Author : Stuart Rollo

Expert Speak Terra Nova
Published on Mar 14, 2023 Updated 0 Hours ago

नील पोस्टमैन की टेक्नोपोली के विकास की अवधारणा, अर्थात एक ऐसा समाज जिसमें सभी राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन प्रौद्योगिकी के आदेशों को मानने वाला हो गया है, इस बिंदु पर विशेष रोशनी डालने वाली साबित हो रही है. 

‘टेक्नोपोली’ और इससे जुड़ा असंतोष!

यह लेख जर्नल रायसीना फाइल्स 2023 का एक अध्याय है.


तक़नीकी नवोन्मेष के लाभ और हानियों पर चर्चा अक्सर विशेष प्रौद्योगिकियों के गुणों और नुक़सानों तक सीमित होती है, क्योंकि वे मानव जीवन को कम या ज़्यादा पैमाने पर आसान, कुशल, आरामदायक और सुरक्षित बनाते हैं. लेकिन इस बात को लेकर आमतौर पर कम ही चर्चा होती है कि कोई भी तक़नीकी नवाचार जब बाज़ार में उतरता है तो उसका लाभ किसे होता है और इसकी कीमत किसे अदा करनी पड़ती है. इतना ही नहीं विशेष तक़नीकी प्रौद्योगिकियों की वज़ह से होने वाले प्रभावों की जांच पर भी बेहद कम ध्यान दिया जाता है. खासकर इन प्रौद्योगिकियों को लागू करने की वज़ह से मानव समाज, संस्कृति और राजनीति की नींव पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़े तर्क की जांच तो दुर्लभ ही होती है. ऐसे में नील पोस्टमैन की टेक्नोपोली के विकास की अवधारणा, अर्थात एक ऐसा समाज जिसमें सभी राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन प्रौद्योगिकी के आदेशों को मानने वाला हो गया है, इस बिंदु पर विशेष रोशनी डालने वाली साबित हो रही है.

इस तरह की चचार्एं दुर्लभ हैं क्योंकि टेक-यूटोपियंस अंर्थात तक़नीकी कल्पनालोक से जुड़ी हुई अनेक धारणाएं एक तरह से (अब नियो अर्थात नव) उदार पूंजीवाद के फामूर्ले में बंधी हुई होती हैं. और उदार पूंजीवाद की इसी धारणा ने एक तक़नीकी समाज में हमारे राजनीतिक परिवर्तन की विचारधारा के रूप में कार्य किया है.

इस तरह की चचार्एं दुर्लभ हैं क्योंकि टेक-यूटोपियंस अंर्थात तक़नीकी कल्पनालोक से जुड़ी हुई अनेक धारणाएं एक तरह से (अब नियो अर्थात नव) उदार पूंजीवाद के फामूर्ले में बंधी हुई होती हैं. और उदार पूंजीवाद की इसी धारणा ने एक तक़नीकी समाज में हमारे राजनीतिक परिवर्तन की विचारधारा के रूप में कार्य किया है. टेक-यूटोपियंस का मानना है कि उद्योग, कृषि, स्वास्थ्य, परिवहन और संचार में क्रमिक और जटिल तक़नीकी रिवॉल्यूशन अर्थात परिवर्तन आम तौर पर एनलाइटमेंट अर्थात ज्ञानोदय के साथ-साथ ही आ गएऔर अपना प्रभाव बढ़ाने लग गए थे. इसी वज़ह से आज हम एक से अधिक जुड़ी हुई अन्योन्याश्रित और समृद्ध दुनिया को देख रहे हैं. प्रौद्योगिकी के अतिउत्साही अथवा चापलूस समर्थक यह दावा तक कर जाएंगे कि प्रौद्योगिकी का वैश्विक व्यवस्था पर कथित शांत करने वाला असर देखा गया है. वे यह घोषणा करने से भी नहीं चूकेंगे कि प्रौद्योगिकी की प्रचुरता से ही शांति स्थापित हुई है.[1]

टेक-यूटोपियनवाद संक्षेप में व्हिग थेयरी ऑॅफ हिस्ट्री अर्थात इतिहास के व्हिग सिद्धांत की एक डिजिटल निरंतरता है - जो प्रौद्योगिकी के सकारात्मक और ज्ञानवर्धक प्रभाव का एक निश्चयात्मक मूल्यांकन है. दशकों पहले से वैश्विक तक़नीक उद्योग के केंद्र से उपजा यह विचार दुनिया भर में तेजी से प्रचलित होता चला गया है. दरअसल, टेक यूटोपियन प्रौद्योगिकी को मानव तक पहुंचने वाले उपकरणों के सूइट अर्थात अनुगामी या समूह से अधिक मानते हैं. उनका मानना है कि प्रौद्योगिकी ही एक अधिक संपूर्ण मानव समाज के निर्माण अथवा उसे आकार देने का काम कर सकती है. प्रौद्योगिकी के बिना ऐसा होना असंभव होगा. अत: समाज केवल टूल्स अर्थात औज़ारों और मशीनों से ही सक्षम नहीं होता है, बल्कि टेक यूटोपियन्स के तर्क के अनुसार समाज उसके मूल्यों, संस्थानों और संस्कृति पर आधारित होता है. विचार के इस तरीके पर यहां बाद में और विस्तार से चर्चा की जाएगी. विचार का यह तरीका न केवल सामाजिक और आर्थिक, बल्कि अमेरिका और अन्य देशों के मामले में उन देशों की विदेश और सुरक्षा नीति को भी प्रभावित करते हुए आकार देने लगा है.

विशिष्ट सामाजिक जीवन का ताना-बाना पहले एक एन्क्लोशर अर्थात निर्धारित दायरे, सामाजिक मंजूरी, ऑॅर्गनाइज्ड अर्थात संगठित, लोकलाइज्ड अर्थात स्थानीयकृत होता था. लेकिन पश्चिमी औद्योगिक देशों में औसत कार्यकर्ताओं का यही सामाजिक जीवन धीरे-धीरे बाज़ार के तर्क के इर्द-गिर्द संरचित एक औद्योगिक समाज की वज़ह से प्रभावित होने लगा.

इतनी गहराई से प्रभावित एक सांस्कृतिक माहौल में, काफ़ी हद तक इस माहौल पर होने वाले प्रौद्योगिकी के अनगिणत बुरे प्रभावों को लेकर चर्चा नहीं की जाती है. जैसा कि नील पोस्टमैन ने बताया है, प्रौद्योगिकियों का प्रभाव केवल उस बात में नहीं देखा जाना चाहिए जो प्रौद्योगिकियां करती हैं (अच्छा या बुरा) बल्कि उसमें यह देखा जाना चाहिए कि प्रौद्योगिकियां क्या प्रभाव डाल रही है अर्थात प्रौद्योगिकियां की वजह से पहले से बनी हुई कौन सी बात अब नष्ट हो गई है.[2] दरअसल, 18वीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी यूरोप में प्रौद्योगिकी का सामाजिक केंद्रीकरण आरंभ होने के बाद से ही बड़ी मात्रा में हानिकारक काम होने और पहले से प्रचलित काम नष्ट होने लगे हैं. विशिष्ट सामाजिक जीवन का ताना-बाना पहले एक एन्क्लोशर अर्थात निर्धारित दायरे, सामाजिक मंजूरी, ऑॅर्गनाइज्ड अर्थात संगठित, लोकलाइज्ड अर्थात स्थानीयकृत होता था. लेकिन पश्चिमी औद्योगिक देशों में औसत कार्यकर्ताओं का यही सामाजिक जीवन धीरे-धीरे बाज़ार के तर्क के इर्द-गिर्द संरचित एक औद्योगिक समाज की वज़ह से प्रभावित होने लगा. यह प्रभाव शहरी गन्दगी, सामाजिक विध्वंस के साथ ही जीवन की गुणवत्ता के महत्वपूर्ण भौतिक, वस्तुगत और आध्यात्मिक उलटफेर के कारण देखा गया. पश्चिमी देशों में औद्योगिकीकरण और नवजात तक़नीक की वज़ह से पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव, उपनिवेशित दुनिया में और भी तेजी से फ़ैला. इसका कारण यह था कि बेहद पिछड़ी हुई उपनिवेशित दुनिया में औद्योगिकीकरण और नवजात तक़नीक के लिए पोषक आवश्यक क्षेत्र और कच्चा माल आसानी से उपलब्ध था. इस बदलाव का समर्थन करने के लिए वैश्विक परिधि की स्थानीय आबादी को बड़ी भारी कीमत चूकानी पड़ी. यह कीमत उनके जीवन, भौतिक संपदा और सांस्कृतिक अखंडता के मामले से जुड़ी थी. अत: तक़नीकी समाज की इमारत और इसकी वज़ह से दुनिया को मिलने वाले वास्तविक वरदान इन्हीं नींवों पर खड़े हुए थे.[3]

टेक्नोपोली का विकास

मानवीय समाज का पूरा इतिहास तक़नीकी नवाचार की एक लंबी प्रक्रिया में जुटा हुआ रहा है. सभ्यता निर्माण के केंद्र में हमेशा से ही नई प्रौद्योगिकियों की ख़ोज, उत्पादन और आदान-प्रदान रहा है. सहस्राब्दियों से चीन, भारत और पश्चिम एशिया में, अत्यधिक तक़नीकी, जटिल और वैज्ञानिक रूप से विकसित समाज अस्तित्व में हैं. यह समाज सदियों से उपकरणों और मटेरियल प्रोसेसेस् अर्थात भौतिक अथवा वस्तुविद प्रक्रियाओं के विकास में लगातार और लंबे वक्त तक जुटे रहने के साथ-साथ गणित, धातु विज्ञान और रसायन विज्ञान जैसे क्षेत्रों में युग-परिवर्तनशील विलक्षण प्रगति करता आया है. इसके बावजूद इन समाजों को कभी भी उनके तक़नीकी कौशल के चलते उस तरह परिभाषित नहीं किया गया, जैसा कि पश्चिम और तेजी से आधुनिक बन चुकी दुनिया को परिभाषित किया गया था.

प्रौद्योगिकी अपने साथ उत्पादक और व्यावसायिक विस्तार के लिए लगभग असीमित अवसरों को लेकर आती है. इस वज़ह से प्रौद्योगिकी, तक़नीकी विकास को बाधित करने वाले सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक और धार्मिक मानदंडों, रीति-रिवाजों और जीवन जीने के तरीकों को मानने को तैयार नहीं होती है. अर्थात वह उनका उल्लंघन करने में लगी हुई है. 1930 के दशक में अमेरिकी समाज के तेजी से तक़नीकी समाज में परिवर्तित होने की प्रक्रिया को देखते हुए इस परिवर्तन का मूल्यांकन करने वाले लुईस ममफोर्ड ने इस स्थिति का वर्णन कुछ इस प्रकार किया था : ‘‘हमारे समाज और सभ्यता में लगभग सभी क्षेत्रों में आवश्यकता हो या न हो वस्तुओं का उत्पादन किया जाए, कुछ नए अविष्कार भले ही वे उपयोगी हो अथवा न हो उनका उपयोग किया जाए तथा हर स्थान पर शक्ति का प्रयोग करने की प्रवृत्ति घुस कर अथवा घर करके बैठी है.’’[4]

ममफोर्ड ने प्रौद्योगिकी के जिन प्रभावों का वर्णन किया है वे 1930 के दशक की तुलना में अब कहीं अधिक तीव्र, व्यापक और वैश्विक स्तर पर फ़ैल गए हैं. इतिहास में सदैव ही सभी औज़ारों और प्रौद्योगिकी ने ही समाजों को शक्ल अथवा उन्हें आकार देने का काम किया है. इस औज़ारों और प्रौद्योगिकी के चारों ओर ही रीति-रिवाज और संस्कृति की दिशा और दशा निर्धारित होती आयी है. लेकिन प्री-मॉडर्न अर्थात पूर्व-आधुनिक दुनिया में आकार देने का यह काम एक बेहद धीमी और अधिक गतिशील प्रक्रिया के रूप में हुआ. उस दौर में तैयार होने वाले उपकरण और प्रौद्योगिकियां स्वत: अपने उपयोग को लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों से दृढ़ता से बंधे हुए दिखाई देते थे. लेकिन पूंजीवाद में उभार आने के बाद तक़नीकी नवाचार में जैसे-जैसे तेजी आती गई, वैसे ही उस वक़्त मौजूद स्थिर और ठोस सामाजिक प्रथाएं और जीवन जीने के तरीके हवाहवाई होने लगे, क्योंकि समाज और संस्कृति में प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रभाव को रोकने वाली कोई ताकत नहीं थी. ऐसे में समाज और संस्कृतिक को प्रौद्योगिकी द्वारा परिभाषित किए जाने का ख़तरा मंडराने लगा है.

इतिहासकार फर्नांड ब्रॉडेल का मानना था कि, उस दौर में दिखाई देने वाला प्रभाव ‘‘धीमा, मूक और जटिल’’ सामाजिक और सांस्कृतिक ताकतों का मिश्रण था, जिनकी वजह से ही पूर्व-आधुनिक दुनिया में यह तय होता था कि प्रौद्योगिकियों को कैसे और कब अपनाया जाएगा.

इतिहासकार फर्नांड ब्रॉडेल का मानना था कि, उस दौर में दिखाई देने वाला प्रभाव ‘‘धीमा, मूक और जटिल’’ सामाजिक और सांस्कृतिक ताकतों का मिश्रण था, जिनकी वजह से ही पूर्व-आधुनिक दुनिया में यह तय होता था कि प्रौद्योगिकियों को कैसे और कब अपनाया जाएगा.[5]  प्रौद्योगिकी के सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थों के अध्ययन में अग्रणी सिद्धांतकारों का यह मानना है कि 19वीं शताब्दी से उपरोक्त डायनैमिक अर्थात संचालन शक्ति उल्टी अर्थात विपरीत हो गई है. आज नील पोस्टमैन द्वारा 'टेक्नोक्रेसी अर्थात तक़नीकीतंत्र' के रूप में संदर्भित तक़नीकी ताकतें और नवाचार ही हैं जो एक नए प्रकार के समाज का निर्माण करते हुए, समाज को आकार देने और इस आकार में भी परिवर्तन करने का काम निरंतर कर रहे हैं. पोस्टमैन मानते हैं कि एक तक़नीकीतंत्र में काफ़ी हद तक तक़नीकी विकास के साथ ही प्रत्येक चीज प्रभावित होती है और तक़नीक अपना रास्ता बनाती चली जाती है. अत:  सामाजिक और सिम्बॉलिक अर्थात प्रतीकात्मक दुनिया, तक़नीकी विकास के अधीन हो जाती हैं. तक़नीक और इससे जुड़े उपकरण समाज में समाहित होने की बजाय वर्तमान में मौजूद संस्कृति पर ही हमला करते हुए उसमें परिवर्तन लाने का काम करते है. ऐसे में तक़नीकीतंत्र के पूर्व मौजूद सभी घटकों, परंपराओं, मिथक, राजनीति, मानदंडों और धर्म को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है.[6]

इसके बावजूद, 'प्रगति' के रूप में तक़नीकी नवाचार के एक तर्क के हुक्मों से बंधा तक़नीकीतंत्र अब भी तक पूरी तरह से सामाजिक और सिम्बॉलिक वर्ल्डस् अर्थात प्रतीकात्मक संसारों को समाहित करने में सफ़ल नहीं हुआ है.[7] लेकिन डिजिटल क्रांति आने के साथ ही पोस्टमैन ने पश्चिम और विशेषत: अमेरिका को तक़नीकीतंत्र से टेक्नोपोली में परिवर्तित होते हुए देखा है. टेक्नोपोली अर्थात एक ऐसा समाज, जो मानवता और दुनिया में मानवता के स्थान को समझने के लिए पूरी तरह से एक तर्कसंगत और तक़नीकी दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है. टेक्नोपोली की स्थिति में ब्रॉडेल के प्रौद्योगिकी के सामाजिक नियम की ‘धीमी ताकत’ के निशान दिखाई नहीं देते. टेक्नोपोली में इन निशानों का स्थान, प्रौद्योगिकी के एक और अधिक तेजी से होने वाली ख़ोज ले लेती है. यह ख़ोज अपने आपके लिए और अपने आप के अंत के लिए होती दिखाई देती है. यही ख़ोज सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संगठनों से जुड़ी किसी या हर उठने वाली समस्या के हल का अहम हिस्सा भी होती है. ऐसे में पोस्टमैन के शब्दों में यह ख़ोज, ‘‘सांस्कृतिक जीवन के सभी रूपों को तक़नीक और प्रौद्योगिकी की संप्रभुता के अधीन करना है.’’[8]

टेक्नोपोली और अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विशेष रूप से अपने आध्यात्मिक घर, अमेरिका में, प्रौद्योगिकी की विचारधारा भी अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक मामलों के दृष्टिकोण को भी प्रभावित करने लगी है. शीत युद्ध के बाद के चरणों में भू-राजनीति के अमेरिकी दर्शन में टेक-यूटोपियनवाद पहले से ही महत्वपूर्ण हो चला था. 1989 में तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के इस दावे को भी कि "अधिनायकवाद के गोलियथ अर्थात सर्वशक्तिमान को माइक्रोचिप का डेविड अर्थात कमजोर ताकत ही परास्त करेगा" इसी बात का उदाहरण कहा जा सकता है.[9] लेकिन शीत युद्ध के तत्काल बाद के युग में जब 'इतिहास के अंत' की अवधारणा का उदय हुआ तो अर्थव्यवस्था और शासन के अमेरिकी मॉडल को कथित स्थायी जीत की गारंटी समझा जाने लगा. इसी दौर में प्रौद्योगिकी के शक्तिशाली मिश्रण और मुक्त बाज़ार पूंजीवाद सर्वमान्य नीतियों का हिस्सा बन गए, जिसके माध्यम से विदेशी मामलों के दृष्टिकोण ने दुनिया को पुन: व्यवस्थित करने और उसमें सुधार का वादा किया था.

यूएस सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के वर्तमान निदेशक विलियम बर्न्स ने पुष्टि की है कि उनके विचार में, चीन के साथ अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता का मुख्य क्षेत्र आने वाले वर्षों में तक़नीकी प्रतिस्पर्धा ही होगा. वैश्विक आर्थिक नेतृत्व के कई क्षेत्रों में चीन पहले ही अमेरिका को मात दे चुका है.

यह बात  1990 के दशक के दौरान तियानमेन स्क्वॉयर विरोध के बाद चीन के प्रति क्लिंटन प्रशासन के दृष्टिकोण के मुकाबले किसी और मामले में इतनी ज़्यादा स्पष्ट नहीं दिखाई दी थी. उस समय यह निर्णय लिया गया था कि बढ़ती डिजिटल वेब आधारित संचार व्यवस्था में अधिक वैश्विक व्यापार, विदेशी निवेश और तक़नीकी एकीकरण को प्रोत्साहित किया जाए. ऐसा होने पर ही चीन में पश्चिम को लेकर बनी सोच को एक नई शक्ल दी जा सकती है. जनवरी 2000 में, चीन में एक इंटरनेट कैफे का दौरा करने के बाद, तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा था कि यह उनकी यात्रा का सबसे दिलचस्प और भविष्य सूचक दृश्य था: “क्योंकि  लोग जितना अधिक जानते हैं अर्थात जितनी ज़्यादा जानकारी हासिल करते हैं, उतनी ही अधिक वे राय बनाएंगे और यह बात उतना ही अधिक लोकतंत्र मज़बूत करेगी या इसका विस्तार करेगी.”[10]

क्लिंटन, बुश जूनियर, और ओबामा प्रशासन ने विभिन्न तरीकों से अपनी विदेश नीति को क्रियान्वित किया. लेकिन, उन सभी ने प्रौद्योगिकी के प्रसार, आर्थिक अंतर्संबंधों में वृद्धि, बढ़ते मध्यम वर्ग और लोकतंत्र में संक्रमण के बीच एक कारणात्मक संबंध में भरोसा जताया था. यह भरोसा शायद 2010 में उस समय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया, जब उस समय गृह मंत्री, हिलेरी क्लिंटन ने इंटरनेट स्वतंत्रता को अमेरिकी विदेश नीति की आधारशिला बनाने की कसम खाई थी: "साइबर गति पर सूचना की स्वतंत्रता प्रतिगामी और दमनकारी समाजों और शासनों के लिए आधुनिक उदारवाद से जुड़े चमत्कारों का दरवाजा खोल देगी."[11]  इस तक़नीक-उत्साह को अब बढ़ते हुए संदेह और सावधानी की नज़रों से देखा जा रहा है. इसकी वज़ह यह है कि अमेरिका स्वयं ही अपने घर पर मुक्त भाषण की कथित सीमाओं पर आंतरिक राजनीतिक संघर्षों में उलझा हुआ है. इसके अलावा लोकतंत्र को कमज़ोर करने के लिए संगठित प्रेरक संचार और प्रत्यक्ष और गुप्त सेंसरशिप की क्षमता भी वहां मौजूद है.

1990 के दशक के दौरान अमेरिका और चीन के बीच हुए आर्थिक एकीकरण से उभरने वाले वित्तीय अवसरों को अमेरिका ने दोनों हाथ से भुनाया. इसके चलते भू-राजनीतिक स्थितियों में व्यापक बदलाव आया. इस बदलाव के कारण ही चीन और अमेरिका के बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था के दो प्रतिस्पर्धी ध्रुवों के रूप में बढ़ती प्रतिद्वंद्विता दिखाई दी. इसी स्थिति ने 21वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व के दो संभावित दावेदारों को भी विश्व के सामने लाकर रख दिया है. नेटवर्क वाली डिजिटल तकनीकों में वर्चस्व इस अवधि के दौरान दोनों देशों के बीच सापेक्षिक आर्थिक शक्ति को निर्धारित करने में अहम कारक साबित होगा.[12] जानकारों का कहना है कि आने वाले दशकों में, पारंपरिक अर्थव्यवस्था की तुलना में, तक़नीकी क्षेत्र में कही ज़्यादा विकास दर देखी जाएगी. ऐसे में इस क्षेत्र में आने वाले दिनों में भयंकर प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलेगी. आने वाली सदी में वैश्विक ताक़तों के पास आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता, रिन्यूएबल एनर्जी अर्थता नवीकरणीय ऊर्जा और क्वॉन्टम इनोवेशन्स अर्थात क्वॉन्टम नवाचारों जैसी प्रमुख तकनीकों की क्षमता का होना महत्वपूर्ण माना जा रहा है. चीन का मानना है कि प्रौद्योगिकी के इन क्षेत्रों में उसके पास वह क्षमता मौजूद है जो उसे अमेरिका से आगे निकल जाने में सहायक साबित होगी. दूसरी ओर अमेरिका इन क्षेत्रों को उच्च तक़नीक वाली अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों के रूप में देखता है. उसका मानना है कि इस क्षेत्र में पहले से मौजूद उसके निरंतर प्रभुत्व के फलस्वरूप वह चीन को पीछे धकेलते हुए उसे निम्न स्तरीय औद्योगिक शक्ति बनाकर रख देने में सफ़ल हो जाएगा.

यूएस सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के वर्तमान निदेशक विलियम बर्न्स ने पुष्टि की है कि उनके विचार में, चीन के साथ अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता का मुख्य क्षेत्र आने वाले वर्षों में तक़नीकी प्रतिस्पर्धा ही होगा.[13] वैश्विक आर्थिक नेतृत्व के कई क्षेत्रों में चीन पहले ही अमेरिका को मात दे चुका है. पिछले 40 वर्षों में चीन एक सीमांत आर्थिक बाहरी देश से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (क्रय शक्ति समता के आधार पर), कारोबारी, निर्माणकर्ता और विदेशी मुद्रा भंडार धारक बन चुका है.[14] दूसरी ओर अमेरिका भी 21 वीं सदी की अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अहम अधिकांश रणनीतिक उद्योगों में वैश्विक नेतृत्व कर रहा है. इसमें हथियार निर्माण, एयरोस्पेस इंजीनियरिंग और डिजिटल नेटवर्क संचार जैसे क्षेत्र शामिल हैं. ऐसे में अमेरिका की कोशिश होगी कि वह नकल करने की चीनी क्षमता और चीन के साथ अपनी प्रतिस्पर्धा के बीच अपने 'नेशनल सिक्योरिटी इनोवेशन बेस' और 'डिफेंस इंडस्ट्रियल बेस' (यानी तक़नीकी नवाचार का राष्ट्रीय आधार) को सुरक्षित रखें. ऐसा होने पर ही वह इन क्षेत्रों में अपने नेतृत्व की स्थिति को बरकरार रख पाएगा. और यही बात चीन के साथ उसकी बढ़ती प्रतिद्वंद्विता में अमेरिकी रणनीतिक योजना में सबसे अहम और स्पष्ट दिखाई देने वाली प्राथमिकता बन गई है.

राष्ट्रपति ट्रम्प के प्रशासन ने जब 'स्वच्छ नेटवर्क' कार्यक्रम अपनाया तो अमेरिकी रणनीतिक योजना का उपरोक्त पहलू सबसे स्पष्ट और व्यापक रूप से प्रकट हुआ था. इस कार्यक्रम को प्रशासन ने अमेरिकी दूरसंचार नेटवर्क से 'अविश्वसनीय' चीनी वाहकों को बाहर करने के लिए स्थापित किया था. इसके अलावा इसका उपयोग अमेरिकी मोबाइल ऐप स्टोर से चीनी अ‍ॅप्प को हटाने, अमेरिकी क्लाउड स्टोरेज में रखी जाने वाली व्यक्तिगत और मालिकाना जानकारी का उपयोग करने से चीनी कारोबारियों को रोकने के साथ अपने भौतिक बुनियादी ढांचे जैसे कि डिजिटल नेटवर्क के अंतर्गत आने वाले अंडरसी केबल अर्थात समुद्र के नीचे बिछाए गए केबल को किसी भी कीमत पर सुरक्षित रखना सुनिश्चित करना था.[15] ट्रम्प प्रशासन की नीतियों से दूर जाते हुए बाइडेन प्रशासन ने अपनी नीतियों में व्यापक परिवर्तन किए, लेकिन चीन के साथ चल रही तक़नीकी प्रतिद्वंद्विता के मामले में बाइडेन प्रशासन ने भी पिछली सरकार की नीति को लेकर ही लगभग कुल निरंतरता को अपनाया है.

अमेरिकी कांग्रेस को अपने पहले प्रमुख संबोधन में, राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि अमेरिका को, चीन के खिलाफ 21वीं सदी के संघर्ष को जीतने के लिए, ‘‘भविष्य के उत्पादों और प्रौद्योगिकियों का विकास करते हुए इस क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित करना होगा.’’[16] अक्टूबर 2022 में, बाइडेन प्रशासन की ओर से तक़नीकी-आर्थिक संघर्ष की शायद सबसे महत्वपूर्ण कार्रवाई की गई थी. उस वक़्त बाइडेन प्रशासन ने चीन को किए जाने वाले उन्नत कंप्यूटिंग और सेमीकंडक्टर निर्माण वस्तुओं के निर्यात पर व्यापक नियंत्रण लगाने की घोषणा की थी.[17] सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में एआई गवर्नेंस प्रोजेक्ट के निदेशक ग्रेगरी सी. एलन ने प्रशासन के इस फ़ैसले के बारे में कहा था कि ‘‘यह अमेरिका की ऐसी नीति है, जिसका उद्देश्य चीनी प्रौद्योगिकी उद्योग के बड़े हिस्से को सक्रिय रूप से वश में करना था. अर्थात दूसरे शब्दों में इस नीति का इरादा चीनी प्रौद्योगिकी उद्योग का ख़ात्मा करने का था.’’[18]

आर्थिक और सामरिक प्रतिद्वंद्विता, तक़नीकी नवाचार के अत्याधुनिक दौर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की जाने वाली कार्रवाई के क्षेत्र को व्यापक बनाती है. ऐसे में इस क्षेत्र की प्रतिद्वंद्विता और कार्रवाई का विस्तार, वैश्विक स्तर पर तक़नीकी सहयोग के एकीकरण की वजह से विश्व को मिलने वाले लाभों को ख़त्म अथवा कुंठित कर देता है. दिनों-दिन तेज हो रही भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दौर में अपने प्रसार को रोकने या विनियमित करने में असमर्थ और अनिच्छुक, बेहद शक्तिशाली नई तकनीकों और तक़नीकी समाजों के संयोजन के ख़तरों को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. विशेषत: अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में वर्तमान में मानव में जो निर्णय लेने की क्षमता है, उसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता के अनियंत्रित प्रसार से होने वाले संभावित नुकसान को दुनिया देख ही चुकी है. लेकिन दुनिया का ध्यान अब भी अन्य अग्रणी प्रौद्योगिकियों के विनाशकारी परिणामों की दिशा में नहीं जा रहा है. वैश्विक स्तर पर अन्य अग्रणी प्रौद्योगिकियों के विनाशकारी परिणामों को मिलने वाली स्वीकृति कम ही है. इसका एक उदाहरण क्वॉन्टम सुप्रीमेसी अर्थात सर्वोच्चता के रूप में देखा जा सकता है. क्वॉन्टम सुप्रीमेसी के लाभ इतने ज्यादा होते हैं कि क्वॉन्टम सुप्रीमेसी रखने वाले देश को ऐसा लगता है कि यदि उसका कोई दुश्मन अथवा विरोधी देश इस क्षेत्र में उससे आगे निकलने की तक़नीक हासिल करने ही वाला है तो उसे ऐसा करने से रोकने के लिए प्रतिकार पूर्व हमला करते हुए इसे निश्चित रणनीतिक पैंतरे की आड़ दी जा सकती है. इयान ब्रेमर का मानना है कि तक़नीकी नवाचार में इस संरचनात्मक विरोध का ख़तरा बेहद बड़ा होता जा रहा है. ऐसे में सरकारों को तुरंत क्वॉन्टम कंप्यूटिंग में विकास पर जानकारी साझा करने को प्राथमिकता देनी चाहिए. इसका कारण यह है कि क्वॉन्टम कंप्यूटिंग इस वक़्त दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण और तेजी से संरक्षित नई तकनीकों में से एक है. ‘‘अगर ऐसा नहीं हुआ और किसी देश को लगा कि कोई प्रतिद्वंद्वी क्वॉन्टम कंप्यूटिंग में उससे आगे निकल रहा है तो इस तरह की सूचना मात्र तृतीय विश्व युद्ध का कारण बन सकती है.’’[19]

निष्कर्ष

विशेष रूप से भौतिक संपदा, स्वास्थ्य और विलासिता के संदर्भ में तक़नीकी नवाचारों से होने वाले लाभ की जानकारी व्यापक तौर पर घोषित की जाती हैं. लेकिन सामाजिक जीवन का प्रौद्योगिकी के समक्ष व्यापक समर्थन और झूकाव, मानवता के नैतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षितिज को सीमित करते हुए इसे चुनौती दे रहा है. 20 वीं सदी के प्रौद्योगिकी के महान सिद्धांतकारों के अधिकांश कार्यों में तक़नीकी पर सामाजिक और मानवीय तत्व को पुन: स्थापित करने की ज़रूरत पर बल दिया गया है. हाइडेगर, मैक्लुहान, ममफोर्ड और पोस्टमैन सभी इस मसले को लेकर एक समान निष्कर्ष पर पहुंचे हैं. उनका मानना है कि इस क्षेत्र में अर्थात प्रौद्योगिकी में विशिष्ट मानव तत्व को पुन: ख़ोजकर दोबारा स्थापित किया जाना चाहिए. यह विशिष्ट मानव तत्व केवल वैज्ञानिक और तर्कसंगत होने की बजाय कलात्मक और बौद्धिक तत्व का सम्मिश्रण होना चाहिए. ममफोर्ड के शब्दों में, ‘‘मशीन पर पुन: विजय पाकर इसे मानवीय उद्देश्यों के लिए वश में करने के लिए, पहले हमें इसे समझना और आत्मसात करना होगा.’’ [20]

[pullquote]ममफोर्ड के शब्दों में, ‘‘मशीन पर पुन: विजय पाकर इसे मानवीय उद्देश्यों के लिए वश में करने के लिए, पहले हमें इसे समझना और आत्मसात करना होगा’’[/pullquote]

इस काम को आज मानव के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन का आधार बन चुके तक़नीकी हस्तक्षेपों की अमूर्त, जटिल और स्तरित प्रणाली ने और भी मुश्किल बना दिया है. 1960 के दशक में मार्शल मैक्लुहान मशीन प्रौद्योगिकी के तेजी से फ़ैलने वाले प्रभाव से जूझ रहे थे. विशेष रूप से मशीनों ने जिस तरह मीडिया के उत्पादन और प्रसार में ख़ुद को स्थापित कर लिया था. और कैसे मशीन के आने से मानवीय समाज भी मशीननुमा ही बनने लग गया था.[21] ऐसे में सवाल उठता है कि 21वीं सदी के समाज के मानव, जो क्वॉन्टम विज्ञान, मशीन लर्निंग और एआई के विशेषज्ञ नहीं हैं, को इन प्रौद्योगिकियों के समाज पर पड़ने वाले मुश्किल और अक्सर न दिखाई देने वाले प्रभाव समझना और भी कठिन काम हो गया है. ऐसे में 21 वीं सदी का मानव क्या इन प्रभावों से निपटने में सफ़ल हो सकेगा? तक़नीक की वज़ह से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के गैर विशेषज्ञ मानवों के लिए क्या निहितार्थ होंगे? इसके बावजूद उन्नत और अधिक सारगर्भित तक़नीक ही समाज की वर्तमान 'प्रगति' का एक अहम हिस्सा बनाकर उसे चला रही है. इसके साथ ही अब जब अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता और युद्ध-निर्माण के केंद्र में अधिक उन्नत तक़नीक का उभार देखा जा रहा है तो हमें तक़नीकी विकास को गहराई से समझना और अधिक अनिवार्य हो गया है. इसके साथ ही यह भी अहम हो गया है कि अब हम तक़नीक के उभार की लागत के साथ-साथ इसके लाभों को गंभीरता से लेना आरंभ कर दें.


Endnotes

[1] Steven Pinker, The Better Angels of Our Nature: The Decline of Violence in History and its Causes (UK: Penguin, 2011).

[2] Neil Postman, Technopoly: The Surrender of Culture to Technology (Vintage, 2011), 11.

[3] For a full inquiry into this dynamic, see Karl Polanyi, The Great Transformation (New York: Farrar & Rinehart, 1944).

[4] Lewis Mumford, Technics and Civilization (New York: Harcourt, Brace and Co., 1934), 274.

[5] Fernand Braudel, Civilization and Capitalism, 15th-18th Century, Vol. I: The Structure of Everyday Life (California: University of California Press, 1992), 335.

[6] Postman, Technopoly: The Surrender of Culture to Technology, 40.

[7]  Postman, Technopoly: The Surrender of Culture to Technology, 74.

[8] Postman, Technopoly: The Surrender of Culture to Technology, 74.

[9] Ronald Reagan, quoted in Sheila Rule, “Reagan Gets a Red Carpet from the British,” New York Times, June 14, 1989.

[10] William J. Clinton, “Remarks to the World Economic Forum and a Question-and-Answer Session” (speech, Davos, Switzerland, January 29, 2000), The American Presidency Project.

[11]  Hillary Rodham Clinton, “Remarks on Internet Freedom” (speech, The Newseum, Washington, DC, January 21, 2010), US Department of State.

[12] Yan Xuetong, “Bipolar Rivalry in the Early Digital Age,” The Chinese Journal of International Politics 13: 313–341.

[13]Transcript: NPR’s Full Conversation With CIA Director William Burns.” NPR, July 22, 2021.

[14] Wayne M. Morrison, China’s Economic Rise: History, Trends, Challenges, and Implications for the United States (Washington, DC: Congressional Research Service, 2019).

[15]  Michael R. Pompeo, “Announcing the Expansion of the Clean Network to Safeguard America’s Assets,” US Department of State, August 5, 2020.

[16] Joseph R. Biden, “Remarks as Prepared for Delivery by President Biden — Address to a Joint Session of Congress” (speech, Washington, DC, April 28, 2021), The White House.

[17] US Bureau of Industry and Security.

[18] Gregory C. Allen, “Choking Off China’s Access to the Future of AI,” Center for Strategic and International Studies, October 11, 2022.

[19] Ian Bremmer, The Power of Crisis: How Three Threats – and Our Response – Will Change the World (New York: Simon & Schuster, 2022), 172.

[20] Mumford, Technics and Civilization, 6.

[21] Marshall McCluhan, “The Medium Is the Message,” in Understanding Media: The Extensions of Man (London & New York: Signet, 1964), 7.

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