवा रहे हैं. जैसा कि भारत के मामले में हुआ जिसने चीन में 1978 के आर्थिक सुधार के मुक़ाबले 15 साल की देरी से आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की. इसको भारत के मौजूदा विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर ने अपनी नई क़िताब दी इंडिया वे में सटीक ढंग से लिखा है. जयशंकर लिखते हैं ‘चीन के मुक़ाबले भारत में आर्थिक सुधार 15 साल की देरी से हुए और वो भी मिले-जुले ढंग से. 15 साल की ये देरी अभी भी भारत के लिए नुक़सानदेह है.
जयशंकर आगे लिखते हैं, ‘एक बड़े देश में वास्तविक नीति है अलग-अलग प्राथमिकताओं का समानांतर पीछा जिनमें से कुछ विरोधाभासी हो सकते हैं. उन खींचतान और दबावों से परहेज़ या बचना नहीं चाहिए बल्कि हमेशा उनका जवाब देना चाहिए. सिर्फ़ विवाद नहीं बल्कि पसंद बनानी पड़ती है. और ये बिना किसी क़ीमत के नहीं हो सकती हैं’. श्रीलंका को लेकर भारत की पसंद मुश्किल दौर का सामना कर चुकी है, इन पसंदों में से कुछ की क़ीमत रुकी हुई है जो रिश्तों, मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व को चुनौतियों के रूप में सीधे तौर पर याद दिलाती हैं.
सत्ता सौंपना
जयशंकर श्रीलंका की राजनीतिक गतिशीलता की जटिलता को समझते हैं क्योंकि उनके पास कोलंबो के भारतीय उच्चायोग में प्रथम सचिव और भारतीय शांतिसेना (IPKF) के राजनीतिक सलाहकार के तौर पर काम करने का अनुभव है. ये 1988-1990 के बीच नौजवानों के विद्रोह का अशांत दौर था जिसकी वजह से श्रीलंका में हज़ारों लोगों की जान गई. श्रीलंका में ये दो तरफ़ा युद्ध का मैदान था. एक तरफ़ तमिल टाइगर थे और दूसरी तरफ़ नौजवानों के विद्रोह को कुचला जा रहा था. 1987 में राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने के साथ भारत-श्रीलंका समझौते पर दस्तख़त करने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के श्रीलंका दौरे के बाद संविधान में 13वां संशोधन किया गया ताकि प्रांतीय परिषद की स्थापना हो सके. 13वें संशोधन का मक़सद सत्ता का हस्तांतरण था. सत्ताधारी UNP ने इसका समर्थन किया था जबकि ज़्यादातर विपक्षी पार्टियों ने विरोध किया. विपक्षी पार्टियों में सिर्फ़ श्रीलंका महाजना पार्टी (SLMP) ने संशोधन का साथ दिया जिसकी स्थापना मशहूर राजनेता विजया कुमारतुंगे ने की थी जिनकी 1988 में हत्या कर दी गई. सत्ता के हस्तांतरण पर उसके बाद 33 साल से चर्चा होती रही है जिसके दौरान कई वादे किए गए जैसे कि महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल के दौरान ’13 प्लस’ का वादा. गोटाभाया राजपक्षे की मौजूदा सरकार में प्रांतीय परिषद के प्रभारी मंत्री रियर एडमिरल सरत वीरासेकरा ने हाल के एक इंटरव्यू में बताया कि: ‘मैं व्यक्तिगत तौर पर न तो प्रांतीय परिषद, न ही सत्ता के हस्तांतरण के पक्ष में हूं’ लेकिन प्रांतीय परिषद के मंत्री के तौर पर काम करता रहूंगा. राजनीतिक चरित्र के रूप में संगठित तत्व और अति राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ सरकार सत्ता के हस्तांतरण को लेकर संविधान के गठन की प्रक्रिया में अलग रवैया अख्तियार कर सकती है जो श्रीलंका के राजनीतिक इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ साबित होगा.
ये 1988-1990 के बीच नौजवानों के विद्रोह का अशांत दौर था जिसकी वजह से श्रीलंका में हज़ारों लोगों की जान गई. श्रीलंका में ये दो तरफ़ा युद्ध का मैदान था. एक तरफ़ तमिल टाइगर थे और दूसरी तरफ़ नौजवानों के विद्रोह को कुचला जा रहा था.
सत्ता में तब्दीली
नये कैबिनेट मंत्रियों को नियुक्त करने के एक महीने के भीतर संसद में दो-तिहाई बहुमत हासिल करने वाले राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे ने 2 सितंबर को एक बड़े संवैधानिक संशोधन को मंज़ूरी दी. इस 20वें संशोधन का मक़सद 19वें संशोधन में किए गए बदलाव को पलटकर फिर से विधायिका से शक्ति छीनकर कार्यपालिका को देने का था. पूर्व राष्ट्रपति सिरिसेना ने 19वें संशोधन के ज़रिए 5 साल पहले अपनी शक्ति कम की थी. सिरिसेना संसद सदस्य के तौर पर निर्वाचित होने के बाद राजपक्षे सरकार में शामिल हुए. सत्ता को इधर से उधर ले जाना ख़तरनाक कवायद है. राष्ट्रपति गोटाभाया के फ़ैसले को कार्यपालिका के द्वारा तेज़ और असरदार फ़ैसले लेने के वादे से जोड़कर देखा जा रहा है. लेकिन सत्ता अगर ग़लत हाथों में आ गई तो ये फ़ैसला बुरे सपने की तरह साबित हो सकता है. ऐसा मामला पाकिस्तान में पेश आया था जब जनरल ज़िया-उल-हक़ ने संविधान में 8वें संशोधन के ज़रिए कार्यपालिका को मज़बूत बनाया जिसकी वजह से पाकिस्तान में तानाशाही शासन स्थापित हो गया. वैसे तो गोटाभाया को देश के ज़्यादातर लोग उदारवादी राष्ट्रपति के तौर पर देखते हैं जिन्होंने एक नई राजनीतिक संस्कृति लाने और आधुनिकीकरण के लिए ज़रूरी सुधार का वादा किया है लेकिन इस संशोधन के नतीजे को उनके कार्यकाल के बाद भी समझना ज़रूरी है क्योंकि लंबे वक़्त में ऐसे संवैधानिक सुधारों ने कई देशों को तोड़ कर रख दिया है ख़ास तौर पर दक्षिण एशिया में.
मज़बूत कार्यपालिका तेज़ी और प्रभावशाली ढंग से काम करने में सक्षम होगी. लेकिन उसके पास किसी तरह की जवाबदेही काफ़ी कम होगी. पूर्व राष्ट्रपति सिरिसेना के कार्यकाल में कई तरह की जवाबदेही के ज़रिए कार्यपालिका की शक्ति सीमित कर दी गई जिसकी वजह से मज़बूत नौकरशाही के वीटो पावर के साथ आयोगों का गठन हुआ. इसका नतीजा ये हुआ कि कार्यपालिका बेअसर दिखने लगी और फ़ैसले लेने पर इसका असर हुआ. बहुत ज़्यादा नियंत्रण ‘वीटोक्रेसी’ का गठन करेगा जैसा कि फ्रांसिस फुकुयामा ने बताया था. इससे संसद में बहुमत हासिल करने वाली एक राजनीतिक पार्टी को भी मदद मिलती है कि वो बहुमत के विचारों को लागू करे और अल्पसंख्यकों पर ज़्यादा चौकस नज़र रखने के लिए मजबूर करेगी. श्रीलंका के लिए ज़रूरी है कि वो मज़बूत जवाबदेही और मज़बूत कार्यपालिका के बीच संतुलन स्थापित करे.
मज़बूत कार्यपालिका तेज़ी और प्रभावशाली ढंग से काम करने में सक्षम होगी. लेकिन उसके पास किसी तरह की जवाबदेही काफ़ी कम होगी. पूर्व राष्ट्रपति सिरिसेना के कार्यकाल में कई तरह की जवाबदेही के ज़रिए कार्यपालिका की शक्ति सीमित कर दी गई जिसकी वजह से मज़बूत नौकरशाही के वीटो पावर के साथ आयोगों का गठन हुआ.
श्रीलंका के संविधान में 20वां संशोधन हाल की उन घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुआ है जिसकी वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरा महसूस किया जाने लगा. पूर्व की सिरिसेना-विक्रमसिंघे की सरकार में कार्यपालिका की कमज़ोरी को राष्ट्रीय सुरक्षा में सुधार के रास्ते में अड़चन की तरह देखा जाने लगा. कार्यपालिका को शक्ति की बहाली पश्चिमी देशों में चल रही मौजूदा चर्चा को बढ़ावा देने की तरह है जो राजपक्षे की सरकार के अधीन लोकतंत्र पर सवाल उठाते हैं. जैसे कि हर समाधान और ज़्यादा चुनौती लेकर आता है, उसी तरह राजपक्षे भाइयों की सरकार के लिए ज़रूरी है कि संविधान में बदलाव के ज़रिए जो छोटी जगह उसने बनाई है, उसमें वो ख़ुद के लोकतांत्रिक मूल्यों को पेश करे.
श्रीलंका में चीन की कंपनियों का बहिष्कार
अमेरिका के विदेश मंत्रालय में ब्यूरो ऑफ ईस्ट एशियन एंड पैसिफिक अफेयर्स के सहायक सचिव डेविड आर. स्टिलवेल के मुताबिक़ चीन का प्रादेशिक विस्तारवाद ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह देखा जाता है. दक्षिणी चीन सागर में दूर-दराज के भौगोलिक क्षेत्र का विकास सीधे तौर पर श्रीलंका पर असर डाल रहा है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा: ‘चीन की सरकार को चाइना कम्युनिकेश कंस्ट्रक्शन कंपनी (CCCC) या दूसरे सरकारी कारोबार के इस्तेमाल के ज़रिए विस्तारवादी एजेंडा लागू करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. जब तक चीन दक्षिणी चीन सागर में अपना ज़बरदस्ती वाला व्यवहार नहीं बदलता, अमेरिका कार्रवाई करेगा और इस अस्थिर करने की कार्रवाई का मुक़ाबला करने में हम अपने साथियों और साझेदारों के साथ खड़े हैं’. श्रीलंका में पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट को विकसित कर रही CCCC, जिसने कोलंबो के तटीय भूगोल में बदलाव कर समुद्र के किनारे का फिर से निर्माण किया, और चीन की कई कंपनियां अमेरिकी प्रतिबंधों के दायरे में आ गईं. इसकी वजह से अमेरिका-चीन संबंध और ख़राब होंगे और चीन के BRI के तहत आने वाले प्रोजेक्ट पर इसका असर पड़ेगा.
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा: ‘चीन की सरकार को चाइना कम्युनिकेश कंस्ट्रक्शन कंपनी (CCCC) या दूसरे सरकारी कारोबार के इस्तेमाल के ज़रिए विस्तारवादी एजेंडा लागू करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
कोलंबो पोर्ट सिटी विकसित करने वाले इस प्रोजेक्ट जापान ने एक सब्सिडी कार्यक्रम का विस्तार किया है जो चीन में मौजूद जापान की कंपनियों को चीन से बाहर निकलने में मदद करेगा. जापान के सप्लाई चेन कार्यक्रम ने माना है कि चीन से बाहर निकलने वाली कंपनियां भारत और बांग्लादेश में निवेश कर सकती हैं. का प्रचार पूरी दुनिया में कर रहे हैं जहां अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां आएंगी और विकसित हिस्से में से ज़्यादातर भाग वो लीज़ पर लेंगी. अमेरिका और चीन के बीच बढ़ रहा शीत युद्ध कई अर्थव्यवस्थाओं पर असर डालेगा और आने वाले वर्षों में घरेलू नीति-निर्माताओं के साथ हस्तक्षेप कर सकता है. इसी तरह के एक घटनाक्रम में, जापान ने एक सब्सिडी कार्यक्रम का विस्तार किया है जो चीन में मौजूद जापान की कंपनियों को चीन से बाहर निकलने में मदद करेगा. जापान के सप्लाई चेन कार्यक्रम ने माना है कि चीन से बाहर निकलने वाली कंपनियां भारत और बांग्लादेश में निवेश कर सकती हैं. चीन पर निशाना साधने वाले कार्यक्रम के तौर पर देखे जाने वाले अमेरिका-भारत सामरिक साझेदारी फोरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि महामारी ने “दुनिया को दिखाया है कि ग्लोबल सप्लाई चेन को विकसित करने का फ़ैसला सिर्फ़ लागत के आधार पर नहीं होना चाहिए. ये विश्वास के आधार पर भी होना चाहिए”. पूर्वी एशिया में थाईलैंड के KRA नहर परियोजना में चीन को बाहर होना पड़ा, एक और भौगोलिक झड़प को मलक्का को लेकर असमंजस के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है. अमेरिकी पाबंदियां, जापान की तरफ़ से सप्लाई-चेन में समायोजन और KRA को रद्द करने से चीन वैकल्पिक इंतज़ाम की तरफ़ नज़र डालेगा और अपनी रणनीति में भी तब्दीली लाएगा जिससे कि वो अपने हितों की ज़िद के साथ सुरक्षा कर सके.
जापान ने एक सब्सिडी कार्यक्रम का विस्तार किया है जो चीन में मौजूद जापान की कंपनियों को चीन से बाहर निकलने में मदद करेगा. जापान के सप्लाई चेन कार्यक्रम ने माना है कि चीन से बाहर निकलने वाली कंपनियां भारत और बांग्लादेश में निवेश कर सकती हैं.
चीन की हठधर्मिता और अमेरिका-चीन के रिश्तों में और ज़्यादा ख़राबी से श्रीलंका समेत दुनिया के कई देशों को इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. एक तरफ़ अलग-अलग देश जहां अपने घरेलू शक्ति संतुलन को सुलझाने में व्यस्त हैं और अपनी तरफ़ आने वाले मूल्यों का बखान कर रहे हैं, उसी हालत में वो आगे बढ़ने, आधुनिकीकरण, सुधार और उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाने का मौक़ा गंवा सकते हैं.
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