Published on Mar 01, 2019 Updated 0 Hours ago

कश्मीर इस समय भारत का इस कदर सुलगता राजनीतिक मसला बन चुका है, जैसा वह पहले कभी नहीं रहा। 1990 के दशक के भारत को विद्रोह का सामना करना पड़ा था और उसने राष्ट्रीय स्तर पर दिलेरी दिखाने की चिंता किए बगैर इससे निपट लिया था। अब हालात वैसे नहीं रहे।

अशांति के साए में है कश्मीर का भविष्य

घाटी के इतिहास के सबसे रक्तरंजित हमले के परिणास्वरूप, ऐसे कई बिंदु हैं जिनसे भविष्य के निहितार्थ समझे जा सकते हैं। ये सभी बिंदु बेहद परेशान करने वाले हैं।

पहला यह है कि वादी में 2014 के बाद से हिंसा में लगातार वृद्धि हो रही है। इसके अनेक कारण हैं, लेकिन हकीकत यह है कि 2014 से पहले के अपेक्षाकृत शांति के 10 वर्षों के दौरान जो हासिल किया था, उसे केंद्र सरकार ने गंवा दिया है और यही शायद सबसे बड़ा कारण है। उससे बाद के वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने और ज्यादा कश्मीरियों को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश करने की बजाए, कश्मीर को राजनीतिक मसला बना दिया है, जिसका इस्तेमाल वह हिंदीभाषी मुख्य क्षेत्रों में वोट हासिल करने के लिए करना चाहती है।

वादी में 2014 के बाद से हिंसा में लगातार वृद्धि हो रही है। इसके अनेक कारण हैं, लेकिन हकीकत यह है कि 2014 से पहले के अपेक्षाकृत शांति के 10 वर्षों के दौरान जो हासिल किया था, उसे केंद्र सरकार ने गंवा दिया है और यही शायद सबसे बड़ा कारण है।

यूं तो 2014 से पहले भी यह वादी कोई जन्नत नहीं थी, लेकिन उसके बाद से हिंसा में हुई वृद्धि आंकड़ों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के अनुसार आतंकवादी हमलों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। 2014 में जहां 222 आतंकवादी घटनाएं हुईं, 2018 में उनकी संख्या बढ़कर 614 हो गई। इसी तरह शहीद होने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। 2014 में जहां 47 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे, वहीं 2017 में 80 सुरक्षाकर्मियों तथा 2018 में 91 सुरक्षाकर्मियों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

जब मौजूदा सरकार सत्ता में आई, तो उसने नियंत्रण रेखा पर दीर्घकालिक संघर्षविराम प्रोटोकॉल छोड़ दिया। यह कदम घुसपैठ से निपटने के लिए उठाया गया था। ऐसा करने से स्पष्ट तौर पर आतंकवादी घटनाओं में कोई कमी नहीं आई, साथ ही इससे वास्तविक समस्या की भी अनदेखी हो गई। और वह समस्या यह है कि हमने देखा कि एक बार फिर से वादी के नौजवानों ने ”हथियार उठाना” शुरू कर दिया है, जो 1990 के दशक में दुखद रूप से बहुत आम बात हुआ करती थी। विदेशी आतंकवादियों की चिंता किए बगैर, हम पुलवामा कार बम हमले को अंजाम देने वाले 20 साल के नौजवान जैसे स्थानीय लोगों के कट्टरवाद को लेकर चिंता कर रहे हैं। घरेलू स्तर पर आतंकवाद की वापसी दूसरा बिंदु है। 2000 और 2010 के दशकों के दौरान दखलंदाजी करने वाले पुलिस बल के जरिए शासन करने वाली सरकार की निचले दर्जे की क्रूरता—जिसने हिरासत और चेकप्वाइंट्स का सामान्य रूप से इस्तेमाल किया — शायद संख्या की तुलना पहले की आतंकवाद-विरोधी रणनीतियों के साथ न करे, यह सुनिश्चित करना काफी होगा कि कश्मीरियों की एक पूरी पीढ़ी भारत सरकार से हार चुकी है। अब हमें इसके नतीजों से निपटना होगा।

2000 और 2010 के दशकों के दौरान दखलंदाजी करने वाले पुलिस बल के जरिए शासन करने वाली सरकार की निचले दर्जे की क्रूरता जिसने हिरासत और चेकप्वाइंट्स का सामान्य रूप से इस्तेमाल किया — शायद संख्या की तुलना पहले की आतंकवाद-विरोधी रणनीतियों के साथ न करे, यह सुनिश्चित करना काफी होगा कि कश्मीरियों की एक पूरी पीढ़ी भारत सरकार से हार चुकी है।

चिंता की तीसरी बात — इस्लामी रणनीतियों की बदलती प्रकृति है। दुनिया भर के उग्रवादियों और आतंकवादियों की रणनीतियों की आसानी से नकल की जा सकती है। इस हमले के बारे में खुफिया सूचना “सीरिया—की शैली के कार बम” के रूप में सामने आई थी। कश्मीर में कुछ आत्मघाती हमले हुए हैं — दरअसल जैश-ए-मोहम्मद ने 2000 में बादामी बाग छावनी क्षेत्र में पहली बार ऐसे हमले को अंजाम दिया था — और इतने बड़े पैमाने पर कभी कोई कार बम हमला नहीं किया गया था। बम हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादी की मौत के बाद उसका वीडियो जारी होना — फिर से पश्चिम एशिया के हाल के रक्तरंजित इतिहास से मिलती-जुलती घटना है — जिसमें वह तालिबान के हाथों अमेरिका की “हार” को स्पष्ट रूप से अपनी प्रेरणा बता रहा है। आईईडी और कार बमों तथा आत्मघाती हमलावरों से पटी हुई वादी उस समस्या से बहुत अलग है, जिसका सामना पहले सुरक्षा बल करते आए हैं।

चौथा, आतंकवादियों की रणनीति भी बदल चुकी है। जिहादी खास तौर पर सेना या पुलिस को निशाना बनाना चाहते हैं। कुछ हद तक इसके परिणामस्वरूप 1990 के दशक की तुलना में ज्यादा तादाद में नागरिक अब इनके साथ सहानुभूति रखते हैं। बढ़ते धार्मिक कट्टरपंथ के साथ-साथ — पश्चिम एशिया से आए ज्यादा शून्यवादी विचारों ने स्थानीय धार्मिक परम्पराओं की जगह ले ली है — इसका मतलब यह है कि सेना और अर्धसैनिक बलों का काम ज्यादा मुश्किल हो गया है। वे पहले ही शिकायत करते हैं कि नागरिकों की भीड़ आतंकवादियों की कथित छुपने की जगहों को सुरक्षा देने लगी है। आतंकवादियों से मुकाबला करना एक बात है। उग्रवादियों से मुकाबला करना और भी बुरा है। आम लोगों की आबादी से मुकाबला करना इन सबसे ज्यादा बदतर है।

बढ़ते धार्मिक कट्टरपंथ के साथ-साथ पश्चिम एशिया से आए ज्यादा शून्यवादी विचारों ने स्थानीय धार्मिक परम्पराओं की जगह ले ली है — इसका मतलब यह है कि सेना और अर्धसैनिक बलों का काम ज्यादा मुश्किल हो गया है।

पांचवां, आस-पड़ोस में हो रही घटनाओं का प्रभाव सीधे महसूस किया जा सकता है। अमेरिका का अफगानिस्तान से सुरक्षा बलों की जल्द वापसी का वायदा खतरनाक रूप से बेवकूफी भरा कदम है; न सिर्फ यह सभी जगहों के जिहादियों को उसी तरह प्रेरित करेगा, जिस तरह मुजाहिदीन के हाथों सोवियत संघ की हार ने किया था, बल्कि उनकी अपेक्षित रवानगी ने पाकिस्तानी सेना को भरोसा दिला दिया है और चीन के समर्थन में भी वृद्धि हो गई है। पिछली बार, तीन दशक पहले, ​महाशक्ति के पीछे हटने से पाकिस्तान का सम​र्थन प्राप्त आतंकवादी जब अनिश्चितता से घिरे थे, तो घाटी में हालात विस्फोटक हो गए थे। पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर दबाव कम होने के परिणामों से हमें बेहद आशंकित होना चाहिए।

छठा, कश्मीर विचित्र रूप से पाकिस्तान में होने वाली चर्चाओं से बाहर है। वह देश इस समय क्रिकेट लीग और सऊदी अरब के शहजादे के आगामी दौरे (जिसके लिए, लगभग 3,500 कबूतर खरीदे जा रहे हैं) को लेकर बेहद उत्साहित है। कश्मीर इस समय पाकिस्तान में उतनी बड़ी हैडलाइन नहीं रहा है, जितना कुछ दशक पहले हुआ करता था। लेकिन इसके बावजूद वहां कश्मीर मसले का घरेलू स्तर पर राजनीतिक इस्तेमाल करने में आई इस कमी का लाभ उठाने का ज्यादा प्रयास नहीं किया गया।

सातवां, कश्मीर इस समय भारत का इस कदर सुलगता राजनीतिक मसला बन चुका है, जैसा वह पहले कभी नहीं रहा। 1990 के दशक के भारत को विद्रोह का सामना करना पड़ा था और उसने राष्ट्रीय स्तर पर दिलेरी दिखाने की चिंता किए बगैर इससे निपट लिया था। अब हालात वैसे नहीं रहे। कश्मीर का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ जैसे राजनीतिज्ञों द्वारा एक उपमा, धमकी और शब्दांडम्बरों से भरपूर मैदान-ए-जंग के तौर होने लगा है। यह बहुत बड़ा और चिंताजनक बदलाव है।

हमारा सामना उस तरह के विद्रोह से नहीं हो रहा है, जैसा 1990 के दशक में सुलग रहा था। हैरान कर देने वाले कुप्रबंधन, कट्टरवाद और राजनीतिकरण की बदौलत आज खतरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ चुका है।

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