Author : Samir Saran

Published on Jun 29, 2020 Updated 0 Hours ago

जहां अभी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया की अच्छी तरह स्थापित क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखला का चुनाव कर रही हैं. वही अब भारत को इसे ध्यान में रखकर इस बारे में भविष्य के रणनीति बनानी चाहिए.

व्यावसायिक विश्व व्यवस्था में शक्ति संतुलन का खेल और आपूर्ति श्रृंखला

कोविड-19 के बाद की दुनिया कई मायनों में अलग होगी. इसका एक आयाम हमें व्यापार, तकनीक और राष्ट्रीय सुरक्षा के संगम के तौर पर भी देखने को मिलेगा. हमें इसके संकेत भी मिलने लगे हैं. अमेरिका ने अपनी वर्ष 2017 की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) में कहा है कि, ‘आर्थिक सुरक्षा असल में राष्ट्रीय सुरक्षा ही है.’ उधर, यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डर लेयेन ने इसी साल फ़रवरी में ‘तकनीकी संप्रभुता’ की मांग उठाई थी. वहीं, चीन अपनी सामरिक अहमियत वाली तकनीक के लिए आत्म निर्भरता पर केंद्रित है. इन बातों से एक नए भौगोलिक आर्थिक युग की शुरुआत का साफ़ संकेत मिलता है. इस महामारी के दौरान इन तीनों ही क्षेत्रों को काफ़ी अहमियत दी जा रही है.

भारत के लिए ये आवश्यक है कि वो अपने नागरिकों, कारोबारियों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस बात का साफ़ तौर से इशारा करे कि वो इन तीन परिवर्तनों से निपटने के लिए किस योजना पर काम कर रहा है. पहला है, आर्थिक विषयों एवं व्यापार का सशस्त्रीकरण. ये एक ऐसा चलन है, जो दोस्तों और दुश्मनों यानी हर तरह के व्यापारिक संबंधों के बीच होता दिख रहा है. दूसरा ये है कि अब किसी राष्ट्र की शक्ति का आकलन इस बात के आधार पर होगा कि वो तकनीक, सूचना, मानवीय पूंजी और वित्त के संदर्भ में वैश्विक डिजिटल प्रवाह पर किस हद तक नियंत्रण कर सकता है. क्या भारत इन मामलों में प्रभावशाली भूमिका निभाने में सक्षम है?

व्यापार और तकनीक का जिस तरह से विस्थापन हो रहा है, वो वैश्विक निवेशकों को अपनी ओर आकर्षित करने का अवसर प्रदान करता है. इस क्षेत्र में भारत ने अतीत में बहुत बुरा प्रदर्शन किया है. सितंबर 2019 में आई नोमुरा रिपोर्ट कहती है कि चीन को छोड़ कर दूसरे देशों को जाने वाली 56 वैश्विक कंपनियों में से केवल तीन ने भारत का चुनाव किया था

और तीसरा है, आयात में रियायत और बाज़ार पर प्रतिबंध जैसे पुराने औद्योकि औज़ारों को नए दौर के हिसाब ने क्रांतिकारी ढंग से बदलना होगा. क्या भारत भूमंडलीकरण के इन नए स्वरूप के अनुकूल कोई नया मंत्र दे सकने में सक्षम है? ये सभी बातें मिलकर एक ही मगर परतदार प्रश्न में परिवर्तित होती हैं: भारत कैसे पहले भारी निवेश अपनी ओर आकर्षित कर सकता है और फिर अपने तकनीकी क्षेत्र को बड़ा और विकसित कर सकता है. और अंत में भारत ‘डिजिटल इंडिया’ को कैसे दूसरे देशों से साझा कर सकता है या इसका निर्यात कर सकता है?

भारत के लिए इन आकांक्षाओं की पूर्ति कर पाना उसकी इस क्षमता पर निर्भर करेगा कि वो विकसित हो रहे डिजिटल बाज़ार के लिए आवश्यक उत्पादों का निर्माण कर सके और उन्हें अपनी सेवाएं दे सके. और इसके साथ ही साथ वो दुनिया की भौतिक और डिजिटल आपूर्ति श्रृंखलाओं के नियम, कायदे और मानक तय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके. अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते व्यापार युद्ध के कारण आज वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का विखंडन हो रहा है. ऐसे में भारत के लिए इन उपलब्धियों को हासिल करना अति आवश्यक हो गया है. ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने इस अवसर को पहचान लिया है और इसे अपने हित में भुनाने का प्रयास कर रही है.

व्यापार और तकनीक का जिस तरह से विस्थापन हो रहा है, वो वैश्विक निवेशकों को अपनी ओर आकर्षित करने का अवसर प्रदान करता है. इस क्षेत्र में भारत ने अतीत में बहुत बुरा प्रदर्शन किया है. सितंबर 2019 में आई नोमुरा रिपोर्ट कहती है कि चीन को छोड़ कर दूसरे देशों को जाने वाली 56 वैश्विक कंपनियों में से केवल तीन ने भारत का चुनाव किया था. इसके बावजूद, आपूर्ति श्रृंखलाओं का अलगाव एक लंबी प्रक्रिया है. हालांकि अभी, कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया की अच्छी तरह स्थापित क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखला का चुनाव कर रही हैं. लेकिन, भारत को भविष्य के बारे में रणनीति बनानी चाहिए.

इस संदर्भ में भारत का उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (PLI) की तीन आपस में जुड़ी योजनाओं का एलान करने का फ़ैसला बेहद महत्वपूर्ण है. इसके तहत भारत ने सेमीकंडक्टर, उसके कल पुर्ज़े और इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान के निर्माण के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन देने की घोषणा की है. ये घोषणाएं, भारत से व्यापारिक निर्यात की पहले की प्रक्रिया का स्थान लेंगी. और, विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुकूल नए इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग की स्थापना के लिए भारत के समर्थन के जुड़ी हुई हैं. निर्माण और निर्यात की इस नई व्यवस्था की घोषणा का मक़सद बड़े वैश्विक निर्माताओं जैसे कि एप्पल और सैमसंग को भारत की ओर आकर्षित करना है. उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करना है कि वो अपनी उत्पादन क्षमता और भारत के विक्रेताओं को निर्यात के कारोबार का एक हिस्सा भारत में ले आएं.

केवल गिने चुने वैश्विक निवेशकों द्वारा भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला से जोड़ने की क्षमता को कम करके बिल्कुल भी नहीं आंका जाना चाहिए. मिसाल के तौर पर, एप्पल, चीन में अपने जिस हार्डवेयर का निर्माण करता है, उसका मूल्य वित्तीय वर्ष 2019 में लगभग 220 अरब डॉलर का था. चीन में निर्मित इस हार्डवेयर में से एप्पल ने 185 अरब के सामान का दूसरे देशों को निर्यात किया था. इसके मुक़ाबले, अगर हम उसी वित्तीय वर्ष में भारत के कुल इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात को देखें तो ये बहुत ही कम यानी केवल 8.8 अरब डॉलर का था. दुनिया भर में एप्पल के लगभग 800 निर्माण केंद्र हैं. इनमें से 300 से अधिक कारखाने तो केवल चीन में स्थित हैं. एप्पल की इस आपूर्ति श्रृंखला का अगर एक छोटा सा हिस्सा भी भारत आ जाता है, तो ये भारत के लिए बहुत फ़ायदेमंद होगा. एप्पल के कुछ ठेकेदारों जैसे कि विस्ट्रॉन और फॉक्सकॉन द्वारा अपनी कुछ निर्माण सुविधाओं को अगर चीन से हटाकर भारत लाया जाता है, तो उनके साथ उनकी द्वितीयक आपूर्ति श्रृंखलाएं भी भारत आएंगी. ये दोनों ही कंपनियां ताइवान की सबसे परिष्कृत इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता कंपनियां हैं.

भारत के लिए ऐसे अवसर कई गुना बढ़ने की उम्मीद है. जैसे कि ब्रिटेन ने 5G और अन्य उभरती तकनीकों के क्षेत्र में सहयोग के लिए ‘D 10 गठबंधन’ (दस लोकतांत्रिक देशों का संगठन) बनाने का प्रस्ताव रखा है. ऐसे गठबंधनों की मदद से व्यापार के ऐसे पैटर्न बन कर उभरेंगे, जो राजनीतिक रूप से भरोसेमंद देशों के हित में होंगे. कई महत्वपूर्ण आपूर्ति श्रृंखलाओं को लेकर चीन से अलगाव के कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं. चीन की आर्थिक नीतियां, विश्व को अपनी छवि के अनुरूप ढालने के प्रयास को ही बढ़ावा देने वाली हैं. जिसके अंतर्गत चीन क्षेत्रीय आक्रामकता, क़र्ज़ बांटने की कूटनीति और संगठनों पर क़ब्ज़ा करने का सतत प्रयास कर रहा है. इस सच्चाई से निपटने की भारत की नीति का एक हिस्सा चीन के साथ सीमा और समुद्री क्षेत्र में आक्रामक रुख़ अपनाने का होना चाहिए. वहीं, दूसरा हिस्सा ज़्यादा स्थायी प्रतिक्रिया का होना चाहिए. जिसमें अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने और विकसित करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.

1982 में भारत सरकार ने जापान की कंपनी सुज़ुकी को भारत के घरेलू कार बाज़ार के निर्माण का अवसर दिया था. इससे भारत के ऑटोमोबाइल सेक्टर में निवेश की नई लहर सी आ गई थी. आज भारत का ऑटोमोबाइल सेक्टर दुनिया के कई देशों से मुक़ाबला ही नहीं, बल्कि उनसे बेहतर प्रदर्शन करने की क्षमता रखता है

ये लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जो रणनीति बने, उसमें सामरिक रूप से अहम तकनीकों को विकसित करने, उनके उत्पादन और निर्माण की भारत की क्षमता विकसित करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. साथ ही साथ, भारत की इस रणनीति में वैश्विक डेटा प्रवाह से अपने हित के मूल्यों को प्राप्त करने और और भारत की डिजिटल कंपनियों और सेवाओं को विकसित करने के लक्ष्य भी शामिल होने चाहिए. अमेरिका की बड़ी तकनीकी कंपनियों जैसे कि एप्पल और फ़ेसबुक द्वारा भारत में निवेश बढ़ाने और भारत को अपना निर्माण केंद्र बनाने में निवेश करने की इच्छा जताना इस दिशा के शुभ संकेत माने जाने चाहिए.

लेकिन, विदेशी कंपनियों के ये नए उद्यम भारत सरकार के सुधार करने की इच्छा शक्ति की भी कठिन परीक्षा हैं. 1982 में भारत सरकार ने जापान की कंपनी सुज़ुकी को भारत के घरेलू कार बाज़ार के निर्माण का अवसर दिया था. इससे भारत के ऑटोमोबाइल सेक्टर में निवेश की नई लहर सी आ गई थी. आज भारत का ऑटोमोबाइल सेक्टर दुनिया के कई देशों से मुक़ाबला ही नहीं, बल्कि उनसे बेहतर प्रदर्शन करने की क्षमता रखता है. अब जबकि कोविड-19 के बाद की दुनिया में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का नए सिरे से संगठन हो रहा है. तब दुनिया भर के निवेशक इन बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में प्रदर्शन पर नज़दीक से निगाह रख रही होंगे. इन बड़ी कंपनियों के प्रदर्शन के आधार पर ही ये निवेशक, भारत में अपने निवेश के बारे में फ़ैसला करेंगे.


यह लेख मूलरूप से इकोनॉमिक्स टाइम्स में प्रकाशित हो चूका है.

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