Author : Vikrom Mathur

Published on Jan 13, 2021 Updated 0 Hours ago

हम ऐसा रास्ता चुनें, जिससे इंस्टिट्यूशंस और ग्लोबल सिस्टम में बेहतरी आए या ऐसा जिसमें ग्रोथ के लिए पर्यावरण, सामाजिक और नैतिक मानकों से समझौता किया जाए.

महामारी के दौर में टिकाऊ विकास

अगर इंसानों की सुरक्षा और टिकाऊ विकास की बात करें तो 2020 भारी उथलपुथल वाला साल रहा. गुज़रे साल के शुरुआती तीन महीनों में कोविड-19 वायरस चीन से फैलना शुरू हुआ और जल्द ही इसने महामारी की शक्ल ले ली. इससे दुनिया भर में लाखों जानें गईं और भारी आर्थिक नुकसान हुआ. विश्व बैंक का अनुमान है कि इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.2 फीसदी की सिकुड़न आएगी, जो डरावनी बात है. अर्थव्यवस्था को हुआ यह नुकसान कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सबसे बड़ी मंदी होगी.

अब तक हमने सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के मामले में जो तरक्की हासिल की है, मंदी हमें उस रास्ते से भटका सकती है. इससे 2030 तक SDGs को हासिल करना मुश्किल हो जाएगा. 

इतना ही नहीं, अब तक हमने सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के मामले में जो तरक्की हासिल की है, मंदी हमें उस रास्ते से भटका सकती है. इससे 2030 तक SDGs को हासिल करना मुश्किल हो जाएगा. यूं भी महामारी की सबसे ज़्यादा चोट पिछड़े देशों पर पड़ी है. उनके पास पहले ही बहुत कम संसाधन थे, इसलिए महामारी की चोट से उबरने में इन देशों को अधिक वक्त लगेगा क्योंकि इसके लिए जितना पैसा खर्च किया जाना चाहिए, वह उनके लिए मुमकिन नहीं.

गरीब और पिछले देशों की हालत

गरीब और पिछड़े देश की क्या कहें, महामारी ने तो अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों तक को नहीं बख्शा है. सिर्फ अमेरिका में ही दिसंबर 2020 के मध्य तक कोविड-19 महामारी से करीब 3 लाख लोगों की जान जा चुकी थी. सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) से मिले आंकड़े बताते हैं कि अगर 10 लोगों की मौत महामारी के कारण हुई तो उनमें से 8 की उम्र 65 साल या उससे अधिक थी. यानी इसने ख़ासतौर पर बुजुर्गों को निशाने पर लिया. लेकिन कहते हैं ना कि रात के बाद सुबह होती है. इसलिए लाखों लोगों की मौत और ऐतिहासिक उथलपुथल के बीच हमारे पास अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से गौर करने और ऐसी दुनिया गढ़ने का मौका है, जिसके केंद्र में लोगों की सेहत, उनकी सुरक्षा और SDGs हों और इन्हें ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाएं.

आज हम जहां खड़े हैं, जहां से कई रास्ते निकलते हैं. अब यह हम पर है कि हम इनमें से कौन सा रास्ता चुनते हैं. हम या तो बेहतर ग्लोबल सिस्टम और इंस्टिट्यूशन बनाने की राह पर आगे बढ़ सकते हैं या फिर उस रास्ते पर जा सकते हैं, जिसमें ग्रोथ की ख़ातिर पर्यावरण, सामाजिक और नैतिक मानकों से समझौता किया जाए. इस सिलसिले में अभी तक भारत के लिए जो संकेत मिले हैं, वे अच्छे नहीं रहे हैं. मिसाल के लिए, कई राज्यों ने महामारी की शुरुआत के बाद श्रम क़ानूनों को कमजोर बनाया है, जबकि उन्हें ऐसे कदम उठाने चाहिए थे, जिनसे उनके अधिकारों की रक्षा हो सके.

ख़ासतौर पर लॉकडाउन शुरू होने के बाद प्रवासी मजदूरों को जो परेशानी उठानी पड़ी उसे देखते हुए, इसकी बेहद जरूरत थी. सितंबर 2020 में बिना बहस के संसद ने तीन लेबर कोड पास किए. इनके ज़रिये मौजूदा श्रम क़ानूनों में संशोधन किया गया, जिनसे कंपनियों और निवेशकों को फायदा होगा और मज़दूरों को नुकसान. दूसरी तरफ, भारत सरकार ने इकनॉमी की रफ्तार बढ़ाने और आयात घटाने के लिए कमर्शियल माइनिंग यानी व्यावसायिक खनन को इजाज़त दे दी. उसने पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील माने जाने वाले जंगल क्षेत्र में 40 नए कोयले की खानों का अधिकार देने का इरादा किया है.

संयुक्त राष्ट्र ने यह भी बताया कि महामारी के दौरान अस्थायी ग्रीन रिकवरी देखी गई, जिससे जलवायु परिवर्तन की गति धीमी करने में मदद मिल सकती है. लेकिन यहां जिस शब्द पर सबसे अधिक गौर किया जाना चाहिए, वह है ‘अस्थायी’. अभी इकॉनमिक रिकवरी का जो रास्ता चुना जा रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि हम ग्लोबल एवरेज टेंपरेचर में 3 डिग्री सेल्सियस  की बढ़ोतरी की ओर जा रहे हैं. 

याद रखिए कि यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब उत्तर भारत में हवा और ज़हरीली हुई है और दिल्ली में प्रदूषण का स्तर नवंबर 2020 में एक साल पहले की इसी अवधि के मुकाबले और ऊंचे स्तर पर पहुंच गया. कोविड-19 महामारी ने यह भी दिखाया है कि कुदरत के साथ इंसानों का रिश्ता सहज नहीं है. कोविड-19 महामारी फैलाने वाला SARS-CoV-2 वायरस तीसरा जूनॉटिक वायरस है, जो जानवरों से इंसानों तक पहुंचा है. इससे पहले SARS-CoV और MERS-CoV इंसानों को अपना शिकार बना चुके हैं. इन तीनों ही वायरसों से महामारी फैलने की आशंका थी.

जंगल, इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सिस्टम और वायरस

रिसर्च से यह बात भी साबित हो चुकी है कि जंगलों के कम होने से  इस तरह से वायरसों के जानवरों से इंसानों में फैलने का जोखिम बढ़ गया है. पहले जंगल दोनों के बीच एक दीवार का काम करते थे. हमें इस पर भी गौर करना होगा कि फूड सिस्टम कैसे काम करता है. इसका प्रोडक्शन किस तरह से होता है. असल में ये ऐसे वायरसों के पनपने के ठिकाने हो सकते हैं, जिनसे बचने की प्रतिरोधी क्षमता अभी तक हम इंसानों के अंदर नहीं है.

असल में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सिस्टम इस तरह से तैयार किया गया है, जो बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी कर सके. इसी वजह से पालतू पशुओं की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ जंगली जानवरों-इंसानों का संपर्क और पालतू पशुओं व जंगली जानवरों के संपर्क में आने के जोखिम भी हैं, जिनसे विषाणुओं के नई आबादी तक पहुंचने का खतरा बढ़ता है. मिसाल के लिए, हाल में एवियन इंफ्लुएंजा, न्यूकासल डिजीज, स्वाइन फ्लू और निपाह जैसे वायरस मौजूदा इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सिस्टम के कारण हम तक पहुंचे. 2020 की दूसरी छमाही में कोविड-19 महामारी के मरीजों की संख्या के कम होने और फिर बढ़ने के बीच इस वायरस के स्ट्रेन को लेकर खबर आई, जिन्हें डेनमार्क में पालतू ऊदबिलावों  से जुड़ा हुआ माना जाता है. इन चिंताओं के बीच हमारे सामने महामारी के बाद की दुनिया को गढ़ने की चुनौती भी है.

संयुक्त राष्ट्र को यह पक्का करना होगा कि महामारी के आर्थिक दुष्प्रभाव का कुछ देशों पर अधिक न पड़े और उसे वस्तुओं और स्वास्थ्य सेवाओं को भी किसी उथलपुथल से बचाना होगा. उसे देखना होगा कि दवाओं तक सबकी पहुंच बनी रहे.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोविड-19 महामारी के बाद बेहतर दुनिया के निर्माण की अपील की है. उसने कहा है कि आज देशों के पास कहीं अधिक बराबरी वाला समाज और अर्थव्यवस्था बनाने का मौका है. एक ऐसी दुनिया बनाने का अवसर है, जिसमें बिना भेदभाव के सबको मानवाधिकार हासिल हो. अगर भारत इस संदर्भ में एक नए रास्ते के बारे में सोचता है तो उसे ग्रीन रिकवरी को चुनना होगा यानी कम प्रदूषण के साथ ग्रोथ तेज करने का विकल्प. यह भारत के लिए इस नए निर्माण का एक अहम पहलू हो सकता है.

संयुक्त राष्ट्र ने यह भी बताया कि महामारी के दौरान अस्थायी ग्रीन रिकवरी देखी गई, जिससे जलवायु परिवर्तन की गति धीमी करने में मदद मिल सकती है. लेकिन यहां जिस शब्द पर सबसे अधिक गौर किया जाना चाहिए, वह है ‘अस्थायी’. अभी इकॉनमिक रिकवरी का जो रास्ता चुना जा रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि हम ग्लोबल एवरेज टेंपरेचर में 3 डिग्री सेल्सियस  की बढ़ोतरी की ओर जा रहे हैं. हमें यह भी समझना होगा कि यह जरूरी नहीं कि किसी भी तरह की रिकवरी से इंसानों को सुरक्षा मिलेगी. स्वास्थ्य, शिक्षा, जल और सैनिटेशन जैसे क्षेत्रों में कम निवेश के कारण अधिकतर देशों को महामारी से कारगर ढंग से निपटने में मुश्किल हुई क्योंकि इसने राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र में मौजूद बड़ी ख़ामियों को सामने ला दिया.

भारत ने वित्त वर्ष 2019-20 में स्वास्थ्य पर जीडीपी का सिर्फ 1.29 फीसदी खर्च किया, जो कई देशों के मुकाबले काफी कम है. सरकारी स्वास्थ्य सेवा की खामियों की भरपाई के लिए प्रशासन तकनीक की मदद ले रहा है, जिससे महामारी से निपटने में मदद मिले. भारत कोविड-19 की चुनौती से निपटने के लिए टेक्नोलॉजिकल इनोवेशंस  को तेजी से अपनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यहां प्राइवेसी बचाए रखने और डेटा के दुरुपयोग को रोकने के कानूनी ढांचे का अभाव है. इसलिए उसे यह पक्का करना होगा कि तकनीकी माध्यमों के इस्तेमाल में लोगों की सुरक्षा और हितों के साथ कोई समझौता न हो. यह भी देखना होगा कि इन इनोवेशंस के बहाने नागरिकों की निगरानी न बढ़ा दी जाए.

गुज़रे साल में हमने महामारी के साथ जलवायु परिवर्तन का खौफनाक असर भी देखा. आपको ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग याद होगी. 2019-20 में आग लगने के सीजन में ऑस्ट्रेलिया में 21 फीसदी जंगल  तबाह हो गए, जिससे तीन अरब पशुओं की जान चली गई. हाल में कैलिफ़ोर्निया में लगी आग, भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटीय इलाकों में आए चक्रवात हमें इस बात की याद दिला रहे हैं कि एक्सट्रीम वेदर पैटर्न किस तरह के ख़तरों को जन्म दे सकते हैं. लेकिन इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन के ख़तरों के प्रति हम सचेत नहीं हैं.

अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की सरकार जाने वाली है, लेकिन इससे पहले नवंबर 2020 में इसने 2015 पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट से निकलने का काम औपचारिक तौर पर पूरा कर लिया. ट्रंप का यह ऐलान, पेट्रोलियम इंडस्ट्री के हितों की पैरवी करना और उनके जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों पर संदेह जताने से ग्रीन इकॉनमी बनाने की कोशिशों को धक्का लगा. अमेरिका में पिछले साल के आखिर में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद नतीजों पर जिस तरह से संदेह जताया गया, उससे भी अहम घड़ी में महामारी के बाद फिर से खड़ा होने की कोशिशों को चोट पहुंची है. हालांकि, अच्छी बात यह है कि अमेरिका के अगले राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पेरिस एग्रीमेंट से फिर से जुड़ने का वादा किया है.

महामारी की सामाजिक-आर्थिक कीमत

महामारी की सामाजिक-आर्थिक कीमत बहुत ज़्यादा है, लेकिन इस चुनौती से वैश्विक स्तर पर मिल-जुल कर निपटा जा सकता है. यह काम संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के जरिये हो सकता है. उसने अनुमान लगाया है कि महामारी के कारण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 2020 में 30-40 फीसदी की कमी आ सकती है . इसका ग्लोबल वैल्यू चेन पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है यानी इसकी दुनिया में लोगों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.

वंचितों और हाशिये पर पड़े लोगों को महामारी की इस मार से बचाने में संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान अहम भूमिका निभा सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र को यह पक्का करना होगा कि महामारी के आर्थिक दुष्प्रभाव का कुछ देशों पर अधिक न पड़े और उसे वस्तुओं और स्वास्थ्य सेवाओं को भी किसी उथलपुथल से बचाना होगा. उसे देखना होगा कि दवाओं तक सबकी पहुंच बनी रहे.

2030 तक हमने SDGs को हासिल करने का वादा किया है. 2021 इस नए दशक का पहला साल है. इन लक्ष्यों को पाने की ओर बढ़ने के लिहाज से यह साल महत्वपूर्ण है. महामारी के बाद हम जिस नई दुनिया को गढ़ने के बारे में सोच रहे हैं, उसके लिए एक नक्शा हमें तैयार करना होगा. 

अफसोस की बात है कि अमेरिका विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे संगठनों की अनदेखी कर रहा है, जिससे उनकी कमजोरियां सामने आ गई हैं. सच तो यह है कि रिसर्च में सहयोग और सूचनाओं के आदान-प्रदान के ज़रिये इस तरह से संकट से उबरने की साझा पहल की जा सकती है और भारत इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है. उसे कोविड-19 से जंग में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को लेकर अपना कमिटमेंट जाहिर करना चाहिए. जी-20, ब्रिक्स और सार्क जैसे क्षेत्रीय और वैश्विक समूहों का ध्यान अभी तक सुरक्षा और सामरिक रिश्तों को मजबूत करने पर रहा है, लेकिन ये ग्लोबल डिवेलपमेंट एजेंडा में भी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. अगर हमें मजबूत बनना है तो क्षेत्रीय समूहों को प्राथमिकता देनी होगी. पड़ोसी मुल्कों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने होंगे. जी-77 और विकासशील देशों के साथ एकजुटता दिखानी होगी.

2030 तक हमने SDGs को हासिल करने का वादा किया है. 2021 इस नए दशक का पहला साल है. इन लक्ष्यों को पाने की ओर बढ़ने के लिहाज से यह साल महत्वपूर्ण है. महामारी के बाद हम जिस नई दुनिया को गढ़ने के बारे में सोच रहे हैं, उसके लिए एक नक्शा हमें तैयार करना होगा. जैसा कि अरुंधति रॉय ने लिखा  है, ‘ऐतिहासिक तौर पर ऐसा देखा गया है कि महामारियों के बाद इंसानों ने अतीत से पीछा छुड़ाकर नई दुनिया की कल्पना की. यह एक दुनिया से दूसरी दुनिया में जाने का पोर्टल यानी एक रास्ता है.’

अगर दुनिया वाकई एक चौराहे पर खड़ी है तो शॉर्ट टर्म रिकवरी की ख़ातिर हम ज़मीनी सच्चाईकी अनदेखी नहीं कर सकते. वैश्विक लक्ष्यों के प्रति कमजोर कमिटमेंट, संस्थानों और पर्यावरण से बेपरवाह होकर और सामाजिक मानकों की अनदेखी को सही ठहरा सकते हैं. या हम एक अलग दुनिया की कल्पना कर सकते हैं. हम कुदरत के साथ अपने रिश्ते में बुनियादी बदलाव ला सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र, WHO जैसे वैश्विक मंचों को और मजबूत बना सकते हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य और इंसान की भलाई को ध्यान में रखकर नीतियां बना सकते हैं. हम एकजुट होकर एक मजबूत सामाजिक ढांचा तैयार कर सकते हैं. ये दोनों ही रास्ते हमारे सामने हैं, हमें इनमें से एक को चुनना है.

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