Author : Manish Tewari

Published on Sep 13, 2019 Updated 0 Hours ago

आज के बाद से मैं उन मामलों में सीधे दखल दूंगा और उन जजों को मुक़दमों की कार्यवाही से हटा दूंगा, जो वक़्त की नज़ाकत और ज़रूरत नहीं समझते हैं.

हे न्याय!

जर्मनी में नाज़ीवादी हुक़ूमत के तमाम पहलुओं पर बड़े पैमाने में किताबें लिखी गई हैं. डॉक्यूमेंटरी और फ़िल्में बनी हैं. इसके अलावा विद्वानों ने भी इस पर बड़े पैमाने पर रिसर्च किए हैं. नाज़ी शासन की समीक्षा की है. लेकिन, इतने व्यापक अध्ययन के बावजूद नाज़ी हुक़ूमत के एक पहलू की लगातार अनदेखी हुई है. वो ये है कि जर्मनी में नाज़ियों के शासन काल में स्वतंत्र न्यायपालिका को बड़े ही योजनाबद्ध तरीक़े से तबाह कर दिया गया था.

कोई भी लोकतंत्र उतना ही मज़बूत या कमज़ोर होता है, जितना इसे सहारा देने वाले स्तंभ होते हैं. जब लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश होती है, तो ऐसा करने वालों के निशाने पर सबसे पहले इसकी न्याय व्यवस्था होती है. हम इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो इस बात की बहुत सी मिसालें मिलती हैं. जब भी न्यायिक स्वतंत्रता का हनन होता है, तो इसका नतीजा हम षडयंत्र, उथल-पुथल और अंत में अराजकता के तौर पर देखते हैं.

जर्मनी में 1933 से 1945 के बीच रहे नाज़ियों के शासन काल के तमाम पहलुओं पर विद्वानों ने गहरा अध्ययन किया है. किताबें लिखी गई हैं. डॉक्यूमेंटरी और फ़िल्में भी बनीं हैं. विद्वानों ने इस पर अकादमिक अध्ययन भी किए हैं. लेकिन, नाज़ी शासन काल में जिस तरह एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका को धीर-धीरे तबाह किया गया था, वो नाज़ी शासन काल के ऐसे तमाम अध्ययनों के दायरे से परे ही रहा है. साल 1993 में नाज़ियों के सत्ता पर क़ाबिज़ होने से पहले अडॉल्फ़ हिटलर ने न्यायपालिका पर ज़ुबानी हमले करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी थी. इसकी वजह ये थी कि जर्मनी की न्याय व्यवस्था संघीय भी थी और उस दौर की पश्चिमी न्यायिक परंपराओं का भी उस पर गहरा असर था. जिसके नतीजे में जर्मनी की न्याय व्यवस्था भी उपर से लेकर नीचे तकतक स्वायत्त थी.

तो, ये दुविधा भी नाज़ियों की नज़र से छुप नहीं सकी थी कि — देश में एक स्वतंत्र न्यायपालिका है. नाज़ियों को देश में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था बर्दाश्त नहीं थी. ऐसे में हिटलर के जर्मनी के चांसलर की शपथ लेने के तीन महीने के भीतर ही रीचस्टैग फायर मामले में नाज़ी सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने खड़े थे.

न्यायपालिका से हिटलर को ये अनकही अपेक्षा थी कि माननीय जज इस केस के पीछे वामपंथियों की महत्वाकांक्षी साज़िश देखेंगे. लेकिन जजों ने इस केस में केवल एक कम्युनिस्ट को दोषी ठहराया. इससे भड़के हिटलर ने रीचस्टैग फायर फरमान के नाम से अपने ही देश की न्यायपालिका के ख़िलाफ़ आदेश जारी किया और जर्मनी की न्याय व्यवस्था ही नहीं बल्कि जर्मनी के क़ानूनों से भी अलग एक नई न्यायिक व्यवस्था की स्थापना की. इन्हें नाज़ी स्पेशल अदालतें या सोंडरगेरिश्ट कहा गया.

इन अदालतों का दायरा बहुत व्यापक था. कोई भी अपराध जिसे नाज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जुर्म कहा जा सकता था, वो इन विशेष अदालतों के दायरे में आता था. इन अदालतों में सबसे बदनाम थी, फॉक्सगेरिश्टशॉफ़ यानी जनता की अदालत. इन अदालतों का गठन 1934 में देशद्रोह के मामलों की सुनवाई के लिए किया गया था. हिटलर के इन क़दमों ने जर्मनी की क़ानूनी और न्यायिक व्यवस्था के लिए मौत की घंटी बजा दी थी. यहां तक कि निष्पक्षता का आडंबर करने वाला आवरण भी उस वक़्त उतार दिया गया, जब हिटलर ने 26 अप्रैल 1942 को जर्मन संसद रीचस्टैग को संबोधित करते हुए कहा कि, “मैं जर्मनी की न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों से ये कहना चाहता हूं कि यहां देश उनके लिए नहीं है, बल्कि वो देश के लिए हैं. आज के बाद से मैं उन मामलों में सीधे दखल दूंगा और उन जजों को मुक़द्दमों से हटा दूंगा, जो वक़्त की नज़ाकत और ज़रूरत नहीं समझते हैं.”

उस दिन के बाद से जर्मनी के न्यायाधीशों को ये निर्देश दिये गए कि अगर जर्मन क़ानून और नाज़ियों के हितों में टकराव होने की सूरत में हमेशा फ़ैसला नाज़ी पार्टी के हक़ में जाना चाहिए. क्योंकि नाज़ी पार्टी के हित और मक़सद, निष्पक्षता की ज़रूरत से परे हैं. दिलचस्प बात ये है कि नाज़ी जर्मनी में जजों पर सबसे कम ज़ुल्म ढाए गए. किसी भी जज को नज़रबंदी शिविर में नहीं रखा गया. क्योंकि जजों को नाज़ी हुक़ूमत का हिस्सा बना लिया गया था और पूरी न्याय व्यवस्था नाज़ी हुक़ूमत के क़दमों में लेट गई थी. नाज़ियों के ज़ुल्मों को क़ानूनी तौर पर वाजिब ठहराने के लिए न्याय व्यवस्था और क़ानूनों का ही सहारा लिया गया था. क़ानून की भावना से ज़्यादा उसके शब्दों को लागू करने पर ज़ोर दिया गया. इसी वजह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद धुरी राष्ट्रों की जनता का न्यायिक व्यवस्था में विश्वास जगाने के लिए मित्र राष्ट्रों ने नूरेम्बर्ग और टोक्यो में धुरी राष्ट्रों के युद्ध अपराधियों पर मुक़दमे चलाए थे. वरना उन्हें बिना मुक़दमे के भी मौत के घाट उतारा जा सकता था.

1920 के दशक में इटली के फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी ने प्रस्ताव रखा कि, “फ़ासीवादी विचारधारा के आधार पर बनी सरकार अपने आप में आध्यात्मिक और नैतिकता से भरपूर है. और, चूंकि इसकी राजनीतिक, न्यायिक और आर्थिक संरचना एक मज़बूत चीज़ है तो सरकार के ऐसे सभी संगठनों के भीतर फ़ासीवादी विचार शामिल होने चाहिए.” मुसोलिनी ने अपने देश में तानाशाही सरकार की संकल्पना और स्थापना की. इस सरकार की तीन शाखाओं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, मुसोलिनी के राज में कुछ ही बरसों में मिलकर एक हो गए. मुसोलिनी के आडंबर और शेखी से भरी आकांक्षाओं ने प्राचीन काल के रोमन साम्राज्य की भव्यता को भविष्य के अग्रिम मोर्चे में तब्दील कर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि इटली में ऐसी हुक़ूमत बन गई, जिसका नैतिकता से कोई वास्ता नहीं था. अब इटली में क़ानून का नहीं, फासीवादियों की तानाशाही का राज था. क़ुदरती तौर पर न्याय व्यवस्था को जो स्वायत्तता हासिल होनी चाहिए थी, वो फ़ासीवादी हुक़ूमत के दौरान मिलनी नामुमकिन थी. इटली के रीढ़विहीन न्यायिक अधिकारियों ने फ़ासीवादी ताक़तों के आगे घुटने टेक दिए और उनकी मनमर्ज़ी के मुताबिक़ इंसाफ़ करने लगे. उन्हें क़ानूनी नियमों की कोई परवाह नहीं रह गई थी.

1936 से 1938 के बीच चले द मॉस्को ट्रायल को हम दुनिया में किसी न्यायिक व्यवस्था का उपहास बनाने वाला सबसे विशाल तमाशा कहें, तो ग़लत नहीं होगा. इस कंगारू कोर्ट का एक ही मक़सद था और वो था बोल्शेविक क्रांति की पुरानी पीढ़ी के नेताओं का सफ़ाया कर के, स्टालिन और हुक़ूमत को एकसार करना.

लेकिन, रूस के कम्युनिस्ट तानाशाह जोसेफ स्टालिन ने इन सब में बाज़ी मार ली. स्टालिन ने न्यायिक व्यवस्था को हथियार बनाकर अपने सियासी विरोधियों को एक झटके में ठिकाने लगा दिया. 1936 से 1938 के बीच चले द मॉस्को ट्रायल को हम दुनिया में किसी न्यायिक व्यवस्था का उपहास बनाने वाला सबसे विशाल तमाशा कहें, तो ग़लत नहीं होगा. इस कंगारू कोर्ट का एक ही मक़सद था और वो था बोल्शेविक क्रांति की पुरानी पीढ़ी के नेताओं का सफ़ाया कर के, स्टालिन और हुक़ूमत को एकसार करना.

15 अगस्त 1936 को सोवियत संघ की आधिकारिक न्यूज़ एजेंसी ने रिपोर्ट किया कि रूस के सरकारी वक़ील ने ग्रेगरी ज़िनोविव, लियोन कामेनेव, आई.एन. स्मिरनोव और 13 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ नाज़ी हुक़ूमत के साथ मिलकर सोवियत संघ के सात बड़े नेताओं की हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगाया है. साथ ही इन पर 18 महीने पहले हुई एस.एम. किरोव की हत्या का आरोप भी लगाया गया है. इस रिपोर्ट के 9 दिन बाद यानी 24 अगस्त 1936 को इस मुक़दमे की सुनवाई करने वाले ट्राइब्यूनल के अध्यक्ष ने सभी आरोपियों को मौत की सज़ा का फ़ैसला सुनाया. साथ ही उनकी सारी संपत्ति ज़ब्त करने का भी आदेश अदालत ने दिया. अदालत का फ़ैसला आने के 24 घंटे बाद ही सोवियत प्रेस ने एलान किया कि इन दोषियों की दया याचिका को सोवियत संघ की सेंट्रल एक्ज़ीक्यूटिव कमेटी के प्रेसीडियम ने ख़ारिज कर दिया है और इन सभी को मौत की सज़ा दे दी गई है.

यानी कि एक आतंकवादी साज़िश का पर्दाफ़ाश होने के पंद्रह दिन के भीतर ही 16 लोगों पर मुक़दमा भी चला दिया गया और फ़ांसी भी दे दी गई. इसे न्याय का तमाशा न कहें तो और क्या कहा जाए. इन बेवक़्त मौत के घाट उतार दिए गए लोगों में कई नाम ऐसे थे, जो रूस में कम्युनिस्ट क्रांति, जिसे अक्टूबर क्रांति भी कहते हैं, से क़रीब से जुड़े हुए थे. वो रूस की थर्ड इंटरनेशनल सरकार से भी जुड़े थे. उन्हें जो सज़ा सुनाई गई, उसके मुताबिक़ अदालत ने इन 16 लोगों पर लगाए गए आरोप के तहत ही लियोन ट्रॉटस्की और उनके बेटे एल.एल. सेडोव को अपने सामने पेश करने का भी फ़रमान सुनाया. ट्रॉटस्की और उनके बेटे, जोसेफ़ स्टालिन के लिए एक बुरे ख़्वाब के समान थे.

67 साल बाद सितंबर 2013 में लैटिन अमेरिकी देश चिली की नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने एक बयान जारी किया और कहा कि — तानाशाह ऑगस्तो पिनोशे की हुक़ूमत के दौरान पीड़ित रहे लोग न्यायपालिका को अपनी ज़िम्मेदारियां न निभा पाने के लिए माफ़ कर दें. इस बयान में चिली के न्यायाधीशों ने ईमानदारी से माना कि हमारी अदालतों ने हज़ारों अर्ज़ियों को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इन्हें मंज़ूर नहीं किया जा सकता. जबकि ये अर्ज़ियां चिली के लोगों ने अपने उन देशवासियों के समर्थन में लिखी थीं, जिनके साथ हुक़ूमत नाइंसाफी और ज़ुल्म कर रही थी और जिनकी सुनवाई नहीं हो पा रही थी. जजों ने ऐसी अर्ज़ियों को ख़ारिज कर के नज़रबंदी शिविरों में हो रहे ज़ुल्म में निजी तौर पर शामिल होने की अपनी अनिच्छा ज़ाहिर कर दी थी. इस में कोई दो राय नहीं कि न्यायपालिका के आँख मूंद लेने से पिनोशे के शासनकाल में मानवाधिकारों का संतुलन बिगड़ गया था. इसे चिली का काला अध्याय कहते हैं. चिली के जजों ने ख़ुद को माफ़ करने की अपील करते हुए अपने देश के सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वो भी ऑगस्तो पिनोशे के 17 बरस के तानाशाही शासनकाल में अपने बर्ताव पर फिर से नज़र डाले और उस की समीक्षा करे, और जैसा कि जॉन फिलपोट क्यूरन ने 10 जुलाई 1790 को आयरलैंड की राजधानी डब्लिन में कहा था कि, “ईश्वर ने जिस शर्त पर इंसान को आज़ादी दी है, वो ये है कि इसकी लगातार निगरानी हो.”

जर्मनी में नाज़ीवादी हुक़ूमत के तमाम पहलुओं पर बड़े पैमाने में किताबें लिखी गई हैं. डॉक्यूमेंटरी और फ़िल्में बनी हैं. इसके अलावा विद्वानों ने भी इस पर बड़े पैमाने पर रिसर्च किए हैं. नाज़ी शासन की समीक्षा की है. लेकिन, इतने व्यापक अध्ययन के बावजूद नाज़ी हुक़ूमत के एक पहलू की लगातार अनदेखी हुई है. वो ये है कि जर्मनी में नाज़ियों के शासन काल में स्वतंत्र न्यायपालिका को बड़े ही योजनाबद्ध तरीक़े से तबाह कर दिया गया था.

कोई भी लोकतंत्र उतना ही मज़बूत या कमज़ोर होता है, जितना इसे सहारा देने वाले स्तंभ होते हैं. जब लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश होती है, तो ऐसा करने वालों के निशाने पर सबसे पहले इसकी न्याय व्यवस्था होती है. हम इतिहास के पन्ने पलटकर देखें, तो इस बात की बहुत सी मिसालें मिलती हैं. जब भी न्यायिक स्वतंत्रता का हनन होता है, तो इसका नतीजा हम षडयंत्र, उथल-पुथल और अंत में अराजकता के तौर पर देखते हैं.

नाज़ियों के सत्ता पर क़ाबिज़ होने से पहले अडॉल्फ़ हिटलर ने न्यायपालिका पर ज़ुबानी हमले करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी थी. इसकी वजह ये थी कि जर्मनी की न्याय व्यवस्था संघीय भी थी और उस दौर की पश्चिमी न्यायिक परंपराओं का भी उस पर गहरा असर था. जिसके नतीजे में जर्मनी की न्याय व्यवस्था भी उपर से लेकर नीचे तकतक स्वायत्त थी.

जर्मनी में 1933 से 1945 के बीच रहे नाज़ियों के शासन काल के तमाम पहलुओं पर विद्वानों ने गहरा अध्ययन किया है. किताबें लिखी गई हैं. डॉक्यूमेंटरी और फ़िल्में भी बनीं हैं. विद्वानों ने इस पर अकादमिक अध्ययन भी किए हैं. लेकिन, नाज़ी शासन काल में जिस तरह एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका को धीर-धीरे तबाह किया गया था, वो नाज़ी शासन काल के ऐसे तमाम अध्ययनों के दायरे से परे ही रहा है. साल 1993 में नाज़ियों के सत्ता पर क़ाबिज़ होने से पहले अडॉल्फ़ हिटलर ने न्यायपालिका पर ज़ुबानी हमले करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी थी. इसकी वजह ये थी कि जर्मनी की न्याय व्यवस्था संघीय भी थी और उस दौर की पश्चिमी न्यायिक परंपराओं का भी उस पर गहरा असर था. जिसके नतीजे में जर्मनी की न्याय व्यवस्था भी उपर से लेकर नीचे तकतक स्वायत्त थी.

तो, ये दुविधा भी नाज़ियों की नज़र से छुप नहीं सकी थी कि — देश में एक स्वतंत्र न्यायपालिका है. नाज़ियों को देश में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था बर्दाश्त नहीं थी. ऐसे में हिटलर के जर्मनी के चांसलर की शपथ लेने के तीन महीने के भीतर ही रीचस्टैग फायर मामले में नाज़ी सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने खड़े थे.

न्यायपालिका से हिटलर को ये अनकही अपेक्षा थी कि माननीय जज इस केस के पीछे वामपंथियों की महत्वाकांक्षी साज़िश देखेंगे. लेकिन जजों ने इस केस में केवल एक कम्युनिस्ट को दोषी ठहराया. इससे भड़के हिटलर ने रीचस्टैग फायर फरमान के नाम से अपने ही देश की न्यायपालिका के ख़िलाफ़ आदेश जारी किया और जर्मनी की न्याय व्यवस्था ही नहीं बल्कि जर्मनी के क़ानूनों से भी अलग एक नई न्यायिक व्यवस्था की स्थापना की. इन्हें नाज़ी स्पेशल अदालतें या सोंडरगेरिश्ट कहा गया.

कोई भी अपराध जिसे नाज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जुर्म कहा जा सकता था, वो इन विशेष अदालतों के दायरे में आता था. इन अदालतों में सबसे बदनाम थी, फॉक्सगेरिश्टशॉफ़ यानी जनता की अदालत.

इन अदालतों का दायरा बहुत व्यापक था. कोई भी अपराध जिसे नाज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जुर्म कहा जा सकता था, वो इन विशेष अदालतों के दायरे में आता था. इन अदालतों में सबसे बदनाम थी, फॉक्सगेरिश्टशॉफ़ यानी जनता की अदालत. इन अदालतों का गठन 1934 में देशद्रोह के मामलों की सुनवाई के लिए किया गया था. हिटलर के इन क़दमों ने जर्मनी की क़ानूनी और न्यायिक व्यवस्था के लिए मौत की घंटी बजा दी थी. यहां तक कि निष्पक्षता का आडंबर करने वाला आवरण भी उस वक़्त उतार दिया गया, जब हिटलर ने 26 अप्रैल 1942 को जर्मन संसद रीचस्टैग को संबोधित करते हुए कहा कि, “मैं जर्मनी की न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों से ये कहना चाहता हूं कि यहां देश उनके लिए नहीं है, बल्कि वो देश के लिए हैं. आज के बाद से मैं उन मामलों में सीधे दखल दूंगा और उन जजों को मुक़द्दमों से हटा दूंगा, जो वक़्त की नज़ाकत और ज़रूरत नहीं समझते हैं.”

उस दिन के बाद से जर्मनी के न्यायाधीशों को ये निर्देश दिये गए कि अगर जर्मन क़ानून और नाज़ियों के हितों में टकराव होने की सूरत में हमेशा फ़ैसला नाज़ी पार्टी के हक़ में जाना चाहिए. क्योंकि नाज़ी पार्टी के हित और मक़सद, निष्पक्षता की ज़रूरत से परे हैं. दिलचस्प बात ये है कि नाज़ी जर्मनी में जजों पर सबसे कम ज़ुल्म ढाए गए. किसी भी जज को नज़रबंदी शिविर में नहीं रखा गया. क्योंकि जजों को नाज़ी हुक़ूमत का हिस्सा बना लिया गया था और पूरी न्याय व्यवस्था नाज़ी हुक़ूमत के क़दमों में लेट गई थी. नाज़ियों के ज़ुल्मों को क़ानूनी तौर पर वाजिब ठहराने के लिए न्याय व्यवस्था और क़ानूनों का ही सहारा लिया गया था. क़ानून की भावना से ज़्यादा उसके शब्दों को लागू करने पर ज़ोर दिया गया. इसी वजह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद धुरी राष्ट्रों की जनता का न्यायिक व्यवस्था में विश्वास जगाने के लिए मित्र राष्ट्रों ने नूरेम्बर्ग और टोक्यो में धुरी राष्ट्रों के युद्ध अपराधियों पर मुक़दमे चलाए थे. वरना उन्हें बिना मुक़दमे के भी मौत के घाट उतारा जा सकता था.

1920 के दशक में इटली के फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी ने प्रस्ताव रखा कि, “फ़ासीवादी विचारधारा के आधार पर बनी सरकार अपने आप में आध्यात्मिक और नैतिकता से भरपूर है. और, चूंकि इसकी राजनीतिक, न्यायिक और आर्थिक संरचना एक मज़बूत चीज़ है तो सरकार के ऐसे सभी संगठनों के भीतर फ़ासीवादी विचार शामिल होने चाहिए.” मुसोलिनी ने अपने देश में तानाशाही सरकार की संकल्पना और स्थापना की. इस सरकार की तीन शाखाओं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, मुसोलिनी के राज में कुछ ही बरसों में मिलकर एक हो गए. मुसोलिनी के आडंबर और शेखी से भरी आकांक्षाओं ने प्राचीन काल के रोमन साम्राज्य की भव्यता को भविष्य के अग्रिम मोर्चे में तब्दील कर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि इटली में ऐसी हुक़ूमत बन गई, जिसका नैतिकता से कोई वास्ता नहीं था. अब इटली में क़ानून का नहीं, फासीवादियों की तानाशाही का राज था. क़ुदरती तौर पर न्याय व्यवस्था को जो स्वायत्तता हासिल होनी चाहिए थी, वो फ़ासीवादी हुक़ूमत के दौरान मिलनी नामुमकिन थी. इटली के रीढ़विहीन न्यायिक अधिकारियों ने फ़ासीवादी ताक़तों के आगे घुटने टेक दिए और उनकी मनमर्ज़ी के मुताबिक़ इंसाफ़ करने लगे. उन्हें क़ानूनी नियमों की कोई परवाह नहीं रह गई थी.

1936 से 1938 के बीच चले द मॉस्को ट्रायल को हम दुनिया में किसी न्यायिक व्यवस्था का उपहास बनाने वाला सबसे विशाल तमाशा कहें, तो ग़लत नहीं होगा. इस कंगारू कोर्ट का एक ही मक़सद था और वो था बोल्शेविक क्रांति की पुरानी पीढ़ी के नेताओं का सफ़ाया कर के, स्टालिन और हुक़ूमत को एकसार करना.

लेकिन, रूस के कम्युनिस्ट तानाशाह जोसेफ स्टालिन ने इन सब में बाज़ी मार ली. स्टालिन ने न्यायिक व्यवस्था को हथियार बनाकर अपने सियासी विरोधियों को एक झटके में ठिकाने लगा दिया. 1936 से 1938 के बीच चले द मॉस्को ट्रायल को हम दुनिया में किसी न्यायिक व्यवस्था का उपहास बनाने वाला सबसे विशाल तमाशा कहें, तो ग़लत नहीं होगा. इस कंगारू कोर्ट का एक ही मक़सद था और वो था बोल्शेविक क्रांति की पुरानी पीढ़ी के नेताओं का सफ़ाया कर के, स्टालिन और हुक़ूमत को एकसार करना.

15 अगस्त 1936 को सोवियत संघ की आधिकारिक न्यूज़ एजेंसी ने रिपोर्ट किया कि रूस के सरकारी वक़ील ने ग्रेगरी ज़िनोविव, लियोन कामेनेव, आई.एन. स्मिरनोव और 13 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ नाज़ी हुक़ूमत के साथ मिलकर सोवियत संघ के सात बड़े नेताओं की हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगाया है. साथ ही इन पर 18 महीने पहले हुई एस.एम. किरोव की हत्या का आरोप भी लगाया गया है. इस रिपोर्ट के 9 दिन बाद यानी 24 अगस्त 1936 को इस मुक़दमे की सुनवाई करने वाले ट्राइब्यूनल के अध्यक्ष ने सभी आरोपियों को मौत की सज़ा का फ़ैसला सुनाया. साथ ही उनकी सारी संपत्ति ज़ब्त करने का भी आदेश अदालत ने दिया. अदालत का फ़ैसला आने के 24 घंटे बाद ही सोवियत प्रेस ने एलान किया कि इन दोषियों की दया याचिका को सोवियत संघ की सेंट्रल एक्ज़ीक्यूटिव कमेटी के प्रेसीडियम ने ख़ारिज कर दिया है और इन सभी को मौत की सज़ा दे दी गई है.

यानी कि एक आतंकवादी साज़िश का पर्दाफ़ाश होने के पंद्रह दिन के भीतर ही 16 लोगों पर मुक़दमा भी चला दिया गया और फ़ांसी भी दे दी गई. इसे न्याय का तमाशा न कहें तो और क्या कहा जाए. इन बेवक़्त मौत के घाट उतार दिए गए लोगों में कई नाम ऐसे थे, जो रूस में कम्युनिस्ट क्रांति, जिसे अक्टूबर क्रांति भी कहते हैं, से क़रीब से जुड़े हुए थे. वो रूस की थर्ड इंटरनेशनल सरकार से भी जुड़े थे. उन्हें जो सज़ा सुनाई गई, उसके मुताबिक़ अदालत ने इन 16 लोगों पर लगाए गए आरोप के तहत ही लियोन ट्रॉटस्की और उनके बेटे एल.एल. सेडोव को अपने सामने पेश करने का भी फ़रमान सुनाया. ट्रॉटस्की और उनके बेटे, जोसेफ़ स्टालिन के लिए एक बुरे ख़्वाब के समान थे.

67 साल बाद सितंबर 2013 में लैटिन अमेरिकी देश चिली की नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने एक बयान जारी किया और कहा कि — तानाशाह ऑगस्तो पिनोशे की हुक़ूमत के दौरान पीड़ित रहे लोग न्यायपालिका को अपनी ज़िम्मेदारियां न निभा पाने के लिए माफ़ कर दें. इस बयान में चिली के न्यायाधीशों ने ईमानदारी से माना कि हमारी अदालतों ने हज़ारों अर्ज़ियों को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इन्हें मंज़ूर नहीं किया जा सकता. जबकि ये अर्ज़ियां चिली के लोगों ने अपने उन देशवासियों के समर्थन में लिखी थीं, जिनके साथ हुक़ूमत नाइंसाफी और ज़ुल्म कर रही थी और जिनकी सुनवाई नहीं हो पा रही थी. जजों ने ऐसी अर्ज़ियों को ख़ारिज कर के नज़रबंदी शिविरों में हो रहे ज़ुल्म में निजी तौर पर शामिल होने की अपनी अनिच्छा ज़ाहिर कर दी थी. इस में कोई दो राय नहीं कि न्यायपालिका के आँख मूंद लेने से पिनोशे के शासनकाल में मानवाधिकारों का संतुलन बिगड़ गया था. इसे चिली का काला अध्याय कहते हैं. चिली के जजों ने ख़ुद को माफ़ करने की अपील करते हुए अपने देश के सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वो भी ऑगस्तो पिनोशे के 17 बरस के तानाशाही शासनकाल में अपने बर्ताव पर फिर से नज़र डाले और उस की समीक्षा करे, और जैसा कि जॉन फिलपोट क्यूरन ने 10 जुलाई 1790 को आयरलैंड की राजधानी डब्लिन में कहा था कि, “ईश्वर ने जिस शर्त पर इंसान को आज़ादी दी है, वो ये है कि इसकी लगातार निगरानी हो.”

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