Author : Naghma Sahar

Published on Oct 10, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत की इकॉनमी के लिए डॉलर का होना ज़रूरी है, क्यूंकि आर्थिक सेहत इस बात पर निर्भर करती है की विदेशी मुद्रा भंडार कितना भरा हुआ है। और विदेशी मुद्रा भंडार इस बात पर निर्भर करता है की आप कितना निर्यात कर रहे हैं।

गिरता रुपया, उठता डॉलर

एक तरफ कहा जा रहा है की आर्थिक खुशहाली है.. गाँव गाँव में लोगों के अकाउंट में पैसे आ गए है, टॉयलेट बनवाने के लिए दूर दराज़ इलाकों में भी गरीबों को १२ हज़ार रुपये मिल गए हैं और प्रधानमंत्री की नीतियों की बदौलत घर बनवाने के लिए १ लाख.. लेकिन दूसरी तरफ बेशर्म रुपया है की गिरता ही जा रहा है.. बेशर्मी से गिरते हुए रुपये ने डॉलर के मुकाबले एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया है। इतिहास में पहली बार १ डॉलर की कीमत अब ७४ रुपये को भी पार कर गयी है। इसे ऐसे समझिये.. आज के दिन आप अमेरिका या दुनिया के किसी भी देश में जायेंगे तो आपको डॉलर खरीदना होगा.. ७४ रुपये देने पर आपको १ डॉलर मिलेगा और वहां अगर आप १ डॉलर का भी कोई सामान लेंगे तो जेब से ७४ रुपये गए।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत वहां की मुद्रा की मजबूती से आंकी जाती है। इसलिए भारतीय राजनीति में रुपए के गिरने को सरकार की प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता रहा है। आज रुपये के गिरने जो भी अन्तराष्ट्रीय कारण हैं वो तब भी रहे होंगे जब अगस्त 2013 में रुपया डॉलर की तुलना में हिचकोले खा रहा था और उस समय की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने कहा था, “रुपए ने अपनी क़ीमत खोई और प्रधानमंत्री ने अपनी प्रतिष्ठा।”

अभी की मज़बूत सरकार के प्रधानमंत्री मोदी रुपये के कमज़ोर होने को रोक नहीं पा रहे हालाँकि जुलाई 2013 में रुपए में गिरावट पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर उन्हों ने तंज़ किया था कि गिरता रुपया मनमोहन सिंह की उम्र से होड़ कर रहा है। लेकिन आज तो रूपया प्रधानमंत्री की उम्र को पीछे छोड़ गया। पीएम ६८ के और रुपया ७४ का।

खैर ये तो है राजनीती.. इसे जाने दीजिये। रुपये के कमज़ोर होने के पीछे कारण क्या हैं और डॉलर के मुकाबले रुपये का कमज़ोर होना हमारे लिए क्यूँ चिंता की बात है, डॉलर इतना अहम् क्यूँ है इसे समझिये।

डॉलर के मुकाबले रुपये का कमज़ोर होना क्यूँ अहम् है

आज की तारीख़ में एक डॉलर की क़ीमत 74 रुपए से ऊपर चली गई है। इसका मतलब ये हुआ कि अगर आप एक आईफ़ोन खरीदना चाहते हैं जिसकी कीमत एक हज़ार डॉलर है और एक डॉलर की क़ीमत 74 रुपए हो गई है तो आपको 74 हज़ार रुपए देने होंगे।

डॉलर के मुकाबले रुपया कमज़ोर होने के कई मतलब हैं। पहला तो यह कि भारत निर्यात कम और आयात ज़्यादा कर रहा है। इसे व्यापार घाटा कहा जाता है।

आरबीआई के अनुसार जून 2018 में ख़त्म हुई तिमाही में व्यापार घाटा बढ़कर 45.7 अरब डॉलर हो गया जो पिछले साल 41.9 अरब डॉलर था। दूसरा यह कि लोगों को देश के सामान और सेवा पसंद नहीं आ रहे हैं इसलिए विदेशी सामान और सेवा ख़रीद रहे हैं। तीसरा यह कि विदेशी निवेशक अपना पैसा निकाल रहे हैं।

भारत की इकॉनमी के लिए डॉलर का होना ज़रूरी है, क्यूंकि आर्थिक सेहत इस बात पर निर्भर करती है की विदेशी मुद्रा भंडार कितना भरा हुआ है। और विदेशी मुद्रा भंडार इस बात पर निर्भर करता है की आप कितना निर्यात कर रहे हैं। अगर आप बेचेंगे ज्यादा तो भंडार ज्यादा भरा होगा। तो भारत दुनिया के बाज़ार में क्या क्या बेचता है इस पर निर्भर होगा की उसके पास कितने डॉलर हैं। विदेशी मुद्रा भंडार आप्रवासियों के डॉलर से भी भरता है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 400.52 अरब डॉलर पहुंच गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि 400 का आंकड़ा एक मनोवैज्ञानिक आंकड़ा है और इससे नीचे गया तो भारत के लिए चिंता की बात होगी।

अब विदेशी मुद्रा भंडार का ४०० पहुँच जाना ये दिखता है कि हम तेल के आयत के साथ साथ ज़्यादातर चीज़ें खरीद रहे हैं इसलिए हमारे डॉलर कम हैं।

चूँकि दिनिया भर के बाज़ार में ज़्यादातर कारोबार डॉलर में होता है और अमेरिकी आर्थिक संस्थानों का जाल ऐसा फैला है कि प्रभुत्व डॉलर का ही है। इसलिए जब भारत ईरान या सऊदी अरब से तेल खरीद ता है तो डॉलर देने होते हैं।भारत रूस से S400 मिसाइल खरीदेगा तो भुगतान डॉलर में होगा क्यूंकि रूस की मुद्रा रूबल इतनी मज़बूत नहीं की वैश्विक कारोबार में इस्तेमाल हो। भारत ने फ़्रांस से रफ़ाल लड़ाकू विमान ख़रीदा तो भुगतान डॉलर में करना पड़ा। यानी भारत और ज़्यादातर देशों को अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के लिए डॉलर की ज़रुरत है और इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपये का कमज़ोर होना बुरी खबर है।

दो देश डॉलर के बजे अपनी मुद्रा में भी व्यापार कर सकते हैं लेकिन ऐसा दो देशों में आपसी सहमति से किया जा सकता है। ईरान के साथ भारत रुपए देकर तेल का आयात करता रहा है। रूस ने भी भारत से रुपए और रूबल में व्यापार की हामी भर दी है। इसका मतलब यह हुआ कि रूस और ईरान को वैसे सामान की ज़रूरत होनी चाहिए जो भारत में मिलते हों।

चीन भी कई देशों के साथ अपनी ही मुद्र में व्यापार करता है। लेकिन बड़ी तस्वीर ये है कि डॉलर हावी है।

भारत अपनी ज़रूरत का 80 फ़ीसदी तेल आयात करता है जिसके लिए उसे डॉलर की ज़रूरत है ख़ास कर के तब जब ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबन्ध ईरान से तेल खरीदने को धीरे धीरे सीमित करते जायेंगे। कहा जा रहा है कि रुपए की सेहत ठीक नहीं हुई और कच्चे तेल की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कम नहीं हुई तो 2018-2019 में तेल का आयात बिल 108 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। इससे विदेशी मुद्रा भंडार भी प्रभावित होता है।

इसे ऐसे सोचिए कि अगर अगले चार सालों तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 400 अरब डॉलर पर ही स्थिर रहा और इसी में से हर साल तेल के लिए 108 अरब डॉलर खर्च करता रहा तो कुछ भी नहीं बचेगा।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत केवल घरेलू कारणों से प्रभावित नहीं होती है। अगर भारतीय मुद्रा रुपया कमज़ोर हो रहा है तो इसका कारण वैश्विक भी है।

एक सबसे बड़ा कारण है अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की बढ़ती क़ीमतें, और ऐसे में ईरान और वेनेज़ुएला पर अमेरिकी नियंत्रण।

लेकिन प्रधान मंत्री मोदी ने 2014 के आम चुनाव में कमज़ोर रुपये को चुनावी मुद्दा बनाया था। 2013 में जब रुपए में गिरावट आई थी तो मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने भारतीय मुद्रा को आईसीयू में पहुंचा दिया है। अब जब रुपया दोबारा ICU में है तो लाज़मी है कि आम चुनाव में ये भी मुद्दा बनेगा।

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