Author : Shashi Tharoor

Published on May 16, 2020 Updated 0 Hours ago

राजनेता आख़िर ख़राब हवा की फिक्र करें भी तो क्यों? जिस जनता की वो नुमाइंदगी करते हैं वो ख़ुद ही अपने जन प्रतिनिधियों को इस विषय में जवाबदेह नहीं मानती. भारत में साफ़ हवा कोई चुनावी मुद्दा ही नहीं है. और हैरान करने वाली बात है कि हमारे यहां लोगों के लिए सेहत भी कोई मुद्दा नहीं है.

नीले आसमान के पीछे क़ैद: महामारी और हवा की गुणवत्ता

हमारे समाज पर कोरोना वायरस के रोज़ के हमले और इसे रोकने के लिए लगाए गए ख़ुद लॉकडाउन के अंधकार भरे माहौल के बीच, हम सबके आसमान पर चमकती उम्मीद की एक किरण ऐसी है, जिसकी अनदेखी करना असंभव है. और वो है चटख़ नीला आसमान और साफ़ हवा, जिसका हम सब आनंद उठा रहे हैं.

हमारे देश की राष्ट्रव्यापी वायु प्रदूषण की समस्या की सबसे भयंकर और पूरे साल रहने वाली मिसाल है, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र. साल के ज़्यादातर दिनों में यहां पर औसत हवा की गुणवत्ता नेशनल एयर क्वालिटी इंडेक्स में ख़राब से लेकर भयंकर बनी रहती है. लेकिन, लॉकडाउन के दौरान इस हवा के साथ मानो चमत्कार हो गया है. लॉकडाउन के कारण निर्माण कार्य, औद्योगिक गतिविधियां और सड़क पर गाड़ियों की तादाद नगण्य है, तो आज दिल्ली की हवा स्वच्छता के शिखर पर दिखाई देती है. जबकि इन सभी गतिविधियों के कारण दिल्ली की आब-ओ-हवा 2.5 पीएम के स्तर तक गिर जाती है.[1]

अगर हम पांच अप्रैल के एक दिन के अपवाद को हटा दें, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुछ उत्साही समर्थकों ने उनकी कोरोना वायरस से लड़ने में मदद कर रहे महत्वपूर्ण सेवा प्रदाताओं के सम्मान में दिया जलाने की अपील के जवाब में पटाखे फोड़ डाले थे,(जिसका दुष्प्रभाव अगले दिन सुबह तक रहा था) तो शहर का एयर क्वालिटी इंडेक्स इतना बेहतर हो गया था कि उस पर यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था. ये वाक़ई ताज़ादम करने वाली बात है कि दिल्ली का एक्यूआई (Air Quality Index) पिछले लगभग दो महीनों के दौरान तीस से नीचे रहा है. एक रोज़ तो गर्मियों के दिन में अचानक होने वाली बारिश के कारण ये एक अंक तक गिर गया था.

यहां तक कि लॉकडाउन लागू होने से पहले, 22 मार्च 2020 को एक दिन के जनता कर्फ्यू से भी दिल्ली वालों को हवा साफ़ होने का जितना लाभ मिला था, वो ज़बरदस्त था. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कहा था कि जनता कर्फ्यू के दौरान उसने पीएम 10 के स्तर में भारी गिरावट (-44 प्रतिशत) दर्ज की थी. पीएम 2.5 में ये गिरावट (-34 प्रतिशत) देखी गई थी. तो नाइट्रोजन ऑक्साइड के स्तर में (-51%) की गिरावट आई थी. इसके बाद के हफ़्ते में लॉकडाउन लागू होने के बाद प्रदूषण के इन सभी मानकों में 71 फ़ीसद की कमी आई थी.[2]

और, ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन के कारण सिर्फ़ दिल्ली वालों को साफ़ हवा में सांस लेने का मौक़ा मिला है. एक हालिया (और आश्चर्यजनक रूप से तथ्यों पर आधारित) व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का नगीना जो बहुत शेयर किया जा रहा था, उसके मुताबिक़ साफ़ हवा और आसमान के कारण आप पहली बार पंजाब के जालंधर शहर से हिमाचल प्रदेश में हिमालय की पहाड़ियां देख सकते हैं[3].

हमारे देश के जो सबसे प्रदूषित शहर हैं, वहां भयंकर धुंध की जगह साफ़ हवा ने ले ली है. ये इकलौती ऐसी झलक नहीं है, जिसका अनुभव हम सब भारतीय लोग लगभग भुला चुके हैं. कोरोना वायरस की महामारी से हमारी मौजूदा लड़ाई के कारण एक और गंभीर कारण है, जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.

अगर हम अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को और बेहतर नहीं बनाते हैं, तो भविष्य में हम ऐसी संक्रामक बीमारियों से निपट पाने में कमज़ोर साबित होंगे. इसका बुरा प्रभाव हमारी आर्थिक क्षमताओं पर भी पड़ेगा. और आख़िर में भारत की तरक़्क़ी की अगुवाई यहां के कामकाजी लोग करते हैं

हार्वर्ड के टी. एच, चैन स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के शुरुआती अनुसंधान[4] से इशारा मिलता है कि वायु प्रदूषण और कोविड-19 की भयंकरता में एक संबंध तो है. यूनिवर्सिटी के रिसर्चर ने अमेरिका की लगभग तीन हज़ार काउंटी के अपने अध्ययन में पाया है कि, अगर ख़राब हवा यानी पीएम 2.5 के स्तर में ज़रा भी वृद्धि होती है, तो इससे कोविड-19 से मौत का ख़तरा बढ़ जाता है. हार्वर्ड के इस अध्ययन के मुताबिक़ जिन काउंटियों में पीएम 2.5 के स्तर में एक माइक्रोग्राम भी अधिकता दर्ज की गई है, वहां बाक़ी काउंटियों के मुक़ाबले कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों के मरने की आशंका 15 प्रतिशत अधिक थी.

प्रदूषण और कोरोना वायरस से मौत के बीच संबंध को दर्शाने वाला ये इकलौता अध्ययन नहीं है. इटली में भी डेनमार्क की आरहस यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसी ही रिसर्च की थी. जिसके अनुसार इटली के उत्तरी इलाक़ों में जहां प्रदूषण का स्तर ज़्यादा है, वहीं पर कोरोना वायरस से संबंधित मौतों की संख्या ज़्यादा देखी गई (उत्तरी इटली में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों में से 12 प्रतिशत की मौत हुई, तो दक्षिणी इटली में ये तादाद केवल 4.5 फ़ीसद थी).[5] ये अध्ययन, 2003 में कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक अध्ययन जैसे ही हैं, जिसमें पाया गया था कि चीन के उन इलाक़ों में सार्स महामारी का प्रकोप ज़्यादा घातक था, जहां की हवा की गुणवत्ता काफ़ी ख़राब थी[6].

ये हम उन सभी लोगों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए, जो भयंकर वायु प्रदूषण वाले इलाक़ों में रहते हैं. ख़राब हवा में लगातार रहने के कारण, जिसकी दिल्ली के लोगों को आदत सी पड़ गई है, हम सभी में धीरे-धीरे सांस लेने का सिस्टम कमज़ोर होता जाता है. इसके अलावा शरीर में ऐसी अन्य कमज़ोरियां भी आ जाती हैं, जो हमें कोरोना जैसे वायरस के प्रति और कमज़ोर बना देती हैं. ऐसा उन लोगों मे भी होता है, जो औसतन युवा होते हैं, नियमित रूप से वर्ज़िश करते हैं. धूम्रपान नहीं करते और सेहतमंद खाना खाते हैं.

इस संदर्भ में भारत की स्थिति बेहद भयंकर है. कोलकाता स्थित चितरंजन नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट (CNCI) द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया था कि दिल्ली में चार से 17 वर्ष के बच्चों के सांस लेने और फेफड़ों की स्थिति बताने वाले प्रमुख संकेतक, देश के अन्य इलाक़ों में रहने वाले बच्चों से काफ़ी ख़राब हैं. देश के अन्य हिस्सों के बच्चों के सांस लेने का सिस्टम, दिल्ली के बच्चों के मुक़ाबले चार गुना बेहतर काम कर रहा था.

ये एक ऐसा मसला है जो एक देश के तौर पर हमारी आर्थिक तरक़्क़ी को पटरी से उतार सकता है. हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन का एलान करते हुए राष्ट्र के नाम अपने संदेश में अठारहवीं सदी के मशहूर उर्दू शायर मीर तक़ी मीर के शेर के हवाले से बिल्कुल सही कहा था कि, ‘जान है तो जहान है’, लेकिन ख़राब होती हवा के आर्थिक संकेत, जो कोविड-19 के साथ बिल्कुल खुल कर सामने आ गए हैं, वो बेहद भयंकर हैं. 2013 में विश्व बैंक के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि वायु प्रदूषण के कारण मज़दूरों की आमदनी और उनके कल्याण में ख़र्च होने वाली रक़म, भारत के जीडीपी की लगभग 8.5 प्रतिशत के बराबर है. वायु प्रदूषण के कारण काम के दिनों को होने वाला नुक़सान (जैसे कि काम के दिनों में आई क्षति) से केवल एक वर्ष में 55.39 अरब डॉलर का नुक़सान भारत को हुआ था. इसके अलावा देश में समय पूर्व मौत से लगभग 505 अरब डॉलर की हानि हुई, जो हमारे देश की जीडीपी की लगभग 7.6 प्रतिशत है. दूसरे शब्दों में कहें तो, ज़हरीली हवा ख़ामोशी से क़त्ल कर रही है. और आज की तारीख़ में हम भारत में जैसी सांस ले रहे हैं, वो अपने आप में लोगों की सेहत का एक बड़ा संकट बन गई है. ये एक ऐसी चुनौती है, जो धीरे-धीरे मगर निश्चित रूप से हमारे देश को कमज़ोर करती जा रही है.

इन सबके बावजूद, वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के व्यापक प्रयास बेहद सीमित रहे हैं. इस समस्या को लेकर संकीर्ण रवैया अपनाने के लिए आलोचना झेलने के बाद, मौजूदा सरकार ने नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम शुरू करने का एलान किया था. जिसकी मांग गोलमेज सम्मेलन 1 के संयोजक (एयर क्वालिटी एशिया के झंडे तले) पिछले तीन वर्षों से कर रहे थे. एनसीएपी (National Clean Air Program) वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए अब तक का हमारा सबसे व्यापक कार्यक्रम कहा जा रहा है. और कम से कम काग़ज़ों पर तो इसका इरादा देश के कुछ शहरों में पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा को कम करने का है. हमारे देश के इस कार्यक्रम का नाम रखने की प्रेरणा चीन के नेशनल एयर पॉल्यूशन एक्शन प्लान से मिली. चीन ने अपने इस एक्शन प्लान के तहत उत्सर्जन को लेकर बेहद सख़्त प्रतिबंध लगाए थे और इसकी रोकथाम के लिए कड़े दिशा निर्देश जारी किए थे. जिससे ज़हरीली हवा को सांस लेने की दिशा में बड़ी कामयाबी मिली थी. लेकिन, चीन के प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम से नाम लेने की प्रेरणा के अलावा, हमारे देश का प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम ज़रा भी उम्मीद नहीं जगाता. ऐसा लगता है कि इसे हड़बड़ी में बिना किसी ख़ास तैयारी के घोषित कर दिया गया. और अब तक तो ये कार्यक्रम सिर्फ़ नाम के स्तर पर चीन की भौंडी नक़ल लग रहा है.

इसकी एक बड़ी वजह तो ये है कि इस मामले में सामान्य जन मानस की भागीदारी और इस विषय के तकनीकी विशेषज्ञों की बहुलता के बावजूद, इस योजना और इसके लक्ष्यों को लेकर बहुत ही कम सार्वजनिक सलाह मशविरा हुआ. जबकि इन समूहों की मदद से एक ऐसी प्रक्रिया को अपनाया जा सकता था, जो एक सीमित दायरे में रह कर इस योजना को लेकर अपनी आशंकाएं ज़ाहिर कर सकते थे. वैसे भी ये योजना महज़ 102 शहरों के लिए घोषित की गई है. (जबकि ग्रीनपीस के ‘एयरपोकैलिप्स’ सर्वे में शामिल भारत के 313 शहरों में से 241 में हवा की गुणवत्ता बेहद ख़राब पायी गई है) इस योजना के तहत जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं,वो भी बेहद मामूली हैं (जैसे कि वर्ष 2024 तक तय शहरों में पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 30 प्रतिशत कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है. इस क्षेत्र में कार्य करने वालों का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों को तो हम भूल ही जाएं, इतनी कमी से तो अच्छी हवा के राष्ट्रीय मानकों के बराबर भी हवा नहीं साफ होगी)

इस योजना के एलान का समय भी एक चिंता का विषय था. वर्ष 2017 से ही सरकार के घोषित लक्ष्यों में से एक ये भी था कि व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता में बेहतरी लानी है. लेकिन, वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए इस योजना को अचानक 2019 के आम चुनाव से पहले घोषित कर दिया गया. और ये तब था, जब एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार ने अपना पहला कार्यकाल सफलतापूर्वक समाप्त किया था. इसीलिए इस योजना के एलान को सरकार की ओर से महज़ औपचारिकता के तौर पर देखा गया, न कि वायु प्रदूषण की समस्या को सीधे तौर पर चुनौती देने वाली दृढ़ इच्छाशक्ति के तौर पर.

ऐसा भी लगता है कि सरकार की वायु प्रदूषण कम करने की इस योजना के लिए क़ानूनी व्यवस्थाएं भी नहीं की गई हैं. जिससे कि उत्तरदायित्व तय हो और प्रदूषण के नियम तोड़ने वालों पर जुर्माना लगाया जा सके. इसी कारण से इस योजना के ज़मीनी स्तर पर प्रभावी होने पर भी प्रश्नचिह्न लग गया. और आख़िर में जहां तक इस योजना के लिए फंड की बात है, तो पहले साल इसके लिए बजट में केवल तीन सौ करोड़ का प्रावधान किया गया था. (इसमें पांच लाख से कम आबादी वाले शहरों के लिए महज़ दस लाख रुपए और पांच से दस लाख की आबादी वाले शहरों के लिए केवल बीस लाख रुपयों का प्रावधान था). इतनी रक़म से तो किसी योजना को बस नाम के लिए लागू किया जा सकता है. और हालांकि सरकार इस बजट में से 280 करोड़ रुपए का वितरण करने में सफल रही. लेकिन ऐसा लगता है कि बजट के बंटवारे में किसी वास्तविक पैमाने को आधार नहीं बनाया गया. देश की राजधानी दिल्ली, जिसे भारत ही नहीं पूरी दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर कहा जाता है और जिसकी ख़राब हवा की चर्चा लगातार सुर्ख़ियां बटोरती रहती है, उसे इस बजट से एक रुपए भी नहीं मिले.

ईमानदारी की बात तो ये है कि वायु प्रदूषण की समस्या के लिए केवल इसी सरकार पर आरोप लगाना ठीक नहीं है. हालांकि पारंपरिक रूप से हम ये तर्क दे सकते हैं कि उन्हें जिस तरह का जनादेश मिला, तो उसके पास वो राजनीतिक शक्ति थी जिससे वो साफ़ हवा के लिए व्यापक अभियान छेड़ सकते थे. वायु प्रदूषण की समस्या, आख़िरकार, ‘आम लोगों की तबाही’ की शानदार मिसाल है. क्योंकि हम सब इस मामले में दोषी हैं. हमारा राजनीतिक वर्ग, जो दूर की न सोच पाने के लिए पहले से ही बदनाम है, वो इस समस्या से निपटने में कोई दूरगामी नेतृत्व प्रदान करने में पूरी तरह से विफल रहा है. (और इसकी जगह राजनेताओं ने वायु प्रदूषण को लेकर एक दूसरे पर सिर्फ़ आरोप प्रत्यारोप लगाए हैं, जैसा कि हमने पिछली सर्दियों में धुंध के दौरान कुछ राज्यों की सरकारों के बीच होते देखा था.) जैसा कि मैंने ख़ुद पाया है कि इस विषय पर मैंने जो गोलमेज सम्मेलन बुलाए, उनमें राजनेताओं को चर्चा के लिए आने के लिए राज़ी करना भी एक बड़ी चुनौती साबित हुआ.

और राजनेता आख़िर ख़राब हवा की फिक्र करें भी तो क्यों? जिस जनता की वो नुमाइंदगी करते हैं वो ख़ुद ही अपने जन प्रतिनिधियों को इस विषय में जवाबदेह नहीं मानती. भारत में साफ़ हवा कोई चुनावी मुद्दा ही नहीं है. और हैरान करने वाली बात है कि हमारे यहां लोगों के लिए सेहत भी कोई मुद्दा नहीं है. अमेरिका में 2018 के एक सर्वे में पाया गया था कि एक चुनावी मसले के तौर पर स्वास्थ्य सेवा, 41 प्रतिशत वोटरों के लिए कोई मुद्दा थी. वहीं, दूसरी ओर भारत के एक चिंतित सांसद के तौर पर, मैंने इस विषय पर अलग अलग क्षेत्रों के कई साझेदारों को इकट्ठा करने का काम किया है, ताकि ख़राब हवा से निपटने की कोई रणनीति बन सके. एक भारतीय राजनेता के तौर पर मैं लाखों लोगों की नुमाइंदगी करता हूं. लेकिन, मैंने ख़ुद पाया है कि मेरे इन प्रयासों से किसी में उत्साह पैदा होता नहीं दिखता. इसमें कोई शक नहीं है कि न तो सार्वजनिक स्वास्थ्य और न ही वायु प्रदूषण ऐसे मसले हैं जिनके आधार पर किसी भारतीय राजनेता ने चुनाव जीता या हारा हो.

हालांकि, हमारे यहां आर्थिक तरक़्क़ी के पारंपरिक पैमानों यानी नौकरियों, ग़रीबी उन्मूलन, वित्तीय वृद्धि और खाद्य सुरक्षा जैसे मसलों पर अधिक ज़ोर दिया जाता है. ये बात उचित भी है क्योंकि भारत जैसे देश में जहां हमारे अधिसंख्य नागरिक ग़रीबी रेखा के आस-पास बसर करते हैं, वहां ऐसे मुद्दों को तरज़ीह मिलनी भी चाहिए. लेकिन, मसला तब पेचीदा हो जाता है, जब उच्च वर्ग के लोग भी इसमें शामिल हो जाते हैं. देश में तेज़ी से बढ़ते धुंध के स्तर और ख़राब हवा के कारण, जिनके पास वित्तीय और दूसरे संसाधन हैं, वो एयर प्यूरीफायर या N-95 मास्क और उबर कैब जैसे अस्थायी समाधानों को इस्तेमाल करने लगते हैं. कई बार वो कम समय के लिए घर से काम करने का विकल्प भी आज़माते हैं, ताकि घर से बाहर निकलने पर उन्हें ज़हरीली हवा में सांस न लेनी पड़े. लेकिन, जिन लोगों की ज़िंदगी दिहाड़ी मज़दूरी और जीवन जीने की बुनियादी ज़रूरतें जुटाने में बीतती हो, तो उन्हें अपने आस पास मौजूद ज़हरीली हवा में ही रहना पड़ता है. क्योंकि उन्हें अपने ज़िंदा रहने के लिए बुनियादी ज़रूरतें जुटाने को प्राथमिकता देनी पड़ती है. दोनों ही सूरतों में राजनेताओं पर इस बात का दबाव बिल्कुल नहीं होता कि वो हवा की गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान दें.

अन्य समस्याएं जैसे कि समस्या को उचित रूप से समझने के लिए ज़रूरी आंकड़ों की कमी और अफ़सरशाही के रोड़े जिनके कारण केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय बैठाने में दिक़्क़तें आती हैं, फंड की कमी (जिसका उल्लेख पहले भी किया गया है) और कई मामलों में वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान लागू करने की भारी लागत (आख़िर कोई किसी किसान को कैसे पराली न जलाने के लिए राज़ी कर सकता है, जब वो अपनी समस्या का हल महज़ एक रुपए की माचिस की डिब्बी और थोड़े से तेल से कर सकते हैं) जैसी चुनौतियां आपस में मिलकर ये तय कर देते हैं कि हाल के दिनों तक वायु की गुणवत्ता का मसला इस जैसे लेखों और दिल्ली के एयर प्यूरीफायर से लैस किसी फाइव स्टार होटल में कांफ्रेंस के ज़रिए परिचर्चा तक सीमित रहे.

अगर हम अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को और बेहतर नहीं बनाते हैं, तो भविष्य में हम ऐसी संक्रामक बीमारियों से निपट पाने में कमज़ोर साबित होंगे. इसका बुरा प्रभाव हमारी आर्थिक क्षमताओं पर भी पड़ेगा. और आख़िर में भारत की तरक़्क़ी की अगुवाई यहां के कामकाजी लोग करते हैं

फिर, ऐसा लेख लिखने की क्या ज़रूरत है? इस अंधकार भरे दौर और कल्पना से भी परे की तकलीफ़ झेलने वाले बहुत से लोगों से इतर, इस महामारी ने हमें अपनी प्राथमिकताओं के बारे में बुनियादी तौर पर दोबारा सोचने और उन्हें नए सिरे से तय करने की दिशा में प्रयास करने को मजबूर कर दिया है. संकट के इस दौर में कई ऐसे अवसर भी छुपे हैं, जिन्हें समझने और उन्हें लागू करने की संभावनाएं तलाशने का साहस हमें जुटाना चाहिए. मिसाल के तौर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत कम व्यय (जो इस समय तो हमारी जीडीपी का महज़ 1.28 प्रतिशत है) को हर स्तर पर सुधारने की ज़रूरत है. कोरोना वायरस की महामारी ने हमें दिखाया है कि हमें एक असरदार स्वास्थ्य व्यवस्था में भारी मात्रा में निवेश करने की ज़रूरत है. मेरा मानना है कि आने वाले समय में हम सार्वजनिक स्वास्थ्य की अहमियत समझने में वोटर और जन प्रतिनिधियों दोनों की सोच में बदलाव आते देखेंगे. हालांकि हम सबने पिछले कुछ महीनों में बुरे दौर को झेला है. लेकिन, अब धीरे-धीरे ये बात सबकी समझ में आ रही है कि अगर हम अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को और बेहतर नहीं बनाते हैं, तो भविष्य में हम ऐसी संक्रामक बीमारियों से निपट पाने में कमज़ोर साबित होंगे. इसका बुरा प्रभाव हमारी आर्थिक क्षमताओं पर भी पड़ेगा. और आख़िर में भारत की तरक़्क़ी की अगुवाई यहां के कामकाजी लोग करते हैं. और अगर ये कामकाजी तबक़ा अस्वस्थ होगा, कमज़ोर होगा तो हमें जिस तरक़्क़ी की दरकार है, वो हम हासिल नहीं कर पाएंगे.

पिछले कुछ महीनों में कभी न कभी सभी भारतीयों ने बैठ कर इस मसले पर विचार किया होगा कि सबसे नज़दीकी अस्पताल कौन सा है? इस अस्पताल में किस तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं हैं? किसी एक ज़िले में कितने डॉक्टर और नर्सें हैं? किसी सरकारी अस्पताल की तुलना में निजी अस्पताल या क्लिनिक में इलाज कराना कितना सस्ता या महंगा पड़ेगा? और दोनों तरह के अस्पतालों की गुणवत्ता में किस तरह का फ़र्क़ है? और सबसे बड़ी बात ये है कि हम सबने ख़ुद से सबसे प्रमुख सवाल ये किया है कि, हम ये कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि हम दोबारा ऐसी कमज़ोर और ख़तरे वाली स्थिति में न पड़ें? इस संकट से एक अनूठा अवसर हमें प्राप्त हुआ है. एक समाज के तौर पर हम ये मानने लगे हैं कि एक स्वस्थ जीवन शैली अपने आप में कोविड-19 जैसी महामारियों से निपटने का पहला मोर्चा होती है.

इसका एक नतीजा ये होगा कि भारतीय जनमानस अपनी महामारी के पहले की ज़िंदगी के किसी भी पहलू के ख़िलाफ़ एकजुट होगा. जैसे कि भयंकर वायु प्रदूषण, जो उनकी सेहत के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है. इसी के साथ-साथ जैसे-जैसे स्वस्थ जीवन शैली की अहमियत लोगों को तेज़ी से समझ में आएगी, तो मौजूदा महामारी एक समाज के तौर पर हमें ऐसे प्रयोगों के लिए भी प्रोत्साहित करेगी कि हम काम करने के नए तौर तरीक़ों को भी आज़माएं. हम पारंपरिक तरीक़े से काम करने, आने जाने की जिस शैली के आदी हो चुके हैं उससे अलग कुछ नया सोचें. हम जितने सामान इस्तेमाल करते हैं, उनके बारे में नए सिरे से विचार करें. इन सभी प्रयोगात्मक सोचों से आगे चल कर हम कम में ज़्यादा हासिल करने की सोच विकसित करेंगे. मुझे यक़ीन है कि इन प्रयोगों से हमें एक और लाभ होगा. हमारे सामने वो लाभ स्पष्ट हो जाएंगे जिनके लिए हम अपने बर्ताव में परिवर्तन लाएं. जिनसे वायु की गुणवत्ता जैसे विषयों पर भी प्रभाव पड़ता है.

मुझे पूरा विश्वास है कि हम एक देश के तौर पर एकजुट होकर इस संकट से बाहर निकलने में सफल होंगे और कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग को जीत लेंगे. और अंत में लॉकडाउन का ये दौर भी ख़त्म होगा और हम अपनी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से शुरू करेंगे, ताकि हमने जो वक़्त लॉकडाउन के कारण गंवाया है, उसे दोबारा हासिल कर सकें. मुझे पता है कि हमारे पास आज की तरह आगे भी अनिश्चित काल के लिए अपनी आर्थिक गतिविधियों को रोके रखने के संसाधन नहीं हैं. जितनी जान ज़रूरी है, उतने ही अहम हैं ज़िंदगी चलाने के संसाधन. और उन्हीं के लिए ज़िंदगियों को बचाया जा रहा है. लेकिन, हमें इस अवसर को दोनों हाथों से पकड़ने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम अर्थव्यवस्था को बिना अधिक प्रदूषण के भी रफ़्तार दे सकें. इसका एक विकल्प नवीनीकृत ऊर्जा के संसाधन हो सकते हैं. और सरकार इसके अलावा अन्य क़दम भी उठा सकती है.

जैसा कि मैं काफ़ी समय से कहता आया हूं कि इस संघर्ष के लिए हमें प्रेरणा और उत्साह वर्धन के लिए बस अपने अतीत में झांकना होगा. मिसाल के तौर पर आज ये बात भूलना बहुत आसान है कि 1940 के दशक तक ब्रिटेन, दुनिया की कुल जीडीपी में दस प्रतिशत का भागीदार था, जबकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण भारत ग़रीब देश बन कर रह गया था, जिसे दुनिया भर में ग़रीबी और अकाल के लिए ही जाना जाता था.

हमें ये समझना होगा कि ज़हरीली हवा हम सब पर बुरा असर डालती है. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि हम देश के किस हिस्से में रहते हैं. किस राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करते हैं और किस सामाजिक आर्थिक तबक़े से आते हैं. आइए हम सब मिलकर कोविड-19 को हराते हैं. और साथ ही साथ मिलकर साफ़ हवा को अगले मारक संक्रमण से लड़ने का हथियार बनाते हैं

लेकिन, स्वतंत्रता के बाद अराजकता और बुरी स्थिति के आगे हथियार डाल देने के बजाय उस वक़्त की सरकारों ने आपसी मतभेदों को दरकिनार करके तमाम राजनीतिक वर्गों को एकजुट किया और समाज के सबसे बेहतरीन लोगों और शानदार ज़मीनी कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर ग़रीबी, महामारियों और पितृसत्तात्मक समाज के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी और उसमें विजय भी प्राप्त की. हमें सांस लेने के लिए थोड़ा ठहरने से पहले अभी बहुत लंबा सफर तय करना है. लेकिन, हमें ये भी पता है कि हम ये दूरी तय कर सकते हैं. हम अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं. ये बात ज़हरीली हवा की समस्या से निपटने पर भी लागू होती है.

जब लॉकडाउन हटाया जाता है, तो हमें इस मोर्चे से नज़र हटाने की ग़लती क़तई नहीं करनी चाहिए. क्योंकि ख़राब हवा एक साइलेंट किलर है. और वो दोबारा वापस आने में देर नहीं करेगी. हमारे जैसे वर्गों में विभक्त विविधता भरे देश में, हमें जिन संकटों का रोज़ सामना करना पड़ता है, उनकी संख्या बहुत अधिक है. और कई बार इनमें से कई चुनौतियों को दूसरों पर प्राथमिकता भी देनी पड़ती है. लेकिन, आख़िर में हमें ये समझना होगा कि ज़हरीली हवा हम सब पर बुरा असर डालती है. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि हम देश के किस हिस्से में रहते हैं. किस राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करते हैं और किस सामाजिक आर्थिक तबक़े से आते हैं. आइए हम सब मिलकर कोविड-19 को हराते हैं. और साथ ही साथ मिलकर साफ़ हवा को अगले मारक संक्रमण से लड़ने का हथियार बनाते हैं.


इस लेख के लेखक, इसे लिखने में जॉन कोशी के अमूल्य योगदान के शुक्रगुज़ार हैं.


[1] https://www.teriin.org/sites/default/files/2018-08/Report_SA_AQM-Delhi-NCR_0.pdf

[2] https://edition.cnn.com/2020/03/31/asia/coronavirus-lockdown-impact-pollution-india-intl-hnk/index.html

[3] https://edition.cnn.com/travel/article/himalayas-visible-lockdown-india-scli-intl/index.html

[4] https://projects.iq.harvard.edu/covid-pm

[5] https://www.sciencedaily.com/releases/2020/04/200406100824.htm

[6] https://www.washingtonpost.com/climate-environment/2020/03/15/smoking-air-pollution-coronavirus/

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