Published on May 17, 2021 Updated 0 Hours ago

पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से जुड़े मामलों में जैसे-जैसे विज्ञान तरक्की करता जाएगा, सुरक्षा से जुड़े मसलों पर इसके प्रभाव के दुनिया भर में महसूस किए जाने की संभावना भी बढ़ते जाने के आसार हैं. 

जलवायु परिवर्तन के सुरक्षा से जुड़े निहितार्थ: पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का मामला

हाल के वर्षों में दुनिया ने जलवायु परिवर्तन के प्रचंड रूप देखे हैं. हमने समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी से लेकर भीषण गर्मी का प्रकोप झेला है. बाढ़ से लेकर भयंकर चक्रवातों तक का सामना किया है. पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना भी ऐसी ही एक चरम स्थिति है. 2019 में[1] संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने इसे दुनिया में जलवायु से जुड़े पांच प्रमुख उभरते हुए मसलों में से एक करार दिया था. आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परिचर्चाओं के और व्यापक रूप लेने के आसार हैं. ऐसे में ये समझना ज़रूरी हो जाता है कि पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना क्यों मायने रखता है और नीति-निर्माण के नज़रिए से इसकी क्या अहमियत है. पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर व्यापक और गंभीर प्रभाव पड़ना तय है. इन परिचर्चाओं से इसी बात की मज़बूती से तस्दीक है.

पर्माफ़्रॉस्ट क्या है?

पर्माफ़्रॉस्ट पृथ्वी की सतह के नीचे वाली आधार भूमि को कहते हैं जो लगातार कम से कम दो वर्षों तक जमी हुई अवस्था में रही हो. इसके कुछ हिस्से तो हज़ारों साल पुराने होते हैं. इनकी गहराई कुछ मीटर से लेकर कहीं कहीं एक किमी से भी अधिक होती है[2]. उत्तरी गोलार्द्ध का 25 फ़ीसदी भाग और पृथ्वी की ऊपरी सतह का 17 प्रतिशत हिस्सा पर्माफ़्रॉस्ट से आच्छादित है[3]. ये प्रमुख तौर पर आर्कटिक क्षेत्र में पाया जाता है. दुनिया के दूसरे इलाक़ों के अलावा अलास्का के 80 फ़ीसदी, कनाडा के 50 फ़ीसदी और रूस के 60 प्रतिशत भूभाग के तल में पर्माफ़्रॉस्ट है. दुनिया भर के ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में भी ये मौजूद हैं. इनमें आल्प्स, हिमालय और एंडीज़ पर्वत के इलाक़े शामिल हैं[4]

आर्कटिक का इलाक़ा वैश्विक औसत के मुक़ाबले दोगुनी या तिगुनी रफ़्तार से गर्म हो रहा है, ऐसे में पर्माफ़्रॉस्ट भी तेज़ी से पिघल रहे हैं.

पर्माफ़्रॉस्ट की तीन प्रमुख विशेषताएं होती हैं. पहला, ये पृथ्वी के लिए एक विशाल फ्रीज़र की भूमिका निभाता है. मृत पेड़ों, पशु-पक्षियों, माइक्रोब्स और वायरस जैसे जैविक पदार्थ यहां भारी मात्रा में जमा हैं. ये धरती के नीचे जमी हुई अवस्था में पड़े हुए हैं. पर्माफ़्रॉस्ट को धरती पर कार्बन और पारे का सबसे बड़ा भंडार भी माना जाता है[5]. यहां करीब 1600 अरब टन कार्बन जमा है. ये परिमाण फिलहाल वातावरण में मौजूद गैस का दोगुना है[6]. इसके साथ ही यहां 1660 अरब ग्राम पारा मौजूद है. पारे का ये परिमाण महासागरों, हमारे वातावरण और बाक़ी तमाम थलीय भूक्षेत्रों में मौजूद पारे की कुल मात्रा का दोगुना है[7]

दूसरा, पर्माफ़्रॉस्ट कई कारकों के प्रति संवेदनशील होते हैं. ख़ासतौर से जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान का इनपर सीधा असर पड़ता है. आर्कटिक पर्माफ़्रॉस्ट के संदर्भ में तो ये बात ख़ासतौर से लागू होती है. आर्कटिक का इलाक़ा वैश्विक औसत के मुक़ाबले दोगुनी या तिगुनी रफ़्तार से गर्म हो रहा है, ऐसे में पर्माफ़्रॉस्ट भी तेज़ी से पिघल रहे हैं. कई मामलों में ऐसा हज़ारों वर्षों में पहली बार देखा जा रहा है. इस बारे में मौजूदा प्रक्षेपण डरावने हैं. जलवायु परिवर्तन के पीछे के विज्ञान की पड़ताल करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) है. इसके मुताबिक अगर वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे रहती है तो 2100 तक पर्माफ़्रॉस्ट का 25 प्रतिशत हिस्सा पिघल सकता है. ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन मौजूदा गति से जारी रहता है तो ये आंकड़ा 70 प्रतिशत तक पहुंच सकता है[8]. दूसरे शब्दों में पर्माफ़्रॉस्ट दिन दोगुनी रात चौगुनी रफ़्तार से पिघल रहे हैं[9]

दूसरे शब्दों में पर्माफ़्रॉस्ट दिन दोगुनी रात चौगुनी रफ़्तार से पिघल रहे हैं. 

तीसरे, पर्माफ़्रॉस्ट दो तरीके से पिघल सकते हैं. आसपास की हवा का तापमान बढ़ने की वजह से धीरे-धीरे लेकिन स्थायी रूप से इनमें पिघलन आ सकती है. दूसरी परिस्थिति अचानक और अप्रत्याशित तरीके से तब आती है जब अपने भीतर विशाल मात्रा में जमी बर्फ़ के गलने से पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलाव होने लगता है. ऐसे में पिघलती हुई ज़मीन अचानक दरकने लगती है. इससे विशाल गड्ढों, झीलों और दलदली ज़मीन का निर्माण होता है. इतना ही नहीं इसके चलते भूस्खलन भी आते हैं और पहाड़ों और तटीय क्षेत्रों का क्षरण होता है[10]. पर्माफ़्रॉस्ट वाले कई इलाक़ों में ये समस्त घटनाएं दिखाई देती हैं. पर्माफ़्रॉस्ट के कटाव की वजह से उत्तर पूर्वी साइबेरिया के लेना डेल्टा में नदी के किनारे करीब 15 मीटर का क्षेत्र हर साल दरक जाता है[11]

सुरक्षा के लिहाज से पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना क्यों मायने रखता है

पर्माफ़्रॉस्ट वाले क्षेत्रों में सैनिक और असैनिक बुनियादी ढांचे को मौजूदा और भावी पिघलन के चलते सीधा ख़तरा रहता है. आल्प्स में पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से ऊंचे पहाड़ी इलाक़े में मौजूद अनेक बुनियादी ढांचों को भविष्य में नुकसान पहुंचने की आशंका पैदा हो गई है. इस ख़तरे की ज़द में एवलॉन्च कंट्रोल सिस्टम से जुड़ा इंफ़्रास्ट्रक्चर भी शामिल है. यहां के स्थानीय लोगों और पर्यटकों की सुरक्षा के लिहाज से ये ढांचा अत्यावश्यक है[12]. ग़ौरतलब है कि आर्कटिक में कई देशों के सैन्य अड्डे स्थापित हैं. पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने की वजह से यहां कई दमकल केंद्र तबाह हो चुके हैं. सड़कों और मकानों की स्थिति भी डांवाडोल हो गई है. तटीय क्षेत्रों में बसने वाले कुछ समुदायों को अपना घरबार छोड़ सुरक्षित इलाक़ों में जाना पड़ा है[13]. आर्कटिक में मौजूद समस्त बुनियादी ढांचे का 70 प्रतिशत हिस्सा उन इलाक़ों में मौजूद है जहां 2050[14] तक पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने की रफ़्तार के तेज़ होने का अनुमान है. ख़ासतौर से यहां मौजूद तेल और गैस से जुड़े ढांचों के लिए ख़तरे वाले हालात बन गए हैं. रूस के आर्कटिक क्षेत्र में स्थित हाइड्रोकार्बन की निकासी के विशाल भू-क्षेत्र के करीब 45 फ़ीसदी हिस्से को 2050 तक भारी तबाही का सामना करना पड़ सकता है. यहां कई पाइपलाइनों के लिए बेहद जोखिम भरे हालात पैदा हो सकते हैं. इनमें यमाल-नेनेट्स (उत्तर-पश्चिमी साइबेरिया) से निकलने वाला पूर्वी साइबेरिया-प्रशांत महासागर (ईएसपीओ) तेल और गैस पाइपलाइन शामिल है. अमेरिका की ट्रांस-अलास्का पाइपलाइन सिस्टम (टीएएसपी) के लिए भी बड़े ख़तरे वाले हालात बन गए हैं. ईसपीओ का करीब 30 प्रतिशत और टीएएसपी का करीब 40 प्रतिशत पाइपलाइन उन इलाक़ों में स्थित हैं जिनके 2050[15] तक पिघलने का अनुमान लगाया गया है. 2020 में पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से रूस के आर्कटिक इलाक़े में मौजूद एक स्टोरेज टैंक की नींव कमज़ोर पड़ गई. इसके चलते बड़ी मात्रा में ईंधन का रिसाव हो गया था[16]. अलास्का[17] में अमेरिकी फ़ौज के प्रतिष्ठानों पर भी पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलन का असर पड़ रहा है. शोधकर्ताओं ने आशंका जताई है कि भविष्य में इससे भी बुरे हालात देखने को मिल सकते हैं.  

पर्माफ़्रॉस्ट की वजह से बुनियादी ढांचे को पहुंचे नुकसान के व्यापक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं. ख़ासतौर से ऊर्जा सुरक्षा पर इसका कुप्रभाव पड़ना तय है. टीएएसपी अलास्का की अर्थव्यवस्था[18] के लिहाज से बेहद अहम है. ये अमेरिकी ऊर्जा सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है. अभी हाल ही में अलास्का के कुछ दूसरे क्षेत्रों में तेल के विशाल भंडारों का पता चला है. इसी प्रकार यमाल-नेनेट्स और ईएसपीओ पाइपलाइन रूस की ऊर्जा सुरक्षा और हाइड्रोकार्बन उद्योग के लिए बेहद अहम हैं. ग़ौरतलब है कि रूस दुनिया का दूसरा सबसे बडा गैस और तेल निर्यातक है. पश्चिमी जगत से[19] रूस के रिश्तों में बढ़ते तनाव के मद्देनज़र पिछले दशक में ईएसपीओ ने बाक़ी दुनिया में रूसी तेल के निर्यात की दिशा में विविधता लाने में मदद की है. अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए भी ये पाइपलाइन महत्वपूर्ण हैं. यमाल-नेनेट्स के इलाक़े से यूरोपीय संघ द्वारा रूस से आयात किए जाने वाले गैस का एक बड़ा हिस्सा निकलता है (2019 में यूरोपीय संघ के कुल गैस आयात के करीब 40 प्रतिशत हिस्से का स्रोत यही क्षेत्र था)[20]. दूसरी ओर ईएसपीओ एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बाज़ारों ख़ासतौर से चीन, जापान और दक्षिण कोरिया को बड़ी मात्रा में कच्चा तेल मुहैया कराता है.

प​र्माफ़्रॉस्ट का पिघलना आगे चलकर मानव सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है. पिघलता हुआ पर्माफ़्रॉस्ट अपने अंदर दीर्घकाल से दबे तत्वों को वातावरण में उत्सर्जित करता है. ये प्रक्रिया ख़तरनाक साबित हो सकती है. बाहर निकलने वाला जैविक गैस आगे चलकर ग्रीन हाउस गैस (कार्बन डाइऑक्साइड और बेहद ताक़तवर मिथेन गैस) में तब्दील हो जाता है. इससे निकलने वाला पारा इंसानों और पशुओं के लिए ज़हरीला हो सकता है. इतना ही नहीं पर्माफ़्रॉस्ट के नीचे हज़ारों सालों से दबे वायरस पृथ्वी पर ऐसे प्रभाव दिखा सकते हैं जो अबतक या तो अज्ञात रहे हैं या फिर जिन्हें हम कबके भुला चुके हैं[21] [22]. 2016 में साइबेरिया में पिघलते हुए पर्माफ़्रॉस्ट ने रेनडियर के 70 साल पुराने कंकाल को सतह पर ला दिया था. ये कंकाल एंथ्रैक्स से संक्रमित था. तब इस संक्रमण की चपेट में आकर एक बच्चे की मौत हो गई थी और कई अन्य लोगों की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा था[23]. वातावरण में पहुंचते ही ये तत्व गतिशील बन जाते हैं. लिहाजा पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से न सिर्फ़ यहां के पूरे इलाक़े बल्कि दूरदराज़ रहने वाले लोगों की सेहत के लिए भी ख़तरा पैदा हो सकता है.

​पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से पैदा होने वाली मानवीय सुरक्षा से जुड़ी इन चुनौतियों के व्यापक सुरक्षा प्रभाव देखने को मिल सकते हैं. पारे की मात्रा में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए नए जोखिम पैदा कर सकती है. अगर कार्बन उत्सर्जन इसी रफ़्तार से जारी रहा तो मछलियों का सेवन भविष्य में निरापद नहीं रह जाएगा[24]. इन परिस्थितियों से प्रभावित आबादी के बीच उपलब्ध संसाधनों के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी. जैसा कि कोविड-19 महामारी ने साफ़ तौर से दर्शाया है, अज्ञात वायरसों के उभरने और प्रसार से दुनिया के एक बड़े इलाक़े के लिए आर्थिक, सामाजिक और भूराजनीतिक दृष्टिकोण से विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं. इन सबका मानवीय सुरक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है (इन्हें ‘पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन फीडबैक’[25] के नाम से जाना जाता है), जो वैश्विक तापमान[26] में ज़बरदस्त बढ़ोतरी ला सकते हैं. जलवायु से जुड़ी कुछ अन्य सुरक्षा चुनौतियों पर भी इसका असर पड़ने की आशंका है. कुछ समय बाद ऐसा भी हो सकता है कि ध्रुवीय हिम टोपियों के पिघलने से आर्कटिक का वाणिज्यिक रास्ता अपने-आप ही खुल जाए. 

नीति-निर्माण के लिहाज से पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने के क्या मायने हैं

सुरक्षा के लिहाज से इसके व्यापक प्रभाव हैं. ऐसे में नीति-निर्माताओं के लिए इस पिघलन के क्या मायने हैं? इस सिलसिले में तीन मुख्य सबक सबके सामने हैं.

पहला, पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चर्चाओं और लक्ष्यों का एक अहम तत्व है. इससे जुड़े आंकड़ों को लेकर लोगों में कुछ मतभेद हैं. इसके बावजूद शोधकर्ताओं का अनुमान है कि पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से (ख़ासतौर से अचानक होने वाले पिघलाव से उत्सर्जित होने वाली मिथेन के चलते) ग्रीनहाउस गैसों की एक बड़ी मात्रा वातावरण में समाहित हो सकती है. अगर वैश्विक तापमान में बदस्तूर बढ़ोतरी होती रही तो 2100 तक ऊपर बताई गई वजहों के चलते तापमान में 0.29 डिग्री सेल्सियस का इज़ाफ़ा देखने को मिल सकता है[27]. कुछ लोग इसे एक ऐसी संभावित अवस्था के तौर पर देखते हैं जो एक ऐसा कुचक्र आरंभ कर सकती है जो नियंत्रण के बाहर हो. जैसे जैसे पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन का उत्सर्जन करते रहते हैं जलवायु परिवर्तन की समस्या गंभीर होती जाती है. गर्मी बढ़ने के चलते इससे आगे चलकर और अधिक पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन उत्सर्जित होता है. ये कुचक्र ऐसे ही चलता रहता है[28]. वैज्ञानिकों ने इससे जुड़े कई अहम और जटिल कारकों को बेहतर ढंग से समझने की कोशिशें काफी पहले से ही शुरू कर दी थीं. मिसाल के तौर पर वो इस बात की पड़ताल कर रहे थे कि मिथेन का उत्सर्जन कितनी मात्रा में होगा और इस प्रक्रिया से होने वाले नुकसान को रोकने में पेड़-पौधों की क्या भूमिका हो सकती है. यहां उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने 2018 से पहले तक पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन उत्सर्जन से जुड़े ख़तरों को अपने प्रक्षेपणों में शामिल नहीं किया था. इसी का नतीजा है कि आईपीसीसी के कई पूर्वानुमानों में ग्लोबल वॉर्मिंग के असर को कम करके आंका गया है. 2015 के पेरिस समझौते से जुड़े लक्ष्यों को तय करने में भी इसी तरह का रवैया अपनाया गया. इस करार में ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिकीकरण से पहले वाली दुनिया के मुक़ाबले 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है. इतना ही नहीं अगर संभव हो तो इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस[29] पर रखने पर ज़ोर दिया गया है. पेरिस समझौते से जुड़ने वाले सभी देशों ने हर पांच साल में जलवायु को लेकर अपनी कार्ययोजना सामने रखने का वादा किया है. आगे चलकर पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से होने वाले प्रभावों को समझने में ये एक बेहतर अवसर दे सकता है क्योंकि धीरे-धीरे दुनिया के वैज्ञानिक इस विषय पर अपनी समझ को और उन्नत बनाते जा रहे हैं.

यहां उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने 2018 से पहले तक पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन उत्सर्जन से जुड़े ख़तरों को अपने प्रक्षेपणों में शामिल नहीं किया था. इसी का नतीजा है कि आईपीसीसी के कई पूर्वानुमानों में ग्लोबल वॉर्मिंग के असर को कम करके आंका गया है.

​दूसरा, पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना ये दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का विषय नहीं है. वास्तव में इसके गंभीर सुरक्षा प्रभाव हो सकते हैं. ये प्रभाव प्रत्यक्ष तौर पर या ‘ख़तरों को कई गुणा बढ़ाने वाले’ कारकों के तौर पर सामने आ सकते हैं. सुरक्षा से जुड़े पारंपरिक ख़तरों जैसे फ़ौजी काबिलियत, परमाणु प्रसार या फिर अपेक्षाकृत नई चुनौतियों जैसे आतंकवाद, साइबर हमले आदि की तरह ही जलवायु परिवर्तन नीति-निर्माताओं को देशों और इलाक़ों की सुरक्षा हालातों को बेहतर ढंग से समझने में मददगार साबित हो सकते हैं[30]. इसी सोच के चलते धीरे-धीरे अनेक राष्ट्रीय सरकारें (रक्षा से जुड़े विभागों समेत) और अंतरराष्ट्रीय संगठन सुरक्षा से जुड़े अपने मूल्यांकनों, नीति और ढांचागत क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन से जुड़े कारकों को शामिल करने लगे हैं. इतना ही नहीं कुछ देशों की सेनाओं ने भी जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालना शुरू कर दिया है. उन्होंने अपनी सैन्य नीतियों, उपकरणों और कार्यगत प्रशिक्षणों (इस संग्रह में मेलिसा लेवइलैंट का निबंध देखें) में इस विषय को ध्यान में रखना आरंभ कर दिया है. कुछ दूसरे संगठन भी जलवायु परिवर्तन के सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों पर मंथन कर रहे हैं. इनमें नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) शामिल है. नेटो अपने दूरगामी विचार प्रक्रिया (नेटो 2030)[31][32] के तहत इस पर सोच-विचार कर रहा है. बहरहाल सुरक्षा से जुड़े विषयों पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर परिचर्चा अब भी विवाद का विषय बना हुआ है. इसको लेकर सदस्य देशों की राय अलग-अलग है[33]

अगर पर्माफ़्रॉस्ट के संदर्भ में बात करें तो नीति-निर्माता वैश्विक स्तर पर होने वाले उत्सर्जन को कम कर पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलना कम कर सकते हैं (रोकथाम).अगर पर्माफ़्रॉस्ट के संदर्भ में बात करें तो नीति-निर्माता वैश्विक स्तर पर होने वाले उत्सर्जन को कम कर पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलना कम कर सकते हैं (रोकथाम).

तीसरा सबक पहले उदाहरण से ही निकलता है. तत्काल कदम उठाने से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटा जा सकता है और सुरक्षा चुनौतियों को कम किया जा सकता है. अगर पर्माफ़्रॉस्ट के संदर्भ में बात करें तो नीति-निर्माता वैश्विक स्तर पर होने वाले उत्सर्जन को कम कर पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलना कम कर सकते हैं (रोकथाम). इसके साथ ही वो मौजूदा और भविष्य के बुनियादी ढांचे को इस पिघलन से जूझने के लिए अधिक लोचदार (अनुकूलन) बना सकते हैं. इसके अलावा प्रभावित देशों के साथ मिलकर काम करने की रणनीति बनाई जा सकती है. निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी फिलहाल प्रचलित बेहतरीन तौर-तरीकों को आपस में साझा करते हुए जलवायु क्षमता निर्माण को बढ़ावा (सहयोग) दे सकते हैं. पर्माफ़्रॉस्ट कार्बन उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ इस तरह के उपायों से इससे जुड़ी सुरक्षा चुनौतियों को भी कम किया जा सकता है. अगर ये कदम तेज़ी से उठाए जाते हैं तो मानव समाज को इस प्रक्रिया से जुड़ी जो लागत चुकानी पड़ रही है उसे आधा किया जा सकता है. (अगर कोई कदम नहीं उठाया गया तो ये लागत 70 खरब अमेरिकी डॉलर तक जा सकती है, और अगर समय रहते ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस[34] तक सीमित रखने के उपाय किए गए तो करीब 25 खरब डॉलर की लागत आएगी). रोकथाम से जुड़े उदाहरण पर इस सिलसिले में ग़ौर किया जा सकता है. अगर 2100 तक ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस (2 डिग्री सेल्सियस की बजाए[35]) तक सीमित रखा गया तो इससे 20 लाख वर्ग किमी पर्माफ़्रॉस्ट को बचाने में कामयाबी मिलेगी. इससे भविष्य में अनेक लोगों और बुनियादी ढांचे की रक्षा की जा सकेगी. ऐसे में कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में पर्माफ़्रॉस्ट का पिघलना कोई ऐसी घटना नहीं है जिसे पलटा न जा सके[36]. रोकथाम के ज़रूरी उपाय किए गए तो इसकी प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है. हालांकि ये एक बहुत बड़ी चुनौती है. पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलाव से जुड़े ताज़ा खोजों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से जुड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए 2050[37] या 2044 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर पूरी तरह से काबू पाना होगा. इस सदी के मध्य के लिए तय किए गए लक्ष्य को दुनिया के 126 देशों ने या तो अपनाया है[38] या उसपर विचार किया है या इस बारे में स्पष्ट तौर पर घोषणाएं की है. दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में इन देशों का हिस्सा सिर्फ 51 प्रतिशत है[39]. 2020 के दिसंबर में हुए जलवायु से जुड़े महत्वाकांक्षी सम्मेलन में ये बात साफ़ तौर पर उभर कर सामने आई कि 2050 तक इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अभी काफ़ी काम किया जाना बाक़ी है. 2050 से पहले इस लक्ष्य को हासिल करने की बात तो अभी छोड़ ही दीजिए.

अगर ये कदम तेज़ी से उठाए जाते हैं तो मानव समाज को इस प्रक्रिया से जुड़ी जो लागत चुकानी पड़ रही है उसे आधा किया जा सकता है.

निष्कर्ष

पर्माफ़्रॉस्ट जलवायु परिवर्तन के प्रति ख़ासतौर से संवेदनशील होते हैं. दुनिया के कई हिस्सों में ये तेज़ी से पिघल रहे हैं. पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने का पर्यावरण पर तो असर होता ही है, सुरक्षा के नज़रिए से भी इसका बहुआयामी और महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. ये प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष, मौजूदा और संभावित, स्थानीय और वैश्विक हो सकते हैं. ये इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि जलवायु परिवर्तन और सुरक्षा आपस में बेहद करीब से जुड़े हुए हैं. फिलहाल जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय करने का मतलब ये भी है कि इससे मौजूदा और संभावित सुरक्षा चुनौतियों को कम किया जा सकता है. पेरिस करार को अपनाए जाने के 5 साल बाद नीति-निर्माताओं के एजेंडे में पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से जुड़े मुद्दों को अहमियत मिलने की संभावना बनी है. पेरिस में तय किए गए लक्ष्य हासिल करने के लिए और अधिक ठोस कदम उठाने होंगे. पर्माफ़्रॉस्ट के पिघलने से जुड़े मामलों में जैसे-जैसे विज्ञान तरक्की करता जाएगा, सुरक्षा से जुड़े मसलों पर इसके प्रभाव के दुनिया भर में महसूस किए जाने की संभावना भी बढ़ते जाने के आसार हैं. 


Endnotes

[1] UN Environment, Frontiers 2018/2019 – Emerging Issues of Environmental Concerns, Nairobi, United Nations Environment Programme, 2019.

[2] Julia Boike, “Le permafrost, l’autre menace climatique, Le Monde, 14 November 2017.

[3] Stephan Gruber, “Derivation and analysis of a high-resolution estimate of global permafrost zonation,” Cryosphere, 6 (2012): 221–233.

[4] Gruber, “Derivation and analysis of a high-resolution estimate of global permafrost zonation”

[5] Cristina Schädel, “The irreversible emissions of a permafrost ‘tipping point’, World Economic Forum, 18 February 2020.

[6] E. Schuur et al., “Climate change and the permafrost carbon feedback, Nature Communications, 520 (2015): 171–179.

[7] K. Schaefer et al., “Permafrost Stores a Globally Significant Amount of Mercury, Geophysical Research Letters, vol. 45, issue 3 (2018): 1463-1471.

[8] Intergovernmental Panel on Climate Change, Special Report on the Ocean and Cryosphere in a Changing Climate, Geneva, IPCC, 2019.

[9] Craig Welch, “Artic permafrost is thawing fast: That affects us all, National Geographic, August 2019.

[10] M. Turetsky et al., “Permafrost collapse is accelerating carbon release, Nature Communications, 569 (2019): 32-34.

[11] Siberia’s permafrost erosion has been worsening for years,” Alfred Wegener Institute, 16 September 2020.

[12] Luigi Jorio, “La disparition du permafrost, une menace locale, régionale et mondiale, Swissinfo, 4 November 2020.

[13] “Special Report on the Ocean and Cryosphere in a Changing Climate”

[14] J. Hjort et al., “Degrading permafrost puts Arctic infrastructure at risk by mid-century, Nature Communications, 9 (2018): 5147.

[15] Hjort et al., “Degrading permafrost puts Arctic infrastructure at risk by mid-century”

[16] Russian Arctic oil spill pollutes big lake near Norilsk, BBC, 9 June 2020.

[17] US Department of Defense, Report on Effects of a Changing Climate to the Department of Defense, Washington DC, US Department of Defense, 2019.

[18] Mike Sommers, “Unleash Alaskan Energy, American Petroleum Institute, 10 June 2019.

[19] Olga Yagova, “As Russia expands Pacific pipeline, a third of oil exports go East, Reuters, 21 November 2019.

[20] British Petroleum, “Statistical Review of World Energy 2020, Natural Gas, Statistical Review of World Energy, 2020.

[21] Schädel, “The irreversible emissions of a permafrost ‘tipping point’”

[22] Jean-Michel Claverie, “CO2 et virus oubliés: le permafrost est une ‘boîte de Pandore’, France Culture, 15 December 2018.

[23] Claverie, “CO2 et virus oubliés”

[24] K. Schaefer et al., “Potential impacts of mercury released from thawing permafrost, Nature Communications, 11, 4650 (2020).

[25] Schuur et al., “Climate change and the permafrost carbon feedback”

[26] Boris Biskaborn et al., “Permafrost is warming at a global scale, Nature Communications, 10, 264 (2019).

[27] Turetsky et al., “Permafrost collapse is accelerating carbon release”

[28] “Frontiers 2018/2019 – Emerging Issues of Environmental Concerns

[29] D. Yumashev et al., “Climate policy implications of nonlinear decline of Arctic land permafrost and other cryosphere elements, Nature Communications 10, 1900 (2019).

[30] Caitlin Werrell and Francisco Femia, The Responsibility to Prepare and Prevent. A climate security governance framework for the 21st century (Washington DC: The Center for Climate and Security, 2019).

[31] Secretary General: NATO must help to curb climate change, NATO, 28 September 2020.

[32] Online press conference – meetings of NATO Ministers of Defence, NATO, 17 February 2021.

[33] Climate Change recognised as ‘threat multiplier’, UN Security Council Debates its impact on peace, UN News, 25 January 2019.

[34] Yamuchev et al., “Climate policy implications of nonlinear decline of Arctic land permafrost and other cryosphere elements”

[35] Intergovernmental Panel on Climate Change, Special Report on Global Warming of 1.5°C, Geneva, IPCC, 2018.

[36] Schädel, “The irreversible emissions of a permafrost ‘tipping point’”

[37] “Special Report on Global Warming of 1.5°C”

[38] Welch, “Arctic permafrost is thawing fast”

[39] United Nations Environment Programme, Emissions Gap Report 2020, Nairobi, UNEP, 2020.

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