जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बल दो परस्पर विरोधी स्थितियों में उलझे हैं: हर क्रिया की प्रतिक्रिया के कारण गोलीबारी, मुठभेड़ों, नागरिकों की मौतों और युवाओं के आतंकवाद का रुख करने का दुष्चक्र चल रहा है।
11 अप्रैल को, जब दक्षिण कश्मीर के खुदवानी गांव में मुठभेड़ की एक घटना के दौरान लोगों की भीड़ सुरक्षा बलों पर पथराव कर रही थी, तो उस समय मजबूरन एक “समझदारी भरा फैसला” लेना पड़ा। पथराव करने वालों की मंशा थी कि ऐसा माहौल बनाया जाए कि आतंकवादी सुरक्षाकर्मियों की घेराबंदी तोड़कर फरार हो जाएं। तीन नागरिकों और एक सेना के जवान सहित चार लोगों की मौत के बाद सेना, अर्धसैनिक बल और स्थानीय पुलिस ने हर गुजरते घंटे के साथ उग्र हो रहे विरोध को देखते हुए ऑपरेशन स्थगित कर दिया।
उस समय हालात और भी ज्यादा खराब हो गए, जब स्थानीय लोग आतंकवादियों को मुठभेड़ वाली जगह से बाहर निकालने का मंसूबा पूरा होने के बाद जश्न मनाने में जुट गए। उसी शाम सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो जारी हुए, जिनमें दिखाया गया कि किस तरह आतंकवादियों और उनके साथियों की रखवाली के लिए सड़क के दोनों तरफ सैंकड़ों लोग जमा हो गए और आतंकवादी मोटरसाइकिलों पर सवार होकर मौके से बचकर भाग निकले। सुरक्षा बलों को झुकना ही पड़ा, नहीं तो मरने वाले नागरिकों की तादाद बढ़ सकती थी।
कश्मीर घाटी में इस साल मुठभेड़ की अनेक घटनाओं के दौरान गोलीबारी की चपेट में आकर कई नागरिक मारे जा चुके हैं। हाल ही में शोपियां में मुठभेड़ की एक घटना में हिजबुल मुजाहिदीन के टॉप कमांडर सद्दाम पद्दार सहित पांच आतंकवादी मारे गए। इस मुठभेड़ में छह नागरिकों को भी जान गंवानी पड़ी।
यह कहना बेमानी होगा कि मुठभेड़ में होने वाली हर एक व्यक्ति की मौत के बाद असंतोष और ज्यादा फैलता है और हिंसक प्रदर्शन होते हैं और अक्सर ऐसा चक्र बन जाता है जिसमें हर एक मौत के बाद और ज्यादा विरोध प्रदर्शन होते हैं, जिनमें और ज्यादा लोग मारे जाते हैं। सड़कों पर हिंसक विरोध प्रदर्शनों में ज्यादातर नागरिकों की मौते, मुठभेड़ के दौरान या उसके बाद सुरक्षा बलों के साथ झड़पों के समय होती हैं।
मुठभेड़ में होने वाली हर एक व्यक्ति की मौत के बाद असंतोष और ज्यादा फैलता है और हिंसक प्रदर्शन होते हैं और अक्सर ऐसा चक्र बन जाता है जिसमें होने वाली हर एक मौत के बाद और ज्यादा विरोध प्रदर्शन होते हैं, जिनमें और ज्यादा लोग मारे जाते हैं।
हर बार किसी नागरिक की मौत होते ही पुलिस स्टेंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (या मानक संचालन प्रक्रियाएं ) करती है वह चिन्हित इलाकों में नागरिकों की आवाजाही पर रोक लगा कर इस दुष्चक्र को तोड़ने की कोशिश करती है। अस्थायी रूप से इंटरनेट ब्लॉक करने से लोगों में सरकार और सुरक्षा बलों के प्रति मायूसी और भी बढ़ जाती है।
इस साल 45 नए युवाओं के आतंकवादी गुटों में शामिल हो जाने की खबरें भी इतनी ही परेशान करने वाली हैं। बड़ी तादाद में युवाओं के हथियार डालने और सामान्य जीवन में वापस लौटने के बाजूद ऐसा हो रहा है। घाटी में पिछले चार महीनों में 30 से ज्यादा स्थानीय आतंकवादी मारे गए हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो किसी एक आतंकवादी के मारे जाने के बाद नए नौजवान आतंकवादियों के गुटों में भर्ती हो जाते हैं। पिछले साल भी ऐसा ही देखा गया था जब 126 स्थानीय युवक आतंकवादी बन गए। बावजूद इसके कि ऑपरेशन ऑल आउट के दौरान 210 आतंकवादी मारे गए, जिनमें से 86 स्थानीय नौजवान थे।
वास्तविकता तो यह है कि हर सफल मुठभेड़ और ज्यादा युवाओं के आतंकवाद का रुख करने का सबब बन रही है सुरक्षा प्रतिष्ठान इसी पहेली में उलझकर रह गए हैं : आतंकवादियों को मार गिराया जाए या नहीं। अगर आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों को कुछ देर के लिए रोक दिया जाए, तो आतंकवादियों के हौसलें और भी बुलंद हो जाएंगे और वे ऑन ड्यूटी और ऑफ ड्यूटी सुरक्षाकर्मियों, नागरिकों और राजनीतिक कामगारों पर हमले करना शुरू कर देंगे, इस तरह और ज्यादा आतंकवाद विरोधी उपाय अपनाने होंगे। अगर ये कार्रवाइयां चलती रहीं, तो हिंसा का यह चक्र कभी थमेगा नहीं।
सुरक्षा बलों के आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक वर्तमान में आतंकवादियों की कुल संख्या लगभग 250 है, जहां एक ओर 1990 के दशक के सक्रिय आतंकवादियों की तुलना में यह तादाद काफी कम है, वहीं दूसरी ओर, आतंकवादी गुटों, खासतौर पर स्थानीय आतंकवादी गुटों को मिल रहा जन समर्थन चिंताजनक है।
लगभग हर एक मुठभेड़ वाली जगह पर विरोध प्रदर्शन और सुरक्षा बलों के खिलाफ जनता का गुस्सा देखने को मिलता है। हर एक जनाजा शक्ति प्रदर्शन-जन समर्थन की झलक दिखाता है। आतंकवादियों के जनाजे पर बंदूकों से सलामी देना बहुत आम हो गया है। एक स्थानीय आतंकवादी सद्दाम पद्दार के जनाजे के दौरान, जब उसके साथी उसे बंदूकों से गोलियां चलाकर सलामी दे रहे थे, तो उसी समय उसकी मां को भी बंदूक का ट्रिगर दबाते देखा गया। जैसा कि आमतौर पर होता है, सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हो जाते हैं और यह विवेकहीन महिमामंडन और ज्यादा प्रचंड रूप धारण कर लेता हैं।
जम्मू कश्मीर पुलिस के सीआईडी विभाग की हाल ही की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बड़े पैमाने पर निकाले जाने वाले जनाजे “आतंकवाद” को रोमानी बनाते हैं और महिमामंडन करते हैं” और इस तरह और ज्यादा नौजवान आतंकवादी बनते हैं। इससे एक ओर उलझन उत्पन्न हो गई: मारे गए आतंकवादियों के शव वापस किए जाए या नहीं।
मारे गए आतंकवादियों के शव लौटाने से बड़े पैमाने पर जनाजे निकाले जाते हैं और मारे गए आतंकवादी को बंदूकों से सलामी दी जाती है, और सुरक्षा बल उस जगह पर जाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते। अगर आतंकवादियों के शव वापस नहीं किए जाते, तो लोगों का गुस्सा थानों और सेना के शिविरों पर फूट पड़ता है। शायद इसीलिए आतंकवादियों के शव लौटाने और जनाजे के दौरान उन जगहों से दूरी बनाकर रखने का रास्ता चुना गया है।
मारे गए आतंकवादियों के शव लौटाने से बड़े पैमाने पर जनाजे निकाले जाते हैं और मारे गए आतंकवादी को बंदूकों से सलामी दी जाती है और सुरक्षा बल उस जगह पर जाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते। और अगर आतंकवादियों के शव वापस नहीं किए जाते, तो लोगों का गुस्सा थानों और सेना के शिविरों पर फूट पड़ता है।
हर गुजरते महीने के साथ हालात जटिल होते जा रहे हैं, ऐसे में निर्वाचित प्रतिनिधियों ने जनता के पास जाने और युवाओं को आतंकवाद से अलग करने की कोशिश करने की हिम्मत नहीं दिखाई। दरअसल कोई भी राजनीतिक पार्टी आतंकवादियों का विरोध नहीं कर रही है और इस तरह अपने राजनीतिक अवसरों को अलगाववादियों के सामने समर्पित कर रही है। राज्य की मुख्यधारा वाली पार्टियों ने बड़ी सुविधा से कश्मीर समस्या से निपटने के लिए गेंद केंद्र सरकार और सुरक्षा बलों के पाले में डाल दी है।
जहां एक ओर, राजनीतिक संस्थान को अब तक इस ज्वलंत समस्या का अहसास नहीं हुआ है या वह उसकी मौजूदगी की अनदेखी करने का नाटक कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सुरक्षा प्रतिष्ठान को कश्मीर के बारे में अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। आतंकवाद से निपटने के लिए सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के स्टेंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (या मानक संचालन प्रक्रिया) में आमूल-चूल बदलाव लाना होगा। पिछले दो बरसों से उभर रहे रुझान से पता चलता है कि मौजूदा, मोटे तौर पर मुठभेड़ पर केंद्रित आतंकवाद विरोधी अभियान चेन रिएक्शन में तब्दील हो चुका है, जो हिंसा के चक्र को तोड़े बिना केवल लोगों को आतंकवाद के गर्त में धकेल रहा है।
नए दृष्टिकोण
भारत, आतंकवाद से निपटने के लिए अपने परम्परागत दृष्टिकोण जो 1990 के दशक के आतंकवाद के पहले चरण के बाद से इस मसले का कुछ खास समाधान नहीं कर सका है से किनारा करके कुछ प्रभावी उपाय बखूबी अपना सकता है। फ्रांस की आपराधिकन्यायशास्त्र प्रणाली में ऐसे कानून हैं, जो अपराध करने की मंशा को भी अपराध मानते हैं, इस तरह यहां अपराध घटित होने से पहले ही आपराधिक जांच होती है। फ्रांस के कानून किसी आतंकवादी गुट के साथ किसी व्यक्ति के बहुत कम यहां तक कि बेहद मामूली संबंध होने पर भी उसके खिलाफ कार्रवाई करने की इजाजत देते हैं। नए कानून लागू करने से आतंकवादियों की भर्ती, ट्रेनिंग और उन्हें लामबंद करने में लॉजिस्टिक सहायता करने वाले ओवर ग्राउंड वर्कर्स के नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई की जा सकेगी और आतंकवादियों को मिलने वाली सहायता का आधार समाप्त करने में मदद मिलेगी।
पिछले साल, जम्मू कश्मीर पुलिस की सीआईडी रिपोर्ट में कहा गया था कि श्रीनगर की सेंट्रल जेल आतंकवादी गुटों के लिए नई भर्तियों का गढ़ बन चुकी है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि जेल के भीतर ऐसी व्यवस्था तैयार की गई है कि नए लड़कों की भर्ती के बारे में मंजूरी जेल के कैदियों की ओर से दी जाती है। यह भी सामने आया कि न्यायपालिका ने कुछ गिरफ्तार आतंकवादियों के प्रति नरम रुख अपनाया और उन्हें राज्य की अन्य जेलों से सेंट्रल जेल में स्थानांतरित करने की मंजूरी दे दी। सेंट्रल जेल की व्यवस्था मोबाइल फोन और अन्य सुविधाओं तक पहुंच होने के कारण बंदियों को विध्वंसकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने में समर्थ बनाती है।
जम्मू कश्मीर की जेल प्रणाली अपराधियों को उनके द्वारा किए गए अपराधों की प्रकृति के आधार पर श्रेणियों में बांटने में विफल रही है। छोटे-मोटे अपराधों के लिए गिरफ्तार किए गए युवक जेल में कट्टर आतंकवादियों, अक्सर पाकिस्तानी नागरिकों के सीधे सम्पर्क में आते हैं। आतंकवादियों द्वारा जेल के भीतर इन अपराधियों को कट्टर बनाया जाता है और इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने का कोई तंत्र नहीं है।
जम्मू कश्मीर की जेल प्रणाली अपराधियों को उनके द्वारा किए गए अपराधों की प्रकृति के आधार पर श्रेणियों में बांटने में विफल रही है।
जम्मू-कश्मीर में मुठभेड़ पर केंद्रित कार्रवाई के तरीके ने आतंकवादी गुटों के लॉजिस्टिकल नेटवर्कस के खिलाफ गहन जांच-पड़ताल के आधार पर केस तैयार करने के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ी है। जम्मू-कश्मीर पुलिस सबूतों के आधार पर केस तैयार किए बिना लोगों को गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने के लिए कुख्यात रही है। दक्षिण कश्मीर में अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले के बाद, जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा की गई व्यापक जांच-पड़ताल से आतंकवादी हमले की पूरी साजिश का पर्दाफाश हो गया और आतंकवादियों का सफाया करने के अलावा हमले को अंजाम देने में सहायता करने वाले नागरिक नेटवर्क पर भी कार्रवाई की गई। हालांकि यह जांच-पड़ताल एक अपवाद थी। यदि सभी मामलों की जांच-पड़ताल की जाए, तो वे मुकदमे की सुनवाई के दौरान न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर खरे नहीं उतरेंगे। उचित जांच-पड़ताल और उसके संचालन की व्यवस्था करने वाले आवश्यक पुलिस सुधार, जांच प्रणाली की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के साथ ही सरकार की याचिका के समर्थन के जरिए डेटरेंस भी तैयार करेंगे।
फ्रांसीसी व्यवस्था में, आतंकवाद-विरोधी स्पेशल जजों को नियुक्त किया जाता है, जो सिर्फ आतंकवाद से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हैं और वे जांच एजेंसियों, खुफिया इकाइयों और न्यायपालिका के सीधे सम्पर्क में होते हैं। इससे वे मामलों को मुकम्मल रूप से समझ पाते हैं। इसी तरह, इन स्पेशल जजों को कश्मीर में आतंकवादी गुटों से संबंधित मामलों से निपटने के लिए नामित किया जा सकता है, जो बदले में मामलों की जांच-पड़ताल, मुकदमे की सुनवाई करेंगे और बिना किसी तरह की चूक के उन पर नजर रखेंगे।
इतना ही नहीं, “शहादत” की गाथा ने आतंकवाद को इस हद तक महिमामंडित कर दिया है कि नए रंगरूटों की कोई कमी नहीं है। एक बार फिर से, मुठभेड़ केंद्रित रवैया उन कारणों पर काबू पाने में नाकाम रहा है, जो आतंकवाद के सर उठाने का सबब बनते हैं। उत्तरी आयरलैंड में, आतंकवाद-विरोधी दृष्टिकोण ने यह दिखा दिया कि शहादत के गौरव और ग्लेमर को नष्ट करने से डेटरेंस का रास्ता तैयार होता है। संघर्ष से भरपूर आतंकवाद विरोधी अभियानों से कहीं बढ़कर, सुरक्षा बलों और सरकार के अन्य तंत्रों को आतंकवाद के महिमामंडन को समाप्त करने के लक्ष्य के साथ आतंकवादी गुटों के दुष्प्रचार को नाकाम करने के लिए इस-कथानक का विरोधी तरीका अपनाने की जरूरत है।
जब तक सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवाद-विरोधी दृष्टिकोण अपनाना जारी रहेगा, तब तक कश्मीर में हिंसा का चक्र बराबर चलता रहेगा। नए तरह के आतंकवाद ने 90 के दशक से अलग तरह की चुनौतियां प्रस्तुत की हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद-विरोधी अभियान की रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है, क्योंकि परम्परागत दृष्टिकोण केवल मरने वालों के आंकड़ों में बढ़ोत्तरी कर रहा है।
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