Author : Ramanath Jha

Published on Sep 28, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत में शहरी स्थानीय निकायों के क्षमता निर्माण के बिना शहरों में सुशासन कमोबेश एक भ्रम या गलत फहमी है।

‘यूएलबी’ के क्षमता निर्माण पर नए सिरे से विचार करें

हमारे देश में यह अजीब विडंबना है कि बुनियादी ढांचागत सुविधाओं और प्रौद्योगिकियों की कमी की समस्या पर तो अक्सर मंत्रिस्तरीय बैठकों में विचार-विमर्श किया जाता है, लेकिन नगरपालिकाओं के क्षमता निर्माण अथवा उन्‍हें हर लिहाज से समर्थ बनाने की जरूरत की कमोबेश अनदेखी कर दी जाती है। हालांकि, आवश्‍यकता इस बात की है कि इस विषय पर खुलकर चर्चाएं की जाएं। शहरीकरण की प्रक्रिया गतिशील है तथा समय के साथ शहरों का आकार और भी अधिक बड़ा एवं जटिल होता जा रहा है। यही कारण है कि क्षमता में कोई भी वृद्धि बड़ी तेजी से पुन: अपर्याप्‍त प्रतीत होने लगती है। वहीं, दूसरी ओर आधुनिक प्रक्रियाएं, प्रौद्योगिकियां और नवाचार पुराने मॉडलों पर आधारित ज्ञान एवं कौशल को कमोबेश अप्रासंगिक बना देते हैं। अत: क्षमता निर्माण को अद्यतन करने के साथ-साथ उसे ‘निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया’ में बदलने की भी आवश्यकता है।

अब समय आ गया है कि नगर पालिका के कर्मचारियों, पार्षदों और नागरिकों सहित सभी हितधारकों के लिए एक ‘नगरपालिका क्षमता निर्माण प्रबंधन प्रणाली’ बनाकर क्षमता निर्माण करने की जरूरत पर नए सिरे से विचार किया जाए। इस प्रणाली का उपयोग प्रशिक्षण सबंधी आवश्यकता का विश्लेषण करने, गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने और क्षेत्र यानी फील्‍ड में वास्‍तविक कामकाज करते हुए व्‍यावहारिक प्रशिक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित करने में किया जा सकता है। इस प्रणाली के जरिए प्रोफेशनलों की पार्श्व (लैटरल) या सीधी भर्ती करने के साथ-साथ क्षमता बढ़ाने के लिए निजी संस्थानों, अनुसंधान एजेंसियों और कंपनियों की सेवाएं लेने की जरूरत का भी आकलन किया जा सकता है। इसके साथ ही यह तथ्‍य भी ध्‍यान में रहना चाहिए कि प्रशिक्षण के लिए शहरी स्थानीय निकाय को धन की सख्‍त आवश्यकता होती है। यह प्रणाली ऐसे ब्लॉक बना सकती है जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषण एजेंसियों के साथ गठबंधन करने और कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) का दोहन करने पर गौर करेंगे, ताकि यह कार्य निरंतर जारी रह सके।

इससे पहले कि हम इस तरह की प्रणाली की बारीकियों में उलझें, हमें उस अवधारणा और समस्याओं को समझने की जरूरत है जो वर्तमान में क्षमता निर्माण के लिए किए जा रहे थोड़े-बहुत प्रयासों को भी जाया कर रहे हैं।

भारत में शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के क्षमता निर्माण के बिना शहरों में सुशासन कमोबेश एक भ्रम या गलत फहमी है। कोई भी संगठन ज्ञानकौशल एवं दृष्टिकोण के बारे में सही जानकारी के बिना कुछ भी ठोस नहीं कर सकता है और इस मामले में यूएलबी कोई अपवाद नहीं है।

इस संबंध में सबसे पहले यह मुद्दा जेहन में उभरता है कि ऐसे कौन-कौन हितधारक हैं जिनकी क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है। हितधारकों को व्यापक रूप से तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण नगरपालिका कर्मचारी हैं क्‍योंकि वे कई दशकों वाले अपने पूरे करियर के दौरान नगरपालिका सेवाएं मुहैया कराने के कार्य में संलग्‍न रहते हैं। इसके बाद अगला नंबर आता है निर्वाचित पार्षदों का, जो एक निकाय के रूप में नीति निर्धारित करते हैं, नगरपालिका समितियों में काम करते हैं और विभिन्‍न तरह के प्रशासनिक प्रस्तावों की समीक्षा करते हैं। कर्मचारियों के बाद पार्षद ही यूएलबी के कामकाज को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। एक तीसरा और महत्वपूर्ण समूह, जिसे इस सूची में जोड़ने की जरूरत है, नागरिकों का है जिन पर ही नगरपालिका सेवाओं को लक्षित किया जाता है।

अपेक्षित एवं वर्तमान क्षमताओं में व्‍यापक अंतर जगजाहिर होने के बावजूद शहर अपने मानव संसाधन के क्षमता निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए स्‍वयं अपनी ओर से कोई पहल नहीं करते हैं। यही नहीं, यूएलबी नगरपालिका के कर्मचारियों को प्रशिक्षण सत्रों में जाने की इजाजत देने की इच्‍छा कभी भी व्‍यक्‍त नहीं करते हैं, वह भी वैसी स्थिति में जबकि उन्हें खुद इस पर आने वाले खर्च के बोझ को वहन नहीं करना है। नगरपालिका के कर्मचारियों की क्षमता में कमी दरअसल क्षमता निर्माण संस्थानों की क्षमता में अंतर्निहित कमी को प्रतिबिंबित करती है। प्रशिक्षण पाठ्यक्रम असल में कार्यक्रम-केंद्रित या कार्यक्रम-आधारित होते हैं जो उनकी उपयोगिता को सीमित कर देते हैं। ऐसे में प्रशिक्षण संबंधी जरूरतों का समुचित विश्लेषण निश्चित रूप से आवश्‍यक है। जरूरतों का समुचित विश्लेषण करने के बाद एक ऐसी गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण सामग्री तैयार की जानी चाहिए जिसके तहत कक्षा-आधारित प्रशिक्षण के साथ-साथ फील्‍ड में वास्‍तविक कामकाज करते हुए व्‍यावहारिक प्रशिक्षण देने की भी व्‍यवस्‍था हो। चूंकि नगरपालिका के कामकाज का पूर्ण डिजिटलीकरण हो जाने की संभावना है, इसलिए वेब-आधारित प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए।

एक अन्‍य समस्या यह है कि महज कुछ ही संस्थान यूएलबी की क्षमता निर्माण जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं। राज्यों के प्रशिक्षण संस्थान शहरों में गवर्नेंस के बजाय सामान्य और ग्रामीण प्रशासन पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। यूएलबी में स्वयं विशेष रूप से तकनीकी कर्मचारियों के बीच विशेषज्ञता की कमी साफ नजर आती है। इसे ध्‍यान में रखते हुए बड़े नगर निगमों के लिए विशेष इंजीनियरिंग विषयों या क्षेत्रों में कैडर के विकास हेतु एक उपयुक्‍त विधि विकसित करने की जरूरत है, ताकि उन विभागों के लिए एक मजबूत और कुशल कार्यबल तैयार किया जा सके। इंजीनियरिंग विषयों या क्षेत्रों का एक समूह सृजित किया जा सकता है जिसमें पदोन्‍नति के साथ-साथ सीधी भर्ती के जरिए भी विशेषज्ञों की नियुक्ति करने की संभावना हो, ताकि विशेषज्ञता का एक व्यापक आधार तैयार हो सके। नगरपालिका में प्रोफेशनल रुख को बढ़ावा देने के उद्देश्‍य से नगरपालिका, विशेषकर बड़े यूएलबी के कैडर में विशेष कौशल वाले प्रोफेशनलों की कुछ सीधी भर्ती की अनुमति देना भी बुद्धिमानी होगी।

यूएलबी में क्षमता निर्माण के लिए जिन प्रशिक्षण संस्थानों की सेवाएं ली जाएंगी उन्‍हें सरकारी संस्थानों की संकीर्ण टोकरी या समूह तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। निजी, अकादमिक और गैर-सरकारी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संगठन न केवल क्षमता निर्माण संस्थानों की कमी को दूर करने में मदद करेंगे, बल्कि विभिन्‍न मुद्दों पर एक संपूर्ण अभिनव परिप्रेक्ष्य भी प्रदान करेंगे जो नगरपालिकाओं की सोच को समृद्ध करेगा, प्रबंधन एवं तकनीकी मुद्दों को समझने में और अधिक व्यापकता लाएगा और अंतत: इन मुद्दों का समाधान ढूंढ निकालने में भी मदद करेगा। यही नहीं, इससे विभिन्न प्रकार के इन संस्थानों के बीच साझेदारी एवं नेटवर्किंग भी सुनिश्चित होगी और नगरपालिकाओं के क्षमता निर्माण कार्य के भारी बोझ को बांटने में भी मदद मिलेगी।

यूएलबी की क्षमता वृद्धि के कठिन काम को देखते हुए सेवाओं की डिलीवरी या उन्‍हें मुहैया कराने के कार्यों का पर्याप्त विकेन्द्रीकरण करना आवश्यक हो गया है।

प्रतिभागियों को प्रशिक्षण संस्थानों के मुख्यालय में बुलाने और फि‍र उनके भोजन, आवास एवं यात्रा की व्यवस्था करने में काफी मशक्‍कत करनी पड़ती है और इसमें कई तरह के खर्च भी करने पड़ते हैं जिनका बोझ यूएलबी शायद ही वहन कर सकते हैं। अत: एक ऐसा सस्ता एवं विकेन्द्रीकृत हल ढूंढ़ना चाहिए जिससे कि यूएलबी के आसपास रहकर ही क्षमता निर्माण संबंधी आवश्‍यक जानकारियां मुहैया कराना संभव हो सके। स्थानीय संस्थानों के जरिए स्थानीय व्यवस्था करनी होगी। इससे आवश्‍यक क्षमता सुलभ कराने वाले संगठनों की साझेदारी के रूप में अतिरिक्त फायदे होंगे।

जहां एक ओर स्थायी कर्मचारी यूएलबी में कई दशक व्‍यतीत करते हैं, वहीं दूसरी ओर पार्षद अमूमन हर पांच साल में बदल जाते हैं। नए जन प्रतिनिधि इस बात से अनजान हो सकते हैं कि नगरपालिका परिषद कैसे कार्य करती है, उनके नियम-कायदे और उनकी प्रक्रियाएं क्‍या–क्‍या हैं। अत: उनका क्षमता निर्माण यूएलबी की दक्षता की दृष्टि से विशेष मायने रखता है। नगरपालिकाओं के समक्ष मौजूद चुनौतियों, कानूनों और प्रक्रियाओं के संदर्भ में उन्‍हें समुचित रूप से ढालना अत्‍यंत आवश्‍यक है। इससे साफ जाहिर है कि यूएलबी के कर्मचारियों का जो क्षमता निर्माण होता है ठीक उसी का ही दोहराव पार्षदों के मामले में नहीं हो सकता है। पार्षदों के क्षमता निर्माण कार्य में एक अतिरिक्त आयाम बड़ी संख्‍या में निर्वाचित महिला पार्षदों की मौजूदगी है। चूंकि महिलाओं के लिए आरक्षण के तथाकथित उद्देश्यों में से एक मकसद स्थानीय सरकार की नीतियों में महिलाओं को मुख्यधारा में लाना और यूएलबी में महिला-पुरुष अपक्षपात सुनिश्चित करना था, इसलिए महिला पार्षदों में महिलाओं से संबंधित मुद्दों की पर्याप्त समझ विकसित की जानी चाहिए। संविधान में महिलाओं के लिए आरक्षण को अनिवार्य किए जाने के बाद से ही पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से यह देखने को नहीं मिल रहा है।

नागरिक स्वयं ही यूएलबी की क्षमता का तीसरा अवयव हैं। चूंकि समस्‍त शासन या गवर्नेंस का उद्देश्‍य नागरिकों का कल्याण करना ही होता है, इसलिए उनकी भागीदारी से निश्चित तौर पर गवर्नेंस की गुणवत्ता में वृद्धि होगी। शहरों में यह सुनिश्चित करना अपेक्षाकृत अधिक आसान है क्योंकि शहर सघन होते हैं; निर्णय लेने एवं आवश्‍यक कदम उठाने का काम आसपास में ही होता है, हितधारक दिलचस्‍पी दिखाते हैं और शहरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र में ऐसे विषय रहते हैं जो लोगों के दैनिक जीवन पर व्‍यापक असर डालते हैं। वहीं, दूसरी तरफ एक उचित रूप से उन्मुख और सूचित सिविल सोसायटी अपनी क्षमता को काफी बढ़ा देगी, ताकि नगर परिषद में उसके पक्ष को गंभीरता से सुना जाए। अत: ऐसी स्थिति में नगर निगम के उन नेताओं और अधिकारियों को सिविल सोसायटी का सम्‍मान अवश्‍य ही प्राप्‍त होगा जिन्‍होंने नगरपालिकाओं से जुड़े मुद्दों की गहरी समझ हासिल कर रखी है और जिन्‍हें सुस्पष्ट करने में वे सक्षम हैं। दुर्भाग्यवश, कम जा‍नकारियों, अपरिपक्‍व जवाबों और गलत दलीलों से अनाप-शनाप खर्च होते हैं, पारस्परिक हताशा का माहौल बन जाता है और खराब निर्णय ले लिए जाते हैं। इन सभी से अंततः यूएलबी का अहित ही होता है।

क्षमता निर्माण के लिए वित्त पोषण की कमी एक बड़ी समस्‍या है। यदि हम बड़े नगर निगमों को एक तरफ छोड़ देते हैंतो यूएलबी प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त धनराशि को अलग रखने की स्थिति में शायद ही कभी हो पाएंगे।

भारत सरकार, राज्य, सीएसआर, अन्य वित्त पोषण एजेंसियों और बड़े यूएलबी को स्वयं ही संसाधनों की पहचान करने के सभी संभावित तरीकों को खंगालना होगा। इस सवाल को हमारे समक्ष मौजूद परिदृश्य के आलोक में देखा जाना चाहिए कि यूएलबी ही ज्‍यादातर लोगों को आश्रय देंगे। अत: ऐसे में अक्षम यूएलबी के भरोसे कामकाज करने के नतीजे अक्षम अर्थव्यवस्थाओं, खराब जीवन स्‍तर और अपनी क्षमताओं को साकार न कर पाने वाले देश के रूप में सामने आएंगे।

अत: इस दिशा में सरकार की ओर से संकेंद्रित प्रयास करने की जरूरत है। यही नहीं, इससे भी अधिक आवश्‍यक कदम यह है कि एक ऐसी ‘आधुनिक नगरपालिका क्षमता निर्माण प्रबंधन प्रणाली’ बनाई जाए जो यह परिकल्‍पना करेगी कि शहरों को अगले 50 वर्षों में किन-किन चीजों की जरूरत पड़ेगी और इसके साथ ही ऐसे सक्षम एवं विभिन्‍न तरह के कौशल से युक्‍त लोगों को तैयार करने की आवश्यकता है जो इन गतिशील चीजों को संगठित करने में सक्षम साबित होंगे।

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