अफ़ग़ानिस्तान के हालात और उस इलाक़े में तालिबान की मौजूदगी- 1990 के दशक के आख़िरी वर्षों से ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चर्चा का अहम मुद्दा बनी हुई है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने उस वक़्त सिर उठाया था जब वहां से सोवियत सेनाएं वापस चली गई थीं. वर्ष 1996 में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के ज़्यादातर हिस्सों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान का अंदरूनी संघर्ष तेज़ी से बढ़ गया था. तालिबान की दमनकारी नीतियों और आतंकियों को उसके समर्थन के मुद्दे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी सुर्ख़ियां बटोरने लगे थे. 9/11 के हमले के बाद जब अमेरिका ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा, तो अमेरिकी सेनाएं स्थायी रूप से अफ़ग़ानिस्तान में तैनात हो गईं. हालांकि, अगस्त 2021 में अमेरिका को हड़बड़ी में अपनी सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुलानी पड़ीं. अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष के उतार-चढ़ाव के दौरान उठते रहे इन मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने कई प्रस्ताव पारित किए हैं.
2019 में पारित प्रस्ताव 2501 तक में तालिबान को अन्य हिंसक, उग्रवादी और अवैध हथियारबंद संगठनों जैसे कि अल क़ायदा और ISIL (दाएश) के सहयोगियों के साथ जोड़कर देखा जाता था.
तालिबान का ज़िक्र कब से होने लगा था?
तालिबान के साथ संयुक्त राष्ट्र के रिश्ते, अफ़ग़ानिस्तान के लगातार बदलते राजनीतिक हालात के हिसाब से उतार-चढ़ाव के दौर से गुज़रते रहे हैं. 2001 में जब तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता से बेदख़ल करने के बाद बॉन समझौता हुआ था, तो संयुक्त राष्ट्र ने अफ़ग़ानिस्तान में अंतरिम सरकार का समर्थन किया था. वहां से लेकर साल 2021 में सुरक्षा के नाम पर तालिबान को 60 लाख डॉलर की मदद देने के प्रस्ताव तक, पिछले दो दशकों में तालिबान और संयुक्त राष्ट्र के रिश्तों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ देखने को मिला है. तालिबान या अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक अमीरात यानी एक उग्रवादी, इस्लामिक जिहादी राजनीतिक आंदोलन और संयुक्त राष्ट्र के रिश्तों को उन प्रस्तावों की ज़ुबान के ज़रिए समझा जा सकता है, जो सुरक्षा परिषद ने पिछले तमाम वर्षों में पारित किए हैं.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के शुरुआती प्रस्तावों में तालिबान को झिड़की देने या उसकी हरकतों की आलोचना वाली भाषा दिखती है. इन प्रस्तावों में, तालिबान द्वारा उठाए गए उन क़दमों, जिनके चलते संयुक्त राष्ट्र के मानवीय मिशन में लगे लोगों को देश से निकालना पड़ा, की ‘भर्त्सना करने’ और 1998 में पारित प्रस्ताव 1214 के ज़रिए तालिबान द्वारा ईरान के प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों और राजनयिकों को अगवा करने की ‘आलोचना करने’ जैसे शब्द देखने को मिलते हैं. हाल के दिनों यानी 2019 में पारित प्रस्ताव 2501 तक में तालिबान को अन्य हिंसक, उग्रवादी और अवैध हथियारबंद संगठनों जैसे कि अल क़ायदा और ISIL (दाएश) के सहयोगियों के साथ जोड़कर देखा जाता था. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, तालिबान की कड़ी आलोचना करती रही थी, जो कि बिल्कुल सही भी थी.
संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी सदस्य देशों की नुमाइंदगी को मान्यता देने वाली समिति ने पहले ही अफ़ग़ानिस्तान की सीट पर तालिबान को अधिकार देने का फ़ैसला टाल दिया है.
‘तालिबान’ शब्द से परहेज़
हालांकि, हालात में आए हालिया बदलावों के बाद से तालिबान को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों की ज़ुबान भी बदली हुई नज़र आती है. ख़ास तौर से तब से, जब से अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत शुरू हुई और जब पिछले साल 15 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का दोबारा क़ब्ज़ा हो गया. ऐसा लगता है कि उसके बाद से तालिबान के प्रति सुरक्षा परिषद के रवैये में भी नरमी आ गई है. ये बाद, सुरक्षा परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव 2513 में साफ़ दिखती है. इस प्रस्ताव में सुरक्षा परिषद ने तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए न करने देने का वादा करने, और अफ़ग़ानिस्तान के अन्य समूहों से बातचीत शुरू करने के लिए तालिबान की तारीफ़ की है. ख़ास तौर से प्रस्ताव 2543 कहता है कि, ‘न तो तालिबान और न ही अफ़ग़ानिस्तान के किसी और समूह को किसी अन्य देश में सक्रिय आतंकवादी संगठन का समर्थन करना चाहिए’. वहीं, प्रस्ताव 2596 में लिखा है कि, ‘किसी अफ़ग़ानी संगठन या व्यक्ति को किसी अन्य देश में सक्रिय आतंकवादी या आतंकी संगठन का समर्थन नहीं करना चाहिए’. इन प्रस्तावों में साफ़ देखा जा सकता है कि वाक्यों में ‘तालिबान’ शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज़ की गई है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हालिया प्रस्ताव 2593 में इस्लामिक स्टेट खुरासान समूह द्वारा काबुल के हामिद करज़ई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर किए गए हमलों की कड़ी आलोचना करते हुए अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिबद्धता को दोहराया गया है. ये प्रस्ताव, सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1267 से काफ़ी मिलता जुलता है, जिसे केन्या की राजधानी नैरोबी और तंज़ानिया के दार-ए-सलाम शहर में अमेरिकी दूतावासों पर आतंकी हमलों के बाद पारित किया गया था. हालांकि प्रस्ताव 1267 में कहा गया था कि अगर तालिबान अपने वादों पर खरा नहीं उतरता है तो उसे ‘अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए ख़तरा माना जाएगा’ और तब सुरक्षा परिषद को ये अधिकार होगा कि वो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के चैप्टर 7 के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करने को स्वतंत्र होगी. इसकी तुलना में अगर हम प्रस्ताव 2593 को देखें तो उसे असरदार ढंग से लागू करने की कोई शब्दावली नहीं दिखती. इसके अलावा, इस प्रस्ताव में नरमी वाले लफ़्ज़ों जैसे कि ‘आलोचना करना’, ‘ध्यान देना’ और ‘मांग करना’ का इस्तेमाल हुआ है, न कि सख़्त लहज़े जैसे कि कड़ी आलोचना या अपील करने जैसे पहले प्रयोग किए गए जुमलों का इस्तेमाल. सच तो ये है कि प्रस्ताव का पहला ड्राफ्ट, जिस पर रूस और चीन ने ऐतराज़ जताया था, उसमें तालिबान पर अधिक ज़िम्मेदारी डाली गई थी. हालांकि, जो प्रस्ताव बाद में पारित किया गया, उसमें तालिबान के प्रति काफ़ी नरमी बरती गई. यहां तक कि ‘तालिबान’ शब्द का भी इस्तेमाल नहीं हुआ और ‘सभी पक्षों’ का ज़िक्र किया गया.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्पष्ट नज़रिया
कुछ लोगों का मानना है कि जिस तरह से तालिबान के प्रति संयुक्त राष्ट्र के रुख़ में नरमी आती जा रही है, उससे हो सकता है कि आने वाले समय में संयुक्त राष्ट्र में अफ़ग़ानिस्तान के प्रतिनिधि के तौर पर तालिबान को ही न जगह दे दी जाए. हालांकि, इसकी संभावना बहुत कम है. संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी सदस्य देशों की नुमाइंदगी को मान्यता देने वाली समिति ने पहले ही अफ़ग़ानिस्तान की सीट पर तालिबान को अधिकार देने का फ़ैसला टाल दिया है. इसका साफ़ मतलब है कि साल 2022 में संयुक्त राष्ट्र में तालिबान के प्रतिनिधि को बैठने की जगह नहीं मिलने जा रही है. इसके अलावा, तालिबान को संयुक्त राष्ट्र के मान्यता देने से किसी देश पर ताक़त के ज़रिए क़ब्ज़ा करने वाले एक उग्रवादी संगठन पर मुहर लगाने की ऐसी मिसाल क़ायम हो जाएगी, जो आगे चलकर अन्य आतंकवादी संगठनों की तरफ़ से भी ऐसी मांग उठाने का रास्ता खोल देगी.
आज भी तालिबान द्वारा मानव अधिकारों की रक्षा करने, शांति बनाए रखने और आतंकवादी हमले रोकने के जो वादे किए हैं, वो अधूरे हैं.
तालिबान के प्रति संयुक्त राष्ट्र का जो कूटनीतिक रवैया है, उसे हम तालिबान के राज को अपरोक्ष रूप से स्वीकार करने के रूप में नहीं देख सकते हैं. हो सकता है कि आगे चलकर सुरक्षा परिषद का ये रवैया काफ़ी कारगर साबित हो. अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े को मंज़ूर करने से वहां की अंतरिम सरकार, अंतरराष्ट्रीय मंच पर बातचीत के लिए आगे आएगी. हालांकि, उसे न तो पूरी तरह मान्यता मिलेगी और न ही स्वीकार किया जाएगा. ऐसा लगता है कि तालिबान के उग्रवादी रवैये को नरम बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने शांति का एक क़दम आगे बढ़ाया है. इस ‘तुष्टिकरण’ की एक और बड़ी वजह ये उम्मीद हो सकती है कि संयुक्त राष्ट्र से मान्यता लेने के लिए तालिबान, अल क़ायदा या इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठनों को अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़े का इस्तेमाल नहीं करने देगा. अफ़ग़ानिस्तान को आतंकवादी संगठनों का ऐसा अड्डा नहीं बनने देगा, जो दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए ख़तरा बन जाए.
इसका एक चतुराई भरा उदाहरण हमें सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2596 में देखने को मिलता है. हालांकि इस प्रस्ताव में तालिबान का ज़िक्र नहीं किया गया है. लेकिन इसमें बयान किया गया है कि: ‘अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद और उन आतंकी समूहों के मुक़ाबला करने की अहमियत को दोहराता है, जिन्हें सुरक्षा परिषद की समिति ने द्वारा अपने प्रस्तावों 1267 (1999), 1989 (2011) और 2253 (2015) के ज़रिए आतंकी संगठन घोषित किया है’. वैसे तो इस प्रस्ताव में सीधे तौर पर तालिबान का कोई ज़िक्र नहीं किया गया है. लेकिन, जिन पुराने प्रस्तावों (1267, 1989 और 2253) का ज़िक्र किया गया है, उनमें तालिबान का कई बार हवाला दिया गया है और उसका ज़िक्र करते हुए बड़े सख़्त लहज़े का भी इस्तेमाल किया गया है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान में आने वाले मानवीय संकट को देखते हुए, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अफ़ग़ानिस्तान को मदद देने का एक प्रस्ताव स्वीकार किया है. इसके साथ साथ ऐसे तमाम उपाय भी किए गए हैं, जिससे मानवीय मदद की ये रक़म तालिबान के हाथ न लग सके.
निष्कर्ष
पिछले तीन दशकों के दौरान तालिबान ने अनगिनत ज़ुल्म ढाए हैं. ऐसे में हो सकता है कि कुछ लोग तालिबान के प्रति नरम रवैया अपनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की आलोचना करें. यहां तक कि आज भी तालिबान द्वारा मानव अधिकारों की रक्षा करने, शांति बनाए रखने और आतंकवादी हमले रोकने के जो वादे किए हैं, वो अधूरे हैं. अफ़ग़ानिस्तान पहले ही आर्थिक तबाही और बड़े पैमाने पर भुखमरी के कगार पर खड़ा है. देश में तेज़ी से बढ़ रहे इस इंसानी संकट के दौर में अंतरराष्ट्रीय समुदाय से और मज़बूती से क़दम उठाने की उम्मीद की जाती है. हालांकि, ऐसा होने की संभावना बहुत कम है.
अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी ‘बेमियादी जंग’ ख़त्म कर दी है. वहीं, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा एक सख़्त प्रस्ताव पारित करने का चीन और रूस के विरोध करने से साफ़ है कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में इस बात पर गहरे मतभेद हैं कि आख़िर अफ़ग़ानिस्तान की पहेली को कैसे सुलझाया जाए. इसी का नतीजा है कि इस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस तबाही मचाने वाले मुद्दे को बहुत संभलकर कूटनीतिक तरीक़े से हल करने की कोशिश कर रही है. तालिबान को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का रुख़, देश के बदलते हालात के हिसाब से परिवर्तित होता रहा है. ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि सुरक्षा परिषद का कौन सा स्थायी देश, तालिबान के साथ किस तरह के रिश्ते चाहता है. तालिबान के प्रति नरमी बरतने से उसमें बस नाममात्र का बदलाव लाया जा सकता है. तालिबान को लेकर एक सख़्त लहज़े वाला प्रस्ताव न पारित होने की सूरत में सुरक्षा परिषद के पास बस यही एक विकल्प बचता है. अब ये देखने वाली बात होगी कि क्या इस नरमी से तालिबान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांग मानने के लिए राज़ी किया जा सकेगा? या फिर इससे एक बार फिर ये साबित होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति और सुरक्षा के नाज़ुक हालात से निपट पाने में सुरक्षा परिषद अक्षम है.
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