Author : Ramanath Jha

Published on Dec 21, 2021 Updated 0 Hours ago

पुलिस और अभियोजकों (prosecutors) के बीच आये दिन होने वाली टकराहटें क्या बढ़ती अंदरूनी सड़न का संकेत हैं?

बिहार में जज, पुलिस और वकीलों के बीच टकराव का अजीबोगरीब मामला: न्यायिक संस्थाओं पर सवाल

पुलिस और वकीलों के बीच टकराहटें भारत के लिए कोई नयी बात नहीं रह गयी हैं. वकीलों और पुलिस के इस तरह के अभद्र व्यवहार के लिए दिल्ली की ख़ास तौर पर पहचान बनी है. ऐसा हुआ साल 1988 से, जब दिल्ली पुलिस ने सेंट स्टीफन कॉलेज के छात्रों द्वारा लेडीज़ कॉमन रूम से कथित चोरी के लिए पकड़े गये एक वकील को गिरफ्त़ार किया. इसका नतीजा हुआ लाठीचार्ज, और पुलिस व वकीलों के बीच पूरी ताक़त से संघर्ष. राष्ट्रीय राजधानी में इस तरह की घटनाओं में सबसे ताज़ा है, 2 नवंबर 2019 को तीस हज़ारी अदालत परिसर में हुई हिंसा. इसकी शुरुआत गाड़ी खड़ी करने (पार्किंग) के मुद्दे से हुई और देखते-देखते इसने एक बड़ी हिंसक घटना का रूप ले लिया.

बिहार हाल ही में गवाह बना जज, पुलिस और वकीलों के बीच टकराव का. मधुबनी ज़िले के  झंझारपुर सब-डिवीजनल सिविल कोर्ट के अतिरिक्त जिला जज (एडीजे) ने चौंकाने वाले आरोप लगाये. 

हालांकि, इस लेख में जिस घटना को लेकर चर्चा की जा रही है वह इसे एक क़दम आगे ले जाती है. बिहार हाल ही में गवाह बना जज, पुलिस और वकीलों के बीच टकराव का. मधुबनी ज़िले के  झंझारपुर सब-डिवीजनल सिविल कोर्ट के अतिरिक्त जिला जज (एडीजे) ने चौंकाने वाले आरोप लगाये. उन्होंने शिकायत की कि घोघरडीहा पुलिस थाने के दारोगा (एसआई) स्तर के दो पुलिसवालों ने पहले उन्हें गाली दी और फिर उनके साथ धक्का-मुक्की की. इसके बाद उन पर पिस्तौल तान दी गयी. यह सब हुआ उनके चैंबर में, 18 नवंबर 2021 को.

लड़ाई-झगड़ा सुनकर आसपास मौजूद वकील व अदालत के कर्मचारी भागकर जज के चैंबर में पहुंचे और उन्हें बचाया, फिर पुलिसवालों को पीटा और उन्हें बंधक बना लिया. यह स्तब्धकारी ख़बर फैलते ही, राज्य और जिले के वरिष्ठ अधिकारी हालात शांत करने के लिए भागकर मौक़े पर पहुंचे. रात करीब नौ बजे, पुलिसवालों को अधिकारी उस जगह से छुड़ा सके जहां उन्हें बंधक बनाकर रखा गया था. बाद में पुलिसवालों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की गयी और उन पर आगे की कार्रवाई के लिए वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा विचार किया जा रहा था. एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, उन्हें हिरासत में लिया गया है.

किसी ने नहीं देखा कि जज के साथ क्या हुआ, लेकिन पुलिसकर्मियों की वर्दी पर ख़ून के दाग़ साफ़ देखे जा सकते थे, और जिन्होंने भी पुलिस को अदालत परिसर में पीटा उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए.

जैसी की उम्मीद थी, झंझारपुर बार एसोसिएशन और बिहार पुलिस एसोसिएशन (बीपीए) भी इसमें कूद पड़े. स्थानीय बार एसोसिएशन ने घटना की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और इसे प्रशासन द्वारा न्यायपालिका पर हमला करार दिया गया. एसोसिएशन ने घटना के बारे में ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश को भी लिखा. दूसरी तरफ़, बीपीए के अध्यक्ष ने कहा कि केवल गहन जांच के ज़रिये ही सच्चाई सामने आ सकती है. किसी ने नहीं देखा कि जज के साथ क्या हुआ, लेकिन पुलिसकर्मियों की वर्दी पर ख़ून के दाग़ साफ़ देखे जा सकते थे, और जिन्होंने भी पुलिस को अदालत परिसर में पीटा उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए.

अजीबोगरीब फ़ैसलों के कारण चर्चा में

एडीजे ख़ुद भी अपने अलोकप्रिय आदेशों के चलते कई तूफ़ानों के केंद्र में पहले से रहे हैं. ऐसे ही एक मामले में, छेड़खानी के एक आरोपी को जमानत देते हुए उन्होंने उसे पूरे गांव के कपड़े मुफ्त में धोने का आदेश दिया. इसी साल एक दूसरे फ़ैसले में, उन्होंने एक मामले (जिसमें पुलिस ने पोक्सो क़ानून का इस्तेमाल करते हुए आरोपपत्र दाखिल नहीं किया था) में आरोपी को ज़मानत देने से इनकार करते हुए आदेश दिया कि मधुबनी के पुलिस अधीक्षक (एसपी) और अनुमंडल पुलिस अधिकारी (एसडीपीओ) को विशेष प्रशिक्षण दिया जाए क्योंकि उन्होंने नाबालिग लड़कियों के संबंध में अपनी ख़राब जानकारी का प्रदर्शन किया है. बताया जाता है, वकीलों का आरोप है कि एडीजे पर पुलिसकर्मियों द्वारा हमले का कुछ-न-कुछ संबंध उस आदेश से ज़रूर है जिसमें उन्होंने एसपी और एसडीपीओ को प्रशिक्षण दिये जाने की बात कही थी. इससे पहले पटना में अपनी तैनानी के दौरान, एडीजे ने लिंचिंग के एक मामले में अपने निर्देशों का अनुपालन नहीं होने पर बिहार के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को नोटिस जारी किये थे तथा जिले के जिलाधिकारी (डीएम) और पुलिस अधीक्षक (एसपी) के वेतन से 2,500 रुपये काटकर मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कराने का आदेश दिया था. बाद में, हाई कोर्ट ने उनके आचरण को अनुचित पाया और एडीजे को सभी न्यायिक शक्तियों से वंचित कर दिया.

वकीलों का आरोप है कि एडीजे पर पुलिसकर्मियों द्वारा हमले का कुछ-न-कुछ संबंध उस आदेश से ज़रूर है जिसमें उन्होंने एसपी और एसडीपीओ को प्रशिक्षण दिये जाने की बात कही थी.

इस बीच, बिहार हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले में दख़ल दिया और घटना का स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष खंडपीठ गठित की. 29 नवंबर 2021 को विशेष सुनवाई तय की गयी, जिसमें बिहार के डीजीपी को हाज़िर रहने और एक स्टेटस रिपोर्ट सीलबंद लिफ़ाफ़े में जमा करने के लिए कहा गया. इन आदेशों का अनुपालन किया गया है. ऐसा लगता है कि हाई कोर्ट ने इस मामले को न्यायपालिका की आज़ादी पर हमले के रूप में लिया है और अब हाई कोर्ट में होने वाली आगे की कार्यवाही को देखना होगा.

हमें शायद याद ही होगा कि कुछ महीनों पहले, झारखंड के धनबाद शहर में, जज उत्तम आनंद सुबह जॉगिंग करने के दौरान शहर की एक सुनसान सड़क पर एक गाड़ी द्वारा धक्का मारकर गिरा दिये गये थे. शुरुआत में धक्का मारकर भाग जाने (हिट एंड रन) का मामला दर्ज किया गया, लेकिन अंतत: हत्या के आरोप में एफआईआर दायर की गयी. इस मामले में, बिहार की ही तरह, झारखंड हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया और जांच के लिए पुलिस को निर्देश जारी किये. इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ प्रत्येक और हर जज की स्वतंत्रता है’ जस्टिस चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की, ‘ज़िले की न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता पूरी व्यवस्था की अखंडता (integrity) की बुनियाद है. ज़िले की न्यायपालिका के तहत आने वाली अदालतें वह पहला बिंदु हैं जिनसे नागरिकों का सामना होता है. अगर न्याय दिये जाने में नागरिकों का भरोसा क़ायम रखना है, तो उच्चतर न्यायपालिका के साथ-साथ ज़िले की न्यायपालिका पर अवश्य ही ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए.’

ऐसी घटनाओं का समाज पर असर

इस तरह की घटनाओं के नतीजे समाज पर व्यापक असर डालते हैं. पहला, इनसे क़ानून और न्याय की संस्थाओं की बदनामी होती है. ये लोकतंत्र की संस्थाओं के बीच मौजूद तनावपूर्ण रिश्तों को उजागर करती हैं और निष्पक्ष एवं जनहित में काम करने की उनकी क्षमता के संबंध में गंभीर सवाल खड़े करती हैं. यह उम्मीद की जाती है कि सरकार में जो सत्ता और जिम्मेदारी के पदों पर बैठे हैं वे हमेशा पेशेवर मर्यादा और सार्वजनिक व्यवहार में संयम का प्रदर्शन करेंगे. यह जजों, वकीलों और साथ ही पुलिस पर लागू होता है. लोक सेवकों को लगातार यह ख़याल रखना होगा कि उनका आचरण और वास्तविक कार्य-प्रदर्शन (actual performance) नागरिकों में भरोसा जगाने वाला और न्यायिक प्रणाली में लोक आस्था निर्मित करने वाला होना चाहिए, न कि हिसाब बराबर करने की व्यक्तिगत लड़ाइयों की तस्वीर पेश करने वाला. इस मामले में, किसी भी पक्ष ने ख़ुद को स्थापित प्रोटोकॉल की सीमाओं के भीतर नहीं रखा है.

यह घटना गुणवत्तापूर्ण न्याय देने की न्यायिक संस्थाओं की योग्यता पर नागरिकों के मन में साफ़ तौर पर सवाल खड़े करती है. 

यह घटना गुणवत्तापूर्ण न्याय देने की न्यायिक संस्थाओं की योग्यता पर नागरिकों के मन में साफ़ तौर पर सवाल खड़े करती है. दूसरी तरफ़, यह समाज-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी तत्वों को शासन व्यवस्था (governance) के ध्वस्त हो चुके होने का संदेश भेजती है और उन्हें अपने भटकाव-भरे रास्तों पर और भी ज्यादा बेलगाम व बेखौफ़ होकर आगे बढ़ने का हौसला देती है. जैसा कि इस देश में घटित सभी मामलों में होता है, राजनीतिक दल ऐसी हर घटना का इस्तेमाल अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त हासिल करने के लिए करते हैं. अंतिम विश्लेषण में, सबसे बड़ा नुक़सान सुशासन और नागरिकों को पहुंचता है. जस्टिस आनंद की कथित हत्या एक आंख-खोलनेवाली घटना होनी चाहिए, जो यह उजागर करती है कि आपराधिक तत्व सुशासन को नष्ट करने के लिए किस हद तक जा सकते हैं.

स्थानीय मामलों में सर्वोच्च संस्थाओं का उलझना एक और चिंताजनक परिघटना है. कार्यपालिका में यह पहले ही हो चुका है, जहां मंत्री और राज्य स्तर के अधिकारी एक ऐसे मामले की निगरानी के लिए दौड़ पड़ते हैं जिसे स्थानीय रूप से जिला स्तर के अधिकारियों को संभालना चाहिए. अब यह न्यायपालिका में हो रहा है. यह स्थानीय अधिकारियों के प्राधिकार (authority) में कटौती करता है, जिनकी कोशिशें अपने निकट मौजूद समस्या के समाधान के बजाय प्रोटोकॉल के पालन में खर्च होती हैं. इससे यह संदेश भी जाता है कि शासन की हरेक भुजा अपनी ज़मीन बचाने के लिए बढ़ती है, न कि नागरिकों को. हरेक घटना की अलग से पड़ताल के बजाय, ऐसे मामलों से किस तत्परता से निपटना है, इसके लिए स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करना ज्यादा बुद्धिमानी होगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.