Published on Sep 08, 2022 Updated 0 Hours ago

अमेरिका के साथ युद्ध अभ्यास की तारीख़ नज़दीक आ रही है, ऐसे में भारत के काम आ सकने वाली अमेरिकी प्रौद्योगिकियों की पड़ताल ज़रूरी हो जाती है.

युद्ध अभ्यास: पहाड़ी युद्ध क्षेत्रों में भारतीय सेना के लिए कितनी मददगार होगी अमेरिकी प्रौद्योगिकी?

भारत और अमेरिका की थल सेनाएं 14-31 अक्टूबर तक लद्दाख के ऊंचाई वाले इलाक़ों में सैनिक अभ्यास करने जा रही हैं. ये क्षेत्र वास्तविक नियंत्रण रेखा (LaC) के पास है, जहां भारत और चीन के बीच फ़ौजी तनातनी का दौर जारी है. ये दोनों देशों के साझा सैन्य अभ्यास का 15वें दौर होगा. इस युद्ध अभ्यास में भारतीय थल सेना ऊंचे दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में अपनाई जाने वाली रणनीतियों और जंगी पैतरों की नुमाइश करेगी. इसी तरह अमेरिकी सेना भी पर्वतीय क्षेत्रों में तैनात और इस्तेमाल की जाने वाली प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करेगी.

अमेरिकी प्रौद्योगिकी, भारतीय उपयोग

दुर्गम पहाड़ों के ऊंचाई वाले इलाक़ों में संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग बेहद अहम होता है. अमेरिकी सेना ऊंचे पर्वतीय माहौल में अमल में लाने के लिए एकदम नई ख़ुफ़िया, निगरानी और टोही (ISR) प्रौद्योगिकियों के आग़ाज़ की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है. इस सिलसिले में हम अमेरिकी सेना द्वारा हवाई रूप से ख़ुफ़िया, निगरानी और टोही (A-ISR) प्रणाली की मिसाल ले सकते हैं. इस प्लेटफ़ॉर्म को हवाई जासूसी और इलेक्ट्रॉनिक जंगी तंत्र (ARES) के नाम से भी जाना जाता है. हाल ही में हिंद-प्रशांत में इस क्षमता का प्रदर्शन किया गया. ताज़ा प्रमाणों से संकेत मिलते हैं कि ये क्षमता अब भी प्रौद्योगिकीय नुमाइश के दौर में है. हालांकि, फ़ौजी कार्रवाइयों में इसकी पूर्णकालिक तैनाती में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा. दरअसल अप्रैल 2022 में ARES को सैन्य कार्रवाइयों में तैनाती के मक़सद से ही हिंद-प्रशांत भेजा गया था. ARES कारोबारी जेट-आधारित प्रौद्योगिकी का नुमाइश करने वाला तंत्र है, जो तत्काल (real time) ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने और उनकी पड़ताल में मदद करेगा. जासूसी सूचनाएं इकट्ठा करने के नज़रिए से ARES तीनों कारकों (पड़ताल, उपयोग और वितरण यानी PED) पर खरा उतरता है. ARES प्रणाली सिर्फ़ प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन करती है, ये सक्रिय प्रयोग के लिए तैयार नहीं है और ना ही फ़िलहाल इसकी बिक्री की कोई व्यवस्था है. इसके बावजूद अमेरिका अक्टूबर में होने वाले युद्ध अभ्यास में भारतीय सेना के सामने इसकी क्षमताओं का प्रदर्शन कर सकता है. ARES व्यवस्था के अलावा अमेरिकी सेना प्रौद्योगिकीय मोर्चे पर अपनी दूसरी क़ाबिलियतों की भी नुमाइश कर सकती है.

दुर्गम पहाड़ों के ऊंचाई वाले इलाक़ों में संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग बेहद अहम होता है. अमेरिकी सेना ऊंचे पर्वतीय माहौल में अमल में लाने के लिए एकदम नई ख़ुफ़िया, निगरानी और टोही (ISR) प्रौद्योगिकियों के आग़ाज़ की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है. इस सिलसिले में हम अमेरिकी सेना द्वारा हवाई रूप से ख़ुफ़िया, निगरानी और टोही (A-ISR) प्रणाली की मिसाल ले सकते हैं.

ऊंचे हवाई प्लेटफ़ॉर्म

पहाड़ी क्षेत्रों में सैन्य कार्रवाइयों में अनेक प्रकार की प्राकृतिक बाधाएं आती हैं. इनमें घाटियों और घुमावदार पहाड़ों द्वारा रेडियो फ़्रीक्वेंसी और संचार प्रसारणों के रास्ते में क़ुदरती तौर पर पैदा रुकावट शामिल हैं. अमेरिकी सेना इन इलाक़ों को “एक निष्क्रिय और दुर्गम वातावरण” क़रार देती है. ख़तरनाक पहाड़ी क्षेत्रों में तैनात सैनिकों के लिए संचार प्रौद्योगिकियों का परीक्षण हो रहा है. इनके ज़रिए वो दूर बैठे सीनियर कमांडरों से संपर्क क़ायम कर सकेंगे. पर्वतीय वातावरणों के भूगर्भीय कारकों से पैदा होने वाली अड़चनों से निपटने के लिए अमेरिकी सेना ड्रोनों के झुंड यानी “एरियल टीयर नेटवर्क” का परीक्षण कर रही है. इन ड्रोनों को नीचे संचार भेजने और ज़मीन से ऊपर की ओर सिग्नल और संचार हासिल करने के हिसाब से तैयार किया गया है. इस तरह सिग्नलों को रुकावटों से “पार पाने” में आसानी होती है और दुर्गम पहाड़ी रणभूमियों में सैनिकों को आपसी संचार क़ायम करने में मदद मिलती है. पर्वतीय श्रेणियों के चलते विभाजित हुई 2 घाटियों में ऊंचे हवाई प्लेटफ़ॉर्मों (HAPs) के ज़रिए संपर्क स्थापित करना आसान हो जाता है. प्रभावी संचार का अभाव सैन्य कार्रवाइयों में भारी रुकावट डाल सकता है. इससे सैनिकों के बीच आपसी संपर्क टूट सकता है. सिग्नल रिले की ग़ैर-मौजूदगी के चलते वो दुश्मन की हरकतों के ख़िलाफ़ कार्रवाइयों में आपसी तालमेल और जुगलबंदी क़ायम करने में नाकाम साबित हो सकते हैं. पहाड़ी इलाक़ों में बिखरकर लड़ाई लड़ रही पैदल सैन्य इकाइयों के बीच संपर्क टूट जाने से दुश्मन को छिपकर वार करने के मौक़े मिल जाएंगे. फंसे सैनिकों की मदद के लिए अतिरिक्त सैन्य बल मंगवाने की प्रक्रिया में बाधा डालने और सैनिकों की आवाजाही रोकने में भी शत्रु पक्ष को सफलता मिल जाएगी.

फ़िलहाल संचार प्रसारण या ट्रांसमिशन की क़वायदों को सैटेलाइट के ज़रिए अंजाम दिया जा रहा है. सैटेलाइट में कई तरह की कमज़ोरियां होती हैं. वो जाम किए जा सकते हैं. साथ ही अंतरिक्ष में निरोधी क्षमताओं, जैसे सैटेलाइट विरोधी हथियारों के इस्तेमाल (गतिशील या ग़ैर-गतिशील रूप से) से इन्हें नष्ट भी किया जा सकता है. चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से भारत को लगातार ख़तरों का सामना करना पड़ रहा है. इनसे HAPs की मदद से निपटा जा सकता है. ये प्रणाली सैटालाइट के मुक़ाबले ज़्यादा लोचदार है. आज जंग के मैदानों में सेंसर्स का इस्तेमाल ज़ोरशोर से हो रहा है. लिहाज़ा ऊंचाई वाले इलाक़ों में कार्रवाइयों के लिए तैनात सैन्य बलों के लिए सैटेलाइट संचार के साथ-साथ HAPs का इस्तेमाल फ़ायदे का सौदा है. इससे दुश्मन के ठिकानों की तस्दीक़ और निगरानी करने, तोपों और बंदूकों के ज़रिए सटीक निशाना लगाने और पैदल सैन्य इकाइयों और बख़्तरबंद यूनिट्स के बीच क़रीबी तालमेल क़ायम करने में मदद मिल सकती है. ऊंचाई वाले इलाक़ों की ख़ासियत है- जलवायु से जुड़े दुर्लभ हालात. यहां फ़ौजी ठिकाने बिखरे हुए होते हैं. लिहाज़ा उनके ख़िलाफ़ बारीक़ी से निशाना लगाने के लिए ऊंचे इलाक़ों के हिसाब से माकूल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल ज़रूरी हो जाता है. अमेरिकी सेना द्वारा अपनी इसी क़ाबिलियत की नुमाइश किए जाने के आसार हैं. भले ही ये क्षमता हमारी अनिवार्य ज़रूरत न हो लेकिन भारत के लिए मददगार ज़रूर साबित हो सकती है.

चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से भारत को लगातार ख़तरों का सामना करना पड़ रहा है. इनसे HAPs की मदद से निपटा जा सकता है. ये प्रणाली सैटालाइट के मुक़ाबले ज़्यादा लोचदार है. आज जंग के मैदानों में सेंसर्स का इस्तेमाल ज़ोरशोर से हो रहा है. लिहाज़ा ऊंचाई वाले इलाक़ों में कार्रवाइयों के लिए तैनात सैन्य बलों के लिए सैटेलाइट संचार के साथ-साथ HAPs का इस्तेमाल फ़ायदे का सौदा है.

ऊंचाई वाले इलाक़ों से जुड़ी प्रौद्योगिकी और पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध

भारत के नज़रिए से देखें तो ऊंचे युद्ध क्षेत्रों में मदद देने वाली प्रौद्योगिकी सेना के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में अपनी क्रियात्मक रणनीति और पैतरों में तालमेल बिठाने में मददगार साबित होगी. भले ही पहाड़ों पर लड़ी जाने वाली जंगों के लिए अमेरिकियों द्वारा तैयार की गई प्रौद्योगिकी तत्काल उपलब्ध न हो, लेकिन अमेरिकी सेना द्वारा इसकी नुमाइश किए जाने से भारत को लाभ होगा. भारत को इस बारे में अपनी समझ विकसित करने और पर्वतीय क्षेत्रों में जंगी कार्रवाइयों में इसके प्रयोगों की पड़ताल करने में मदद मिलेगी. साथ ही भारतीय सेना को ऊंचाई वाले इलाक़ों में अपनी ISR क्षमताओं के प्रदर्शन का अमेरिका के मुक़ाबले तुलनात्मक अध्ययन करने का भी अवसर मिलेगा. उधर अमेरिकी फ़ौज भी ऊंचाई वाले इलाक़ों में जंगी कार्रवाइयों को अंजाम देने के भारतीय सेना के दशकों के ज्ञान और अनुभव का लाभ उठा सकती है. हालांकि इस सिलसिले में अमेरिका कोई नौसिखिया या ग़ैर-अनुभवी खिलाड़ी नहीं है. सालों तक आतंकी संगठन अल क़ायदा और अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ पहाड़ी इलाक़ों में तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने से अमेरिकी थल सैनिकों को भारी-भरकम तजुर्बा हासिल हो गया है.

ये तकनीक इस क्षेत्र में भारत के अपने प्रयासों के पूरक के तौर पर काम कर सकती है. ताज़ा ख़बरों से पता चलता है कि पहाड़ी इलाक़ों में फ़ौजी कार्रवाइयों को लेकर ISR गतिविधियों को पूरा करने के लिए भारत स्वार्म ड्रोन की ख़रीद की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा है. भारतीय सेना द्वारा स्वार्म ड्रोन के 2 सेटों का अधिग्रहण किए जाने की उम्मीद है. इन्हें बेंगलुरू की 2 स्टार्ट-अप कंपनियां मिलकर तैयार कर रही हैं. ये ड्रोन पूर्वी लद्दाख में ज़मीनी स्तर पर तैनात भारतीय सेना के बख़्तरबंद, तोपख़ाने और पैदल सैनिकों से जुड़ी इकाइयों की ISR और दूरसंचार की ज़रूरतों को पूरा करेंगे. ये मानवरहित हवाई यान (UAVs) शत्रु पक्ष की हरकतों और तैनातियों से जुड़े ढांचों के दूरसंचार प्रसारणों, निगरानी डेटा और जासूसी जानकारियां जुटाने में भारतीय सेना की मदद करेंगे. इनमें चकमा देने और चोरी-छिपे हमले करने के तौर-तरीक़े शामिल हैं. इसके अलावा बख़्तरबंद, यांत्रिक और पैदल क्षमताओं पर आधारित रक्षात्मक और आक्रामक कार्रवाइयों में तालमेल क़ायम करने में भी मदद मिलेगी. बहरहाल अभी ये साफ़ नहीं है कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक दायरों में कार्रवाइयों के लिए इन ड्रोन सेट्स के पास किस तरह की इलेक्ट्रॉनिक जंगी क़ाबिलियत मौजूद हैं. भारत और चीन के बीच कोई भी सैन्य टकराव घने इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वातावरण में होगा. भारतीय सेना के जंगी बेड़े में इलेक्ट्रॉनिक युद्धक क्षमताओं की भारी-भरकम मौजूदगी के बिना शत्रुओं की रक्षा क़ाबिलियत को कुचलने और इलेक्ट्रॉनिक हमलों को अंजाम देने की क़वायद मुश्किल है. इलेक्ट्रॉनिक सपोर्ट और इलेक्ट्रॉनिक बचाव की प्रक्रिया इलेक्ट्रोमैग्नेटिक दायरों में दबदबा क़ायम करने के लिहाज़ से बेहद अहम हैं. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का इन दायरों में बोलबाला है. लिहाज़ा उसकी ज़मीनी और हवाई ताक़तों को रोकने के लिए ऐसी क्षमता हासिल करना ज़रूरी है. भारत के साथ जंग के हालात में चीन अपना दबदबा क़ायम करने की भरपूर कोशिश करेगा. वो भारत की हथियार प्रणाली को परिस्थितियों के हिसाब से फ़ैसले लेने, संचार क़ायम करने और ज़रूरी दिशानिर्देश हासिल करने से महरूम करने की पूरी जुगत लगाएगा. अमेरिकी सेना अपने मल्टी-फ़ंक्शन इलेक्ट्रॉनिक वारफ़ेयर – एट लार्ज (AFEW-AL) क्षमता को एकीकृत करने की क़वायद में लगी है. पूरे आसार हैं कि इसे MQ-1 ग्रे ईगल ड्रोन पर स्थापित किया जाएगा. ज़ाहिर तौर पर भारत की थल सेना को अमेरिकियों से आगामी युद्ध अभ्यास में इस क्षमता की नुमाइश करने का अनुरोध करना चाहिए.

भारत और चीन के बीच कोई भी सैन्य टकराव घने इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वातावरण में होगा. भारतीय सेना के जंगी बेड़े में इलेक्ट्रॉनिक युद्धक क्षमताओं की भारी-भरकम मौजूदगी के बिना शत्रुओं की रक्षा क़ाबिलियत को कुचलने और इलेक्ट्रॉनिक हमलों को अंजाम देने की क़वायद मुश्किल है.

निष्कर्ष

दरअसल, अमेरिका की चाहत और पसंद यही है कि भारतीय सेना इस तरह की प्रौद्योगिकी उसी से ख़रीदे. हालांकि आगे चलकर भारत विदेशों से ज़्यादा मदद लिए बिना भी घरेलू तौर पर इनमें से कुछ तकनीकों का विकास कर सकता है. फ़िलहाल पहाड़ी इलाक़ों में मुश्किलों भरी जंगी क़वायदों में अमेरिकी प्रौद्योगिकियों के प्रभाव और प्रासंगिकता के आकलन और निर्धारण के प्रयासों पर ही ज़ोर दिया जाना चाहिए. भारतीय सेना अपनी ज़रूरतों के लिए स्वार्म ड्रोन की ख़रीद कर रही है. बहरहाल इसके प्रदर्शन को लेकर जल्दबाज़ी में फ़ैसला नहीं लिया जाना चाहिए. भारत को इस सिलसिले में अमेरिकी नुमाइश का इंतज़ार करना चाहिए. इस प्रक्रिया से स्वार्म ड्रोन की तैनातियों को लेकर पूरक क्षमताओं के साथ-साथ मज़बूतियों और कमज़ोरियों की सटीक जानकारी मिल सकती है.

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