Author : Veeresh Kanduri

Published on Feb 11, 2020 Updated 0 Hours ago

रूस का ये ज़ोर दे कर कहना था कि, वो सुरक्षा का एक ऐसा ढांचा विकसित करने के हक़ में है जिस में सारे क्षेत्रीय देश बराबरी के दर्जे से शामिल हों. इस से इस क्षेत्र में सभी देशों के लिए समुद्री सुरक्षा और शांति सुनिश्चित होगी

ओमान की खाड़ी में ‘सामुद्रिक शक्ति’ का त्रिकोण; हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए है बड़ी चुनौती

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (PLAN), रूस की नौसेना और ईरान के इस्लामिक गणराज्य की सेना (NEDAJA) ने 27 से 30 दिसंबर के दौरान तीन देशों का एक समुद्री युद्धाभ्यास किया था. इसे मरीन सिक्योरिटी बेल्ट का नाम दिया गया था, जो त्रिपक्षीय युद्धाभ्यास था. इस का दायरा ओमान की खाड़ी से लेकर हिंद महासागर के क्षेत्र तक था. और इस समुद्री युद्धाभ्यास ने क़रीब 17 हज़ार वर्ग किलोमीटर पर अपने प्रभुत्व का एहसास कराया था. इस युद्धाभ्यास में तीनों देशों के 14 युद्ध पोतों ने हिस्सा लिया था. और इस में बंदरगाहों में सहयोग के आदान-प्रदान से समुद्र में मदद तक को शामिल किया गया था. इस नौसैनिक युद्धाभ्यास में चीन की नौसेना का गाइडेड मिसाइल विध्वंसक शिनजिंग (Hull 117), रूस के बाल्टिक सागर के बेड़े का हिस्सा न्यूस्ट्राशिमी दर्जे की फ्रिगेट यारोस्लाव मुद्री (Hull 727) और ईरान की नौसेना की फ्रिगेट अल्बुर्ज़ (Hull 72) ने शिरकत की थी. ईरान की नौसेना के डिप्टी कमांडर रियर एडमिरल ग़ुलामरज़ा तहानी के मुताबिक़, इस क्षेत्र में पिछले चालीस वर्षों में हुआ ये सब से बड़ा नौसैनिक युद्धाभ्यास था. जिस में तीन बड़ी क्षेत्रीय ताक़तों ने हिस्सा लिया था. ईरान ने 1979 की इस्लामिक क्रांति की विजय के बाद, अन्य बड़े देशों के साथ ये पहला नौसैनिक युद्धाभ्यास किया था. इस समुद्री युद्धाभ्यास का मक़सद समुद्री डकैतियों पर लगाम लगाना और आतंकवाद निरोधक रणनीति की क्षमताओं का आकलन करना था.

चीन-ईरान और रूस ने इस साझा युद्धाभ्यास से अमेरिका और इस के सहयोगियों को भी एक नए भू राजनीतिक समीकरण के संकेत दे दिये हैं. इन तीनों देशों ने साझा नौसैनिक युद्धाभ्यास कर के बता दिया है कि इस इलाक़े में, अमेरिका और उन के सहयोगियों के मुक़ाबले में एक नया क्षेत्रीय समुद्री सहयोग गठबंधन उभरा है

तीन देशों का ये युद्धाभ्यास अब हर साल हुआ करेगा. इस युद्धाभ्यास के ज़रिए चीन-ईरान और रूस ने नौसैनिक रणनीति बनाने में आपसी सहयोग बढ़ाने भर का संकेत नहीं दिया. बल्कि चीन-ईरान और रूस ने इस साझा युद्धाभ्यास से अमेरिका और इस के सहयोगियों को भी एक नए भू राजनीतिक समीकरण के संकेत दे दिये हैं. इन तीनों देशों ने साझा नौसैनिक युद्धाभ्यास कर के बता दिया है कि इस इलाक़े में, अमेरिका और उन के सहयोगियों के मुक़ाबले में एक नया क्षेत्रीय समुद्री सहयोग गठबंधन उभरा है. तीनों देशों के इस नौसैनिक युद्धाभ्यास की वजह से पूरे इलाक़े में तनाव की स्थिति रही थी. कई देशों ने आधिकारिक बयान जारी कर के इस पर चिंता जताई थी. लेकिन, चीन और रूस ने इस युद्धाभ्यास के भौगोलिक और राजनयिक अहमियत जताने से परहेज़ किया. वहीं, ईरान ने चीन और रूस के साथ अपने समुद्री युद्धाभ्यास को इलाक़े में अमेरिकी दादागीरी के जवाब में किया गया युद्धाभ्यास क़रार दिया. इस युद्धाभ्यास ने तीनों देशों के बीच समुद्री क्षेत्र के ख़तरों और भूराजनीतिक हितों को लेकर वैचारिक सहमति का संकेत दिया है. अगर इन तीनों देशों के बीच, ये सहमति लंबे समय तक बनी रहती है. तो इस क्षेत्र में ईरान की अगुवाई वाला सुरक्षा का एक नया ढांचा खड़ा होने की उम्मीद है. जिसे रूस और चीन का भी समर्थन हासिल होगा. इस से पहले रूस, चीन और ईरान कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ये बात कह चुके हैं कि वो इस क्षेत्र की सुरक्षा का एक नया ढांचा खड़ा करना चाहते हैं.

पिछले साल सितंबर में हुई, संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) की 74वीं बैठक में, ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने एलान किया था कि होरमुज़ जल संधि के आस-पास के क्षेत्र के लिए उन का देश होरमुज़ शांति प्रयास (HOPE) की शुरुआत करेगा. ताकि इस जल संधि के इर्द-गिर्द समुद्री सुरक्षा और शांति को बनाए रखा जा सके. इस जल संधि से रोज़ाना क़रीब 2.1 करोड़ बैरल कच्चा तेल निकलता है. जो समुद्र के रास्ते होने वाले कच्चे तेल के कारोबार का एक तिहाई है. होरमुज़ जल संधि ओमान की खाड़ी और फ़ारस की खाड़ी को अलग करती है. होप के ज़रिए, ईरान होरमुज़ जल संधि समुदाय के सदस्य देशों से सहयोग बढ़ाना चाहता है. ताकि क्षेत्रीय सुरक्षा और सहयोग के मुद्दों को व्यापक तौर पर समझा जा सके और उन का समाधान निकाला जा सके. इस नए क़दम के ज़रिए ईरान का इरादा इस क्षेत्र से अमेरिका और उस के सहयोगी देशों की सेनाओं को वापस भेजने का है. क्योंकि ईरान अमेरिका और उस के सहयोगी देशों की सेनाओं की इस क्षेत्र में मौजूदगी को अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा मानता है.

इस से पहले मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों के लिए रूसी राष्ट्रपति के विशेष दूत और रूस के उप विदेश मंत्री मिखाइल बोग्डानोव ने भी फ़ारस की खाड़ी क्षेत्र के लिए साझा सुरक्षा परिकल्पना को रूस का पूरा समर्थन देने का एलान किया था. रूस का ये ज़ोर दे कर कहना था कि, वो सुरक्षा का एक ऐसा ढांचा विकसित करने के हक़ में है जिस में सारे क्षेत्रीय देश बराबरी के दर्जे से शामिल हों. इस से इस क्षेत्र में सभी देशों के लिए समुद्री सुरक्षा और शांति सुनिश्चित होगी. रूस के ऐसे किसी क़दम को बढ़ावा देने का साफ़ मतलब है कि वो अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय ताक़तों के साथ मिल कर ऐसा कूटनीतिक प्रयास करना चाहता है. जिस में अमेरिका की अगुवाई वाले गठबंधन के नेतृत्व में, इस क्षेत्र में चलने वाले समुद्री अभियानों के ख़िलाफ़ मोर्चेबंदी की जा सके. हालांकि, रूस का ये कहना कि वो चाहता है कि वो खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था में इस इलाक़े से बाहर की ताक़तों को भी शामिल करना चाहता है. जिस में अमेरिका, चीन, यूरोपीय यूनियन और भारत जैसे देश शामिल हों. लेकिन, रूस का ये कहना एक कूटनीतिक पर्देदारी से ज़्यादा कुछ नहीं. हक़ीक़त तो ये है कि रूस ऐसे बहुपक्षीय संगठनों की मदद से, इस इलाक़े में अमेरिका की एकपक्षीय दादागीरी को ख़त्म करना चाहता है. रूस के प्रस्तावित सुरक्षा ढांचे में सभी देशों को बराबरी का दर्जा देने का ज़िक्र इस बात का साफ़ संकेत है. ईरान कई बार ये आरोप लगा चुका है कि खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका की अगुवाई में चलने वाले अभियानों में अन्य देशों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलता. ऐसे में रूस का बहुपक्षीय संगठनों में सब को बराबरी का दर्जा देने का हवाला देने का साफ़ मतलब है कि इस क्षेत्र में वो अमेरिका की दादागीरी को ख़त्म करने के लिए ही ये बातें कर रहा है.

खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा के मसले पर चीन का इस मसले पर रूस के सुर में सुर मिलाना ये बताता है कि शीत युद्ध के दौरान एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे साम्यवादी चीन और रूस के बीच इस मसले पर नज़दीकियां बढ़ रही हैं. ऐसा ख़ास तौर से तब से हुआ है, जब 2017 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का एलान किया था

इस के बाद चीन ने भी रूस के इस प्रस्ताव का स्वागत किया था. और चीन ने ज़ोर दे कर कहा था कि खाड़ी देशों को ले कर उस का जो सार्वभौम सुरक्षा विज़न है, वो भी साझा, व्यापक, सहयोगात्मक और टिकाऊ सुरक्षा पर ज़ोर देता है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी सदस्य देशों के बीच दोस्ताना संबंध होने चाहिए जो एक दूसरे का सम्मान करें और एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दख़ल न दें. खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा के मसले पर चीन का इस मसले पर रूस के सुर में सुर मिलाना ये बताता है कि शीत युद्ध के दौरान एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे साम्यवादी चीन और रूस के बीच इस मसले पर नज़दीकियां बढ़ रही हैं. ऐसा ख़ास तौर से तब से हुआ है, जब 2017 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का एलान किया था. इस में रूस और चीन को पुरातनपंथी ताक़तें कहा गया था. जो, अमेरिका की अगुवाई वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती दे कर अमेरिकी हितों को नुक़सान पहुंचा रहे हैं.

नफ़ा-नुक़सान का माहौल बनाता कूटनीतिक संघर्ष-

ओमान की खाड़ी और हिंद महासागर क्षेत्र में हुआ तीन देशों का नौसैनिक अभ्यास तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हम ये देखते हैं कि ईरान की समुद्री सीमा के आस-पास तनाव बढ़ रहा है. इस की शुरुआत मई 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ज्वाइंट कम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) से अपना हाथ खींच लेने से हुई थी. ट्रंप प्रशासन ने इस के बाद ईरान की तेल आधारित अर्थव्यवस्था पर अधिकतम दबाव बनाने की रणनीति पर अमल करना शुरू कर दिया था. जिस के तहत अमेरिका ने ईरान पर इकतरफ़ा आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे. इन प्रतिबंधों की वजह से ईरान मुश्किल में पड़ गया. ऐसी परिस्थितियों में अगर हम चीन रूस और ईरान के साझा नौसैनिक अभ्यास की ताक़त को दरगुज़र भी कर दें. तो, भी ये इस इलाक़े में अमेरिकी हितों को चुनौती देने वाला क़दम ही है. इस के अलावा, तीन देशों का ये साझा युद्धाभ्यास ये दर्शाता है कि आज की बहुध्रुवीय दुनिया में किसी एक देश को अलग-थलग नहीं किया जा सकता है. आज अमेरिका की अगुवाई में अगर पश्चिमी देशों का मज़बूत गठबंधन है. तो, दूसरी तरफ़ इस के मुक़ाबले में रूस और चीन भी धीरे-धीरे साथ आ रहे हैं, ताकि अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे सकें.

जनवरी 2020 की शुरुआत में अमेरिका ने ईरान की इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) की क़ुद्स फ़ोर्स के कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी को मार गिराया था. इस के बाद से ईरान के लिए अपने जैसी सोच रखने वाली ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाना ज़रूरी हो गया. ख़ास तौर से नौसैनिक क्षेत्र में आपसी सहयोग. अपनी भौगोलिक संप्रभुता और राजनीतिक अखंडता को बचाए रखने लिए ईरान अपनी पूरी कूटनीतिक ताक़त का इस्तेमाल करता है. ताकि इस क्षेत्र में वो अमेरिका की मौजूदगी और प्रभुत्व को कमज़ोर कर सके. ईरान के निशाने पर ख़ास तौर से अमेरिका की अगुवाई वाला इंटरनेशनल मैरीटाइम सिक्योरिटी कंस्ट्रक्ट (IMSC) है. ईरान इसे इस क्षेत्र के लिए ग़ैर ज़रूरी सुरक्षा व्यवस्था मानता है. इस संगठन के ज़रिए हम इस क्षेत्र को लेकर पश्चिमी ताक़तों के बीच भी मतभेद को देखते हैं. एक तरफ़ ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन हैं, जो अमेरिका की अगुवाई वाले आईएमएससी को मंज़ूर करते हैं. वहीं, जापान और फ्रांस इस मामले में स्वतंत्र नीति पर चलते हैं. और अपने अपने हितों के हिसाब से सर्वे और रिसर्च में यक़ीन रखते हैं. इसी तरह अन्य यूरोपीय देश यूरोपीय यूनियन आल्टरनेटिव यानी यूरोपीय संघ की वैकल्पिक व्यवस्था पर ज़ोर देते हैं.

ईरान की भौगोलिक रूप से इस क्षेत्र में मज़बूती उसे ताक़त देती है. तो चीन की दबी ढंकी कूटनीति और आर्थिक प्रभुत्व और रूस की सामरिक और सैन्य क्षमता मिल कर विभाजित पश्चिमी ताक़तों के रूप में एक मौक़ा देते हैं कि ये तीनों देश मिल कर इस क्षेत्र में सुरक्षा का एक नया त्रिपक्षीय मंच खड़ा करें. इस में क्षेत्रीय देशों के अलावा अन्य देश भी शामिल हों. ताकि, सब मिल कर इस क्षेत्र में अमेरिका के ख़िलाफ़ अभियान को आगे बढ़ा सकें. इस बात के संकेत चीन के विदेश मंत्री वांग यी और ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ के साझा बयान से भी मिलते हैं. जिस में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने एक पक्षीय अभियानों के ख़िलाफ़ मिल कर लड़ने और बहुपक्षीय संगठनों को बढ़ावा देने की बात की थी. ताकि दादागीरी करने वाले देशों को जवाब दे सकें. 31 दिसंबर को चीन की राजधानी बीजिंग से जारी हुए इस साझा बयान में हालांकि, अमेरिका का ज़िक्र नहीं था.

रूस और चीन की, अमेरिका के विरुद्ध सामरिक संतुलन बनाने की ये नीति खाड़ी क्षेत्र के आगे भी विस्तार पाती है. मसलन, भारत-प्रशांत क्षेत्र में भी दोनों देश अमेरिका के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं. मौजूदा भूराजनीतिक हालात ऐसे हैं कि चीन और रूस धीरे-धीरे ऐसे ही अलग-अलग क्षेत्रीय गठबंधन और अर्ध-सहयोगी साझीदारियां कर के अमेरिका की अगुवाई वाली भारत-प्रशांत सामरिक नीति को आगे चल कर चुनौती दे सकें. ईरान-चीन और रूस के बीच इस त्रिपक्षीय साझेदारी के अलावा भी चीन और रूस किस तरह सामरिक सहयोग बढ़ा रहे हैं, इस की मिसाल इन दोनों देशों की दक्षिण अफ्रीका के साथ त्रिपक्षीय नौसैनिक युद्धाभ्यास के तौर पर दिखी थी. चीन और रूस ने दक्षिण अफ्रीका की नौसेना के साथ मिल कर ‘मोसी’ नाम से एक अभूतपूर्व नौसैनिक युद्धाभ्यास किया था. जो दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन के पास हुआ था. 24 से 29 नवंबर के दौरान हुए इस युद्धाभ्यास का मक़सद एक ऐसी टास्क फ़ोर्स का गठन करना था, जो अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी छोर की सुरक्षा के लिए उत्पन्न ख़तरों का सामना कर सके. एक महीने के भीतर पहले उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र में ईरान के साथ त्रिपक्षीय युद्धाभ्यास और फिर दक्षिणी हिंद महासागर क्षेत्र में दक्षिण अफ्रीका के साथ नौसैनिक अभ्या कर के रूस और चीन ने अपनी उस प्रतिबद्धता का मुजाहिरा किया है, जिस के तहत वो अमेरिका की अगुवाई वाले भारत-प्रशांत गठबंधन को चुनौती देने का इरादा रखते हैं. इसी मक़सद से दोनों देश मिल कर अन्य क्षेत्रीय ताक़तों के साथ नौसैनिक सहयोग बढ़ा रहे हैं.

भारत के लिए इस के क्या मायने हैं?

ईरान, चीन और रूस की नौसेनाओं के साझा युद्धाभ्यास को भारतीय मीडिया ने मामूली तवज्जो दी थी. इसे ज़्यादा कवरेज नहीं दिया गया. लेकिन, ये युद्धाभ्यास चीन और हिंद महासागरीय क्षेत्र के अन्य देशों के बीच बढ़ते सैन्य सहयोग को दर्शाता है. ये युद्धाभ्यास चीन की नौसेना की ब्लू वाटर क्षमताओं का भी सीधा प्रदर्शन है. इस से साबित होता है कि चीन की नौसेना अपने देश के बड़ी तेज़ी से बढ़ते उर्जा, आर्थिक और सामरिक हितों की सुरक्षा करने में सक्षम है. चीन के इन हितों का दायरा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट की वजह से विस्फोटक गति से पूरी दुनिया में बढ़ रहा है. इस के अलावा, उत्तरी अरब सागर में चीन की नौसेना ने पाकिस्तान के साथ मिल कर 6 से 14 जनवरी के बीच, सी-गार्जियन्स 2020 के नाम से नौसैनिक अभ्यास किया था. इस से भी चीन के सैन्य सहयोग आधारित गठबंधनों का दायरा बढ़ने के संकेत मिलते हैं. ये चीन के आर्थिक और विदेश नीति से जुड़े गठजोड़ों के दायरे को और विस्तार देने वाले हैं.

भारत, खाड़ी देशों से अपनी ऊर्जा ज़रूरतों का दो तिहाई हिस्सा आयात करता है, जो होरमुज़ जल संधि से हो कर गुज़रता है. ईरान और अमेरिका के बीच संघर्ष की आशंका ने भारत के कूटनीतिक समुदाय और नीति नियंताओं को दुविधा में डाल रखा है. इस की बुनियाद प्रमुख रूप से ईरान और अमेरिका के बीच संघर्ष से बचने की कोशिश है

हालांकि, चीन लगातार ये कहता रहा है कि ऐसे सैन्य अभ्यास किसी क्षेत्रीय हालात की ओर इशारा करते हैं. लेकिन, ईरान और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव के बीच चीन का ऐसे युद्धाभ्यासों में शामिल होना इस बात का साफ़ संकेत है कि इस झगड़े का फ़ायदा उठा कर चीन अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है. चीन की नौसेना ने ओमान की खाड़ी में ईरान के दक्षिणी तट पर स्थित चाबहार बंदरगाह के पास युद्धाभ्यास में हिस्सा लिया. इस के अलावा अपने बीआरआई प्रोजेक्ट के तहत चीन अपनी नौसैनिक क्षमता का विस्तार करना चाहता है. इसी मक़सद से वो पूरे हिंद महासागर क्षेत्र में कई देशों के साथ व्यापक सैन्य सहयोग बढ़ा कर अपने नौसैनिक अड्डे विकसित कर रहा है. चीन का इरादा व्यापक समुद्री अर्थव्यवस्था विकसित और संरक्षित करने का है. ये इस क्षेत्र में भारत के हितों को ख़तरे में डालने वाला है.

भारत और ओमान के बीच सैन्य सहयोग की संधि के तहत, भारती नौसेना को ये अधिकार मिला है कि वो ओमान के दुक़्म बंदरगाह को सैन्य और साजो-सामान के लिए उपयोग कर सकता है. लेकिन, इस क्षेत्र में अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ती तनातनी का सीधा असर भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ने का डर है. क्योंकि भारत, खाड़ी देशों से अपनी ऊर्जा ज़रूरतों का दो तिहाई हिस्सा आयात करता है, जो होरमुज़ जल संधि से हो कर गुज़रता है. ईरान और अमेरिका के बीच संघर्ष की आशंका ने भारत के कूटनीतिक समुदाय और नीति नियंताओं को दुविधा में डाल रखा है. इस की बुनियाद प्रमुख रूप से ईरान और अमेरिका के बीच संघर्ष से बचने की कोशिश है. भारत के लिए बेहतर तो ये होगा कि वो इस मामले में जापान से सीख ले. और उसी की तरह इस क्षेत्र के लिए एक स्वतंत्र टास्क फ़ोर्स बनाए और शक्ति संतुलन साधने की कोशिश करे. ताकि, भारत को तेल का आयात अबाध गति से होता रहे. ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों और चीन के साथ ईरान की बढ़ती नज़दीकियों से भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए चुनौती खड़ी हो रही है. इस से ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारत का आर्थिक और कूटनीतिक निवेश भी ख़तरे में पड़ता दिख रहा है. जबकि भारत ने इस इरादे से चाबहार बंदरगाह के प्रोजेक्ट में निवेश किया था कि वो इस के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान से होते हुए मध्य एशियाई देशों तक अपनी पहुंच बना सके.

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