Author : Kriti M. Shah

Published on Sep 17, 2020 Updated 0 Hours ago

इस समझौते से अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अमेरिका और नैटो देशों की सेनाओं को अस्थायी तौर पर तो सुरक्षा मिलेगी. मगर, इस संधि से अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों, वहां से सुरक्षा बलों और इस क्षेत्र के सहयोगियों को सीधे तौर पर नुक़सान हो रहा है.

तालिबान-सामुद्रिक समझौता: दक्षिण एशिया की जिहादी हिंसा पर प्रभाव का विश्लेषण

इस साल 29 फ़रवरी को अमेरिका और आतंकवादी संगठन तालिबान के प्रतिनिधियों ने क़तर की राजधानी दोहा में एक समझौता किया, जिसे अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने का समझौता कहा गया. तालिबान और अमेरिका पिछले 19 वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान में जंग लड़ रहे हैं. लेकिन, अब जो समझौता दोनों पक्षों में हुआ है, उसके अंतर्गत अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने के लिए एक समयसीमा निर्धारित की गई है. और, इसके बदले में तालिबान ने वादा किया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा या ऐसे किसी भी आतंकवादी संगठन को पनाह नहीं देगा, जो अमेरिका के लिए ख़तरा हों. इस समझौते पर दस्तख़त होने के बाद से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और नैटो सैनिकों को निशाना बनाने के बजाय अपनी पूरी ताक़त देश की आम जनता को निशाना बनाने में लगा दी है. इस रास्ते पर चलते हुए तालिबान ने ये साफ़ इशारा कर दिया है कि वो अमेरिका के हटने के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में हर क़ीमत पर अपना जिहाद आगे भी जारी रखेगा.[1]

जहां तक अफ़ग़ानिस्तान की बात है, तो जब से अमेरिका ने तालिबान के साथ वार्ता करने के अपने इरादे की घोषणा की थी, तब से पाकिस्तान वहां अग्रणी भूमिका में आ गया था.

अमेरिका और तालिबान के बीच हुए इस समझौते से पाकिस्तान के सुरक्षा और खुफ़िया तंत्र की उस सोच को मज़बूती मिली है. जिसके तहत वो ये मानते रहे हैं कि अगर वो किसी प्रॉक्सी आतंकवादी समूह को पैसे और हथियारों से लैस करके उसे बढ़ावा देते रहेंगे, जैसा कि उन्होंने तालिबान के साथ किया, तो आगे चल कर वो अपने सामरिक लक्ष्य हासिल करने में सफल हो ही जाएंगे. इससे पाकिस्तान के इस तंत्र को देश की सामरिक और राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में अपनी बात कहने का और मौक़ा मिलेगा.

जहां तक अफ़ग़ानिस्तान की बात है, तो जब से अमेरिका ने तालिबान के साथ वार्ता करने के अपने इरादे की घोषणा की थी, तब से पाकिस्तान वहां अग्रणी भूमिका में आ गया था. पाकिस्तान ने बार बार कहा है कि वो अमेरिका और तालिबान के बीच इस वार्ता में मध्यस्थ की भूमिका निभाने को लेकर प्रतिबद्ध है.[2] जिससे कि अफ़ग़ान तालिबान लड़ाकों को अमेरिका के साथ बातचीत की टेबल पर लाया जा सके. अपनी अच्छी नीयत को प्रदर्शित करने के लिए पाकिस्तान ने तालिबान के सह संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अक्टूबर 2018 में कराची की एक जेल से रिहा भी कर दिया था.[3] उसके बाद से अब्दुल्ला गनी बरादर, तालिबान की ओर से अमेरिका से बातचीत का मुख्य वार्ताकार बन चुका है. जुलाई 2019 में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अमेरिका के दौरे पर गए थे, तब उन्होंने कहा था कि वो तालिबान के नेताओं से मिल कर उन्हें अफ़ग़ानिस्तान की सरकार से बातचीत करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे. इमरान ख़ान ने ये भी कहा था कि इस शांति वार्ता से अफ़ग़ानिस्तान में सबको साथ लेकर चलने वाले चुनाव हो सकेंगे. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई थी कि तब तालिबान भी इस चुनाव में शामिल हो सकेगा.[4] इमरान ख़ान का ये बयान इस बात का इशारा था कि पाकिस्तान, आख़िर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार से चाहता क्या है. पाकिस्तान चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में तालिबान का प्रभुत्व हो. और वहां की सरकार में तमाम गुटों की ऐसी साझेदारी हो, जिससे पाकिस्तान के ‘स्ट्रैटेजिक डेप्थ’ वाली सामरिक नीति को पोषित किया जा सके. दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान का इरादा अफ़ग़ानिस्तान में ऐसी सरकार बनाने का था, जो उसके प्रति दोस्ताना रवैया रखती हो.[5]

अब अगर अमेरिका और नैटो देश अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेनाएं जल्दी से जल्दी बुला लेते हैं, तो इससे ये साबित हो जाएगा कि पाकिस्तान की तालिबान को लगातार समर्थन देने की नीति आख़िरकार सफल रही है. जब अमेरिका ने वर्ष 2001 में अफ़ग़ानिस्तान में पहली बार एंट्री ली थी, तो उसने अपनी सुविधा के लिए पाकिस्तान को साझेदार बनाया था. इसके तहत, अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी मात्रा में आर्थिक और सैनिक मदद दी. और इसके बदले में पाकिस्तान को, अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाली सीमा पर आतंकवादी ठिकानों को तबाह करना था. अमेरिका से मदद मिलने के बाद, पाकिस्तान की फौज ने कुछ आतंकवादी संगठनों को तो निशाना बनाया. वहीं, कुछ ऐसे आतंकवादी संगठनों की ओर से उसने आंखें बंद कर लीं, जिससे उसके हितों को फौरी ख़तरा नहीं था. और अब जबकि अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर वापस जाने को तैयार है, तो पाकिस्तान को ये उम्मीद है कि जब अफ़ग़ानिस्तान में नई हुकूमत बनेगी, तो वो उसके प्रति दोस्ताना रवैया अख़्तियार करेगी और अब तक दिए गए समर्थन के बदले में उसके हितों का भी ध्यान रखेगी. इसके अलावा पाकिस्तान को ये अपेक्षा भी है कि अमेरिका उसे वित्तीय मदद देना जारी रखेगा. अब अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने का समझौता हटाने के बाद पाकिस्तान अपने लक्ष्य के और क़रीब पहुंच गया है. क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान से हटने के दौरान भी अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर शांति बनाए रखने की ज़रूरत होगी. उधर, तालिबान अब इतना ताक़तवर हो चुका है, जो अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार से सीधे संवाद करने की हैसियत रखता है.

अब अगर अमेरिका और नैटो देश अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेनाएं जल्दी से जल्दी बुला लेते हैं, तो इससे ये साबित हो जाएगा कि पाकिस्तान की तालिबान को लगातार समर्थन देने की नीति आख़िरकार सफल रही है.

अफ़ग़ानिस्तान शांति समझौते का एक आयाम ये भी है कि इससे भारतीय उप महाद्वीप में इस्लामिक जिहादी समूहों को नई ताक़त मिलेगी. वो नई ताक़त से लैस होकर और हिंसक वारदातों को अंजाम दे सकते हैं.

अमेरिका पर 9/11 के आतंकवादी हमले से पहले जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज (1996-2001) था, तो अल क़ायदा पूरे देश में कई आतंकवादी ट्रेनिंग सेंटर चलाया करता था. इसके अलावा वो इस क्षेत्र के तमाम आतंकवादी संगठनों के साथ क़रीबी संबंध बनाए हुए थे. ख़ास तौर से पाकिस्तान के आतंकवादी समूहों[6] के अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के आक़ाओं से काफ़ी अच्छे संबंध थे. जब इस्लामिक स्टेट (ISIS) ने इस क्षेत्र में अपनी शाखा (ISKP) खोली, तो उसने अपने आपको अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर मज़बूती से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की. जबकि इस इलाक़े में अल क़ायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क जैसे आतंकवादी संगठन पहले ही मज़बूत पकड़ बनाए हुए थे. अल क़ायदा से संबंध रखने वाले जो अन्य आतंकवादी संगठन थे, जैसे कि इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान और तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान से अलग हुए छोटे आतंकवादी समूह. इन सभी ने ISKP के साथ गठजोड़ कर लिया. इसके अलावा इन संगठनों ने बांग्लादेश, श्रीलंका और भारत[7] से भी आतंकवादियों की भर्ती शुरू कर दी. आज ISKP और अल क़ायदा न सिर्फ़ ज़िंदा हैं, बल्कि पूरी तरह से सक्रिय भी हैं. जबकि, तालिबान ने इन संगठनों से अपना ताल्लुक़ ख़त्म कर लेने का वादा किया था. अल क़ायदा का इतने लंबे समय तक सक्रिय रहना इस कारण से संभव हुआ क्योंकि उसने हर क्षेत्र के स्थानीय आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ कर लिया. हक़्क़ानी नेटवर्क, जिसे पाकिस्तान की फ़ौज के हथियारबंद सहयोगी कहा जाता है, उसने अलग अलग आतंकवादी संगठनों के साथ गठजोड़ क़ायम कर लिया है. आज इन आतंकी संगठनों के बीच वैचारिक मतभेद और हितों का टकराव होने के बावजूद, तालिबान, अल क़ायदा और ISKP आपसी सहयोग का लाभ उठा रहे हैं. कई मिलिट्री कमांडर एक साथ सभी संगठनों में सक्रिय हैं. और इन सभी को पाकिस्तान के शासन तंत्र से संरक्षण मिलता है.[8]

तालिबान से पड़ोसी देशों को ख़तरा है

इस क्षेत्र में आतंकवादियों अपराधियों के अलग अलग समूहों के बीच का ये पेचीदा नेटवर्क, दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए ख़तरा है. अगर, तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक शक्ति और प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाते हैं, तो इससे इस क्षेत्र के अन्य इस्लामिक चरमपंथी संगठनों का हौसला बढ़ जाएगा. तालिबान, इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्या करता है. वो, अन्य क़ानूनों के बजाय इस्लामिक शरीयत क़ानूनों का राज चाहता है. उससे अफ़ग़ानिस्तान के उन सुधारों को बहुत बड़ा ख़तरा है, जो सुधार उसने वर्ष 2001 के बाद राजनीतिक, न्यायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में किए हैं. इससे हक़्क़ानी नेटवर्क के हौसले भी बुलंद होंगे. उसे भी काबुल में पांव जमाने का मौक़ा मिल जाएगा. फिर वो अल क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को खुलकर समर्थन दे सकेगा.

अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है, उस में भारतीय उप महाद्वीप में अल क़ायदा (AQIS) का कोई ज़िक्र नहीं है. न ही उसके किसी सहयोगी संगठन का नाम इस समझौते में शामिल है. समझौते में केवल अल क़ायदा और इस क्षेत्र में उसकी मौजूदगी से अमेरिकी हितों को ख़तरे का हवाला दिया गया है. वहीं, भारतीय उप महाद्वीप की अल क़ायदा की शाखा (AQIS) भारत, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान के लिए गंभीर ख़तरा है. इसकी वजह न केवल अल क़ायदा के इस ग्रुप की आतंकवादी हमलों को अंजाम देने की क्षमता है. बल्कि, ये हक़ीक़त भी है कि अल क़ायदा की इस शाखा (AQIS) के बहुत सारे आतंकवादी तालिबान की ओर से भी लड़ते रहे हैं.[9] AQIS ने अलग अलग देशों में सक्रिय कई आतंकवादी समूहों और संगठनों को एक झंडे तले लाने में भी सफलता हासिल की है. इनमें अंसार ग़ज़वात-उल-हिंद, हरकत उल-मुजाहिदीन और इंडियन मुजाहिदीन जैसे भारत में सक्रिय आतंकी संगठन और अंसार अल-इस्लाम व जमात उल-मुजाहिदीन जैसे बांग्लादेशी आतंकवादी संगठन भी शामिल हैं.

भारत में अल क़ायदा की ये शाखा एक मज़बूत प्रचार अभियान चलाती है. जिससे कि बहुसंख्यक हिंदू आबादी[10] और अल्पसंख्यक मुसलमानों के बीच टकराव और तनाव को बढ़ावा दिया जा सके. ये प्रचार किया जाता है कि, ‘भारत के मुसलमान हिंदुओं की ग़ुलामी के साए में रह रहे हैं.’ अल क़ायदा की जिहादी पत्रिका नियमित रूप से ऐसे लेख छापती है जिसमें भारत के मुसलमानों को अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान का समर्थन करने और इस्लामिक शरीया के हिसाब से चलने की अपील की जाती है.[11] 2019 में अल क़ायदा के प्रमुख अयमन अल-ज़वाहिरी ने कश्मीर के मुजाहिदीन से अपील की थी कि वो ‘भारत सरकार और इसकी सेना पर लगातार चोट करने उसे नेस्तनाबूद कर दें.’ अल ज़वाहिरी ने भारत की अर्थव्यवस्था को ऐसी चोट पहुंचाने की भी अपील की थी, जिससे उससे लगातार नुक़सान होता रहे.[12]  भारत में अल क़ायदा की ये शाखा (AQIS) अपने प्रचार का पूरा ज़ोर भारत में मुसलमानों से हो रहे अन्याय पर केंद्रित रखती है. मगर, ये संगठन भारत की बांग्लादेश नीति की भी आलोचना करता रहता है. वर्ष 2014 के बाद जब से AQIS ने बांग्लादेश में अपनी गतिविधियां बढ़ाई हैं, तब से ये संगठन बांग्लादेश के सेक्यूलर कार्यकर्ताओं, उदारवादी ब्लॉगर्स, नास्तिकों और LGBTQ समुदाय के लोगों को ये कह कर निशाना बनाता रहा है कि ये इस्लामिक मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं.[13] बौद्ध समुदाय के बहुमत वाले म्यांमार में AQIS अपने दुष्प्रचार के तहत लगातार रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ ज़ुल्मों का हवाला देता रहता है. उसका मक़सद निराश रोहिंग्या युवाओं को कट्टरपंथ की ओर धकेलना है.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की विजय से भारत के लिए भी चुनौती बहुत बढ़ जाएगी. क्योंकि, इससे कश्मीर में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को नया हौसला मिल जाएगा.[14] जैश-ए-मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन पहले तालिबान के साथ सहयोग करते रहे हैं. और इन संगठनों का हाथ अफ़ग़ानिस्तान में कई आतंकवादी हमलों में पाया गया है.[15] फ़रवरी 2019 में भारत के सुरक्षा बलों पर पुलवामा में हुआ आतंकी हमला एक ऐसे सुसाइड बॉम्बर ने किया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत से प्रेरणा लेकर ये अटैक किया था.[16] ये हमलावर जैश-ए-मुहम्मद का एक सदस्य था. वो कश्मीर के युवाओं को भारत के विरुद्ध जिहाद के लिए उकसाता था. और इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विरुद्ध तालिबान के जिहाद की मिसालें दिया करता था. अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से सेना हटाने के बाद जिहाद के प्रति झुकाव रखने वाले उप महाद्वीप के युवाओं को तालिबान की जीत से हौसला मिल सकता है.

मध्य एशिया के तीन गणराज्य-तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं सीधे तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से मिलती हैं. और अमेरिका के वहां से सेना हटाने के बाद इन देशों पर सीधा असर पड़ने की आशंका है. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़ों में हिंसक घटनाएं बढ़ने की आशंका पहले ही जताई जा चुकी है. जब से अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता हुआ है, तब से इन मध्य एशियाई देशों के आतंकवादी संगठन जैसे कि जमात अंसारुल्लाह (ताजिकिस्तान), कतीबत इमाम अल-बुख़ारी (उज़्बेकिस्तान)और तुर्केस्तान इस्लामिक पार्टी जैसे संगठनों ने अमेरिका पर इस विजय के लिए तालिबान को मुबारकबाद दी है. इन आतंकवादी संगठनों ने अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सेनाएं हटाने को इस्लामिक उम्माह की जीत बताया है. और ये विश्वास जताया है कि तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आने के बाद अल क़ायदा से अपने रिश्ते नहीं तोड़ेगा.[17][18]

मध्य एशिया के तीन गणराज्य-तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं सीधे तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से मिलती हैं. और अमेरिका के वहां से सेना हटाने के बाद इन देशों पर सीधा असर पड़ने की आशंका है. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़ों में हिंसक घटनाएं बढ़ने की आशंका पहले ही जताई जा चुकी है.

अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों पर जिहादी हिंसा बढ़ने का ख़तरा इसलिए मंडरा रहा है क्योंकि तालिबान की राजनीतिक विश्वसनीयता कैसी है ये सबको पता है. इसके अलावा तालिबान और अल क़ायदा जैसे संगठनों के स्थायित्व का इतिहास कैसा रहा है, ये भी सबको पता है. अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने से पैदा हुए इस अवसर का लाभ उठाकर दूसरे आतंकवादी इस्लामिक संगठन अपने यहां नए लोगों की भर्ती और कट्टरपंथी विचारधारा के प्रचार प्रसार कर सकते हैं.[19] इसके लिए वो अमेरिका के ऊपर तालिबान की जीत को उदाहरण के तौर पर प्रचारित कर सकते हैं. फिर, तालिबान की इस विजय के माध्यम से वो सोशल मीडिया पर अपनी ताक़त बढ़ाते हुए, आतंकवादियों और जिहादियों की नई टोली तैयार कर सकते हैं. और उन्हें कट्टरपंथ की ओर धकेलने के लिए तालिबान की जीत का मुग़ालता दिखा सकते हैं.

क्या तालिबान बदल सकता है?

अमेरिका और तालिबान के बीच अफ़ग़ानिस्तान का जो शांति समझौता हुआ है, उसमें अमेरिका ने ये माना है कि 2001 के बाद से तालिबान में बदलाव आया है. और जिस तालिबान से वो समझौता कर रहे हैं, वो नया है. अमेरिका इसी विश्वास की बुनियाद पर ये सोच रहा है कि तालिबान अगर अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आते हैं, तो वो अपने देश को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के ख़िलाफ़ आतंकवादी हमले करने का अड्डा नहीं बनने देंगे. तालिबान पर इसी यक़ीन के आधार पर अमेरिका ने इस आतंकवादी संगठन को विश्वसनीयता का प्रमाणपत्र दे दिया है. और तालिबान पर इसी भरोसे के आधार पर वो अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना भी हटाने जा रहा है. लेकिन, इस बात का कोई सबूत नहीं है कि तालिबान एक आतंकवादी संगठन से कुछ और बन गया है. या इस बात के भी कोई सबूत नहीं हैं कि मानव अधिकारों से लेकर महिलाओं की शिक्षा, लोकतांत्रिक व्यवस्था या सेक्यूलर मूल्यों पर उसका विश्वास बढ़ गया है. इस समझौते से अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अमेरिकी और नैटो देशों के सैनिकों को कुछ समय के लिए सुरक्षा ज़रूर मिलती है. लेकिन, इससे अफ़ग़ानिस्तान के आम नागरिकों, सुरक्षा बलों और अफ़ग़ानिस्तान के सहयोगियों को भारी नुक़सान पहुंचा है.

इस शांति समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि तालिबान इसे लेकर ईमानदार और पारदर्शी रहे. किसी भी आतंकवादी संगठन से ये अपेक्षा करना बहुत बड़ी बात है. उस पर तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन पर कैसे यक़ीन कर लिया जाए, जिसे बेगुनाह लोगों की हत्या करने में कोई शर्म या संकोच नहीं होता?

तालिबान के साथ हुए इस शांति समझौते में इसकी शर्तें तालिबान से मनवाने की कोई व्यवस्था नहीं है. सवाल ये है कि तब क्या होगा, अगर तालिबान, अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने के बाद दोबारा अल क़ायदा से हाथ मिला लेता है? तो क्या तब अमेरिका दोबारा अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सेना को तैनाती के लिए भेजेगा? क्या इस समझौते के बाद अमेरिका अपने नागरिकों को इस बात की गारंटी दे सकता है कि उनके देश पर फिर कोई आतंकवादी हमला नहीं होगा? क्या अमेरिका ने तालिबान के साथ इस समझौते के तहत इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों की सुरक्षा की गारंटी की व्यवस्था की है? इस शांति समझौते की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि तालिबान इसे लेकर ईमानदार और पारदर्शी रहे. किसी भी आतंकवादी संगठन से ये अपेक्षा करना बहुत बड़ी बात है. उस पर तालिबान जैसे आतंकवादी संगठन पर कैसे यक़ीन कर लिया जाए, जिसे बेगुनाह लोगों की हत्या करने में कोई शर्म या संकोच नहीं होता? ये ऐसा संगठन है जो अपने ही देश के नागरिकों को बेझिझक मार डालता है. अगर, तालिबान इस समझौते के तहत तय हुई अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है, तो अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर से अंदरूनी संघर्ष और आतंकवाद का बड़ा केंद्र बन जाएगा. अगर ऐसा होता है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में पिछले दो दशकों में सफलताओं का जो सफर तय किया है, वो हाथ से निकल जाएगा.


Endnotes

[1] Najim Rahim and Mujib Mashal, “Taliban ramp up attacks on Afghans after Trump says ‘no violence’”, The New York Times, March 4, 2020.

[2] Munir Ahmed, “Pakistan says Trump seeks help on Taliban talks”, Associated Press, December 3, 2018.

[3] Diaa Hadid, “Pakistan releases Taliban Co-Founder in possible overture to talks”, NPR, October 26, 2018.

[4] Pakistan’s leader vows to press Afghan Taliban to join talks”, USIP, July 23, 2019.

[5] Madifa Afzal, “Will the Afghan peace process be Pakistan’s road to redemption?”, Brookings, June 25, 2020.

[6] Farhan Zahid, “Jihadism in South Asia: A militant landscape in flux”, Middle East Institute, January 8, 2020.

[7] Farhan Zahid, “The Islamic State in Pakistan: Growing the Network”, The Washington Institute, January 30, 2017.

[8] Kriti M. Shah, “The Haqqani Network and the failing US-Taliban deal”, Observer Research Foundation, June 29, 2020.

[9] Javid Ahmad, “Will India amend its approach to Afghanistan peace?”, Atlantic Council, May 12, 2020.

[10] Full text of al-Qaeda chief Ayman al-Zawahiri’s audio message”, Daily Star.

[11] Animesh Roul, “al-Qaeda in Indian subcontinent’s propaganda campaign continues despite digital disruptions and stifled operational capability”, The Jamestown Foundation, January 28, 2020.

[12] Al-Qaeda releases maiden video on Kashmir; issues threats to army, government”, India Today, July 11, 2019.

[13] Mohammed Sinan Siyech, “al-Qaeda in the Indian subcontinent: comparing the movement in India and Bangladesh”, Journal of Policing, Intelligence and Counter Terrorism 15, no. 1 (2020).

[14] Saurav Sarkar, “The regional implications of the US-Taliban agreement”, South Asian Voices, March 5, 2020.

[15] Shishir Gupta, “After Kashmir, Mission Kabul is on terror groups Jaish, Lashkar radar”, Hindustan Times, June 5, 2020.

[16] Aarti Tikoo Singh and Raj Shekhar, “Pulwama suicide bomber was inspired by Taliban ‘victory’ over US in Afghanistan”, The Times of India, February 15, 2019.

[17] Uran Botobekov, “Why Central Asian jihadist are inspired by the US-Taliban Agreement?”, Modern Diplomacy, April 8, 2020.

[18] Pravesh Kumar Gupta and Mahima Chhapariya, “US-Taliban peace deal and its implications for Central Asia”, The Diplomatist, May 16, 2020.

[19] Lalit K. Jha, “India concerned over use of social media for recruitment radicalisation of terrorists: US”, The Week, April 3, 2020.

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