अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जिन भारी-भरकम बातों और बेबुनियाद आलंकारिक भाषणों के साथ आए थे आखिरकार उन्हीं के साथ अपने पद से रुखसत हो गए। इस बीच के आठ वर्षों ने उनके चमकदार भाषणों की शून्यता और खोखलेपन को उजागर कर दिया। उनकी सरपरस्ती में अमेरिका प्रभाव में ऐसी गिरावट आई जोकि अमेरिकी ताकत के वास्तविक पराभव की तुलना के अनुपात से काफी ज्यादा थी। वह अपने पीछे एक ऐसे देश को छोड गए हैं जो अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में कई दुश्वारियों से जूझ रहा है और जिसकी ज्यादातर समस्याएं, जब से उन्होंने पदभार संभाला था, उसकी खुद की पैदा की हुई हैं। ओबामा की विफलताओं के दुष्परिणाम न केवल अमेरिका के लिए हैं बल्कि इससे दुनिया के दूसरे हिस्से भी प्रभावित हुए हैं। इनमें भारत-प्रशांत क्षेत्र से लेकर बाल्टिक क्षेत्र तक बढ़ती क्षेत्रीय असुरक्षा, उपजते संशय, प्रतिद्वंदिता, अस्थिरता और संभावित युद्ध की आशंका तक शुमार है।
ओबामा की विफलताओं के कारणों को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि वे एक ऐसे विशिष्ट वैश्विक दृष्टिकोण की ओर इशारा करते हैं जिसकी गूंज अभी भी अमेरिकी सत्ता के ढांचे के कुछ हिस्सों में छाई हुई है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हालांकि उनके वैश्विक नजरिये अलग अलग हैं, फिर भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीति संरचना के कुछ तत्व असहज रूप से ओबामा के वैश्विक नजरिये के नीतिगत परिणामों के करीब हैं।
इस वैश्विक नजरिये की जड़ में उदार अंतरराष्ट्रीयतावाद एवं अमेरिकी नैतिक प्रभुत्व की एक उग्र वामपंथी नामंजूरी का एक अजीब मिश्रण है जो अमेरिका के अति विस्तार को लेकर किसी यथार्थवादी के झूठे झंडे में लिपटा हुआ है। यह एक ऐसा वैश्विक नजरिया था जो मानता था कि देशों के बीच विवाद हितों के किसी प्राकृतिक टकराव और सत्तागत राजनीति के असंतुलन की वजह से पैदा नहीं होता बल्कि परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों की समझ की कमी से पैदा होता है जिका समाधान बातचीत के जरिये निकाला जा सकता है। यह मानते हुए कि भ्रमित अमेरिकी विदेश नीति ही अधिकतर अमेरिका और अन्य देशों के बीच संघर्ष की बड़ी वजह रही है — ओबामा ने इन नीतियों को अक्सर ‘वाशिंगटन प्लेबुक’ कह कर उनका उपहास उड़ाया और एक ऐसा अलग दृष्टिकोण अपनाया जिसका प्रयास विरोधियों तक पहुंचने का प्रयास करना एवं अमेरिकी सहयोगी देशों के साथ बेहद एहतियात के साथ पेश आना था। अमेरिका की वैश्विक गठबंधन संरचना को खतरे में डालने को लेकर उनके उत्तराधिकारी की आलोचना जायज है लेकिन ओबामा ने बहुत पहले ही इसकी शुरुआत कर दी थी। ओबामा की कोशिश वाशिंगटन की नेतृत्व वाली भूमिका से सामान्य रूप से छुटकारा पाने की थी जिसे उनके एक सलाहकार ने बड़े उल्लेखनीय रूप से ‘पीछे से नेतृत्व करना‘ कह कर परिभाषित किया था। संक्षेप में, यही वैश्विक नजरिया था जिसने अमेरिका की वैश्विक भूमिका को एक समस्या के रूप में और उस भूमिका में कमी को एक समाधान के रूप में देखा।
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद, यह एक सामान्य उदारवादी अलंकार बन गया, एक ऐसा अलंकार जिसे कुछ यर्थाथवादियों ने भी स्वीकार कर लिया कि अमेरिका की वैश्विक भूमिका असंतोष को जन्म देने वाली रही है और यह अमेरिका की विदेश नीति में बाधा पहुंचा रही है।
लेकिन इसके बहुत कम संकेत हैं कि अमेरिका की कम उपस्थिति ने अमेरिका की प्रतिष्ठा बढ़ाई है या इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि इसका अमेरिकी रणनीतिक प्रभावशीलता के लिए कोई प्रत्यक्ष महत्व पड़ा। मसलन-मुस्लिम देशों के साथ ओबामा के संबंध, जिसमें ईरान नाभिकीय समझौता भी महत्व रहा, इजरायल के साथ विवाद में फिलीस्तिनयों के खिलाफ उनका स्पष्ट पक्षपात और सीरिया या यमन में हस्तक्षेप करने से इंकार करने से उनकी कोई बहुत अच्छी छवि नहीं बनी। कुछ प्रारंभिक उत्साह के बावजूद, पदभार छोड़ते समय उनकी छवि दुनिया के अन्य हिस्सों में बहुत अधिक ‘वांछनीय’ वाली नहीं रह गई थी। इसकी वजह स्पष्ट है: मजबूत देश, चाहे वे वैश्विक हों या फिर क्षेत्रीय, उनसे खौफ और असंतोष पैदा होगा ही जिसका कारण बस केवल यही है कि वे मजबूत हैं। दक्षिण एशिया में भारत की वही स्थिति है जैसी कि वैश्विक प्रणाली में अमेरिका की है। एक बड़ी शक्ति बनने के विशेषाधिकार के साथ यह कीमत अपरिहार्य रूप से चली आती है। इसका मतलब यह संकेत देना नहीं है कि अमेरिका (या भारत) ने कोई बुरा बर्ताव नहीं किया है या उन्हें बुरा बर्ताव करना चाहिए, बल्कि रणनीतिक व्यवहार में मार्गदर्शी सिद्धांत पर अंतरराष्ट्रीय मत बनाने की बेवकूफी को रेखांकित करना है।
अमेरिका की वैश्विक भूमिका को कम करने का प्रयास करना अतार्किक था क्योंकि अमेरिका केवल एक अन्य देश भर नहीं हैः यह अभी भी दुनिया का सबसे ताकतवर देश बना हुआ है। महान शक्तियां, विशेष रूप से एकध्रुवीय शक्तियां अंतरराष्ट्रीय प्रणाली को बनाये रखने की कीमत का एक असमानुपातिक बोझ वहन करती हैं, चाहे यह सुरक्षा के क्षेत्र में हो या फिर अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में। इसकी दो वजहें हैं कि क्यों उन्हें उस बोझ को उठाने का इच्छुक होना चाहिए। पहली बात कि वे वह असमानुपातिक कीमत का बोझ उठा सकते हैं, वे उस व्यवस्था को बनाये रखने से उपजे असमानुपातिक लाभ भी उठाते हैं। अमेरिका को उस उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से काफी लाभ हासिल हुआ है जिसकी स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुई, खासकर, जब अन्य देशों को इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उतनी अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती। इसी प्रकार, सुरक्षा क्षेत्र में, अमेरिका ने एक नाभिकीय अप्रसार व्यवस्था की स्थापना की जिसका लाभ भले ही सबको हासिल हुआ होगा, लेकिन इसने अमेरिका को एक अबाधित वैश्विक ताकत बने रहने की अनुमति दी। ये ऐसे लाभ हैं जिसे आम तौर पर अमेरिकी परिचर्चा में इसकी वैश्विक भूमिका के बारे में अधिक स्वीकार नहीं किया जाता।
दूसरी बात यह कि अगर अमेेरिका अपनी भूमिका निभाने से कदम वापस खींचता है तो कोई अन्य देश इस खांचे में नहीं आ सकता। किसी अन्य ताकतवर देश के पास वह क्षमता नहीं है जो अमेरिका के पास इस वैश्विक भूमिका को निभाने से संबंधित क्षमता है। हालांकि सिद्धांत रूप में ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ बड़े ताकतवर देश संयुक्त रूप से क्षमता के बराबर आ सकते हैं, लेकिन ऐसी व्यवस्था को आगे बढ़ाने को लेकर उनके बीच अपने हितों से संबंधित जो विभिन्नता होगी, उसमें वे समन्वय कर पांऐगे, इसके आसार बेहद कम हैं। अगर यूरोपीय संघ या आसियान (दक्षिणपूर्व एशियाई देशों को संगठन) ऐसे सफल क्षेत्रीय समूहों का निर्माण कर सके तो इसकी बड़ी वजह वह सुरक्षा थी जिसकी पेशकश अमेरिका ने की थी, जिसने सुनिश्चित किया कि इन देशों को एक दूसरे को लेकर अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है और इस वजह से सहयोग की संभावना अधिक बढ़ गई।
अमेरिका द्वारा इस भूमिका को निभाने से इंकार करने का परिणाम एक अधिक लोकतांत्रिक बहुपक्षीय व्यवस्था में नहीं बल्कि एक टूटती व्यवस्था के रूप में सामने आ सकता है। इसका नुकसान सभी को होगा पर सबसे अधिक नुकसान अमेरिका को होगा क्योंकि इससे सबसे अधिक लाभ अमेरिका को ही होता। दूसरे शब्दों में, अमेरिका अपनी वैश्विक भूमिका निभाने से इंकार कर सकता है पर यह एक गलत विकल्प होगा।
अगर ओबामा की अमेरिका की वैश्विक भूमिका को कम करने की इच्छा भ्रमित करने वाली थी तो सत्ता राजनीति की केंद्रीयता को स्वीकार करने की उसकी अनिच्छा एक ज्यादा बड़ी समस्या थी। सीरिया एक बड़ा उदाहरण है। सीरिया में हुए रक्तपात का अरोप लंबे समय तक ओबामा पर बढ़ा जाता रहेगा कि उसने अमेरिकी ताकत के इस्तेमाल का प्रयास इसके खात्मे के लिए या या कम से कम वहां चल रहे गृह यृद्ध पर रोक लगाने के लिए नहीं किया। लेकिन सीरिया में ओबामा की नीतियों के साथ असली समस्या यह नहीं थी कि उसने असद के शासन और उसके रूसी और ईरानी समर्थकों द्वारा हाल के दशकों के सबसे खुले और नृशंस गृह युद्ध अभियानों की इजाजत दे दी। यह उम्मीद करना बेवकूफी ही होगी कि अमेरिका समेत कोई भी देश किसी सुदूर जगह में अजनबियों को बचाने के लिए अपने जवानों या खजाने को दांव पर लगाएगा, चाहे शांतिकाल में वह कितना ही बड़ा नीति उपदेशक बनने का दावा क्यों न करे। ओबामा या उसके प्रशासन की वास्तविक समस्या यह स्वीकार करने से इंकार करना था कि गृह युद्ध तो भयावह था ही, इसके परिणाम क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के लिए भी नुकसानदायक होने थे। यही मुख्य वजह थी कि ईरान और उसके अधीनस्थ हिजबुल्ला आतंकियों ने जल्दबाजी में और निर्णायक तरीके से असद के शासन को पूरी तरह समर्थन दे दिया। व्यापक दुष्परिणामों की इसी स्वीकृति, ने सऊदी अरब जैसे काफी कमजोर क्षेत्रीय देश और रूस जैसे दूरस्थ देशों को भी अपना दबाव बढ़ाने का अवसर दे दिया। लेकिन ओबामा, जो शक्ति चिंताओं के संतुलनों को खारिज करने के अभ्यस्त थे, इन बड़े निहितार्थों से बेखबर थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अमेरिका अब कम से कम वर्तमान समय में तो इस क्षेत्र की बड़ी शक्ति नहीं रहा और अब जबकि इस क्षेत्र में विभिन्न क्षेत्रीय देशों में प्रतिद्वंदिता तेज हो गई है, इससे आगे आने वाले कुछ समय के लिए क्षेत्रीय राजनीति काफी विषैली हो गई है।
इसका एक और महत्वपूर्ण उदाहरण चीन और चीन द्वारा उत्पन्न बढ़ते खतरे दोनों को स्वीकार करने से ओबामा का इंकार रहा है। चीन का खतरा न केवल उसकी बढ़ती ताकत से है बल्कि क्षेत्र में उसकी बढ़ती आक्रामकता की वजह से भी है। ओबामा ने चीन के साथ साझीदारी करने की इच्छा जताई और वैश्विक प्रणाली को मजबूत बनाने में चीन से सहायता लेनी चाही जिसे चीन ने निश्चित रूप से अमेरिकी प्रभुत्व के जोखिम आकलन के रूप में देखा। चीन ने इसे एक ऐसी तटस्थ व्यवस्था के तौर पर नहीं देखा जिससे चीन समेत सभी को लाभ पहुंचता। जब ओबामा ने अनमने तरीके से और संतुलन स्थापित करने के प्रयास के एक हिस्से के रूप में चीन का विरोध करना चाहा, तो यह प्रयास बहुत कमजोर था और इससे चीन के उन संदेहों को बल ही मिला कि अमेरिका के इरादे विद्वेषपूर्ण थे। उधर, इस क्षेत्र में अमेरिका के सहयोगी देशों के बीच विश्वास को वास्तव में मजबूत बनाने की दिशा में इससे कोई भी मदद नहीं मिली।
इसका दुष्परिणाम यह है कि चीन अब दक्षिणपूर्व एशिया में सैन्य रूप से आरोपित हो चुका है जबकि अमेरिका के सहयोगी देश गंभीरतापूर्वक इस बात पर बहस कर रहे हैं कि क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इसकी जगह वे चीन के साथ ही समझौता न कर लें।
ओबामा की रणनीतिक बेवकूफी का दुष्परिणाम एक अधिक खतरनाक और अस्थिर दुनिया के रूप में सामने आया है। यह ऐसी दुनिया भी है जिसमें अमेरिका पर अब उसके सहयोगी देशों का विश्वास और भी कम हुआ है और इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को स्थिर बनाने का प्रयास और भी कठिन हो जाएगा। ओबामा ने भले ही पद भार छोड़ दिया हो और उनके वाकचार्तुय की यादें भी धीरे धीरे धूमिल हो जाएंगी, लेकिन जो नुकसान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को पहुंचाया है, उसका प्रभाव कुछ समय तक जरूर हम पर दिखता रहेगा।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.