Published on Oct 21, 2019 Updated 0 Hours ago

1960 के दशक में जब चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति अपने चरम पर थी, तब उसने बाकी दुनिया से ख़ुद को बिल्कुल अलग-थलग कर लिया था, लेकिन उसने सिर्फ एक देश यानी पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंध बहाल रखे थे. चीन-पाकिस्तान के रणनीतिक गठजोड़ की जड़ें काफी गहरी हैं और इससे हटिंगटन की बात सही साबित होती है.

चीन-पाकिस्तान का रणनीतिक गठजोड़ भारत के लिए बड़ी चुनौती

अमेरिका के जाने-माने पॉलिटिकल साइंटिस्ट सैमुअल फिलिप्स हटिंगटन ने द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंसः द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर यानी ‘सभ्यताओं के टकरावः नई वैश्विक व्यवस्था के निर्माण’ में लिखा था, ‘संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान, जो बड़े स्तर पर सभ्यता के प्रतीक हैं, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में ये समाज में जुड़ाव और बिखराव के पैटर्न को शक्ल दे रहे हैं.’ हटिंगटन की थ्योरी के मुताबिक, संस्कृति और साझे मूल्यों की वजह से मुस्लिम समाज में एकजुटता है. उन्होंने संस्कृति और सत्ता के संबंध की ओर भी ध्यान दिलाया था. हटिंगटन ने दावा किया था कि चीन और इस्लामिक संस्कृतियों के बीच रिश्ते बनेंगे. उनकी यह बात सच साबित हो रही है.

लीबिया के नेता मुअम्मर ग़द्दाफ़ी ने 1990 के दशक में कहा था, “हम कन्फ्यूशियसवाद के साथ खड़े हैं. इसके साथ मिलकर और संघर्ष करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अपने साझे दुश्मन को खत्म करेंगे. इसलिए हम मुस्लिम अपने साझे शत्रु (पश्चिमी देशों) के साथ संघर्ष में चीन का साथ देंगे. हम इसमें चीन की जीत की दुआ करते हैं.” अरब स्प्रिंग में ग़द्दाफ़ी के हाथ से सत्ता चली गई थी और उनकी हत्या कर दी गई थी. चीन और इस्लामिक देशों के इस अलायंस के लिए भारत भी एक चुनौती है, जिस पर हम कुछ समय बाद लौटेंगे.

इस्लामिक देशों और चीन के करीब आने पर हटिंगटन की बात भले ही सच साबित हो रही हो, लेकिन इससेइसेस भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम समाज की एकता को उन्होंने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था. यहां मैं दो अलग-अलग घटनाओं का जिक्र और उन पर मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया का जिक्र करना चाहूंगा. पहली घटना चीन से जुड़ी है, जहां मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार बढ़ने के साक्ष्य सामने आ रहे हैं. दूसरी घटना, मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने से जुड़ी है. पश्चिमी चीन के शिनजियांग प्रांत में शी जिनपिंग सरकार स्थानीय उइगुर मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है, जिस पर मुस्लिम समाज चुप है. उसकी वजह यह है कि मुस्लिम देशों के हित चीन के साथ जुड़े हुए हैं. दूसरी तरफ, अनुच्छेद 370 हटाए जाने और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में लगी पाबंदियों की अधिकांश मुस्लिम देशों ने आलोचना की है. तुर्की, मलेशिया और ईरान ने इस मामले में भारत सरकार के कदम का विरोध किया है. इससे पता चलता है कि वे भारत से उतना नहीं डरते, जितना ख़ौफ़ उनके अंदर चीन का है.

ग्लोबल डिप्लोमैसी में सिर्फ अपने हित देखकर ही देश राय नहीं बनाते. इसमें डर भी हथियार की तरह काम करता है.

कुछ एक्सपर्ट्स ने कहा कि मुस्लिम देशों की एकता एक मिथक है, लेकिन यह बात पूरी तरह से सही नहीं है. कुछ हद तक यह बात सही है कि कश्मीर पर मुस्लिम समाज की राय पाकिस्तान से पूरी तरह नहीं मिलती. इसलिए उन्होंने इस मामले में पाकिस्तान का पूरी तरह साथ नहीं दिया. सच तो यह है कि ग्लोबल डिप्लोमैसी में सिर्फ अपने हित देखकर ही देश राय नहीं बनाते. इसमें डर भी हथियार की तरह काम करता है. मलेशिया के प्रधानमंत्री के बयान से तो यह बात साबित भी हो गई. उन्होंने कहा कि चीन ताक़तवर देश है, इसलिए उइगुरों के मुद्दे पर मुस्लिम देशों ने चुप्पी साध रखी है. हालांकि, इसके साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा कि “कश्मीर पर हमला करके उस पर जबरन क़ब्ज़ा किया गया.” बड़ी अजीब बात है. एक तरफ तो मुस्लिम देश चीन के उइगुर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार पर ख़ामोश हैं, जबकि दूसरी तरफ वे कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का एक सुर से विरोध कर रहे हैं.

हटिंगटन ने इसे ही चीन-इस्लामिक गठजोड़ बताया था, जो मजबूत बना हुआ है. इसकी सबसे ज्वलंत मिसाल चीन और पाकिस्तान का रणनीतिक गठजोड़ है. दोनों देशों के रिश्ते में खास बात यह है कि जहां बाकी की दुनिया के साथ उनके संबंधों में बदलाव आया है, वहीं उनके आपसी रिश्ते स्थिर बने हुए हैं. मिसाल के लिए, 1960 के दशक में जब चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति अपने चरम पर थी, तब उसने बाकी दुनिया से ख़ुद को बिल्कुल अलग-थलग कर लिया था, लेकिन उसने सिर्फ एक देश यानी पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंध बहाल रखे थे. चीन-पाकिस्तान के रणनीतिक गठजोड़ की जड़ें काफी गहरी हैं और इससे हटिंगटन की बात सही साबित होती है.

चीन और पाकिस्तान एक ही तरह से अपने घरेलू समाज को नियंत्रित भी करते हैं. इससे हमारा ध्यान संस्कृति और सत्ता के उस संबंध की तरफ जाता है, जिसका इशारा हटिंगटन ने किया था. चीन की बात करें तो इसके एक हिस्से के तौर पर उसने अपने यहां हायरार्की आधारित व्यवस्था लागू कर रखी है, जिसे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ावा दे रहा है. जैसा कि हटिंगटन ने कहा है, ‘एशियन ब्यूरोक्रेटिक एंपायर्स’ में सामाजिक या राजनीतिक बहुलतावाद और सत्ता के विकेंद्रीकरण की गुंजाईश नहीं है. अब अगर इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाए तो चीन एशिया में अपना वर्चस्व बनाने की कोशिश करेगा और वह कन्फ्यूशियसवाद के तहत भेंट आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देगा यानी जिन देशों से उसके हित पूरे होंगे, वह उनके साथ खड़ा होगा. चीन किसी भी सूरत में एशिया में सत्ता के संतुलन की इजाज़त नहीं देगा. साथ ही, वह इस क्षेत्र में पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे अपने ‘चमचे देशों’ के बगैर वर्चस्व को मजबूत नहीं बना सकता.

चीन ने उइगुरों के लिए ‘री-एजुकेशन कैंप’ बनाए हैं, जहां मुख्यधारा की संस्कृति के मुताबिक बदलाव के लिए उन पर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं.

चीन और पाकिस्तान के बीच एक और कॉमन बात यह है कि वे अपने यहां के अल्पसंख्यकों को जबरन मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं. इससे संस्कृति और सत्ता के संबंध पर हटिंगटन वाली बात याद आती है. चीन ने उइगुरों के लिए ‘री-एजुकेशन कैंप’ बनाए हैं, जहां मुख्यधारा की संस्कृति के मुताबिक बदलाव के लिए उन पर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं. उइगुरों पर चीन की मंदारिन भाषा के साथ घरेलू कानून और वर्क स्किल्स सिखना जरूरी है. उनकी खान-पान की आदतें बदली जा रही हैं. उन्हें सुअर का मांस खाना पड़ता है, जो इस्लाम में हराम माना गया है. उन्हें चीन के लोगों की तरह कपड़ा पहनने होते हैं. उइगुर मुस्लिम महिलाएं हेड स्कार्फ नहीं पहन सकतीं और न ही मुस्लिम पुरुष खास टोपी पहन सकते हैं, जैसा कि दूसरे देशों में मुस्लिम महिलाएं और पुरुष करते हैं. कुल मिलाकर, इसका मतलब यह है कि उन पर बहुसंख्यक हान संस्कृति को अपनाने के लिए दबाव डाला जा रहा है. अगर कोई इसका विरोध करता है तो उसे यातना दी जाती है और उसकी हत्या भी की जा सकती है. उइगुर-चाइनीज वन रिलेटिव पॉलिसी के ज़रिये चीन की सरकार मुसलमानों को मुख्यधारा की संस्कृति से जोड़ने के लिए यह सब कर रही है.

इस मामले में पाकिस्तान भी चीन के रास्ते पर चल रहा है. हिंदू और ईसाई महिलायों के जबरन धर्मांतरण के लिए पाकिस्तान बदनाम है. यहां तक कि वहां सिखों पर भी इस्लाम कबूलने के लिए दबाव डाला जाता रहा है. यह बात सही है कि शिया मुसलमानों, हाजरा और अहमदिया मुसलमानों के साथ भी पाकिस्तान में भेदभाव होता है. ईशनिंदा कानून के ज़रिये दूसरे धर्मों और गैर-सुन्नी मुस्लिम अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाता है. 1947 में जब पाकिस्तान को आज़ादीमिली थी, तब वहां की कुल आबादी में धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या 23 प्रतिशत थी. आज इसके 3 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है.

चीन और पाकिस्तान सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर बिल्कुल अलग देश हैं. ऐसे में उनके बीच रणनीतिक गठजोड़ विडंबना ही है. अल्पसंख्यकों पर मुख्यधारा की संस्कृति को अपनाने के लिए दबाव डालने और उनके साथ बर्ताव को लेकर दोनों की सोच एक जैसी है. ऐसे में इस मामले में हटिंगटन की थ्योरी के सटीक होने से इनकार नहीं किया जा सकता. इससे यह बात भी जाहिर होती है कि पाकिस्तान और चीन क्रमशः अपनी सत्ता का इस्तेमाल न सिर्फ हान और इस्लामिक पहचान को थोपने के लिए करते हैं बल्कि वे इसके ज़रिये किसी विदेशी ताकत के सामाजिक-सांस्कृतिक दरार का फायदा उठाकर देश में असंतोष बढ़ाने की कोशिशों की आशंका को भी खत्म करना चाहते हैं. उनका दुश्मन सिर्फ पश्चिम नहीं बल्कि भारत भी है, जिसके सामने चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के रूप में एक बड़ी चुनौती है.

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