Published on Feb 27, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत-इस्राइल संबंध हमेशा से संवेदनशील मसला रहा है, इस दिशा में कुछ नए सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं।

भारत-इस्राइल संबंधों में मजबूती का नया दौर

भारत और इस्राइल को 1947 और 1948 में नौ महीने के अंतराल पर आजादी मिली थी। दोनों को ही आधुनिक राष्ट्र के रूप में जन्म लेते समय विभाजन का दंश झेलना पड़ा था। यहूदी एजेंसी के प्रमुख डेविड बेन-गुरियन द्वारा 14 मई 1948 को इस्राइल राष्ट्र की स्थापना की घोषणा की गई और उसके साथ ही इस्राइल संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो गया। अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमेन ने उसी दिन इस नए राष्ट्र को मान्यता भी दे दी।

अमेरिका ने ब्रिटेन द्वारा 1917 में की गई उस पहल का समर्थन किया था, जिसमें यहूदी राष्ट्र की स्थापना किए जाने का आह्वान किया गया था। इस पहल को बेलफोर घोषणापत्र (ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री ऑर्थर बेलफोर) के नाम से जाना गया। मई 1948 तक फिलीस्तीन अधिदेश के लिए उत्तरदायी रहे ब्रिटेन ने बाद में फिलीस्तीन में यहूदी राष्ट्र और अरब राष्ट्र दोनों की स्थापना का विरोध किया था। अरब और मुस्लिम देश कभी भी अरब भूमि के बीचोंबीच यहूदी राष्ट्र के लिए राजी नहीं हुए और उसे अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की मान्यता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ा।

मिश्रित राष्ट्र — जहां फिलीस्तीनी अरब और यहूदी जनता धर्मनिरपेक्ष देश में साथ-साथ रहें — के पक्ष में दलील देते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के विभाजन की योजना के विरोध में मतदान किया था। स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में इस्राइल और फिलीस्तीन के गठन को मंजूरी को मिले बहुमत ने भारत के मत को नामंजूर कर दिया था। (विभाजन की योजना को दो-तिहायी बहुमत मिला: इसके पक्ष में 33 और विपक्ष में 13 मत पड़े, ब्रिटेन सहित 10 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया।)

आखिरकार, 17 सितम्बर 1950 को भारत ने इस्राइल राष्ट्र को आधिकारिक तौर पर मान्यता प्रदान की, हालांकि उसके साथ भारत के राजनयिक संबंध 1992 में स्थापित हुए। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने इस्राइल के साथ कूटनीतिक संबंध शुरू करने को मंजूरी दी, जो कांग्रेस पार्टी से संबंधित थे, हालांकि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकारों के कार्यकाल में इस्राइल के साथ रिश्तों को और भी अधिक प्रोत्साहन मिला। इस्राइल ने मुम्बई में वाणिज्य दूतावास (ब्रिटिश राज के दौर में खुला पुरानी यहूदी एजेंसी का कार्यालय) बरकरार रखा, जो दोनों देशों के बीच आधिकारिक आदान-प्रदान का मार्ग बना और जिसने भारतीय यहूदी समुदाय को इस्राइल में जाकर बसने में सहायता की।

किस्मत और समय का चक्र आज भारत और इस्राइल को पहले से कहीं ज्यादा करीब ले आया है। इस्राइल ने अपनी स्थापना के जटिल इतिहास और उथल-पुथल भरे वर्षों तथा उसके बाद हुए तीन अरब-इस्राइली युद्धों को पीछे छोड़ते हुए एक लम्बी दूरी तय की है। भारत ने भी इतिहास के बोझ को उतार फेंका है और वोट बैंक के प्रति संवेदनशील भारतीय राजनीति की आशंकाएं घटती प्रतीत हो रही हैं, क्योंकि भारत और इस्राइल के राष्ट्रीय हित बीते दशकों के दौरान लगातार एक बिंदु की ओर झुकते रहे हैं। इस्राइल के साथ बढ़ते संबंधों ने भारत को सार्वजनिक रूप से फिलीस्तीन को समर्थन देने तथा दोनों पक्षों से बातचीत के जरिए द्विराष्‍ट्र समाधान एवं सुरक्षित सीमाओं पर आधारित शांतिपूर्ण समाधान तलाशने के लिए प्रेरित करने से नहीं रोका। जहां एक ओर यह प्रत्येक भारतीय सरकार की आधिकारिक स्थिति रही है, वहीं इस्रालय के साथ सार्वजनिक तौर पर नाता जोड़ने में कोई हिचकिचाहट भी नहीं रही।

वर्तमान में, फिलीस्तीन मामले पर इस्राइल किसी तरह के दबाव में नहीं है। न ही वह सम्पूर्ण फिलीस्तीन राष्ट्र को अपने दीर्घकालिक सुरक्षा हितों के अनुकूल देखता है। यरूशलम की स्थिति और शरणार्थियों की वापसी जैसे कुछ मामले दोनों पक्षों के रुख के मद्देनजर नहीं सुलझाए जा सकते। इस्राइल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के नेतृत्व वाली कट्टरपंथी लिकुद पार्टी की मौजूदा सरकार, जिसका रूढ़िवादी यहूदी पार्टियों से गठबंधन है, फिलहाल किसी तरह के समझौते के मूड में नहीं है। इराक, सीरिया और यमन में भड़के गृह युद्धों और “दाएश” या इस्लामिक स्टेट के उदय से पश्चिम एशिया क्षेत्र बंट गया है, ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान फिलीस्तीन मामले से हट गया है। इसलिए इस्राइल पर फिलीस्तीन के साथ किसी भी तरह का समझौता करने का अंतर्राष्ट्रीय दबाव कम है।

इस्राइल के लिए जो एकमात्र दबाव अहमियत रखता है, वह है अमेरिकी दबाव और इस्रालियों ने सफलतापूर्वक उस दबाव को निवर्तमान ओबामा प्रशासन से निष्प्रभावी करा लिया। ट्रम्प की हुकूमत आक्रामक रूप से इस्राइल समर्थक होगी। फिलीस्तीनी भी पश्चिमी तट में फिलीस्तीन प्राधिकार और गजा में हमास के बीच निराशाजनक ढंग से विभाजित हैं। क्षेत्र में उथल-पुथल और ईरान व सऊदी अरब के बीच घोर प्रतिद्वंद्विता ने सऊदी अरब और इस्राइल के हितों को एक होने के लिए बाध्य कर दिया है। इसलिए, क्षेत्रीय ताकतों के बीच भू-सामरिक प्रतिस्पर्धा बढ़ने से इस्राइल के प्रति अरब के शत्रुतापूर्ण रवैये में कुछ कमी आई है।

इस्राइल के राष्ट्रपति रेउवन रिवलिन की पिछले सितम्बर की भारत यात्रा, परिपक्व होते भारत-इस्राइल संबंधों का प्रतीक है, जो बीतते वर्षों के साथ प्रगाढ़ होते गए। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जनवरी 2016 में इस्राइल की यात्रा की थी और प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के सत्ता में आने के बाद से दोनों देशों के बीच ऐसे उच्च स्तरीय दौरों की संख्या बढ़ी है। व्यापक तौर पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2017 में, जब दोनों देश अपने कूटनीतिक संबंधों के 25 साल पूरे हो रहे हैं, ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी इस्राइल की ऐतिहासिक प्रथम यात्रा पर जा सकते हैं।

दूसरी ओर, इस्राइल ने प्रथम प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन के दौर से ही अपनी इस धारणा को यथावत रखा है कि भारत और इस्राइल आखिरकार करीबी दोस्त होंगे। बेन गुरियन और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नियमित रूप से पत्र व्यवहार करते रहे। उपनिवेशों को आजादी प्रदान करने की प्रक्रिया के जोर पकड़ने और एशिया एवं अफ्रीका में नए स्वतंत्र देशों के उदय के साथ ही अन्य देशों का समर्थन प्राप्त करने के लिए भारत की सहायता महत्वपूर्ण होगी, इसे स्वीकार करते हुए इस्राइल को संशय से घिरे भारत को यहूदी देश को मान्यता प्रदान करने के लिए राजी करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी। और तो और इस्राइली नेतृत्व ने नेहरू को राजी करने के लिए वैश्विक यहूदी समुदाय के सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व अल्बर्ट आइंस्टीन की भी मदद ली। लेकिन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन भी नेहरू को राजी नहीं कर सके, जबकि नेहरूजी उनका बेहद आदर करते थे।

आज की वास्तविकता यह है कि भारत-इस्राइल संबंधों का दायरा उच्च प्रौद्योगिकी वाले उत्पाद, रक्षा उपकरण, सुरक्षा, आसूचना, कृषि, जल प्रबंधन, फार्मास्यूटिकल्स आदि जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को शामिल करते हुए लगातार बढ़ रहा है। रक्षा उपकरणों का संयुक्त उत्पादन और विकास सहयोग के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभरकर सामने आया है। इस्राइल आज भारत के लिए प्रमुख रक्षा उपकरणों का तीसरा बड़ा स्रोत है। इस्राइल बरसों से दृढ़ निश्चय के साथ भारत को आकर्षित करता आया है, विशेषकर उस समय जब भारत को पाकिस्तान के साथ संघर्ष के समय महत्वपूर्ण रक्षा आपूर्तियों की आवश्यकता थी और आपूर्ति के अन्य स्रोत जल्द उपलब्ध नहीं हो सकते थे।

भारत ने भी जहां जवाब में वैसा ही व्‍यवहार किया, वहीं वह इस्राइल के साथ प्रगाढ़ होते अपने संबंधों को नजरंदाज करने की कोशिश करता रहा। इसके कारण वही थे — अरब और इस्लामिक देशों के साथ संबंध। हालांकि अवरूद्ध मुक्त व्यापार समझौता, चीन को इस्राइली युद्ध सामग्री की आपूर्ति, भारत में कुछ इस्राइली पर्यटकों द्वारा अशिष्ट और उग्र व्यवहार को लेकर चिंताएं यथावत बनी रहीं। आज, हालांकि द्विपक्षीय संबंध, अन्य देशों के साथ संबंधों के अधीन नहीं रहे हैं। इ्स्राइल के साथ संबंधों को भारतीय राजनीति में मोटे तौर पर द्विदलीय समर्थन हासिल है। भारत की असमंजस की स्थिति उस समय और भी विकट हो जाती है, जब इस्राइल, फिलीस्‍तीनियों पर कार्रवाई करता है। फिलीस्‍तीनी हिंसा के प्रति इस्राइल का सख्‍त रवैया और उसकी जमीनों को जब्‍त किया जाना भारतीय मुसलमानों में सहानुभूति और इस्राइल विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देता है, जो फिलीस्‍तीनियों के प्रति अपनी सहानुभूति तत्‍काल व्‍यक्‍त करते हैं। अजीब बात यह है कि पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में जब नियमित रूप से हिंदुओं का दमन किया जाता है और उन पर अत्‍याचार किए जाते हैं, तो भारतीय मुसलमान खामोश रहते हैं।

इस्राइल के साथ करीबी रिश्‍ते ईरान और खाड़ी में अरब देशों के करीबी रिश्‍तों के साथ-साथ ही प्रगाढ़ हुए हैं। शीर्ष स्‍तर पर नियमित रूप से दौरों के कारण 2017 में भारत में गणतंत्र दिवस के अवसर पर संयुक्‍त अरब अमीरात के शहजादे को मुख्‍य अतिथि के रूप में आमंत्रित करने का फैसला लिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने बहुपक्षीय बैठकों में भाग लेने के लिए किए गए अपने विदेशी दौरों में इस्राइली प्रधानमंत्री नेतान्‍याहू से मुलाकात की है। इसका कोई विकल्‍प नहीं है और भारत अरब अथवा इस्‍लामी देशों और इस्राइल के साथ करीबी रिश्‍ते कायम करने के प्रयास करता रहेगा। इस विकल्‍प को चुनने के लिए भारत पर कोई दबाव नहीं है। राष्‍ट्रपति के स्‍तर पर तो यात्राएं तो हुई हैं, वहीं इस्राइल के प्रधानमंत्री भारत की यात्रा पर आ चुके हैं, लेकिन अब तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस्राइल की यात्रा नहीं की है। वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री मोदी के इस्राइल की ऐतिहासिक यात्रा पर जाने वाले प्रथम प्रधानमंत्री बनने और इसे दुर्भाग्‍य को दूर करने का मंच तैयार हो चुका है।

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