Published on Sep 02, 2017 Updated 0 Hours ago

आज भले ही आर्थिक विकास की रफ्तार काफी तेज होने का प्रचार जोर-शोर से किया जा रहा हो, लेकिन विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों का औसत प्रदर्शन कुछ और ही सच्‍चाई बयां कर रहा है।

अब भी धूमिल ही है आर्थिक परिदृश्‍य

भारतीय रिजर्व बैंक (अगस्त 2017 के अपने तीसरे द्विमासिक वक्‍तव्‍य में) के साथ-साथ हाल ही में जारी आर्थिक सर्वेक्षण (दूसरा खंड) भी अपनी-अपनी रिपोर्टों में घरेलू आर्थिक हालात को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं है। हालांकि, सर्वाधिक उत्‍साहवर्धक बात यह है कि इस साल दक्षिण पश्चिम मानसून सामान्य रहा है। इसे यदि छोड़ दें, तो देश में आर्थिक परिदृश्‍य निराशाजनक ही नजर आ रहा है। खरीफ फसल की पैदावार बढि़या प्रतीत हो रही है क्योंकि रबी विपणन सीजन के लिए चावल और गेहूं की खरीद तेज हो गई है। अप्रैल-जून 2017 में अनाज उत्पादन रिकॉर्ड 36.1 मिलियन टन का हुआ है। बेहतर कृषि उत्पादन की बदौलत ग्रामीण क्षेत्रों में मांग बढ़ने के प्रबल आसार नजर आ रहे हैं जिससे उद्योग जगत को भी बहुप्रतीक्षित आवश्यक बूस्‍टर या बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। दरअसल, औद्योगिक मोर्चे पर उत्‍साह से भर देने वाली कोई खास सूचना नहीं मिल रही है। यही नहीं, औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ने के बजाय 0.1 प्रतिशत घट गया है। अत्यधिक तैयार माल की वजह से विनिर्माण और खनन दोनों ही क्षेत्रों में विकास की गति धीमी पड़ गई है। इसी तरह तेल और तेल रिफाइनरी उत्पादों के उत्पादन में कमोबेश स्थिरता आ गई है।

आज भले ही देश में आर्थिक विकास की रफ्तार काफी तेज होने और भारत के सबसे तेजी से विकासोन्‍मुख उभरती अर्थव्यवस्था होने का प्रचार जोर-शोर से किया जा रहा हो, लेकिन विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों का औसत प्रदर्शन कुछ और ही सच्‍चाई बयां कर रहा है। इसका सीधा सा मतलब यही है कि वादे के अनुरूप या वांछित गति से नौकरियों की संख्‍या नहीं बढ़ रही है। ऐसे में नौकरियां तलाश रहे युवाओं का बुरी तरह से निराश होना लाजिमी ही है। हालांकि, महंगाई के मोर्चे पर अच्छी खबर है, क्‍योंकि जून में यह 1.54 फीसदी के रिकॉर्ड न्‍यूनतम स्तर पर रही है। फिर भी, अत्‍यंत सतर्क आरबीआई ने अपनी मौद्रिक नीति में अपनाए गए रुख में नरमी नहीं बरती है और अगस्त में अपनी अहम नीतिगत ब्‍याज दरों में महज 0.25 फीसदी की ही कटौती की है। आर्थिक सर्वेक्षण नीतिगत ब्‍याज दर में की गई इस मामूली कटौती से असहमत प्रतीत हो रहा है। दरअसल, इससे आने वाले महीनों में उपभोक्‍ता मांग बढ़ाने के लिए आवश्‍यक प्रोत्साहन नहीं मिल पाएगा। कई क्षेत्रों (सेक्‍टर) में मांग निरंतर सुस्त नजर आ रही है। आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात का उल्‍लेख किया गया है कि देश में अपस्फीति जोर पकड़ने लगी है जो आर्थिक विकास की रफ्तार को अत्‍यंत सीमित कर देगी।

आर्थिक विकास में सुस्‍ती एक और महत्वपूर्ण संकेतक से स्पष्ट प्रतीत हो रही है और वह है बिजली की मांग।

बिजली की मांग में स्‍पष्‍ट तौर पर कमी नजर आ रही है जो औद्योगिक गतिविधियों की गति के बारे में बहुत कुछ बयां कर रही है। लचीली ग्रामीण मांग के दम पर केवल गैर-टिकाऊ उपभोक्ता क्षेत्र अर्थात टूथपेस्ट, साबुन, वॉशिंग पाउडर जैसी रोजमर्रा इस्तेमाल की सामान्‍य वस्तुओं की ही वृद्धि दर अच्‍छी नजर आ रही है। वहीं, दूसरी ओर शहरी मांग में सुस्‍ती के चलते टिकाऊ उपभोक्ता सामान जैसे बड़े एवं महंगे उपकरणों (फ्रि‍ज, वाशिंग मशीन इत्‍यादि) का उत्पादन घट गया है। हालांकि, दो माह तक गिरावट का रुख दर्शाने के बाद वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री बढ़ गई है। इसी तरह मोटरसाइकिलों की मांग में लगातार तीसरे महीने बढ़ोतरी का रुख देखा गया है। इससे यह पता चलता है कि इस उप-क्षेत्र में ग्रामीण मांग अब भी कम नहीं हुई है।

कोर सेक्टर, जिसमें कोयला, इस्पात, उर्वरक एवं बिजली जैसे उद्योग शामिल हैं, के विकास की गति धीमी है और इसकी वृद्धि दर बढ़ने के बजाय घट गई है। अत्यधिक कोयले की उपलब्‍धता एवं कमजोर मांग के चलते यह क्षेत्र तेज रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है। केवल प्राकृतिक गैस और इस्पात का ही उत्पादन जून-जुलाई में बढ़ा है। इस्‍पात की खपत में वृद्धि निर्माण क्षेत्र के लिए उत्‍साहवर्धक खबर हो सकती है, लेकिन सीमेंट उत्पादन में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है जो एक विरोधाभासी संकेत है।

कोर सेक्टर, जिसमें कोयला, इस्पात, उर्वरक एवं बिजली जैसे उद्योग शामिल हैं, के विकास की गति धीमी है और इसकी वृद्धि दर बढ़ने के बजाय घट गई है।

 

अत्‍यंत चिंताजनक बात यह है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में नई निवेश घोषणाएं घटकर 12 वर्षों के न्‍यूनतम स्तर पर आ गई हैं। अपने गुणक प्रभाव के जरिए जीडीपी वृद्धि दर के लिहाज से अत्‍यंत महत्वपूर्ण समझे जाने वाले पूंजीगत सामान का उत्पादन समय के साथ धीमा पड़ गया है। इतना ही नहीं, स्‍थापित क्षमता का कम उपयोग हो रहा है। यही कारण है कि मशीनरी को प्रतिस्थापित या उसका नवीकरण नहीं किया जा रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक के औद्योगिक सर्वेक्षण से यह चिंताजनक तथ्‍य भी उभर कर सामने आया है कि सभी क्षेत्रों में मांग बढ़ने, क्षमता उपयोग, मुनाफा मार्जिन और रोजगार में वृद्धि को लेकर व्‍यावसायिक आशावाद कमजोर पड़ रहा है।

लंबे समय से ठप पड़ी बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं की बड़ी संख्या भी एक और पीड़ादायक बात है तथा इस वजह से बुनियादी ढांचागत वस्तुओं के उत्पादन में सुस्‍ती देखने को मिल रही है।

निर्यात वृद्धि दर मई और जून में घट गई है, लेकिन तेल के आयात में बढ़ोतरी और जीएसटी लागू होने से पहले स्वर्ण के एकत्रीकरण की वजह से आयात वृद्धि दर दहाई अंकों में रही है। पहली तिमाही में व्यापार घाटा 40.1 अरब डॉलर के उच्‍च स्‍तर पर टिका हुआ था, जो एक वर्ष पहले की तुलना में दोगुने से भी अधिक था।

जहां तक सेवा क्षेत्र का सवाल है उसका प्रदर्शन बहुत खराब नजर नहीं आ रहा है। परिवहन उप-क्षेत्र और हवाई मार्ग से माल ढुलाई दोनों में ही वार्षिक आधार पर वृद्धि दर्ज की गई है। अधिक पर्यटकों के आगमन की बदौलत आतिथ्य क्षेत्र बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रहा है और हवाई मार्ग से यात्री के आवागमन में वृद्धि दर्ज की जा रही है। दूरसंचार उप-क्षेत्र अच्छा प्रदर्शन कर रहा है और ग्राहक आधार एवं वॉयस तथा डेटा सेवाओं दोनों में ही निरंतर वृद्धि दर्ज की जा रही है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विदेशी निवेशक भारत की विकास संभावनाओं को लेकर अत्‍यंत उत्साहित प्रतीत हो रहे हैं। संभवत: वे केंद्र में सत्‍तारूढ़ और देश की अर्थव्यवस्था की कमान संभाल रही एक स्थिर सुधारवादी सरकार पर फि‍लहाल दांव लगा रहे हैं। अप्रैल-मई में एफडीआई का शुद्ध प्रवाह दोगुना हो गया और यह मुख्‍यत: विनिर्माण, खुदरा (रिटेल) एवं थोक व्यापार और व्यावसायिक सेवाओं के खाते में गया। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने घरेलू बांड और इक्विटी मार्केट में 15.2 अरब डॉलर की शुद्ध खरीद की है (31 जुलाई तक)। विदेशी मुद्रा भंडार 392.9 अरब डॉलर के उच्‍च स्‍तर पर विद्यमान है। उधर, डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत हो गया है, जो निर्यात के लिए अच्छा नहीं है।

तो, ऐसे में इस समस्‍या का असली समाधान क्या है? कुछ तो ऐसा अवश्‍य ही है जो भारत को तेज विकास के पथ पर चलने से रोक रहा है और इसके चलते व्‍यावसायिक विश्‍वास डगमगा गया है और जो उनके नए निवेश के रास्ते में आड़े आ रहा है। निश्चित रूप से वैश्विक स्‍तर पर खासकर राष्ट्रपति ट्रंप की संभावित नई नीतियों को लेकर अनिश्चितता है और इसके साथ ही वैश्विक मांग जोर नहीं पकड़ पा रही है। हालांकि, कारोबारियों के मूड को मुख्‍य रूप से जो प्रभावित कर रही है वह संभवत: बैंकों और कॉरपोरेट जगत की बैलेंस शीट से जुड़ी दोहरी समस्या है। इन दोनों के ही मोर्चे पर तत्काल आवश्‍यक कदम उठाने की आवश्यकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की माली हालत फिर से बेहतर करने के लिए एनपीए (फंसे कर्ज) को कम करना ही होगा। कंपनियां अपने ऋण बोझ को कम करने की दिशा में काफी सक्रिय हो गई हैं। कंपनियां अपने ऋण अनुपात को कम करने के लिए परिसंपत्तियां बेच रही हैं, लेकिन यह महज बिना अदा किए गए भारी-भरकम ऋणों एवं इनके बोझ के चलते कॉरपोरेट जगत पर पड़ रहे भारी दबाव को दर्शाता है। जब तक बैंकों के भारी-भरकम एनपीए (फि‍लहाल 10 ट्रिलियन रुपये के उच्‍च स्‍तर पर) की समस्‍या का समाधान नहीं निकलेगा, तब तक देश में आर्थिक विकास तेज रफ्तार नहीं पकड़ पाएगा और ऐसे में जीडीपी वृद्धि दर नहीं बढ़ पाएगी। नीति आयोग के निवर्तमान उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या के मुताबिक, एनपीए की समस्‍या का हल हो जाने पर ऋण प्रवाह तेजी से बढ़ने लगेगा। फरवरी 2017 में गैर खाद्य बैंक ऋणों की वृद्धि दर घटकर 3.3 प्रतिशत के रिकॉर्ड न्‍यूनतम स्‍तर पर आ गई, जबकि फरवरी 2016 में ऋण में 9.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी।

कारोबारियों के मूड को मुख्‍य रूप से जो प्रभावित कर रही है वह संभवत: बैंकों और कॉरपोरेट जगत की बैलेंस शीट से जुड़ी दोहरी समस्या है।

 

आर्थिक सर्वेक्षण में यह बात भी रेखांकित की गई है कि 36,359 करोड़ रुपये की ऋण माफी को समायोजित करने के चलते उत्तर प्रदेश सरकार का पूंजीगत व्यय 13 फीसदी घट गया है। अन्य राज्य भी इसी तरह प्रभावित होंगे और वे पूंजीगत व्यय में कटौती करने पर विवश हो जाएंगे और वैसी स्थिति में देश में पूंजीगत सामान की मामूली वृद्धि दर की समस्या और भी ज्‍यादा गंभीर हो जाएगी। हालांकि, इन तमाम निराशाजनक खबरों के बावजूद बीएसई सेंसेक्स ऊंची छलांग लगाता ही जा रहा है। यह एक ऐसी उत्‍साहवर्धक बात है जिस पर हमें अवश्‍य ही प्रसन्‍न होना चाहिए!

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