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भारत इस समय अपनी आज़ादी के बाद की चौथी आर्थिक सुस्ती के मुहाने पर खड़ा है. जो देश में उदारीकरण के बाद पहली मंदी होगी. और आशंका इस बात की है कि ये देश के इतिहास की सबसे बुरी आर्थिक मंदी होगी.
हालांकि, सरकार ने देश में लॉकडाउन के अनलॉक की प्रक्रिया के दूसरे दौर की शुरुआत कर दी है. लेकिन, आशंका के अनुरुप वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए जीडीपी (GDP) विकास दर के बेहद डरावने अनुमान सामने आने लगे हैं. रेटिंग एजेंसी क्राइसिल (CRISIL) के सबसे ताज़ा अनुमान कहते हैं कि इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में, ‘देश की अर्थव्यवस्था 25 प्रतिशत तक घट जाएगी.’ और 2020-21 के पूरे वित्त वर्ष के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था के पांच फ़ीसद तक घटने के अनुमान हैं. गैर कृषि क्षेत्र में इस दौरान 6.3 प्रतिशत की कमी आने की आशंका जताई गई है. अगर हम आधार वर्ष के आधार पर तस्वीर का आकलन करें, तो भारत की जीडीपी को हमेशा के लिए 10 प्रतिशत का नुक़सान हो जाएगा (ये एक दशक के ट्रेंड पर आधारित है). इसका अर्थ ये है कि आर्थिक संकट से पहले के दौर की जीडीपी विकास की दर को हासिल करना कम से कम अगले तीन वर्षों तक संभव नहीं होगा. भले ही इसे सहारा देने के लिए सरकार सुगम आर्थिक नीतियां ही क्यों न बना दे.
तो, हम ये कह सकते हैं कि हां, भारत इस समय अपनी आज़ादी के बाद की चौथी आर्थिक सुस्ती के मुहाने पर खड़ा है. जो देश में उदारीकरण के बाद पहली मंदी होगी. और आशंका इस बात की है कि ये देश के इतिहास की सबसे बुरी आर्थिक मंदी होगी. जिस समय पूरे देश में लॉकडाउन लगा हुआ था, उस समय देश की अर्थव्यवस्था में पहले ही भारी गिरावट आने लगी थी.
बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज जैसी सुर्ख़ियां बटोरने वाले, भारत के आत्मनिर्भर पैकेज में इतनी क्षमता नहीं दिखती कि वो अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ावा दे सके. ये बात विभिन्न बैंकों, ब्रोकरेज फ़र्मों और रेटिंग एजेंसी द्वारा लगाए गए अनुमानों से साफ़ हो जाती है. जिन्होंने इस पैकेज से केंद्र सरकार के ख़ज़ाने पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ का अंदाज़ा लगाया है.
सारणी-1: भारत के स्टिमुलस पैकेज के आकार का आकलन | |
संस्था का नाम | जीडीपी के कितने% वित्तीय बोझ |
गोल्डमैन साक्स | 1.30 |
यूबीएस | 1.20 |
क्रिसिल | 1.20 |
बैंक ऑफ अमरीका | 1.10 |
गंधबिलाव का पोस्तीन | 1.00 |
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया | 1.01 |
एचएसबीसी | 1.00 |
सीएलएसए | 0.80 |
नोमुरा | 0.80 |
बार्कलेज | 0.75 |
स्रोत: द टाइम्स ऑफ इंडिया बिजनेस , क्रिसिल |
इस सारणी से साफ़ है कि भारत ने जिस आर्थिक पैकेज का एलान किया है, वो जीडीपी के 0.75 % से लेकर 1.30 % के बीच है. लेकिन, जैसा कि दावा किया गया था कि ये स्टिमुलस जीडीपी का दस प्रतिशत है, इनमें से कोई भी आकलन उसके आस पास भी नहीं फटकते.
किसी भी आर्थिक सुस्ती के हालात में पैसे को सीधे आर्थिक सिस्टम में डालने की ज़रूरत होती है. इसे मुख्य तौर पर सीधे निवेश के रूप में लगाया जाता है. सार्वजनिक पूंजी में निवेश के माध्यम से फौरी आर्थिक गतिविधियां शुरू होती हैं. जो अर्थव्यवस्था में लोगों की ख़रीदने की क्षमता को बढ़ाती हैं. भी लोग इस ख़रीदने की शक्ति का इस्तेमाल खपत बढ़ाने में करते हैं. इस खपत से मांग बढ़ती है और तुरंत ही उत्पादन क्षमता को बढ़ावा मिलता है, ताकि अधिक मांग को पूरा किया जा सके. इससे अर्थव्यवस्था में ख़रीदने की और शक्ति जुड़ती है. ये चक्र धीरे धीरे अर्थव्यवस्था के ऊपरी छोर तक पहुंचता है. और तब जाकर कोई अर्थव्यवस्था सुस्ती के दलदल से निकल पाती है. लेकिन, मौद्रिक नीतियों में परिवर्तन से अर्थव्यवस्था पर तुरंत कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता.
आत्मानिर्भर पैकेज का सारांश | ||||
रकम (₹ करोड़ में) |
जीडीपी का% | प्रत्यक्ष राजकोषीय प्रभाव | जीडीपी का% | |
मार्च में घोषित किए गए उपाय | 192,800 | 0.96 | 958,00 | 0.48 |
22 मार्च 2020 से कर रियायतें | 7,800 | 0.04 | 7,800 | 0.04 |
राजकोषीय प्रोत्साहन 1 (PMGKP) | 170,000 | 0.85 | 73,000 | 0.37 |
स्वास्थ्य क्षेत्र | 15,000 | 0.08 | 15,000 | 0.08 |
RBI के उपाय · | 801,603 | 4.01 | 0 | – |
आत्मनिर्भर पैकेज (पहली किस्त) | 594,550 | 2.97 | 31,800 | 0.16 |
व्यापार के लिए आपातकालीन कार्यशील पूंजी की सुविधा, एमएसएमई को शामिल करना | 300,000 | 1.50 | 0 | – |
संकट के शिकार MSME के लिए उप क़र्ज़ | 20,000 | 0.10 | 4000 | 0.02 |
MSMEs के लिए निधियों का कोष | 50,000 | 0.25 | 10,000 | 0.05 |
व्यापार और श्रमिकों के लिए ईपीएफ समर्थन | 2800 | 0.01 | 2800 | 0.01 |
ईपीएफ दरों में कमी | 6,750 | 0.03 | 0 | – |
ग़ैर बैंकिंग, हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों और MFI के लिए ख़ास पूंजी योजना | 30,000 | 0.15 | 0 | – |
ग़ैर बैंकिंग कंपनियों/MFI के लिए आंशिक क़र्ज़ गारंटी योजना 2.0 | 45,000 | 0.23 | 0 | – |
DISCOMs के लिए तरलता इंजेक्शन | 90,000 | 0.45 | 0 | – |
टीडीएस / टीसीएस दरों में कमी | 50,000 | 0.30 | 15,000 | 0.08 |
आत्मानिर्भर पैकेज (2 किश्त) | 310,000 | 1.55 | 10,000 | 0.05 |
2 महीने से फंसे हुए प्रवासी कामगारों को खाद्यान्न की आपूर्ति | 3500 | 0.02 | 3500 | 0.02 |
मुद्रा शिशु ऋण के लिए ब्याज सबवेंशन | 1500 | 0.01 | 1500 | 0.01 |
स्ट्रीट वेंडर्स को विशेष क्रेडिट सुविधा | 5000 | 0.03 | 0 | – |
आवास सीएलएसएस-एमआईजी | 70,000 | 0.35 | 3000 | 0.02 |
नाबार्ड के माध्यम से अतिरिक्त कार्यकारी पूंजी की व्यवस्था | 30,000 | 0.15 | 0 | – |
किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से अतिरिक्त क्रेडिट | 200,000 | 1.00 | 2,000 | 0.01 |
आत्मानिर्भर पैकेज (3 rd किश्त) | 150,000 | 0.75 | 20,200 | 0.10 |
खाद्य सूक्ष्म उद्यम | 10,000 | 0.05 | 6000 | 0.03 |
प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना | 20,000 | 0.10 | 12,000 | 0.06 |
कुल करने के लिए शीर्ष: ऑपरेशन ग्रीन्स | 500 | 0.00 | 500 | 0.00 |
एग्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड | 100,000 | 0.50 | 0 | – |
हर्बल खेती को बढ़ावा | 4000 | 0.02 | 0 | – |
मधुमक्खी पालन की पहल | 500 | 0.00 | 500 | 0.00 |
आत्मानिर्भर पैकेज (4 वें किश्त) | 8,100 | 0.04 | 4860 | 0.02 |
सामाजिक अवसंरचना में वितीयता का अंतर | 8,100 | 0.04 | 4860 | 0.02 |
आत्मानिर्भर पैकेज (5 वें किश्त) | 40,000 | 0.20 | 40,000 | 0.20 |
अतिरिक्त मनरेगा आवंटन | 40,000 | 0.20 | 40,000 | 0.20 |
संपूर्ण | 20,97,053 | 10.50 | 202,660 | 1.01 |
इसमें वो घोषणाएं भी शामिल हैं, जिनका एलान फ़रवरी महीने में किया गया था. रंगीन पंक्तियों में उल्लिखित वित्तीय प्रभाव को 60 प्रतिशत के आधार पर लिया गया है. क्योंकि जो घोषणाएं की गई हैं, उनमें से कई का व्यय अगले वित्तीय वर्ष में भी ले जाया जाएगा. * ये रक़म करोड़ रुपए में है, PMGKP = प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज, CLSS = क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी योजना, TOP to TOTAL = टमाटर, प्याज और आलू (TOP) से लेकर सभी फल और सब्जियाँ (TOTAL) तक. स्रोत: Ecowrap , अंक संख्या 12, वित्त वर्ष 21, 18 मई 2020 |
जैसा कि इस आर्थिक पैकेज के विस्तार से किए गए ब्रेक अप और वास्तविक वित्तीय लागत का आकलन स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया रिसर्च प्रकाशन द्वारा किए गया है (ऊपर दर्ज सारांश), उससे साफ़ है कि इस पैकेज का ज़ोर क़र्ज़ उपलब्ध कराने और मौजूदा सरकारी योजनाओं की नए सिरे से पैकेजिंग करने पर रहा है. यहां तक कि कोविड-19 की महामारी शुरू होने से पहले ही भारत सरकार, सस्ती ब्याज दरों पर क़र्ज़ उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही थी. उसे ये उम्मीद थी कि संभावित निवेशक और उत्पादक, ऋण लेंगे और इसके बाद अर्थव्यवस्था में नया निवेश होगा. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में इस रणनीति के परिणाम शून्य ही रहे हैं.
आज से क़रीब दो महीने पहले, पूर्व मुख्य वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन और जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर देवेश कपूर ने तर्क रखा था कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को नई रफ़्तार देने के लिए एक प्रत्यक्ष वित्तीय पैकेज की ज़रूरत है. जो लगभग दस लाख करोड़ यानी भारत की कुल जीडीपी का पांच प्रतिशत हो
आज के इस भयंकर संकट के दौर में भी भारत सरकार इस नाकाम साबित हो चुके रास्ते से नहीं डिगी है. जब पहले से ही अर्थव्यस्था में सुस्ती आ रही थी और अब जबकि विकास का पहिया पूरी तरह थम चुका है. और अब जबकि अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने की आशंका जताई जा रही है. तब इस अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए कोई निवेशक या उत्पादक क्यों क़र्ज़ लेगा? वो ऐसा निश्चित रूप से तभी करेंगे, जब उन्हें उत्पादन के आंकड़ों के माध्यम से साफ़ तौर से अर्थव्यवस्था के सुस्ती से उबरने के संकेत मिलेंगे. और इसके लिए विशुद्ध वित्तीय स्टिमुलस की आवश्यकता है.
आज से क़रीब दो महीने पहले, पूर्व मुख्य वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन और जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर देवेश कपूर ने तर्क रखा था कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को नई रफ़्तार देने के लिए एक प्रत्यक्ष वित्तीय पैकेज की ज़रूरत है. जो लगभग दस लाख करोड़ यानी भारत की कुल जीडीपी का पांच प्रतिशत हो. बाद में इन दोनों आर्थिक विशेषज्ञों की बात का समर्थन फिक्की (FICCI) के महानिदेशक ने किया था. और, कारोबारी समाचार पत्र मिंट ने भी अपने संपादकीय में इस ज़रूरत को दोहराया था. दस लाख करोड़ रुपए के प्रत्यक्ष वित्तीय स्टिमुलस के इस आंकड़े को बाद में कई जाने माने अर्थशास्त्रियों और सार्वजनिक नीति निर्माताओं का समर्थन मिला था.
इस पैकेज को लेकर मूल विचार ये है कि इसमें से चार लाख करोड़ रुपए तो खाद्य सब्सिडी और नक़दी के तौर पर उन बेरोज़गार कामगारों को दिया जाना चाहिए, जो मौजूदा हालात से लड़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बाक़ी के छह लाख करोड़ रुपए अर्थव्यवस्था के अलग अलग सेक्टर में निवेश के तौर पर व्यय किए जा सकते थे. इन्हें टैक्स में रियायत या किसी अन्य अप्रत्यक्ष तरीक़े से नहीं ख़र्च करना चाहिए था. बल्कि, सरकार को चाहिए था कि वो सीधे तौर पर पैसे ख़र्च करे और अर्थव्यवस्था के बुनियादी पहियों में नई जान डाले. पूरे देश में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ना इसकी एक अच्छी शुरुआत हो सकती थी.
अब अगर हम ये मान लें कि एसबीआई ने घोषित किए आर्थिक पैकेज से सरकार के ऊपर दो लाख करोड़ रुपए का बोझ पड़ने का आकलन किया है. तो फिर हमें ये सोचना होगा कि वास्तविक व्यय के लिए बाक़ी के आठ लाख करोड़ रुपए कहां से आएंगे? जब सरकार ने मार्च में वित्तीय व्यय के उपायों का एलान किया था (जो लगभग एक लाख करोड़ की लागत वाले थे), उसके बाद मई में भारत सरकार ने अपनी क़र्ज़ लेने की आवश्यकता को बढ़ा कर बारह लाख करोड़ कर दिया था. जबकि बजट में सरकार ने बताया था कि इस वित्तीय वर्ष में उसे 7.8 लाख करोड़ रुपए का क़र्ज़ लेने की ज़रूरत होगी.
अब आगे ये माना जा रहा है कि सरकार इस क़र्ज़ का ज़्यादातर हिस्सा खुले बाज़ार से उठाएगी, ताकि मार्च में एलान किए गए स्टिमुलस पैकेज का ख़र्च वहन किया जा सके. यानी मई में जिस एक लाख करोड़ रुपए के अतिरिक्त पैकेज की घोषणा की गई है, उसके लिए भी सरकार को पैसे जुटाने की ज़रूरत है. और अर्थशास्त्रियों द्वारा सुझाए गए दस लाख करोड़ रुपए के पैकेज के लिए बाक़ी के आठ लाख करोड़ रुपयों को जुटाने की चुनौती तो पहले से ही बनी हुई है.
9 लाख करोड़ रुपए के अतिरिक्त धन की व्यवस्था के लिए दो प्रमुख तरीक़े अपनाए जा सकते हैं. लेकिन, उससे पहले हमें एक नज़र दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज दरों के रुख़ पर डालनी होगी. इससे हमें उपयोगी आंकड़े मिल जाएंगे (टेबल-2)
सारणी-2 पूरी दुनिया के केंद्रीय बैंकों में मौजूदा न्यूनतम ब्याज दर | ||||
देश | वर्तमान दर | दिशा | पिछली दर | परिवर्तन की अंतिम तिथि |
अमेरीका | 0.25% | ⇩ | 1.25% | 15 मार्च 2020 |
ऑस्ट्रेलिया | 0.25% | ⇩ | 0.50% | 19 मार्च 2020 |
दक्षिण कोरिया | 0.75% | ⇩ | 1.25% | 16 मार्च 2020 |
यूके | 0.10% | ⇩ | 0.25% | 19 मार्च 2020 |
कनाडा | 0.25% | ⇩ | 0.75% | 27 मार्च 2020 |
चीन | 3.85% | ⇩ | 4.05% | 20 अप्रैल 2020 |
यूरोपीय यूनियन | 0.00% | ⇩ | 0.05% | 10 मार्च 2016 |
भारत | 4.00% | ⇩ | 4.40% | 22 मई 2020 |
जापान | -0.10% | ⇩ | 0.00% | २ जनवरी २०१६ |
न्यूजीलैंड | 0.25% | ⇩ | 1.00% | 16 मार्च 2020 |
रूस | 5.50% | ⇩ | 6.00% | 24 अप्रैल 2020 |
सऊदी अरब | 1.00% | ⇩ | 1.75% | 16 मार्च 2020 |
दक्षिण अफ्रीका | 3.75% | ⇩ | 4.25% | 21 मई 2020 |
स्रोत: Global-rates.com |
जापान और यूरोपीय संघ तो काफ़ी पहले से ही ब्याज दरों में परिवर्तन की स्थिति को गंवा चुके हैं. इनके अतिरिक्त बाक़ी सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं ने कोविड-19 की महामारी के दौरान अपनी ब्याज दरों में काफ़ी कटौती की है. इन आंकड़ों से साफ़ है कि दुनिया के ज़्यादातर विकसित देशों और संभावित अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ बाज़ारों में ब्याज दरें शून्य के आस-पास ही हैं.
हम ऐसा कह सकते हैं कि घरेलू बाज़ार में इस बात की काफ़ी संभावना है कि हम यहां से वित्त की व्यवस्था कर सकते हैं. क्योंकि कई बड़े फंड, संस्थागत और धनी निवेशक एक निश्चित रिटर्न का विकल्प चुन सकते हैं, जिसकी गारंटी भारत सरकार देगी
ऐसे में भारत सरकार इन बाज़ारों से क़र्ज़ लेने की कोशिश कर सकती है. अप्रवासी भारतीयों को भी परिवर्तनशील दरों पर सरकारी बॉन्ड देने का प्रस्ताव लाया जा सकता है. ये इस अनुमान पर आधारित होगा कि अभी कुछ समय तक ब्याज दरें नीचे ही रहेंगी. विदेशी मुद्रा बाज़ारों में रुपए की घटती क़ीमत निश्चित रूप से चिंता का विषय है. लेकिन, आर्थिक सुस्ती के इस मोड़ पर ये जोखिम भी मोल लिया जा सकता है. बहुत से बड़े फंड, संस्थागत और अमीर व्यक्तियों को निवेशकों में तब्दील किया जा सकता है. इसलिए, हम ऐसा कह सकते हैं कि घरेलू बाज़ार में इस बात की काफ़ी संभावना है कि हम यहां से वित्त की व्यवस्था कर सकते हैं. क्योंकि कई बड़े फंड, संस्थागत और धनी निवेशक एक निश्चित रिटर्न का विकल्प चुन सकते हैं, जिसकी गारंटी भारत सरकार देगी. इसके लिए कोविड-19 बॉन्ड जारी किए जा सकते हैं. जो कम ब्याज दर पर भी निवेशकों के लिए आकर्षक विकल्प होंगे. इन तीनों ही विदेशी माध्यमों और कोविड-19 बॉन्ड के ज़रिए, दो दो ख़रब रुपयों को जुटाने की कोशिश की जा सकती है.
बाक़ी के तीन ख़रब रुपयों को मनी मार्केट यानी यानी रिज़र्व बैंक से एक निश्चित ब्याज दर पर लिया जा सकता है, जो रेपो रेट से भी कम हो. रेपो रेट आम तौर पर 3.5 प्रतिशत रहते हैं. ये क़र्ज़ सरकार लंबी अवधि (कम से कम दस वर्षों के लिए) के लिए ले सकती है. वर्ष 1997 तक सरकार का घाटा स्वत: ही बाज़ार की ब्याज दर से कम रेट पर संतुलित किया जाता था. अब ये उचित समय है कि उस विकल्प को आज़माया जाए, भले ही ये अस्थायी तरीक़ा क्यों न हो. अगर अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकनी है, तो इस तरह के स्टिमुलस की सख़्त आवश्यकता है. बजट घाटे को संतुलित करने की सनक और फिर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की दरों के डर से तो अर्थव्यवस्था ही चरमरा जाएगी. अगर ऐसा हुआ तो कम वित्तीय घाटा भी अगले वित्तीय वर्ष में किसी की मदद के लायक़ नहीं बचेगा.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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