Author : Kabir Taneja

Published on Dec 29, 2021 Updated 0 Hours ago
पश्चिम एशिया की सियासत में धीरे-धीरे वापसी करता सीरिया

हाल ही में इस्लामाबाद में इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) का शिखर सम्मेलन हुआ. तालिबानी प्रतिनिधियों की मौजूदगी में आयोजित इस सम्मेलन का ज़्यादातर वक़्त अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर माथापच्ची करने में ही बीत गया. बहरहाल इस जमावड़े में अरब और खाड़ी से जुड़े कूटनीतिक मोर्चे पर भी एक बड़ी शुरुआत की गई. नतीजतन पाबंदियों की मार झेल रहे सीरिया के निजी एयरलाइंस ने दमिश्क और कराची के बीच सीधी उड़ान सेवाएं शुरू करने की कामयाब पहल की.

संबंधों को सुधारने की कोशिश

आम तौर पर हवाई उड़ान से जुड़े किसी रूट का दोबारा चालू होना कोई बहुत बड़ी घटना नहीं होती, लेकिन ताज़ा वाक़या थोड़ा अलग है. निश्चित रूप से इसके पीछे कई भूराजनीतिक दांव-पेच हैं. सीरिया एक लंबे अर्से से गृहयुद्ध की चपेट में है. जंगी हालातों के चलते वो दुनिया में अलग-थलग पड़ चुका है. ऐसे में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने सीरिया के साथ सामान्य रिश्ते बहाल करने की पहल की. बाक़ी के ज़्यादा से ज़्यादा देशों के साथ भी सीरिया के रिश्तों को पटरी पर लाने में यूएई की तरफ़ से क़वायद की गई. यूएई के इसी रुख़ के चलते इस इलाक़े में महीनों से तनाव का दौर चल रहा था. हालांकि अब पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के बीच के रिश्तों पर जमी बर्फ़ तेज़ी से पिघलने लगी है. सीरिया के साथ व्यापारिक और मानवीय स्तर पर जुड़ाव की ये क़वायद अभी ताज़ा ताज़ा ही शुरू हुई है. सीरिया पर अमेरिका की ओर से लगाई गई भारी-भरकम राजनीतिक और आर्थिक पाबंदियां अब भी बरकरार हैं. हालांकि ओमान जैसे कुछ अरब देश तो सीरिया के साथ 2015 तक क़ायम रिश्तों की दोबारा बहाली की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं. ग़ौरतलब है कि ओमान एक लंबे अर्से से अमेरिका के मित्र देशों में शुमार है. ऐसे में ओमान की गतिविधियों ने इस इलाक़े में चिंताएं बढ़ा दी हैं. इस पूरे क्षेत्र के टकराव भरे भूराजनीतिक माहौल में एक मध्यस्थ और तटस्थ किरदार के तौर पर ओमानी सल्तनत की भूमिका बढ़ती जा रही है. ऐसे में धीरे-धीरे ओमान को ‘मध्य पूर्व या पश्चिम एशिया के स्विट्ज़रलैंड’ के तौर पर देखा जाने लगा है. सीरिया बड़े पैमाने पर युद्ध अपराधों और मानव अधिकारों के उल्लंघन के गंभीर मामलों का आरोपी है. सीरिया में प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ बेतहाशा फ़ौजी कार्रवाइयां की गई हैं. इस अरब देश पर अपनी ही आबादी के ख़िलाफ़ रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल के संगीन इल्ज़ाम भी लगते रहे हैं.

सीरिया में प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ बेतहाशा फ़ौजी कार्रवाइयां की गई हैं. इस अरब देश पर अपनी ही आबादी के ख़िलाफ़ रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल के संगीन इल्ज़ाम भी लगते रहे हैं. 

अरब स्प्रिंग के बाद के कालखंड में राष्ट्रपति असद की अगुवाई में सीरिया अंतरराष्ट्रीय और इलाक़ाई मसलों में हाशिए पर चला गया है. राष्ट्रपति बशर अल-असद घरेलू मोर्चे पर लगातार एक के बाद एक कई चुनौतियों से जूझते आ रहे हैं. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ जारी प्रदर्शनों ने एक बड़े टकराव का रूप ले लिया. यही संघर्ष तथाकथित इस्लामिक स्टेट के उभार में मददगार साबित हुआ. असद की अगुवाई वाली हुकूमत ने सत्ता में बने रहने के लिए ख़ूनी तौर-तरीक़ों पर अमल चालू कर दिया. इसी बीच सीरिया में राजनीतिक व्यवस्था की हिफ़ाज़त के लिए रूस और ईरान की ओर से दख़लंदाज़ियां शुरू हो गईं. दिसंबर 2021 में सीरिया में ईरान-समर्थित लड़ाकों के ख़िलाफ़ इज़राइल ने हवाई हमले चालू कर दिए. ज़ाहिर है सीरिया का मसला भूराजनीतिक तौर पर बेहद विस्फोटक रूप ले चुका है.

पिछले एक दशक से भी ज़्यादा अर्से से पश्चिमी जगत सीरिया में असद के ख़िलाफ़ जनता के विद्रोह को हवा देता आ रहा है. दूसरी ओर रूस किसी भी क़ीमत पर असद को सत्ता में बरकरार रखना चाहता है. दरअसल इसके पीछे रूस का मकसद भूमध्यसागर समेत इस पूरे इलाक़े में अपने फ़ौजी और भूराजनीतिक स्वार्थों की हिफ़ाज़त करना है. सीरिया के घरेलू हालातों के बीच वैश्विक शक्तियों के इन पैतरों ने पूरे मसले को और पेचीदा बना दिया है. हालांकि इस पूरे कालखंड में अरब इलाक़े के बाक़ी देश सीरिया के साथ बेहद नाज़ुक और मुलायम तरीक़े से पेश आते रहे हैं. बहरहाल इतने साल अलग-थलग रहने के बाद अब राष्ट्रपति असद की अगुवाई वाला सीरिया मुख्यधारा में वापसी की तैयारी कर रहा है. दिसंबर 2018 में यूएई और बहरीन ने दमिश्क में अपने दूतावास दोबारा खोल दिए. मई 2021 में सऊदी अरब के अधिकारियों ने राष्ट्रपति असद से मुलाक़ात की. कयास लगाए जा रहे हैं कि सऊदी अरब भी सीरिया में दोबारा अपने मिशन की शुरुआत करना चाह रहा है. नवंबर 2021 में तमाम आलोचनाओं के बीच यूएई के विदेश मंत्री दमिश्क के दौरे पर पहुंच गए. ख़बरें तो यहां तक हैं कि पश्चिम के कुछ देश भी ज़मीनी तौर पर सीरिया के साथ एक हद तक राजनयिक रिश्तों की बहाली के बारे में सोचने लगे हैं.

तमाम आलोचनाओं के बीच यूएई के विदेश मंत्री दमिश्क के दौरे पर पहुंच गए. ख़बरें तो यहां तक हैं कि पश्चिम के कुछ देश भी ज़मीनी तौर पर सीरिया के साथ एक हद तक राजनयिक रिश्तों की बहाली के बारे में सोचने लगे हैं. 

निश्चित तौर पर मध्य पूर्व में क्षेत्रीय स्तर पर असद हुकूमत के ख़िलाफ़ दबाव में कमी आई है. ऐसा नहीं है कि सीरियाई राष्ट्रपति असद की क़िस्मत का पिटारा एकदम से खुल गया है या फिर पश्चिम की नीतिगत क़वायदों में कोई बड़ा बदलाव आ गया है. दरअसल इन क़वायदों के पीछे पिछले दिनों क्षेत्रीय स्तर पर आए कुछ बड़े बदलावों का हाथ रहा है. हक़ीक़त ये है कि अरब इलाक़े की बड़ी ताक़तें अपने सामने मौजूद तमाम तरह के जोख़िमों को कम से कम करना चाहते हैं. ख़ासतौर से खाड़ी देशों, इज़राइल और ईरान से जुड़े गंभीर टकरावों के मसलों पर अरब देशों के रुख़ में इस तरह का बदलाव देखा जा रहा है. ग़ौरतलब है कि यूएई की अगुवाई में अरब इलाक़े के कुछ देशों और इज़राइल के बीच अब्राहम करार पर दस्तख़त हो चुके हैं. दशकों से चले आ रहे भूराजनीतिक हालात को बदलने और शांति स्थापना के मकसद से ये ऐतिहासिक क़वायद हुई है. व्यापक और दीर्घकालिक आर्थिक फ़ायदों के लिए राजनीतिक स्थिरता हासिल करने के इरादे से ये समझौता किया गया है. इस करार ने दूसरे मुल्कों को भी रिश्तों में सुधार लाने को लेकर प्रेरित किया है. ईरान के साथ जारी तनाव को कम करने के मकसद से सऊदी अरब और ईरान के बीच कई दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. दोनों मुल्कों के अधिकारी इराक़ और जॉर्डन में कई बार मिल चुके हैं. दरअसल यमन ही ईरान और सऊदी अरब के बीच रस्साकशी का मुख्य अखाड़ा है. यमन एक लंबे अर्से से गृह युद्ध की मार झेल रहा है. लिहाज़ा ईरान और सऊदी अरब के बीच हुई वार्ताओं में यमन का मसला ही प्रमुखता से छाया रहा है. यूएई भी लगातार पिछले कुछ सालों से ईरान के साथ नज़दीकियां बढ़ाने की कोशिशें करता आ रहा है. शिया इस्लाम के सबसे बड़े केंद्र ईरान को यूएई ने महामारी के दौर में कई तरह की मदद पहुंचाई है. स्थिरता के साझा हालात बनाने के लिए यूएई ने ईरान से अनेक स्तरों पर संपर्क क़ायम किया है. बहरहाल सीरिया के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं. पूरे सीरिया में ईरान समर्थित लड़ाका गुट सक्रिय हैं. ख़ासतौर से इदलिब जैसे उत्तरी इलाक़ों में ढेरों इस्लामिक गुटों का दबदबा है. ISIS और अल-क़ायदा जैसे संगठनों के साथ हुई जंगों के नतीजे के तौर पर इन इस्लामिक गुटों का जन्म हुआ है. हयात तहरीर अल शाम (HTS) सीरिया के भीतर अपनी आज़ाद हुकूमत चलाता है. HTS का सरगना अबु मोहम्मद अल-जोलानी है. अपने आतंकी संगठन के प्रचार और उसके तथाकथित मकसदों की दलीलें पेश करने के इरादे से वो अमेरिकी न्यूज़ नेटवर्क को इंटरव्यू भी दे चुका है. अमेरिकी नेटवर्क को दिए इंटरव्यू में वो चुस्त पश्चिमी पहनावे में नज़र आया था.

बहरहाल असद हुकूमत के सामने भी आगे बहुत मुश्किल रास्ता है. आज असद की सरकार प्रभावी तौर पर ईरान और रूस के संरक्षण वाली सत्ता बनकर रह गई है. दोनों ही देश वर्षों से असद की सियासी ज़मीन की हिफ़ाज़त करते आ रहे हैं. रूस अपने व्यापक भूराजनीतिक पैतरों के लिए सीरियाई सरज़मीन का इस्तेमाल करता रहा है. लीबिया में लड़ाका नेता ख़लीफ़ा हफ़्तार की मदद के लिए रूस ने सीरिया से भाड़े के सैनिक भेज दिए थे. उत्तर की ओर तुर्की भी सीरिया में विभाजनकारी भूमिका निभाता रहा है. कुर्दों की एकता को बेअसर करने की अपनी व्यापक रणनीतिक क़वायद के तहत वो सीरिया में असद-विरोधी गुटों का समर्थन करता आ रहा है. तुर्की ने इस इलाक़े के कुख्यात आतंकी संगठन कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ रखा है. पिछले साल मध्य एशिया में अज़रबैजान और आर्मिनिया के बीच हुए नागोर्नो-काराबाख़ जंग में भी सीरियाई लड़ाकों की मौजूदगी पाई गई थी. तुर्की और पाकिस्तान की मदद से सीरियाई लडाकों की कश्मीर में मौजूदगी से जुड़े क़िस्से भी 2015 से सोशल मीडिया पर गाहे-बगाहे नज़र आते रहे हैं. दरअसल सीरिया की अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है. वहां लोगों के पास रोज़ी-रोटी के लिए बेहद कम ज़रिए बाक़ी रह गए हैं. ऐसे में दूसरे देशों की लड़ाइयों में शिरकत करना वहां कुछ लोगों के लिए कामधंधे का बेहतरीन ज़रिया बन गया है. सीरियाई लड़ाके दुनिया भर में जंगी मैदानों की तलाश में रहने लगे हैं. राज्यसत्ता द्वारा पाले पोसे जा रहे ये लड़ाके घरेलू राजनीति से इतर अपने कारनामों को अंजाम देते हैं. वो ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की शुरुआत करने या उनमें हिस्सा लेने की क़वायदों तक सीमित रखते हैं.

भारत का रुख़

सीरियाई संकट के दौर में दुनिया के चंद देश ही दमिश्क में राजनयिक तौर पर सक्रिय रहे. भारत उनमें से एक है. भारत ने इस पूरे कालखंड में सीरिया के साथ कमोबेश एक जैसा कूटनीतिक संपर्क बनाए रखा. 2011 में लीबिया के पूर्व शासक मुअम्मार गद्दाफ़ी को हटाने के लिए छेड़े गए लीबियाई युद्ध का भारत ने सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था. दरअसल भारत दुनिया में एक और नाकाम राज्यसत्ता से वैश्विक व्यवस्था को होने वाले संभावित नुकसान को लेकर आशंकित था. सीरिया के हश्र को लेकर भी भारत के कूटनीतिक हलकों का ऐसा ही नज़रिया था. यही वजह है कि पश्चिमी जगत द्वारा सीरिया को अलग-थलग कर दिए जाने के बावजूद भारत ने सीरिया के साथ नियमित राजनयिक संपर्क बदस्तूर जारी रखा. इसी कड़ी में सीरिया के मरहूम उपप्रधानमंत्री वालिद अल-मुअल्लेम ने 2016 में नई दिल्ली का दौरा किया था. भारत की ओर से तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर ने भी उसी साल दमिश्क की यात्रा की थी. कोविड-19 महामारी के दौरान सीरिया में पैदा हुए “गंभीर” हालात के मद्देनज़र भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के मार्गदर्शन में सीरिया को वैक्सीन मुहैया कराने की पुरज़ोर पहल की थी. जून 2020 में सीरिया ने वहां फंसे भारतीयों को निकालने में मदद के तौर पर नई दिल्ली के लिए इकलौती उड़ान की सुविधा मुहैया कराई थी. जुलाई 2021 में भारत ने एक बार फिर ये साफ़ किया कि वो सीरियाई मसले के फ़ौजी समाधान के हक़ में नहीं है. पिछले कुछ सालों में सीरिया ने ख़ासतौर से मुस्लिम दुनिया में कश्मीर मसले पर भारत की वैश्विक कूटनीति के साथ अपना सुर मिलाया है.

 आने वाले समय में सीरिया को ये कोशिश करनी होगी कि वो परोक्ष शक्तियों (जैसे इज़राइल और ईरान के बीच) के टकरावों का जंगी मैदान न बने. साथ ही उसे अपने घरेलू मामलों में रूसी प्रभाव की रोकथाम के उपाय भी करने होंगे. 

सीरिया को क्या करना चाहिए

अरब देश असद सरकार को दोबारा पश्चिम एशिया की सियासी मुख्यधारा में लाने की जद्दोजहद में जुटे हैं. यहां से आगे का सफ़र कतई आसान नहीं होगा. आने वाले समय में सीरिया को ये कोशिश करनी होगी कि वो परोक्ष शक्तियों (जैसे इज़राइल और ईरान के बीच) के टकरावों का जंगी मैदान न बने. साथ ही उसे अपने घरेलू मामलों में रूसी प्रभाव की रोकथाम के उपाय भी करने होंगे. हालांकि अब तक असद का सियासी वजूद इन्हीं ताक़तों की मदद से बरकरार रहा है. लिहाज़ा ऊपर बताए गए तमाम उपायों पर अमल करना सीरिया के लिए किसी भी सूरत में आसान नहीं होगा. अगर सीरियाई राष्ट्रपति अब यूएई और सऊदी अरब की मदद के बूते अपना आगे का दांव चलते हैं तो रूस और ईरान की ओर से प्रतिक्रिया जताना तय है. ज़ाहिर है ये दोनों ही देश राष्ट्रपति असद की जड़ें खोदने में कोई कोर-कसर नहीं रखेंगे. वैसे भी राष्ट्रपति असद के इर्द गिर्द पूरा अमला आपसी संघर्ष और आर्थिक बदहाली से जूझ रहा है.

इस बीच अमेरिका ने असद सरकार से सामान्य रिश्ते बहाल करने के संयुक्त अरब अमीरात के कूटनीतिक प्रयासों को लेकर अपनी नाख़ुशी जताई है. इसका मतलब ये है कि आने वाले वक़्त में सीरिया पर जारी पाबंदियों में किसी तरह की ढील दिए जाने के कोई आसार नहीं हैं. ज़ाहिर है इस इलाक़े में सक्रिय कंपनियां और संस्थाएं अगर यूएई की इस क़वायद में हिस्सा लेती हैं तो उनके लिए भी इसी तरह की पाबंदियों की ज़द में आ जाने का ख़तरा रहेगा. सीरिया के लिए सामान्य हालात की ओर लौटने का रास्ता बेहद पेचीदा और घुमावदार है. इस रास्ते में कई सारी रुकावटें मौजूद हैं. दरअसल सीरिया से जुड़े पूरे मसले में अनेक किरदार अपनी अलग-अलग भूमिका निभा रहे हैं. ऐसे में असद सरकार को अपनी सियासी राह पर दोबारा विचार करना होगा. उसे ये तय करना होगा कि वो कितनी देर तक वजूद बचाने की और अपने जुड़ावों और नीतियों के चलते हाशिए पर पड़े रहने की नीति अपनाती रहेगी.

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