Author : Sunjoy Joshi

Published on Nov 09, 2016 Updated 14 Days ago
भावी अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने होंगी कई चुनौतियां

चुनावी दंगल के नतीजे सामने नहीं हैं — पर इन चुनावों में हुई अभूतपूर्व कटुता को भुलाना कई वर्षों तक सम्भव नहीं होगा। इसके मद्देनज़र, क्या होनी चाहिए भावी विजेता की प्राथमिकताएं?

संजय जोशी: इस चुनाव का परिणाम जो भी हो पर इतना तय है कि इस चुनाव ने अमेरिकी राजनीति और चुनाव प्रचार में नाटकीय बदलाव ला दिया है। चुनाव जो भी जीते, अगले राष्ट्रपति के कामकाज पर इसका असर साफ दिखेगा।

एक अत्यंत आक्रामक चुनाव अभियान, जिसमें दोनो पक्षों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, के चलते अब जनवरी 2017 में अगले अमेरिकी राष्ट्रपति को वास्तविक चुनौतियों के अलावा एक दृष्टिकोण सुधार अभियान भी छेड़ना पड़ सकता है। नए राष्ट्रपति के शुरूआती कामों में सबसे पहलेप्रचार के दौरान उछाले गए बेकार और अप्रासंगिक मुद्दों से निजात पाकर आगे बढ़ना होगा। ऐसे कटु चुनाव अभियान के बाद अब दुनिया अमेरिकी राष्ट्रपति से अमेरिका के स्पष्ट नेतृत्व वाले संदेश की अभिव्यक्ति की अपेक्षा करेगी ताकि भिन्न ज्वलंत वैश्विक मुद्दों पर अमेरिकी नीतियां स्पष्ट हो सकें और सहयोगियों के साथ भागीदारी को पुन: उर्जावान किया जा सके।

नए राष्ट्रपति को दुनिया में अमेरिका की स्थिति और भूमिका को एक नए सिरे से परिभाषित करना होगा। अगर उसे घरेलू और वैश्विक स्तर पर मजबूत स्तंभ के रूप में बने रहना है तो उसे सबसे पहले दुनिया भर को भरोसा दिलाना होगा कि अमेरिका सिर्फ अपनी दादागिरी स्थापितकरने के लिए सीमित मामलों में हस्तक्षेप करने की नीति नहीं अपनाएगा। उसे वैश्विक सुरक्षा में प्रमुख भूमिका निभानी होगी, वैश्विक व्यपापार व्यवस्थाओं की शुचिता को बरकरार रखना होगा तथा ‘ग्लोबल कॉमन्स’ जैसे पर्यावरण, सागर क्षेत्र, बाहरी अंतरिक्ष, साइबर दुनिया के वैश्विकप्रबंधन के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करनी होगी।

उस विरासत(और गम्भीर समस्याओं) के बारे में जो नए अमेरिकी नेता को ओबामा से विरासत में मिली हैं का ज़िक्र करें।

संजय जोशी: चुनाव अभियान से साफ हो गया है कि नए राष्ट्रपति के सामने सबसे कड़ी चुनौतियां घरेलू मोर्चें पर हैं। चुनाव परिणाम जो भी हों पर राजनीति में बाहरी माने जाने वाले डोनाल्ड ट्रंप और बर्नी सैंडर्स जैसी शख्सियतों के उदय के प्रमुख कारण वास्तविक वेतनमानों मेंठहराव अथवा गिरावट और आर्थिक विकास की धीमी गति है। इनके चलते आगामी राष्ट्रपति का ध्यान घरेलु मुद्दों पर ज्यादा होना स्वाभाविक होगा। दुर्भाग्यवश ऐसा तब होगा जब कि दुनिया भर में विरासत में मिले कई सुलगते मुद्दे कायम हैं।

इसी विरासत का हिस्सा है मिडल ईस्ट — आपकी राय में नए अमेरिकी नेता के सामने इस क्षेत्र और इस क्षेत्र से जुदा विश्व शांति का मसौदा क्या है?

संजय जोशी: विरासत में मिले मुद्दों में इस्लामिक आतंकवाद तथा सीरिया और इराक में गृहयुद्ध ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें फौरन तवज्जो की दरकार होगी। इस्लामिक स्टेट यानी आइएस भौगोलिक तौर तो सिमटते दिखाई देती है पर अभी भी ए​शिया, यूरोप और अमेरिका में आतंकी हमलेकरने की उसकी क्षमता कायम है। अमेरिका एक त्रिपक्षीय जटिल संघर्ष में खुद को उलझा हुआ पा रहा है जिसमें वह इस्लामिक स्टेट व सीरियाई—रूसी—इरानी सुरक्षाबलों के खिलाफ तथाकथित नरम पक्षीय समूहों को समर्थन दे रहा है. समस्या यह है कि आपसी संघर्ष में उलझे इनपक्षों के एजेंडा को अलग करने वाली रेखाएं निरंतर परिवर्तित तथा धूमिल होती जा रही हैं।

यहां फॉस्टियन सौदेबाजी नहीं हो सकती है। अमेरिका को यह सुनिश्चित करना होगा कि इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट की न केवल पराजय हो बल्कि इसकी विचारधारा की स्वीकार्यता को पूर्णतया समाप्त करना होगा और इसके समर्थकों और संसाधानों के स्त्रोतों को भी जड़ सेउखाड़ना होगा।

और चीन.. जो अब अमेरिका को अपने से इक्कीस नहीं समझता?

संजय जोशी: भारत — प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामकता से दक्षता से निपटना होगा। अमेरिका अगर इससे निपटने में कमजोर होता दिखा तो कई छोटे पूर्व एशियाई देश चीन की शरण में चले जाएंगे, किंतु अगर अमेरिका ने खुलकर आक्रामकता दिखाई तो इससे क्षेत्र की प्रमुखशक्तियों के बीच तनाव बढ़ सकता है। नए राष्ट्रपति को चीन के उदय से दीर्घकालीन चुनौती के रूप में निपटना होगा।

आप भारतीय उप महाद्वीप और अन्य क्षेत्रीय संघर्षों का ज़िक्र करें।

संजय जोशी: इस सबमें आप क्षेत्रीय समस्यओं के घालमेल को भी जोड़ लीजिए मसलन परमाणु हथियारों से लैस विवेकहीन पाकिस्तान, उत्तर कोरिया की ओर से मंडराता खतरा, अफगानिस्तान में मृगमरीचिका बन चुकी शांति और अनवरत चल रहा इजरायल — फिलिस्तीन संघर्ष — मतलब यह कि नए राष्ट्रपति के सामने चुनौतियों का अंबार है। इस बीच अच्छी खबर यह है कि एशिया — प्रशांत क्षेत्र में भारत — अमेरिकी भागीदारी ठोस शक्त अख्तियार कर चुकी है और दोनो देशों की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से समर्थन के चलते मजबूत हो रही है। इस भागीदारी कोऔर मजबूत करने की बात पर नए राष्ट्रपति को स्पष्ट रूप से मुहर लगाने में देर नहीं करनी चाहिए।

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