Author : Ian Kemish

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 15, 2023 Updated 0 Hours ago

इस क्षेत्र के नीति निर्माताओं ने भारत की बेहतर राष्ट्रीय पर्यावरण योजना(अपडेटेड नेशनल क्लाइमेट प्लान) को रेखांकित किया होगा जिसमें 2070 तक नेट जीरो लक्ष्य और 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी लाना शामिल है.

इलाक़ा एक नज़रिया दो: प्रशांत क्षेत्र जलवायु परिवर्तन और सुरक्षा!

यह लेख रायसीना फाइल्स 2023 जर्नल का एक अध्याय है.


प्रशांत महासागर के बारे में दुनिया भर में नज़रिया (नैरेटिव) काफी हद तक भू-रणनीतिक प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित है जो इस क्षेत्र में लंबे समय से जारी है. चीन प्रशांत महासागर के द्वीपीय देशों के साथ नए सुरक्षा सौदों की वकालत कर रहा है, जिससे ऑस्ट्रेलिया और उसके लोकतांत्रिक सहयोगियों के साथ चीन का गहरा राजनयिक जुड़ाव बढ़ रहा है. रणनीतिकारों को चिंता है कि बीजिंग के साथ अधिक क्षेत्रीय सुरक्षा संबंध के साथ टारगेट चीनी राजनीतिक जुड़ाव और रियायती वित्त समय के साथ चीन को इस क्षेत्र में एक नौसैनिक आधार स्थापित करने में मदद कर सकता है जिससे वह अपने ब्लू वाटर नेवी को वैश्विक विस्तार दे सकता है.

यह दो दृष्टिकोण परस्पर विशिष्ट नहीं है. यह स्वीकार करने के लिए कि जलवायु परिवर्तन प्रशांत महासागरीय द्वीप देशों (पीआईसी) को एक अस्तित्व से जुड़ी चुनौती के साथ सामने लाता है, ऐसे में चीन की समस्या को अनदेखा करने की आवश्यकता नहीं है.

प्रशांत महासागर के निवासी ख़ुद मौलिक रूप से अपनी सुरक्षा को अलग चश्मे से देखते है और इन्होंने यह साफ कर दिया है कि वे जलवायु परिवर्तन को अपने सबसे गंभीर सुरक्षा जोख़िम के रूप में देखते है. वे अपने बाहरी भागीदारों के बीच सामरिक प्रतिद्वंद्विता को लेकर बेहद अधीर है और इस क्षेत्र में अधिक सैन्यीकरण के संकेतों को नुक़सानदेह मानते है, यहां तक कि इसे लेकर वो निराशा व्यक्त करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय जलवायु परिवर्तन पर जितना ध्यान देना चाहिए उससे कम ध्यान दे रहा है. फिजी के रक्षा मंत्री ने 2022 में जैसा कहा था:

मशीन गन, फाइटर जेट, ग्रे शिप और ग्रीन बटालियन हमारी प्राथमिक सामरिक चिंता नहीं है. लहरें हमारे दरवाज़े पर टकरा रही है, हवाएं हमारे घरों को तबाह कर रही हैं, इस दुश्मन द्वारा हम पर कई मोर्चों से हमला किया जा रहा है. [[1]]

अपने 2018 पैसिफिक आइलैंड्स फोरम (पीआईएफ) सुरक्षा घोषणा में  इस क्षेत्र के नेताओं ने यह स्पष्ट किया कि उन्होंने जलवायु परिवर्तन को "प्रशांत महासागर के लोगों की आजीविका, सुरक्षा और बेहतरी में सबसे बड़ा रोड़ा" माना है. 'बोए घोषणा' में यह सेंटीमेंट अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रीय बयानों और दस्तावेज़ों के मूल में निहित है. यह ब्लू पैसिफिक कॉन्टिनेंट [[2]] के लिए पीआईएफ की 2050 की रणनीति का केंद्र है जो अधिक सुरक्षित, रेजिलिएंट (लचीले) और समृद्ध क्षेत्रीय भविष्य के मार्ग पर प्रशांत महासागर के लोगों की सोच को निर्धारित करता है.

यह दो दृष्टिकोण परस्पर विशिष्ट नहीं है. यह स्वीकार करने के लिए कि जलवायु परिवर्तन प्रशांत महासागरीय द्वीप देशों (पीआईसी) को एक अस्तित्व से जुड़ी चुनौती के साथ सामने लाता है, ऐसे में चीन की समस्या को अनदेखा करने की आवश्यकता नहीं है. कई प्रशांत महासागर द्वीपीय देशों के लोग अन्य भौगोलिक क्षेत्रों से चीनी प्रभाव के विस्तार के बारे में चिंतित नज़र आते है, क्योंकि इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के चलते मूल्यों की एक प्रतियोगिता जैसी जारी है. कुछ देशों में, बीजिंग की आक्रामक सार्वजनिक सूचना गतिविधियां मीडिया की स्वतंत्रता को कमज़ोर कर रहा है. [[3]] बीजिंग और क्षेत्र के कुछ नेताओं के बीच संबंधों में पारदर्शिता की भी भारी कमी है [[4]] और सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि चीनी प्रशिक्षण गतिविधियों को लेकर चिंतित है. उन्हें डर है कि ऐसी गतिविधियां इस इलाक़े में सेना और पुलिस बलो का जमावड़ा लोगों के बोलने की स्वतंत्रता और प्रदर्शन के अधिकार का सम्मान नहीं करेंगे.[[5]]

असल में जो लोग इस क्षेत्र की गतिविधियों के साथ सफलतापूर्वक संलग्न होने की उम्मीद करते है, उन्हें प्रशांत द्वीपसमूह के ओवरराइडिंग परिप्रेक्ष्य की स्पष्ट समझ होनी चाहिए - मतलब, जलवायु परिवर्तन एक अस्तित्वगत ख़तरा है लिहाज़ा यही यहां के लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता है.

प्रशांत महासागर क्षेत्र की कमज़ोरी

जलवायु परिवर्तन के लिए प्रशांत महासागर क्षेत्र की कमज़ोरियों पर मौज़ूदा चर्चा इस चुनौती को कम करके आंकता है और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी के निचले इलाक़े में मौज़ूद देशों पर प्रभाव पर यह केंद्रित है. वास्तव में  प्रशांत महासागरीय इलाक़े के नेताओं ने ख़ुद वैश्विक मंचों पर बार-बार इस जोख़िम के बारे में बताया है. इन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सख़्त क्लाइमेट एक्शन लेने के लिए मनाने का काम किया है. 2021 यूएन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस (कॉप 26) से पहले तुवालु के विदेश मंत्री का भाषण,[[6]] जिसे उन्होंने तब दिया जब वे समुद्र के पानी में घुटने भर तक डूबे हुए थे, इस तरह की बात दुनिया तक बताने का एक प्रभावी तरीक़ा साबित हुआ था.

डेलॉइट का अनुमान है कि  जलवायु परिवर्तन के कारण, व्यापक भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक विकास का रास्ता 2050 और 2070 के बीच औसतन तीन प्रतिशत तक धीमा हो सकता है, जो इस सदी के पहले 20 वर्षों में वार्षिक वृद्धि से लगभग एक पॉइंट कम हो सकता है. 

पर्यावरण वैज्ञानिक सहमत हैं कि समुद्र के स्तर में बढोतरी ग्लोबल वार्मिंग का एक गंभीर परिणाम है और एटोल देशों, जो कि रिंग के आकार के रीफ, द्वीप या फिर ज्वालामुखी से निर्मित होते है, उनके लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती भी है, भले ही इस बढ़ोतरी की संभावित सीमा का अनुमान तमाम त्रुटियों के अधीन ही क्यों ना हो. [[7]] हालांकि इससे संबंधित ख़तरा ज़्यादा जटिल है और क्षेत्र के सभी देशों तक इसका विस्तार है. जबकि किरिबाती, तुवालु और मार्शल द्वीप समूह के चट्टानी द्वीप देश दुनिया में सबसे अधिक जलवायु-संवेदनशील देशों में से हैं, जबकि दूसरे क्षेत्र जैसे वानुअतु, टोंगा, सोलोमन द्वीप और पीएनजी सबसे अधिक आपदा-प्रभावित है. [[8]] इस पूरे क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन ने बाढ़, तूफान, सूखा और जैव विविधता जैसी घटनाओं के नुकसान को ज़्यादा, लगातार और तीव्र बना दिया है. खारे पानी का घुसपैठ भूजल संसाधनों को इस क्षेत्र में लगातार कम कर रहा है जिससे उपलब्ध कृषि भूमि में कमी आ रही है और पानी का बढ़ा हुआ तापमान समुद्री प्रवाल को नुक़सान पहुंचा रहा है और इसलिए मछली के स्टॉक में भारी गिरावट आ रही है. [[9]] ग्लोबल वार्मिंग ने उष्णकटिबंधीय टूना मछली के स्टॉक का द्वीपीय देश के इकोनॉमिक जोन से समुद्री क्षेत्र में स्थानांतरित होने की संभावना बढ़ा दी है, [[10]] जिससे लोगों के राजस्व और खाद्य सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण स्रोत तेजी से ख़त्म हो रहा है.

इस क्षेत्र की आर्थिक संभावनाओं के लिए निहितार्थ वास्तव में बेहद अहम हैं. डेलॉइट का अनुमान है कि  जलवायु परिवर्तन के कारण, व्यापक भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक विकास का रास्ता 2050 और 2070 के बीच औसतन तीन प्रतिशत तक धीमा हो सकता है, जो इस सदी के पहले 20 वर्षों में वार्षिक वृद्धि से लगभग एक पॉइंट कम हो सकता है. [[11]] पीआईसी अपने कृषि और मछली पालन क्षेत्रों की केंद्रीय भूमिका को देखते हुए विशेष रूप से कमज़ोर है. कोरोना महामारी का यहां के लोगों की आर्थिक प्रगति पर प्रभाव पड़ा है. यहां के पर्यटन उद्योगों पर विशेष रूप से इसका भयंकर प्रभाव पड़ा है. यह इस क्षेत्र के लिए कई तरह के संकट की ओर इशारा करता है.

जैसा कि ऑस्ट्रेलिया की जलवायु परिषद(क्लाइमेट काउंसिल) इसकी व्याख्या करती है कि प्रशांत महासागर क्षेत्र को केवल "पोस्टर चाइल्ड" के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए [[12]] और ना ही जलवायु परिवर्तन के अस्तित्व के ख़तरे के लिए ; ना ही पीआईसी को बिना एजेंसी के केवल निष्क्रिय साझेदार के रूप में माना जाना चाहिए. क्योंकि वर्षों से  प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के देशों ने, दूसरे छोटे द्वीपों ने विकासशील राष्ट्रों के साथ काम करते हुए  ग्लोबल वार्मिंग को वैश्विक चर्चा के केंद्र में लाने के लिए अहम योगदान दिया है. हाल ही में, 2022 के अंत में, वानुअतु ने संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव को प्रस्तुत करने का मार्ग प्रशस्त किया, जिसमें अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से एक एडवाइजरी ओपिनियन (बतौर सलाहकार राय) मांगी गई थी ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि भविष्य की पीढ़ियों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल परिणामों से बचाने के लिए सरकारों की क्या ज़िम्मेदारियां है. [[13]] आईसीजे से इस तरह की सलाहकार राय (एडवाइजरी ओपिनियन) असल में अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में कमज़ोर देशों की स्थिति को मज़बूत कर सकती है और जलवायु परिवर्तन को मानवाधिकार के मुद्दे के रूप में परिभाषित करने में मदद कर सकती है. [[14]]

क्षेत्रीय सुरक्षा का मुद्दा और जलवायु परिवर्तन

मई 2022 में ऑस्ट्रेलिया में सरकार बदलने के बाद से, प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीस ने स्वीकार किया है कि प्रशांत द्वीपसमूह के देश लंबे समय से असल में क्या रेखांकित करने की कोशिश कर रहे है : यही कि जलवायु परिवर्तन को ऑस्ट्रेलिया और उसके प्रशांत महासागरीय इलाक़े के पड़ोसियों के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए. [[15]] सच में, कई अन्य सरकारों ने कुछ समय के लिए स्वीकार किया है कि ग्लोबल वार्मिंग को एक सुरक्षा प्रिज्म के माध्यम से देखे जाने की ज़रूरत है. हालांकि तथ्य यह है कि अल्बनीज ने इस तरह के लिंक को स्पष्ट रूप से बताना ज़रूरी समझा और ऐसा करने के लिए उनके पूर्ववर्ती पीएम स्कॉट मॉरिसन की अनिच्छा को काफी हद तक उजागर किया. मॉरिसन सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा को एक प्राथमिकता के रूप में देखा लेकिन जलवायु कार्रवाई (क्लाइमेट एक्शन) के लिए बहुत ही कम उत्साह दिखाया.

प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में अभी तक कोई जलवायु युद्ध (क्लाइमेट वॉर) नहीं हुआ है, संघर्ष विशेषज्ञ इस जोख़िम की ओर इशारा करते हैं कि जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र के नाज़ुक हिस्सों में मौज़ूदा तनाव को बढ़ा सकता है.

जलवायु परिवर्तन और सुरक्षा के बीच संबंध की चर्चा करने वाले दस्तावेज़ों की कोई कमी नहीं है. उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलियाई डिफेंस फोर्स और ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में मानद प्रोफेसर क्रिस बैरी, जलवायु परिवर्तन को एक ख़तरे के गुणक के रूप में वर्णित करते हैं जो सामाजिक नाजुकता को बढ़ाता है और पहले से ही कमज़ोर संस्थानों को और प्रभावित करता है, शक्ति संतुलन को बदल देता है, यहां तक कि शांति निर्माण और रिकवरी की कोशिश को भी अस्थिर करता है. [[16]] उदाहरण के लिए, कुछ सुरक्षा विश्लेषक इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि सीरियाई गृहयुद्ध, जो 2011 में एक आम विद्रोह के साथ शुरू हुआ, देश में दर्ज़ सबसे ख़राब सूखे के बाद हुआ था. [[17]] जबकि जनता के असंतोष के दूसरे कारण थे - जिसमें अवाम के विद्रोह के प्रति शासन की क्रूर नीति और इस्लामिक स्टेट के उद्भव में चरमपंथी विचारधारा की भूमिका शामिल थी - यहां तक कि खाद्य असुरक्षा और परिणामस्वरूप तेजी से शहरी झुकाव ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

कुछ पर्यवेक्षकों का तर्क है कि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि जलवायु परिवर्तन प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में संघर्ष का प्रत्यक्ष कारण रहे हैं, [[18]] लेकिन वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि इससे कम से कम मौज़ूदा संघर्ष पैदा करने वालों के साथ बातचीत की शुरुआत की जा सकती है. प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में अभी तक कोई जलवायु युद्ध (क्लाइमेट वॉर) नहीं हुआ है, संघर्ष विशेषज्ञ इस जोख़िम की ओर इशारा करते हैं कि जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र के नाज़ुक हिस्सों में मौज़ूदा तनाव को बढ़ा सकता है. [[19]] इसका एक उदाहरण पापुआ न्यू गिनी का बोगेनविले का स्वायत्त क्षेत्र है, जहां संघर्ष के बाद का समाज अभी भी 1990 के दशक के अलगाववादी युद्ध से वापसी करने के लिए संघर्ष कर रहा है. दूसरा उदाहरण सोलोमन द्वीप समूह का अति पिछड़ा मैलाटा प्रांत है जो 2000 के दशक के आरंभिक गृह युद्ध में एक फ्लैशपॉइंट था लेकिन जिसके कारण ऑस्ट्रेलियाई नेतृत्व वाले क्षेत्रीय स्थिरीकरण मिशन(रीजनल स्टेबलाइजेशन मिशन) को अंजाम दिया गया था और जहां पर्यावरणीय स्थिति में गिरावट के कारण कृषि योग्य भूमि में भारी कमी आई थी. [[20]]

यह स्थानीय, हर दिन, सामुदायिक स्तर के जीवन में निहित है और प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के सुरक्षा निहितार्थ सबसे अधिक स्पष्ट है. पापुआ न्यू गिनी में, पारिवारिक समूहों और समुदायों के बीच, या पड़ोसी जनजातीय समूहों के बीच तनाव, ऐसे तरीक़ों से संघर्ष पैदा कर सकता है जो अंतरराष्ट्रीय रणनीतिकारों का ध्यान आकर्षित ना करे लेकिन फिर भी यह बड़े सामाजिक नुकसान का कारण बन सकता है. पीएनजी की राष्ट्रीय राजधानी और अन्य शहरी केंद्रों के झुग्गी बस्तियों में, या खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे पारंपरिक गांवों में, संघर्ष,  परिवारों और जेंडर आधारित हिंसा में, या दुर्लभ संसाधनों पर आदिवासियों के बीच लड़ाई के तौर पर प्रकट हो सकता है. [[21]] इस तरह के 'निचले स्तर' के संघर्ष की ओर उन लोगों का ध्यान नहीं जाता है जो व्यापक रणनीतिक कैनवास पर काम करने के आदी हो चुके है.

पैसिफिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन में भागीदारी

प्रशांत महासागरीय देशों द्वारा वास्तव में एक मूल्यवान साझेदार के तौर पर ख़ुद की पहचान बनाने के लिए ग्लोबल वार्मिंग के बारे में इस क्षेत्र की चिंताओं के लिए वचन और कर्म दोनों से मज़बूत समर्थन दिखाने की आवश्यकता है. साझेदार देश घरेलू स्तर पर उत्सर्जन में कटौती करके आने वाले वर्षों में अधिक वैश्विक कटौती को सक्षम करने के लिए काम करके और क्षेत्रीय प्रभावों से जूझने के लिए संघर्ष करने वाले पीआईसी का समर्थन करके ऐसा कर सकते है. इस क्षेत्र की पहल को यहां के देश सैन्य साझेदारी और समर्थन से अधिक महत्वपूर्ण मानेंगे. लेकिन प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के साथ इस तरह का जुड़ाव प्राथमिकता क्यों होनी चाहिए?

जलवायु परिवर्तन के साथ प्रशांत महासागरीय क्षेत्र का अनुभव संभवतः यह बता पाएगा कि शेष ग्रहों के लिए भविष्य में क्या है. इससे हम सभी को इस क्षेत्र में मौलिक रुचि दिखानी होगी. दुनिया के सबसे बड़े महासागर में जैव विविधता का संरक्षण अपने आप में एक सार्थक कारण के रूप में खड़ा किया जाना चाहिए.

इस तरह की संलग्नता के लिए दिए जाने वाले तर्कों को सामरिक दृष्टि से भी आसानी से व्यक्त किया जा सकता है. ऑस्ट्रेलिया के लिए  इस क्षेत्र में उसकी प्राथमिक रणनीतिक चिंताएं हैं, जो सप्लाई लाइन की सुरक्षा करने की अनिवार्यता को देखते हुए प्रशांत महासागर में फैला हुआ है और ऑस्ट्रेलिया को उसके सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी, संयुक्त राज्य अमेरिका के क़रीब लाता है. दक्षिण-पश्चिम प्रशांत महासागरीय क्षेत्र भी राजनीतिक स्थिरता, अवैध प्रवास और अंतर्राष्ट्रीय अपराध से जुड़े जोख़िम पेश कर सकता है, जिसके लिए ऑस्ट्रेलिया जैसे तटीय देश के लिए हर दिन सावधानीपूर्वक प्रबंधन की ज़रूरत है. कैनबरा ने प्राकृतिक आपदाओं या नागरिक संघर्षों से घिरे होने पर पीआईसी का समर्थन करने की ज़िम्मेदारी को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार किया है.

भारत सहित दूसरे दूरदराज़ हिंद-प्रशांत शक्तियों के लिए, प्रशांत महासागर को संलग्न करने के तर्क कम स्पष्ट और तत्काल हो सकते हैं लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट है. इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधि वैश्विक सामरिक संतुलन में महत्वपूर्ण बदलावों की ओर इशारा करती है. जैसा कि इस लेख में पहले तर्क दिया गया है, [[22]] लोकतांत्रिक शक्तियां लोकतांत्रिक 'मानक' को बनाए रखने और क्षेत्र को दो वैल्यू सिस्टम के बीच कठिन संघर्ष को सिर्फ ऑस्ट्रेलिया के भरोसे प्रशांत महासागरीय क्षेत्र को नहीं छोड़ सकती है.

अपने नए और प्रगतिशील जलवायु परिवर्तन रुख़ के चलते मौज़ूदा ऑस्ट्रेलियाई सरकार प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के साथ व्यापक अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव को बढ़ाने में अपने पूर्ववर्ती सरकारों के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है. मौज़ूदा सरकार ने 2030 तक समग्र ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 43 प्रतिशत की कमी का वादा किया है और 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है. जबकि कुछ अन्य विकसित देश और भी अधिक महत्वाकांक्षी जलवायु उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ रहे है लेकिन यह पिछले ऑस्ट्रेलियाई सरकार की तुलना में ज़्यादा बेहतर है और कैनबरा को प्रशांत महासागरीय क्षेत्र को लेकर यह बताने में बेहतर स्थिति में है कि ऑस्ट्रेलिया जलवायु परिवर्तन को लेकर कितना गंभीर है. इस क्षेत्र का दौरा करने वाले ऑस्ट्रेलियाई मंत्रियों ने इस मुद्दे पर अपनी एकजुटता पर ज़ोर दिया है  और ऑस्ट्रेलिया ने शर्म-अल-शेख में कॉप 27 के मौक़े को अपने क्षेत्र में यूएन क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन पार्टीज जैसे सम्मेलन की मेज़बानी करने के लिए पैरवी करने के लिए किया. इसकी प्रतीकात्मक अहमियत है, भले ही ऑस्ट्रेलिया के जीवाश्म ऊर्जा(फॉसिल फ्यूल) के इस्तेमाल को छोड़ने के संकल्प के बारे में इस क्षेत्र में कुछ संदेह अभी भी बना हुआ है. [[23]]

यह जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित डेवलपमेंट सपोर्ट के क्षेत्रीय कार्यक्रम द्वारा समर्थित है. ऑस्ट्रेलिया हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विकासशील देशों को 2020-25 में जलवायु वित्त में 2 बिलियन डॉलर प्रदान कर रहा है, जिसमें से कम से कम 700 मिलियन डॉलर प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में, यहां की कमज़ोरियों को देखते हुए ख़र्च किया जा रहा है. अपने विकास कार्यक्रमों के माध्यम से, ऑस्ट्रेलिया खाद्य असुरक्षा से प्रभावित लोगों को प्रत्यक्ष मानवीय सहायता प्रदान कर रहा है और जैव विविधता की सुरक्षा करने और जलवायु परिवर्तन के प्रति सामुदायिक लचीलापन(कम्युनिटी रेजिलियेंस) बढ़ाने पर काम कर रहा है.

जलवायु परिवर्तन के लिए क्षेत्रीय प्रतिक्रियाओं का समर्थन ऑस्ट्रेलिया के लिए कुछ कैपेसिटी चैलेंज (क्षमता चुनौतियों) की ओर इशारा करता है. ऑस्ट्रेलियाई डिफेंस फोर्स (एडीएफ) ने स्वीकार किया है कि इस क्षेत्र में जलवायु-प्रेरित प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते दोहराव के साथ संघर्ष के जोख़िम, ऑस्ट्रेलियाई सैन्य क्षमता और तैनाती के ख़तरे को बढ़ा रही है. [[24]] 2023 के पहले सप्ताह में ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में व्यापक बाढ़ भी इस बात की याद दिलाता है कि एडीएफ और अन्य आपातकालीन प्रतिक्रिया घरेलू स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रबंधन को लेकर ज़्यादा ध्यान आकृष्ट कर सकता है.

[pullquote]भारत सहित दूसरे दूरदराज़ हिंद-प्रशांत शक्तियों के लिए, प्रशांत महासागर को संलग्न करने के तर्क कम स्पष्ट और तत्काल हो सकते हैं लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट है. इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधि वैश्विक सामरिक संतुलन में महत्वपूर्ण बदलावों की ओर इशारा करती है. जैसा कि इस लेख में पहले तर्क दिया गया है[/pullquote]

ऑस्ट्रेलिया को यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि समय के साथ जलवायु परिवर्तन उसके पड़ोस में जनसंख्या विस्थापन का कारण बन सकता है. बड़े पैमाने पर पलायन, आख़िरकार जलवायु परिवर्तन के सबसे महत्वपूर्ण प्रभावों में से एक माना जाता है. यह केवल सिद्धांत नहीं है; यह अनुमान लगाया गया है कि 2008 के बाद से हर साल 24 मिलियन लोगों को जलवायु बदलावों के प्रभाव के चलते विस्थापित होना पड़ा है. [[25]] जबकि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले जनसंख्या मूवमेंट का आकार ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण पूर्व एशियाई पड़ोस में संभवतः अधिक महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि प्रशांत महासागरीय क्षेत्र की कम्युनिटी अपेक्षाकृत छोटी है लेकिन जब प्रशांत महासागरीय क्षेत्र से क्लाइमेट रिफ्यूजी की बात आती है तो ऑस्ट्रेलिया को ज़्यादा ज़िम्मेदारी उठानी पड़ सकती है.

अन्य देशों को जलवायु-प्रेरित जनसंख्या विस्थापन का ज़्यादा अनुभव है. भारत इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है. युनाइटेड नेशन्स हाई कमीशन फॉर रिफ्यूजी (यूएनएचआरसी), के अनुसार 2021 में जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के कारण पचास लाख (पांच मिलियन) भारतीय विस्थापित हुए थे. [[26]]  भारत ख़ुद व्यापक रूप से ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव झेल रहा है जहां 80 प्रतिशत से अधिक आबादी उन क्षेत्रों में रहती है जो संभावित रूप से एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स (चरम मौसम की घटनाओं) की ज़द में है. [[27]] भारत ने कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में भी बहुत कुछ सीखा है. यह सब प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के साथ इन्फॉर्मड और सहानुभूतिपूर्ण साझेदारी के लिए प्रेरित करता है. इस क्षेत्र के साथ जलवायु परिवर्तन की साझेदारी पर विचार करते हुए, भारत अपने लंबी तटीय इलाक़े और अपने ख़ुद के 1,300 छोटे द्वीपों में ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों का सामना करने के अपने अनुभव पर विचार कर सकता है.

कई प्रमुख लोकतांत्रिक राष्ट्रों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने प्रशांत महासागरीय क्षेत्र को और अधिक निकटता से जोड़ने में रुचि दिखाई है. जापान, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका ने हाल के दिनों में इस आशय से जुड़ी सभी नीतिगत पहलों की घोषणा की है. फ़्रांस इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति बना हुआ है जो इस क्षेत्र में तीन इलाक़ों की ज़िम्मेदारी संभाले है और जिसका इस क्षेत्र में भारी मदद देना जारी है और सैन्य उपस्थिति भी है. [[28]]  इन सभी इकाइयों में से प्रत्येक का इस क्षेत्र के लिए उभरते 'पॉली क्राइसिस' को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान है, जो महामारी के प्रभावों और विस्तारवादी चीन के संभावित नकारात्मक  प्रभावों के साथ गंभीर जलवायु ख़तरे को भी बढ़ाता है. भारत अपने प्रभावशाली डेवलपमेंट नैरेटिव, अहम ताक़त की स्थिति और इस क्षेत्र के लिए सांस्कृतिक संबंधों के साथ भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

पीआईसी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध देश के रूप में भारत की साख को महत्व देता है. विकास को लेकर भारत की कोशिशों को अलग स्थान देते हुए उनकी अपेक्षाएं भी भारत के लिए स्वाभाविक रूप से ऑस्ट्रेलिया से अलग होंगी. इस क्षेत्र के नीति निर्माताओं ने भारत की बेहतर राष्ट्रीय पर्यावरण योजना(अपडेटेड नेशनल क्लाइमेट प्लान) को रेखांकित किया होगा जिसमें 2070 तक नेट जीरो लक्ष्य और 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी लाना शामिल है. ऑस्ट्रेलिया को लेकर कुछ लोगों का तर्क होगा कि ये लक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं लेकिन प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के विकासशील देशों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि भारत ने भी यह स्वीकार किया है कि पर्यावरण बदलाव को लेकर एक्शन मोड में आना उसकी भी ज़िम्मेदारी है.

इस क्षेत्र के नीति निर्माताओं ने भारत की बेहतर राष्ट्रीय पर्यावरण योजना(अपडेटेड नेशनल क्लाइमेट प्लान) को रेखांकित किया होगा जिसमें 2070 तक नेट जीरो लक्ष्य और 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी लाना शामिल है.

भारत पहले से ही कृषि, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में पीआईसी के लिए डेवलपमेंट सपोर्ट (विकास सहायता)  मुहैया करा रहा है. साउथ पैसिफिक यूनिवर्सिटी के रामेंद्र प्रसाद ने जलवायु परिवर्तन क्षेत्र में इस सहयोग को बढ़ाने के लिए एक उपयोगी रोडमैप का प्रस्ताव दिया है. [[29]] इसमें रिन्युएबल एनर्जी और टिकाऊ विकास रणनीतियों का अनुसरण करते हुए जलवायु परिवर्तन के लिए रेजिलियेंस (लचीलेपन) को बढ़ाने में प्रशांत महासागर क्षेत्र के देशों को समग्र रणनीति बनाने में मदद करने के लिए भारत के तकनीक़ी और नीतिगत विकास के अनुभव का लाभ उठाना शामिल है. रामेंद्र प्रसाद भारत को क्लाइमेट चेंज मिटिगेशन (जलवायु परिवर्तन शमन), रेजिलियेंस (लचीलापन) और अनुकूलन के समर्थन में शामिल होने की वकालत करते हैं - यह देखते हुए कि चीन ने इस क्षेत्र में युद्धाभ्यास करना शुरू कर दिया है.

भारत में स्थानीय स्तर पर चल रहे एडेप्टेशन (अनुकूलन) और रेजिलियेंस (लचीलापन) पर काम इस क्षेत्र में सहयोग को समर्थन देने के लिए उपयोगी हो सकते हैं. इसमें कुछ शहरों में 'कूल रूफ' स्थापित करने के कार्यक्रम, अक्षय ऊर्जा को अधिक सुलभ बनाने के लिए कुछ फ्रंट-लाइन कम्युनिटी के काम और राज्य-स्तरीय 'हीट एक्शन प्लान' शामिल हैं. भारत के लिए यह अनिवार्य है कि वह उचित पैमाने पर प्रशांत महासागर इलाके में संलग्न होने के नए तरीक़े तलाशे और लोकल,  कम्युनिटी लेड इनिशिएटिव (समुदाय के नेतृत्व वाली पहलों) के फायदों को  साझा करने पर ध्यान दे जो 'मैक्रो' राष्ट्रीय नीति के मुक़ाबले अधिक सफल हो सकती है.

सम्मान में छिपा है सफलता की कुंजी

पर्यावरण वैज्ञानिकों ने अक्सर देखा है कि छोटे द्वीप समुदायों ने जलवायु चुनौतियों का सामना करने के लिए हज़ारों वर्षों [[30]] के लिए अपने पर्यावरण और सामाजिक प्रणालियों को अनुकूलित किया है और जलवायु परिवर्तन से जल्द प्रभावित होने वाले ऐसे द्वीपों के लोगों ने अस्तित्व बचाने के लिए कुदरत के साथ जुड़कर काम करना शुरू कर दिया है. इन 'प्रकृति-आधारित समाधानों' में तटीय क्षेत्र को स्थिर करने और उत्पादक भूमि और जल प्रणालियों को फिर से पुनर्जीवित करने में मदद, सुरक्षात्मक समुद्री बाधाओं के रूप में प्राकृतिक बाड़ बनाने, कृषि को बेहतर समर्थन देने के लिए भूमि संरचनाओं को मज़बूत करने के लिए पेड़ और मैंग्रोव को रोपना शामिल है.

हालांकि बाहरी साझेदारों के लिए  आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा इंगेजमेंट अप्रोच को अपनाना है जो दूसरे के अनुभवों का सम्मान करता है. साथ ही इस बारे में सावधानी से सोचना है कि अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग के अनुभवों को कैसे पारंपरिक दृष्टिकोणों के साथ जोड़ा जा सके. इस क्षेत्र के विशेषज्ञ अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय किरदारों के बीच साझेदारी के आधार पर एक 'सह-उत्पादन' मॉडल की वकालत करते है - यह दृष्टिकोण स्पष्ट सामाजिक, पर्यावरण और इंजीनियरिंग मानकों को बनाने का समर्थन करता है; जिसमें निगरानी और मूल्यांकन प्रक्रिया शामिल है; और जो क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा निवेश और समर्थन के लिए रास्ता खोलता है.

एक परिपक्व दृष्टिकोण के तहत लंबे समय से चली आ रही संवेदनशीलता से सबक हासिल करना भी शामिल है जो विदेशी विकास सहायता की बात आने पर इस क्षेत्र में प्रदर्शित होती रही है. अन्य विकासशील देशों की तरह, पीआईसी किसी भी सुझाव पर भड़क जाता है कि बाहरी किरदार ख़ुद को बचाने वालों के रूप में पेश कर रहे हैं, या वे स्थानीय दृष्टिकोण को ख़ारिज़ कर रहे हैं और ख़ुद का समाधान थोप रहे हैं.

इनमें से कुछ द्वीप राष्ट्र तेजी से सिकुड़ रहे हैं लेकिन वे संप्रभु बने हुए है.


Endnotes

[1] Inia Seruriratu (speech, Shangri-La Dialogue, Singapore, June 12, 2022). Reported widely, e. g., Pita Ligaiula, “Climate Change a Bigger Threat Than War, Fiji Tells Security Summit,” PINA Pacific News Service, June 13, 2022.

[2] Pacific Islands Forum Secretariat.

[3] Jemima Garett, “China, Media Freedoms in the Pacific, and the Great Australian Silence,” Lowy Institute Interpreter, November 20, 2019.

[4] Patricia O’Brien, “The Domestic Politics of Sogavare’s China-Solomons Tryst,” The Diplomat, September 8, 2022.

[5] For example, Solomon Islands opposition figures and community leaders. Emanuel Stoakes, “Chinese Police Could Crush Solomon Islands Opposition,” Foreign Policy, August 9, 2022.

[6] Simon Kofe, “We Are Sinking,” (speech, Cop26, November 8, 2021). This speech received widespread media coverage.

[7] Jon Barnett et al., “Nature-based Solutions for Atoll Habitability,” Philosophical Transactions of the Royal Society B. 377, no. 1854 (July 2022). The authors draw on Climate Change 2021: The Physical Science Basis: Working Group Contribution to the IPCC Sixth Assessment Report to note that sea levels are expected to rise by anything between 26 and 114 cm by the year 2100, depending on mitigation scenarios.

[8] Neil L. Andrew et al., “Coastal Proximity of Populations in 22 Pacific Island Countries and Territories,” Public Library of Science 14, no. 9 (September 30, 2019).

[9] Volker Boege, “Climate Change, Conflict and Peace in the Pacific: Challenges and a Pacific Way Forward,” Peace Review 34, no. 1 (May 6, 2022): 1.

[10]  Katherine Seto et al., “Climate Change is Causing Tuna to Migrate, Which Could Spell Catastrophe for the Small Islands That Depend on Them,” The Conversation, August 2, 2021.

[11]  Deloitte. Asia Pacific’s Turning Point: How Climate Action Can Drive Our Economic Future, August 2021.

[12]  Wesley Morgan, Annika Dean and Simon Bradshaw, A Fight for Survival: Tackling the Climate Crisis Is Key to Security in the Blue Pacific, Climate Change Centre, July 8, 2022.

[13]  “Vanuatu, On Behalf of a Diverse Group of Countries, Tables UN Resolution Calling for World’s Highest Court to Clarify States’ International Legal Duties in the Face of Climate Change,” Center for International Environmental Law, November 30, 2022.

[14]  “Vanuatu, on Behalf of a Diverse Group of Countries, Tables UN Resolution Calling for World’s Highest Court to Clarify States’ International Legal Duties in the Face of Climate Change”

[15]  Reported widely, e.g., Andrew Brown and Alex Mitchell, “PM: Climate Change Critical for Our Security,” The New Daily, November 8, 2022.

[16]  Chris Barrie, “Climate Change Poses a ‘Direct Threat’ to Australia’s National Security. It Must Be a Political Priority,” The Conversation, October 8, 2019.

[17]  Elaisha Stokes, “The Drought That Preceded Syria’s Civil War Was Likely the Worst in 900 Years,” Vice Blog, March 4, 2016.

[18]  Kate Higgins, “Peacebuilding and Climate Change in Fiji,” Conciliation Resources.

[19]  Boege, “Climate Change, Conflict and Peace in the Pacific: Challenges and a Pacific Way Forward”

[20]  Boege, “Climate Change, Conflict and Peace in the Pacific: Challenges and a Pacific Way Forward”

[21]  Boege, “Climate Change, Conflict and Peace in the Pacific: Challenges and a Pacific Way Forward”

[22]  Ian Kemish, “Great Powers and Small Islands: The Democratic Powers Need to ‘Lean In’,” in ORF Raisina Debates, Observer Research Foundation, December 19, 2022.

[23]  For example, the Vanuatu Foreign Minister’s comments, reported in Adam Morton, “Australia Told to End New Fossil Fuel Subsidies If It Wants Pacific Support to Host Climate Summit,” The Guardian, November 17, 2022.

[24]  Melissa Clarke, “Climate Change Could Stretch Our Capabilities, Defence Force Chief Speech Warns,” ABC News, September 25, 2019.

[25]  “Climate Change and Disaster Displacement,” UNHCR.

[26]  “Global Trends: Forced Displacement in 2021,” UNHCR, June 2022.

[27]  Anthony Leiserowitz et al., Climate Change in the Indian Mind, 2022, Yale Program on Climate Change Communication, October 19, 2022.

[28]  For a useful summary of France’s continuing importance in the Pacific, see Guy C. Charlton and Xiang Gao, “Why France-US Relations Matter for the Pacific,” The Diplomat, December 23, 2022.

[29]  Ramendra Prasad, “A Roadmap for India’s Climate Cooperation with Pacific Small Island Developing States,” ORF Issue Brief No. 559, July 2022. ion.

[30]  Barnett et al., “Nature-based Solutions for Atoll Habitability”

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.