Author : Ramanath Jha

Published on Apr 25, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत में शहरी विकास के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति तैयार हाने जा रही है, ऐसे में किन चुनौतियों से निपटने की जरूरत है?

शहरीकरण की चुनौतियों से निबटने के लिए नगर निकायों को सशक्त बनायें

अखबारी रिपोर्टों पर भरोसा करें तो अगले दो महीनों में भारत की पहली व्यापक राष्ट्रीय शहरी नीति तैयार हो जायेगी। हांलाकि यह निस्संदेह एक स्वागतयोग्य कदम है लेकिन नीतिनिर्धारकों को साथ ही साथ पिछली नीतियों की विफलताओं और कमियों का भी मूल्यांकन करना चाहिए। इस दौरान ये भी आकलन होना चाहिए कि देश भर में खासकर महानगरों और पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों में शहरीकरण की प्रक्रिया क्यों बेतरतीब नजर आती है। अन्यथा पिछली गलतियां दोहराये जाने का खतरा बना रहेगा जिसे संभाल पाना भारत के लिए मुश्किल होगा, ऐसी स्थिति में जबकि अनुमान है कि 2030 तक भारत की संभावित 1.5 अरब आबादी का 50 फीसदी हिस्सा शहरों में निवास करेगा।

तीस वर्ष से ज्यादा का समय बीत गया जब 1985 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग (एनयूसी) का गठन किया था और मुंबई के नामी आर्किटेक्ट चार्ल्स कोरिया को इसकी कमान सौंपी थी। आयोग के गठन के पहले 1981 में हुई राष्ट्रीय जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक भारत की शहरी आबादी 15.9 करोड़ यानि देश की तत्कालीन आबादी की 23.3 प्रतिशत थी। वर्ष 2011 की राष्ट्रीय जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी आबादी 37.7 करोड़ थी जो कुल आबादी का 31.2 प्रतिशत था। यूएन-हैबिटैट के वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट 2016 के हालिया आकलन के मुताबिक भारत की शहरी आबादी 2015 में 42 करोड़ थी।

इन आंकड़ों में निश्चित तौर पर परोक्ष शहरीकरण का आकलन नहीं किया गया है जिसको जोड़ा जाये तो शहरी आबादी और ज्यादा हो सकती है। आबादी का आकलन भले ही वास्तविकता से कम हो लेकिन भारत की प्रस्तावित नयी राष्ट्रीय शहरी नीति विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शहरी व्यवस्था के लिए कार्ययोजना पेश करने के लिए तैयार है।

जानकारी के मुताबिक प्रस्तावित नयी नीति दस ‘शहरी सूत्रों’ पर आधारित है। इनमें i) सहकारी संघवाद ii) परस्पर निर्भर अर्थव्यवस्थाएं (agglomeration economies), iii) ग्रामीण-शहरी व्यवस्था का सतत उपयोग, iv) समावेशी विकास, v) टिकाऊपन (sustainability), vi) स्थानीय स्तर के संस्थानों का सशक्तिकरण, vii) आवासीय और शहरी बुनियादी ढांचा, viii) शहरी वित्त व्यवस्था, ix) लिंग समानता सहित सामाजिक न्याय और x) सुदृढ़ शहरी सूचना प्रणाली शामिल हैं।

इसके अतिरिक्त, नयी नीति में खाली जमीन का उपयोग करने की बजाय आबादी के पास शहर बसाने पर ज्यादा ध्यान होगा। ये सूत्र ‘सामान्य अंतरराष्ट्रीय मॉडल’ की नीरसता से अलग हटकर शहरों की संरचना में स्थानीय संस्कृति और इतिहास को समाहित करने की कोशिश करेंगे। शहरी नियोजन के क्रम में शहरी योजनाओं की जड़ता को दूर करके उन्हें ज्यादा लचीला बनाने की जरूरत है। शहर की अधिकतर विकास योजनाओं में यही जड़ता हावी है।

2014 के बाद केन्द्र सरकार ने शहरों पर केन्द्रित कई कार्यक्रमों का ऐलान किया है जिनमें जल, सीवरेज, वर्षा जल निकासी, सार्वजनिक परिवहन और सुविधाओं को ध्यान में रखकर अमृत (कायाकल्प एवं शहरी रूपांतरण के लिए अटल मिशन); पुनर्संयोजन (रेट्रोफिटिंग), पुनर्विकास, हरित क्षेत्र विकास और पूरे शहर में स्मार्ट समाधान के उपयोग के साथ स्मार्ट सिटीज मिशन और ऐतिहासिक शहरों के सर्वांगीण विकास पर केन्द्रित ह्रद्य (विरासत शहर विकास एवं विस्तार योजना) शामिल हैं। इसके अलावा 2002 तक सबको आवास मुहैया कराने के इरादे के साथ प्रधानमंत्री आवास योजना और बेहतर सैनिटेशन के जरिये शहरों की सफाई व्यवस्था सुनिश्चित करने, खुले में शौच को खत्म करने और परिवार में शौचालय एवं सामुदायिक शौचालय को बढ़ावा देने के इरादे से स्वच्छ भारत अभियान योजना भी इनमें शामिल हैं।

इसके पहले डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भी वर्ष 2005 में महत्वाकांक्षी जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनआरयूएम) शुरू किया था। जेएनएनआरयूएम एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम था जिसका उद्येश्य शहरों के जीवन और बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता में सुधार करना था। हांलाकि जेएनएनआरयूएम योजना 2012 तक यानि सात साल के लिए तय थी लेकिन इसे मार्च 2012 तक के लिए बढ़ा दिया गया। इस मिशन में ‘शहरी बुनियादी ढांचा एवं शासन’ और ‘शहरी गरीबों को मूलभूत सुविधाएं’ संबंधी उपमिशन शामिल थे। राज्यों और शहरों के ‘सुधार अनुपालन’ के रिकॉर्ड के आधार पर चुनिंदा शहरों को धन मुहैया कराया गया था। जेएनएनआरयूएम के अनुभव से ये खुलासा हुआ कि हांलाकि राज्यों और शहरों ने सुधार के मामलों में अनमने ढंग से काम किया लेकिन सख्त केन्द्रीय दबाव की वजह ये योजना कामयाब नहीं हो पाई। यह ऐसी योजना थी जिसे शहरी शासन के मूलभूत सिद्धांतों से तालमेल बिठाये बगैर लागू किया गया था। इसका परिणाम ये हुआ कि सुधार के मद्देनजर जो उपलब्धियां हासिल हुईं वो मामूली थीं और बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं के मद्देनजर हासिल उपलब्धियां इतनी कम थीं कि इनका सकारात्मक प्रभाव नहीं दिख पाया।

ऐसा लगता है कि प्रस्तावित राष्ट्रीय शहरी नीति में पिछले प्रयासों को समाहित किया जायेगा ताकि शहर के जीवन स्तर में व्यापक सुधार को संयोजित किया जा सके। यह नीति संयुक्त राष्ट्र दीर्घकालिक विकास लक्ष्य (SDG), दीर्घकालिक शहर एवं समुदाय (SDG-2) के साथ तालमेल करने की भी कोशिश करेगी जिसका लक्ष्य है शहरों और मानव बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लचीला और टिकाऊ बनाया जाये। संभावना है कि यह नीति पहले एक मसौदे के रूप में पेश होगी और इसे अंतिम रूप देने से पहले सभी स्तरों पर शहरी साझेदारों के साथ व्यापक विचार विमर्श की अनुमति दी जायेगी।

 राष्ट्रीय शहरी नीति के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। स्थानीय स्वशासन भारतीय संविधान में राज्य सूची (एंट्री 5) का हिस्सा है, इसके बावजूद राष्ट्रीय शहरी नीति को राज्यों को ऐसा मौका मुहैया कराना चाहिए ताकि राज्य अपनी शहरी नीतियां बना सकें। इसी वजह से ये राज्यों के लिए जरूरी होगा कि वे राष्ट्रीय नीति के ढांचे में शामिल हों और इसे अपनी छवि के मुताबिक आगे बढ़ायें। इसके लिए ये जरूरी है कि नीति संबंधी मसौदे को टिप्पणियों और प्रतिक्रिया के लिए नागरिक समाज के बीच प्रसारित करने के पहले इसपर संघवाद की सच्ची भावनाओं के अनुरूप मौलिक विचार विमर्श हो।

इसलिए ये भी अपेक्षित है कि नयी राष्ट्रीय शहरी नीति तैयार करने के प्रयास के दौरान ना सिर्फ वर्तमान और पूर्ववर्ती कार्यक्रमों के गुणदोष की विवेचना हो बल्कि दो अन्य वृहत प्रयासों की सफलताओं और विफलताओं से भी सीख ली जाये जिनके जरिये शहरों और शहरीकरण के सवालों से जूझने की कोशिश की गयी थी। बात कर रहे हैं राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग (एनयूसी 1988) और 1992 में हुए 74वें संविधान संशोधन की।

एनयूसी द्वारा पेश रिपोर्ट में कई शहरी विषयों को विस्तार से शामिल किया गया था। इनमें शहरीकरण के आयाम, व्यापक नियोजन और शहरी स्वरूप, भूमि, शहरी गरीबी, आवास, जल, परिवहन, शहरी प्रबंधन, सूचना प्रणाली और वित्त भी शामिल हैं। आयोग ने बड़ी मेहनत से 329 शहरी केन्द्रों की भी पहचान की थी जहां शहरीकरण की पर्याप्त संभावनाएं थीं। यहां ये उम्मीद करना उपयुक्त है कि केन्द्र सरकार एनयूसी और इसकी सिफारिशों पर नजर डाले और ये देखे कि इनकी क्या गति हुई। इनमें से किन सिफारिशों को सही तरीके से लागू किया गया, किनको दरकिनार कर दिया गया और किनको खारिज कर दिया गया। क्या इनमें से कोई सिफारिश आज भी प्रासंगिक है? क्या इनमें भविष्य के लिए कोई सीख है ? इस मसले पर बड़ी तादाद में विश्लेषणात्मक साहित्य उपलब्ध है जिनमें रिपोर्ट पर मंथन किया गया है और इनकी कमियों को रेखांकित किया गया है। नयी नीति को अंतिम रूप देने के लिए इन मुद्दों पर विचार करना जरूरी है।

इसी तरह इसका भी मूल्यांकन करने की जरूरत है कि संविधान के 74वें संशोधन से अब तक क्या कुछ हासिल हुआ है। इस प्रसिद्ध संविधान संशोधन का उद्येश्य शहरी स्थानीय स्वायत्तता को अमली जामा पहनाना था और इसे जून 1993 में लागू किया गया था। इसे लागू हुए एक चौथाई शताब्दी से ज्यादा समय हो गया है। इस संशोधन के जरिये क्या लक्ष्य हासिल किया जाना था, कहां इसमें सफलता मिली और कहां इसमें कमी रह गयी इसकी यथोचित समीक्षा करना सही होगा।

इस अधिनियम के उद्येश्य और कारण संबंधी वक्तव्य में विस्तार से उन कारणों को स्पष्ट किया गया है जिनकी वजह से संविधान में इस संशोधन की नौबत आई। इसमें ये स्वीकार किया गया है कि शहरी स्थानीय निकाय कमजोर और अप्रभावी हो गये हैं। अनगिनत कारणों में से इनका खास तौर पर उल्लेख है:

  • नियमित चुनाव कराने में विफलता,
  • दूसरों के अधिकारों का निरंतर अतिक्रमण,
  • अधिकारों और कामकाज का अपर्याप्त वितरण।

अधिकारों के हनन और अन्य कमियों की वजह से शहरी स्थानीय निकायों को स्वशासन की प्रभावी और सजग लोकतांत्रिक इकाईयों के रूप में काम करने की इजाजत नहीं मिल पाई। यह अधिनियम अपने उद्येश्यों में स्पष्ट था कि अगर शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) का स्वशासन वाले संस्थानों के रूप में कायाकल्प किया जाना है तो इन कमियों को दूर करना होगा। उद्येश्य और कारण संबंधी वक्तव्य भी यही संकेत देते दिखते हैं कि अगर इसे सिर्फ राज्य विशेष के भरोसे छोड़ दिया जाये तो स्थानीय स्वशासन का लक्ष्य हासिल नहीं हो पायेगा। इसलिए अधिनियम ने यह जरूरी समझा कि “स्थानीय शहरी निकायों से संबंधित प्रावधानों को संविधान में शामिल किया जाये”

ये स्पष्ट है कि प्रस्तावित नयी राष्ट्रीय शहरी नीति एक प्रक्रिया की शुरूआत का प्रतीक बनेगी। राष्ट्रीय नीति के आलोक में राज्यों को अपनी नीतियां बनानी होंगी, अपने विधानों और नियमों पर नजर डालनी होगी और राष्ट्रीय और प्रांतीय नीति और नियमों के मुताबिक उनमें बदलाव करना होगा।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि राष्ट्रीय शहरी नीति यूएलबी के नि:शक्तिकरण और उनके कामकाजी और वित्तीय दिक्कतों के मौलिक मुद्दों को छुपाने का जोखिम नहीं उठा सकती। संविधान के 74 वें संशोधन पर राज्यों की प्रतिक्रियाओं के मद्देनजर यह एक दुरूह कार्य होगा। इन सवालों का जवाब नहीं तलाशा गया तो कोई भी नीति किसी भी हद तक कामयाब नहीं होगी। विश्लेषण का सार ये कि यूएलबी को बेहतर शहरीकरण मुहैया कराना ही होगा। चोटी पर हम चाहे कितनी भी मजबूती कायम कर लें लेकिन नि:शक्त नगरपालिकाएं चल नहीं पायेंगी अगर उनके हाथ और पांव भी बांध दिये जायें।


डा. रमानाथ झा ORF मुंबई के विशिष्ट फेलो हैं। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत अधिकारी हैं और इस समय मुंबई हैरिटेज कंजर्वेशन कमेटी के अध्यक्ष और मुंबई डेवलपमेंट प्लान 2034 के विशेष कार्य अधिकारी हैं।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.