Published on Feb 01, 2019 Updated 0 Hours ago

‘बेस्‍ट’ के सिद्धांत को दुनिया भर के कामयाब शहरों ने अपनाया है और ये भारत के शहरों की ट्रांसपोर्ट की समस्‍या का समाधान दे सकता है।

बस ट्रांसपोर्ट सिस्‍टम पर ध्‍यान

अक्‍टूबर 2017 में टाइम मैगज़ीन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे ज़्यादा भीड़-भाड़ वाले 6 शहरों में 20 करोड़ से ज़्यादा शहरी आबादी है। बढ़ते क्रम में देखे तो मेक्सिको के मेक्सिको सिटी की 21,157,000, चीन के बीजिंग की 21,240,000, ब्राज़ील के साओ पाउलो की 21,297,000, भारत के मुंबई की 21,357,000, चीन के शंघाई की 24,484,000, भारत के दिल्‍ली की 26,454,000 और जापान के टोक्‍यो की 38,140,000 आबादी है। दिलचस्‍प है कि मेक्सिको और ब्राज़ील दोनों भारत की तरह विकाशसील देश हैं और ये पर्याप्‍त फाइनेंस और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, इसके चलते सार्वजनिक बुनियादी ढांचे पर शहरी आबादी का दबाव बढ़ रहा है।

ये सारे विकसित और तेज़ी से विकसित हो रहे देश मास ट्रांजिट सिस्‍टम यानी सार्वजनिक परिवहन पर भरोसा करते हैं ताकि बड़ी तादाद में लोगों को उनकी ज़रूरत के हिसाब से सफलतापूर्वक एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके।

इन देशों में सार्वजनिक परिवहन का एक अहम अंग है बस। बसों की ये प्रणाली एक तरह से रीढ़ का काम करती है जो सार्वजनिक परिवहन की दूसरी प्रणालियों जैसे उपनगरीय ट्रेनों और मेट्रो रेल की पूरक होती हैं यानी कमी को पूरा करती हैं और आबादी के भार को बांटती भी है। मेक्सिको सिटी में 7 BRTS (बस रैपिड ट्रांजिट सिस्‍टम) लाइन हैं, जिसमें हर दिन औसतन 11 लाख 52 हज़ार 603 लोग सफ़र करत हैं, वहीं 12 मेट्रो लाइन में औसतन क़रीब 46 लाख 16 हज़ार 264 मुसाफ़ि‍र हर रोज़ सफ़र करते हैं।

साओ पाउलो में 320 किलोमीटर की ख़ास बस लेन है जिसे 108 किमी को कवर करने वाले मजबूत साइ‍किलिंग इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर का सहारा मिलता है, इससे 5 मेट्रो लाइन को भी मदद मिलती है।

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 31.2 फ़ीसदी (37.7 करोड़) आबादी शहरी इलाक़ों में रहती है। यूएन का अनुमान है कि 2030 तक ये आंकड़ा बढ़कर 40 फ़ीसदी (59 करोड़) और 2050 तक 58 फ़ीसदी (87.5 करोड़) हो जाएगा। सार्वजनिक परिवहन को लेकर शहरी केंद्रों में हुई स्‍टडी से कई अहम बातें पता चलती है, जिनका इस्‍तेमाल भारत के उभरते शहरों के लिए किया जा सकता है।

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़ि‍स (NSSO) के सेवाओं और टिकाऊ सामान के लिए घर ख़र्च के सालाना सर्वे में पता चला कि गांवों और शहरों दोनों जगह परिवहन के लिए लोग सबसे ज़्यादा बसों का ही इस्‍तेमाल करते हैं। गांवों में क़रीब 66% और शहरों में करीब 62% परिवार बस का इस्‍तेमाल करते हैं, इसके बाद कहीं आने-जाने के लिए ऑटो-रिक्‍शा का उपयोग किया जाता है, जो गांवों में 38% और शहरों में 47% परिवारों में इस्‍तेमाल होता है।

भारत में नई गाड़ि‍यों को खरीदने के आंकडे इससे उल्‍टे और चिंता पैदा करने वाले हैं। 2001 में रजिस्‍टर्ड वाहन 5.5 करोड़ थे जो 2012 में बढ़कर 15.9 करोड़ हो गए। दोपहियां वाहन 4 गुना हो गए हैं वहीं कार, जीप और टैक्‍सी में 0.2 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हो गया है। हांलाकि डराने वाली बात ये है कि इसी समय अवधि में बसों की संख्‍या में 0.34% गिरावट आई है। ये साफ दर्शाता है कि शहर और राज्‍य प्रशासन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्‍टम को बेहतर बनाने के लिए कम पैसे लगा रहे हैं।

तुलना करें तो दुनिया के बड़े शहरों में परिवहन के दूसरे ज़रियों, ख़ासकर निजी वाहनों की तुलना में बसों की संख्‍या में बड़ा इज़ाफ़ा किया गया है।

विकासशील शहरों में सार्वजनिक परिवहन (प्रति किलोमीटर वाहन) में 1995 से 2012 के बीच सालाना 3.9% का इज़ाफ़ा हुआ है। इसके साथ ही बीजिंग, जि‍नेवा और लंदन में 2001 से 2012 के बीच आबादी बढ़ने की तुलना में पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बढ़ने की दर ज़्यादा रही। ब्राज़ील में पिछले सालों की तुलना में 2017 में नई रजिस्‍टर्ड बसों की संख्‍या में बढ़ोत्‍तरी हुई।

दुनिया के इन बड़े शहरों में प्रशासन का ध्‍यान इस बात पर रहता है कि लोग एक जगह से दूसरी जगह जाएं न कि कारों की आवाजाही बढ़े। वहीं भारत में ट्रेंड इसके उल्‍टा है। दुनियाभर के शहरों में अच्‍छे पब्लिक ट्रांसपोर्ट और उसके मैनेजमेंट के 4 अहम सिद्धांत होते हैं।

ब्रांच यानी शाखाएं होना

परिवहन तंत्र के विकास के साथ दुनियाभर में ये समझा गया कि लोगों को लाने-ले जाने के ज़रियों की आपस में कोई होड़ नहीं है बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं। सार्वजनिक परिवहन की कामयाबी के लिए ज़रूरी है कि ज़्यादा से ज़्यादा रास्‍तों का बेहतर योजना बनाकर इस्‍तेमाल लिया जाए, इन रास्‍तों को इस तरह से डिज़ाइन किया जाए कि वो मौजूदा ट्रांसपोर्ट सिस्‍टम तक लोगों को पहुंचाएं और यात्रियों को बिना किसी दिक़्क़त के उनकी मंज़ि‍ल के पहुंचाया जा सके।

क़रीब एक दशक पहले NSSO ने दिल्‍ली के निचले इलाक़ों (फीडर रूट में पड़ने वाली कॉलोनियां) में रहने वाले लोगों से सीधे बात की ताकि 36 नए रूट में चलने वाली फीडर सर्विस को लेकर लोगों की उत्‍सुकता का पता लगाया जा सके जो मेट्रो तक लोगों को पहुंचातीं। सर्वे का मक़सद था कि मेट्रो का इस्‍तेमाल न करने वाले भी प्रस्‍तावित फीडर बसों के ज़रिए मेट्रो तक पहुंच सकें।

सर्वे से पता चला कि फीडर बस सर्विस की तगड़ी डिमांड है और बस हर 7 मिनट में मिले और लोग बस स्‍टॉप तक पैदल पहुचने में औसतन आधा किलोमीटर तक का सफर तय करने के लिए भी तैयार हैं। सर्वे के नतीजे के मुताबिक जवाब देने वाले 72 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि वो फीडर बस चाहते हैं। इससे साफ़ तौर पर शाखाओं वाली फीडर रोड की अहमियत स्‍थापित हुई।

बस के लिए अलग से लेन हो

लगभग दुनिया के सभी बड़े शहरों में बस सिस्‍टम के लिए अलग से लेन है, जि‍समें वो बिना बाधा के चलती हैं।

भारत ने दुनिया से प्राइऑरिटी बैंकिंग, प्राइऑरिटी चेक इन्‍स और चेक आउट को तो अपना लिया लेकिन अभी भी सार्वजनिक परिवहन में प्राइऑरिटी लेन बनाने के लिए लंबा रास्‍ता तय करना है यानी रास्‍ते में एक ऐसी लेन हो, जिनमें सिर्फ़ सावर्जनिक परिवहन वाले वाहन आ-जा सकें।

मुंबई के तड़क-भड़क वाले नए कमर्शियल हब बांद्रा-कुर्ला कॉम्‍पलेक्‍स में बस के लिए एक अलग लेन बनाकर एक प्रयोग किया गया। जि‍सके चलते पीक आवर (वो वक़्त जब सबसे ज़्यादा भीड़ रहती है) में सफ़र के लिए लगने वाला समय आधे से भी कम हो गया। पहले जहां 3.6 कि‍लोमीटर की दूरी तय करने में 37 मिनट लगते थे वहीं बस लेन बनने के बाद बस 15 मिनट लगते हैं। हैरानी की बात है कि इस प्रयोग की कामयाबी के बावजूद इसे दूसरे इलाक़ों में नहीं लागू किया गया।

बसों के लिए इस तरह की ख़ास लेन की वजह से वो सड़क के उस हिस्‍से से हट जाती है जहां निजी गाड़ि‍यां चलती हैं, इससे ये फ़ायदा भी होता है कि पीक आवर में गाडि़यों के आगे बढ़ने की गति‍ पहले की तुलना में काफ़ी बेहतर हो जाती है वहीं कार्बन उत्‍सर्जन भी कम होता है।

अलग से बस लेन सार्वजनिक परिवहन के उस नियम पर भी खरी उतरती हैं, जिसके तहत वाहनों की आवाजाही की बजाय लोगों की आवाजाही पर ज़ोर होना चाहिए।

सरकार का समर्थन

सार्वजनिक परिवहन सेवा जनता के कल्‍याण के लिए है। किसी भी ग्‍लोबल शहर में इस तरह की सेवाएं पैसा कमाने का ज़रिया नहीं हैं, चाहे उनका संचालन सरकार करती हो या फि‍र सरकारी की कोई एजेंसी। हांलाकि बसों ने सरकार के कामकाज और लोक कल्‍याण के काम को अच्‍छी तरह पूरा किया है, वहीं सरकारें सब्सिडी देने के मामले में उदार भी रही हैं। राज्‍य सरकारें या तो खुद या फि‍र पीपीपी मॉडल का इस्‍तेमाल कर एसी और ज़्यादा आरामदायक सुविधाओं के नाम पर पैसा तो कमा सकती हैं लेकिन सस्‍ते और रियायती किराये की अपनी प्राथमिक ज़ि‍म्‍मेदारी से पीछे नहीं हट सकतीं।

तकनीक का इस्‍तेमाल

100 से ज़्यादा शहर को स्‍मार्ट सिटी बनाया जा रहा है । 500 और शहरों को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बि‍हारी वाजपेयी के नाम से शुरू की गयी अमृत योजना के तहत कायाकल्‍प किया जाना है। ऐसे वक़्त में सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्र में तकनीक का इस्‍तेमाल बेहद ज़रूरी हो गया है। ज़्यादातर ग्‍लोबल शहरों में लाइव ट्रैकिंग के लिए GPRS, यूज़र फ्रेंडली ऐप का इस्‍तेमाल हो रहा है, कई जगह तो योजना, शेड्यूल बनाने और डिपो प्रबंधन के लिए आर्टिफि‍शियल इंटेलीजेंस का इस्‍तेमाल हो रहा है। इसके अलावा स्‍मार्ट टिकट को भी अपनाया गया है।

सार्वजनिक परिवहन में तकनीक के प्रयोग से समय पर अचूक जानकारी मिलती रहती है, जिससे इसकी विश्‍वसनीयता बढ़ जाती है। सफ़र करने वालों को पता होना चाहिए कि उनकी बस कब आने वाली है, ताकि वो उसके मुताबिक अपनी यात्रा को प्‍लान कर सकें। मुंबई में ‘एम-इंडिकेटर’ नाम का एक ऐप है जिसे 10 लाख से ज़्यादा लोग इस्‍तेमाल करते हैं। इस ऐप से पब्लिक ट्रांसपोर्ट के शेड्यूल की जानकारी मिल जाती है। हांलाकि देर होने या रद्द होने की स्थिति में ये ऐप रियल टाइम ट्रैकिंग और अपडेट नहीं दिखाता है लेकिन अगर ऐसा हो जाए तो यात्रियों का भरोसा और बढ़ जाएगा। एक स्‍मार्ट सिटी पुराने ढर्रे पर नहीं चल सकती, ज़रूरत है मौजूदा तकनीक को अपनाया जाए।

अक्‍सर ये दलील दी जाती है कि भारतीय शहरों में यात्रा करने वालों का अनुपात दूसरे शहरों की तुलना में एक जैसा नहीं है इसलिए हम उनका मॉडल नहीं अपना सकते। अगर हम भारतीय शहरों की तुलना नार्वे, स्‍वीडन और डेनमार्क से करें तो ये बात सही साबित होती है। हांलाकि दूसरे कई शहरी केंद्र हैं जिनके सामने भारत जैसी चुनौतियां थीं, वो उनसे पार पाने में कामयाब रहे और उन्‍होंने सफलता की कहानियां लिखीं। 20 मिलियन से ज़्यादा आबादी वाले शहरी केंद्र, भारत के शहरों के लिए बेहतर केस स्‍टडी साबित हो सकते हैं। दिलचस्‍प बात है कि ग्‍लोबल शहर प्रभावी सार्वजनिक परिवहन के लिए जिन 4 नियमों को अपनाते हैं उनका एक्रोनिम BEST (ब्रांच, एक्‍सक्‍लूसिविटी, स्‍टेट सपोर्ट और टेक्‍नोलॉजी) होता है और मुंबई की बस सेवा का नाम भी ‘बेस्‍ट’ है। हम उनसे सीख सकते हैं और हमारे पास जो भी है, उससे बेस्‍ट का निर्माण कर सकते हैं।


परेश रावल कुछ समय पहले तक ORF मुंबई में सलाहकार थे, उन्‍होंने ख़ासतौर पर सार्वजनिक परिवहन के लिए रिसर्च में मदद की। वो फि‍लहाल एक स्‍वतंत्र उद्यमी और मोटिवेशनल स्‍पीकर (प्रेरक वक्‍ता) हैं।

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