Published on Jan 22, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत को भविष्य में एक प्रौद्योगिक शक्ति के रूप में सामने आने के लिए नीतिनिर्माण के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.

भारत में प्रौद्योगिकी नीति-निर्माण : दृष्टिकोण में आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत

प्रौद्योगिकी नीतिनिर्माण (technology policymaking) की शुरुआत भारतीय संदर्भ में अपेक्षाकृत नयी चीज़ है. बीते दशक में, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) व मशीन लर्निंग (ML), ब्लॉकचेन व क्रिप्टोकरेंसी, और क्वांटम टेक जैसी नयी उभरती प्रौद्योगिकियों के साथ क़दम मिलाकर चलने की कोशिश में सरकार अपनी नीति और विजन स्टेटमेंट (दृष्टि पत्र) सूत्रबद्ध कर चुकी है. इन पहलकदमियों के इरादों को लेकर लेशमात्र भी संदेह नहीं है. इन्हें वैश्विक स्तर पर भारत की प्रौद्योगिकीय स्थिति मजबूत करने और आनेवाले सालों में भारत के वैश्विक अगुवा के रूप में उभार के लिए डिजाइन, विकसित और निर्मित किया गया है.

हालांकि, भारत को यह स्वीकार करना ही चाहिए कि नीतिनिर्माण का भविष्य काफ़ी हद तक प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित होगा और अब वक़्त आ गया है कि मानक प्रौद्योगिकी नीति प्रक्रियाओं को स्थापित किया जाए. दूसरे शब्दों में कहें, तो प्रौद्योगिकी नीतियों को डिजाइन, विकसित और लागू करने के लिए मानकीकृत ढांचे (framework) तैयार किये जाने चाहिए. इसे हासिल करने के लिए, भारत को प्रौद्योगिकी नीतियां तय करते समय पारंपरिक नीति प्रक्रियाओं से किनारा करना होगा. प्रौद्योगिकी एक गतिशील और सतत-परिवर्तनशील है, जबकि नीतिनिर्माण का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण है. इसलिए, भले ही इस उद्देश्य को ख़याल में रखते हुए प्रौद्योगिकी नीतियों को डिजाइन और विकसित किया जाना चाहिए, लेकिन इतना पर्याप्त लचीलापन होना चाहिए कि प्रौद्योगिकी की कायापलट प्रकृति को इसमें जगह दी जा सके.

प्रौद्योगिकी नीतिनिर्माण बस निकट ही है

प्रचलित व्यवस्था के तहत, भारत में सार्वजनिक नीतियों का बड़ा हिस्सा नीचे से ऊपर की प्रक्रिया में डिजाइन होता है, यानी जब कोई मुद्दा समाधान के लिए सर पर खड़ा हो जाता है, तब जाकर एक नीति सामने आती है. नीतिनिर्माण के साथ शायद ही कभी ‘systems thinking’ (विश्लेषण का एक ख़ास तरह का समग्र दृष्टिकोण) के नज़रिये से पेश आया जाता है. अभी चल रही व्यवस्था के तहत नीतियां समग्रता में डिजाइन नहीं होतीं- उनकी भरसक कोशिश केवल मौजूदा मसलों को हल करने की होती है. नीतियों को डिजाइन करते हुए भारतीय नीतिनिर्माता शायद ही कभी नये औज़ारों (tools) और पद्धतियों (methodologies) की गति के साथ चल पाते हैं. इसके अलावा, भारतीय नीतियों में समुचित ढंग से परिभाषित परिणामों और आउटपुट का अभाव होता है. रही-सही कसर पूरी कर देती है भारतीय नीतिनिर्माण में मौजूद स्थायी समस्या : फीडबैक प्रणाली का अभाव. काग़ज़ पर ये नीतियां आदर्श होने का भान करा सकती हैं, लेकिन इन मुख्य प्रावधानों के चलते वे लागू करने के चरण में अक्सर विफल हो जाती हैं या अपेक्षित नतीजे नहीं ला पाती हैं. बदक़िस्मती से, यही दृष्टिकोण देश में प्रौद्योगिकी नीतियों को डिजाइन करते हुए भी अपनाया जा रहा है.

भारत को यह निर्णय लेने की ज़रूरत है कि किसका नियमन करना है और किसे छोड़ना है. चूंकि भविष्य की बहुत सारी प्रौद्योगिकी इंटरनेट पर निर्भर होगी, नीतिनिर्माताओं और निर्णय करने वालों को नियमनों के लिए अनुमोदन प्रक्रियाओं को तेज़ करना चाहिए. 

दुनिया चौथी औद्योगिक क्रांति (4IR) की दहलीज पर खड़ी है, जहां बिग टेक कंपनियां जैसे फेसबुक (अब मेटा) मेटावर्स (संवर्धित यथार्थ यानी Augmented Reality पर आधारित) जैसी कल्पनातीत तकनीक को लागू कर रही हैं; गूगल जैसी अन्य कंपनियों ने क्वांटम सुप्रीमेसी हासिल कर ली है; और स्पेसएक्स है जो अंतरिक्ष में बस्तियां बसाने की कगार पर है. आने वाले दशकों में ये प्रौद्योगिकीय नवाचार (technological innovations) आम चीज़ बन जायेंगे, जिसे देखते हुए भारत को न सिर्फ़ अपने यहां नवाचार के लिए ज़ोर लगाने, बल्कि प्रौद्योगिकीय संप्रभुता हासिल करने के लिए सशक्त नीति प्रणालियां बनाने की भी ज़रूरत है. इसके साथ ही, इन प्रणालियों व ढांचों को आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाना चाहिए, स्थानीय विकास को प्रोत्साहन देना चाहिए, और निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के बीच ज्यादा सहयोग का रास्ता तैयार करना चाहिए. जैसे-जैसे दुनिया कहीं ज्यादा गहरे तक आपस में जुड़ती जा रही है, भारत को संपूर्ण हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और समग्र प्रौद्योगिकीय श्रेष्ठता सुनिश्चत करने की ज़रूरत है. इस लेख में हम इन मुद्दों में से कुछ पर बात कर रहे हैं.

नीतिनिर्माण के क्षेत्र में डिजाइन थिंकिंग, सिस्टम्स थिंकिंग, गेम थ्योरी, और थ्योरी ऑफ चेंज जैसे विषय आ चुके हैं, जो प्रौद्योगिकीय नीतिनिर्माण के नये युग में ले जा रहे हैं. भले ही ज्यादा प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं में से कुछ ने इन तरीक़ों को अपना लिया है, लेकिन भारत पीछे है. अकादमिक जगत और उद्योग दोनों में इन विषयों के बहुत सारे विशेषज्ञ हैं, और भारत को टिकाऊ प्रौद्योगिकीय नीतियां बनाने के लिए उनके ज्ञान और अनुभव का फ़ायदा ज़रूर उठाना चाहिए.

प्रौद्योगिकीय नीतियों को अलग-थलग कार्यक्रमों (standalone programmes) के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. इन्हें दूसरी सामाजिक-आर्थिक और सुरक्षा नीतियों से अलग करके, तहख़ानों में डिजाइन और विकसित नहीं किया जाना चाहिए. परस्पर जुड़ावों और अंतरनिर्भरता के लिए पर्याप्त गुंजाइश होनी चाहिए.

सबसे अहम है कि सुरक्षा और निजता से जुड़ी चिंताओं का तत्परता से निवारण किया जाना चाहिए. प्रौद्योगिकीय नीति डिजाइन करते समय नीतिनिर्माताओं को यूजर्स की सेफ्टी, निजता और सुरक्षा को बुनियादी उसूल की तरह मानना चाहिए. प्रौद्योगिकी के आगे बढ़ने के साथ, ये बुनियादी बातें ही तय करेंगी कि यूजर नयी प्रौद्योगिकियों को कैसे अपनाते हैं और उनके अनुरूप ख़ुद को ढालते हैं.

 भारत को यह स्वीकार करना ही चाहिए कि नीतिनिर्माण का भविष्य काफ़ी हद तक प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित होगा और अब वक़्त आ गया है कि मानक प्रौद्योगिकी नीति प्रक्रियाओं को स्थापित किया जाए

भारत को यह निर्णय लेने की ज़रूरत है कि किसका नियमन करना है और किसे छोड़ना है. चूंकि भविष्य की बहुत सारी प्रौद्योगिकी इंटरनेट पर निर्भर होगी, नीतिनिर्माताओं और निर्णय करने वालों को नियमनों के लिए अनुमोदन प्रक्रियाओं को तेज़ करना चाहिए. नयी प्रौद्योगिकी को अपनाने में सरकार की भूमिका और नियमन के बारे में समाज के सभी समूहों, ख़ासकर जो इन नीतियों से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, के भीतर ज्यादा चर्चा और विचार-विमर्श को ज़रूर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

यह सही वक्त है कि प्रौद्योगिकी नीति के लिए ज्यादा बारीकी भरा सार्वजनिक विमर्श खड़ा करने के लिए अधिक बड़े सार्वजनिक दायरे तक पहुंचने के काम में लगा जाए. बीते कुछ दशकों में, प्रौद्योगिकी और उससे जुड़े फ़ैसले भारतीय नागरिक-वर्ग के लिए दूर की ही चीज़ रहे हैं. प्रौद्योगिकी नीतियां भले ही राजव्यवस्था के सबसे ऊंचे पायदान पर आकार लें, लेकिन वे करोड़ों ज़िंदगियों पर लंबा असर डालने वाली होती हैं. भारत को नीतिनिर्माण के इस लचर तरीक़े से तुरंत छुटकारा पाने की ज़रूरत है. इन प्रक्रियाओं को ज्यादा समावेशी और भागीदारीपूर्ण बनाने की घोर ज़रूरत है.

प्रौद्योगिकियों को आज हम जिस रूप में जानते हैं, वे समय के साथ और विकसित होंगी. सरकार और दूसरी संबंधित एजेंसियों को इस तथ्य को स्वीकार करना ही चाहिए कि प्रौद्योगिकी नीतियों को भविष्यवादी (futuristic) सोच की आवश्यकता है. इसके लिए, इन प्रौद्योगिकियों में से हरेक के लिए एक बहु-हितधारक इकोसिस्टम विकसित किया जाना चाहिए, जिससे कि अनुसंधान और विकास को वाणिज्यिक उपयोगों में बदला जा सके. यह केवल तभी संभव है जब सिर्फ़ ज़रूरत-आधारित दृष्टिकोण के बजाय अग्रसक्रिय (proactive) दृष्टिकोण अपनाया जाए.

निर्णय करने के लिए एक साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण (जिसमें हर निर्णय वैज्ञानिक साक्ष्यों से समर्थित हो) न सिर्फ पारंपरिक नीतियों, बल्कि प्रौद्योगिक नीतियों के लिए भी उतना ही अहम है. यह प्रौद्योगिकी नीतियों के क्रियान्वयन और उनके अनुपालन (compliance) को ज्यादा यथार्थपरक बनायेगा. यह गैरज़रूरी नुक़सान को कम करेगा, संसाधनों का इस्तेमाल बेहतर करेगा, असमानता घटायेगा, और ज्यादा जवाबदेही लेकर आयेगा. नीतिनिर्माण प्रक्रिया में इस दृष्टिकोण को शुरू में ही अपना लेने से एक फीडबैक लूप (जैसी पहले चर्चा की गयी है) बनाने में भी मदद मिल सकती है.

निगरानी और मूल्यांकन के प्रभावी ढांचे डिजाइन किये जाने की ज़रूरत है. चूंकि प्रौद्योगिकी नीतियों के नतीजे और आउटपुट पारंपरिक नीतियों के मुक़ाबले अलग ढंग से सामने आने जा रहे हैं, नये ढांचे और नये मापदंडों की अवधारणा और स्थापना की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, केवल एक बड़ी प्रौद्योगिकीय उपलब्धि हासिल कर लेने को सही मायनों में नीति का नतीजा नहीं माना जा सकता, बजाय इसके, ऐसी नीतियों का प्रभाव मापने के मानदंडों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत होती है.

दूसरे देशों पर निर्भरता कम करने के लिए भारत को हार्डवेयर मैन्यूफैक्चरिंग और कौशल-उन्नयन पर फोकस करना चाहिए, जैसे- हाल में आत्मनिर्भर भारत को सहारा देने के लिए सेमीकंडक्टर मिशन का एलान किया गया. 

प्रौद्योगिकी नीति विशेषज्ञों का एक समूह (cadre) खड़ा करने की भी ज़रूरत है. जैसे-जैसे दुनिया विशेषज्ञता की ओर ज्यादा बढ़ रही है, सरकार को प्रौद्योगिकी नीतिनिर्माण में विशेषज्ञों को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है, जो प्रौद्योगिकियों की न सिर्फ़ व्यावहारिक समझ रखते हों, बल्कि उनके इस्तेमाल के सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, और व्यवहार संबंधी प्रभाव को समझने में भी माहिर हों. विशेषज्ञों का यह समूह आधुनिक युग की प्रौद्योगिकी के लिए नीतियां बनाने में ही सहायता नहीं करेगा, बल्कि भविष्य की तकनीकी प्रगति की एक पूर्व-दृष्टि प्रदान करने में भी मदद करेगा.

प्रौद्योगिकीय संप्रभुता मार्गर्शक सिद्धांत होना चाहिए. नीतिनिर्माताओं को भारत की प्रौद्योगिकीय नीतियां बनाते हुए इस बुनियादी उसूल का पालन करने की कोशिश करनी चाहिए. दूसरे देशों पर निर्भरता कम करने के लिए भारत को हार्डवेयर मैन्यूफैक्चरिंग और कौशल-उन्नयन पर फोकस करना चाहिए, जैसे- हाल में आत्मनिर्भर भारत को सहारा देने के लिए सेमीकंडक्टर मिशन का एलान किया गया. इन पहलकदमियों में अधिकतर, जिनका लक्ष्य भारत को हार्डवेयर उपकरणों का अगुवा बनाना है, फलदायी साबित होंगी. एक अरब से ज्यादा आबादी को देखते हुए, जब बात डाटा के संग्रह, मिलान, और मैनीपुलेशन की आती है, तो भारत की दूसरे देशों पर बढ़त दिखती है. भारत की डाटा नीतियों को इस ढंग से निर्मित किया जाना चाहिए कि वह इस अनंत संसाधन की संभावनाओं का पूरा फ़ायदा उठा सके.

भारत की सरकार का दृष्टिकोण

भले ही भारत की सरकार का दृष्टिकोण प्रौद्योगिकी नीति की डिजाइन में ठीकठाक नहीं है, मगर सही रास्ते पर लाने के उपायों के ज़रिये, भारतीय की प्रौद्योगिकी नीतियों को ज्यादा असरदार बनाया जा सकता है. गूढ़ और परिवर्तनकारी प्रौद्योगिकियां (deep and disruptive technologies) राज्य और समाज के काम करने के तरीक़े को जिस तरह बदल रही हैं, उसे देखते हुए ज्यादा सहयोग और सहकार समय की मांग है. इसके अलावा, नीतियां केवल सरकार को प्रभावित नहीं करतीं, यह सभी संबंधित हितधारकों को प्रभावित करती हैं. इसलिए, व्यवहार्य और टिकाऊ नीतिनिर्माण के लिए पहुंच को बढ़ाये जाने और राज्य एजेंसियों के बाहर के नज़रियों को समाहित किया जाना अत्यावश्यक है.

सौभाग्य से, भारत उच्च क्षमता के ऐसे घरेलू विशेषज्ञों, जो अक्सर इस बहस के विभिन्न पहलुओं को सामने रखते रहे हैं, की प्रचुरता से संपन्न है. सरकार के बाहर, विविध विशेषज्ञताओं से लैस विशेषज्ञों ने प्रौद्योगिकी नीति के बेहतर सूत्रीकरण, अब तक चर्चा किये गये विभिन्न पहलुओं को समाहित करने के लिए समाधान पेश किये हैं. यह सही है कि घरेलू विशेषज्ञों ने समग्र रूप में प्रौद्योगिकी नीति के लिए अपनी विशेषज्ञता उपलब्ध करायी है, मगर ऐसे बहुत सारे विशेषज्ञ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), अंतरिक्ष नीति, जैवप्रौद्योगिकी, और क्वांटम कंप्यूटिंग नीति जैसे विशिष्ट क्षेत्रों (niche fields) में भी ढूंढ़े जा सकते हैं. इसकी ज़रूरत इन क्षेत्रों के गवर्नेंस के लिए मानदंडों में विविधता की वजह से है. भविष्य की दुनिया में अपनी सही जगह हासिल करने के लिए, भारत को अपने पास उपलब्ध पूरी विशेषज्ञता का फ़ायदा उठाना चाहिए. ऐसा करते हुए उसे हितधारकों को प्रक्रिया के केंद्र में रखना चाहिए.

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