Author : Ramanath Jha

Published on Sep 17, 2019 Updated 0 Hours ago

जिस प्रोजेक्ट के लिए म्यूनिसिपल बॉन्ड बेचकर पैसा जुटाया गया है, उसमें देरी होने पर जुर्माने की मांग को लेकर मुकदमेबाजी हो सकती है.

नगर निगम, म्यूनिसिपल बॉण्ड और मुकम्मल पूछताछ की दरकार

महाराष्ट्र, नगरनिगम बांड, शहरी स्थानीय निकाय, उभरती अर्थव्यवस्था, आर्थिक और विकास, राजनीतिक अर्थव्यवस्था, शहरी नीति, भारत में शहरीकरणपुणे नगर निगम (पुणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन यानी पीएमसी) ने जब 2017 में म्यूनिसिपल बॉन्ड बेचकर 2 अरब रुपये जुटाए तो उसकी चारों तरफ वाहवाही हुई थी. उसने 24×7 पानी सप्लाई प्रोजेक्ट के लिए यह पैसा जुटाया था, जिसकी कुल लागत 29 अरब रुपये थी. इस प्रोजेक्ट से निगम को अपने क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिकों को बराबर और बिना रुकावट के पेयजल की सप्लाई करने में मदद मिलती. इसके लिए 1,600 किलोमीटर के पाइपलाइन नेटवर्क और 103 अतिरिक्त वॉटर टैंकर की जरूरत थी ताकि पानी की मांग और वितरण को बेहतर ढंग से मैनेज किया जा सके. इस प्रोजेक्ट में तीन लाख पानी के मीटर भी लगाए जाने थे, जिससे पानी की बचत हो सके और इस्तेमाल के मुताबिक लोगों से शुल्क लिया जा सके. इस योजना को निगम की सीमा में मिलाए जाने वाले अतिरिक्त क्षेत्रों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था और पीएमसी ने 2021 में प्रोजेक्ट को पूरा करने का लक्ष्य रखा है.

बॉन्ड बेचकर पैसा जुटाने के लिए पीएमसी ने डबल एकाउंटिंग सिस्टम को अपनाया था और उसने केयर और इंडिया रेटिंग्स से अपनी रेटिंग कराई थी. दोनों ही एजेंसियों ने उसे AA+ की रेटिंग दी थी. इससे निगम के बॉन्ड निवेशकों से कर्ज लेने की योग्यता साबित हो गई थी. यह रेवेन्यू बॉन्ड था, जिसे 10 साल बाद भुनाया जा सकता था. इसके लिए सालाना 7.59 प्रतिशत का ब्याज़ तय किया गया था, जिसका भुगतान हर छह महीने पर किया जाना था. इस बॉन्ड इश्यू में सलाहकार, अरेंजर और मर्चेंट बैंकर तीनों की भूमिका एसबीआई कैप्स ने निभाई थी. बॉन्ड में पैसा लगाने वालों को भुगतान के लिए अलग से जो बैंक खाता खोला गया, एसबीआई कैप्स उसकी ट्रस्टी भी है.

म्यूनिसिपल बॉन्ड से ब्याज़ के तौर पर होने वाली आमदनी पर केंद्र सरकार की तरफ से टैक्स छूट भी नहीं मिलती. ना ही इंटरेस्ट रेट पर कोई सब्सिडी दी गई थी. इसके बावजूद पीएमसी को बॉन्ड बेचने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई और इश्यू 6 गुना ओवरसब्सक्राइब हुआ. यह पुणे नगर निगम पर निवेशकों के भरोसे का सबूत था.

निगम ने प्रॉपर्टी टैक्स से मिलने वाली रकम से बॉन्ड निवेशकों को भुगतान का वादा किया था और इसे स्टॉक एक्सचेंजों पर भी लिस्ट कराया गया था. पीएमसी के बॉन्ड में बैंक ऑफ महाराष्ट्र और ICICI प्रूडेंशियल ने भी निवेश किया था. महाराष्ट्र सरकार ने निगम को बॉन्ड बेचकर फंड जुटाने की मंजूरी तो दी थी, लेकिन उसने इस पर अपनी तरफ से गारंटी नहीं दी थी. जब निगम की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं होती, तब निवेशक इसकी मांग करते हैं. म्यूनिसिपल बॉन्ड से ब्याज़ के तौर पर होने वाली आमदनी पर केंद्र सरकार की तरफ से टैक्स छूट भी नहीं मिलती. ना ही इंटरेस्ट रेट पर कोई सब्सिडी दी गई थी. इसके बावजूद पीएमसी को बॉन्ड बेचने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई और इश्यू 6 गुना ओवरसब्सक्राइब हुआ. यह पुणे नगर निगम पर निवेशकों के भरोसे का सबूत था. उन्हें यकीन था कि निगम आसानी से बॉन्ड पर भुगतान कर पाएगा. वैसे इस भरोसे का पुणे नगर निगम की वित्तीय स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है. मार्केट ने निगम के बजट को देखते हुए यह माना कि उसे 200 अरब रुपये वापस लौटाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. वहीं, पीएमसी बॉन्ड बेचकर पैसा जुटाने वाली इस तरह की कोई पहली संस्था नहीं थी. दो दशक पहले अहमदाबाद नगर निगम ने निवेशकों को बॉन्ड बेचकर पैसा जुटाया था और उसके बाद कुछ दूसरे निगमों ने भी ऐसा ही किया. भारत में नगर निगमों ने अमेरिका के यूएलबी (अर्बन लोकल बॉडीज) से प्रेरित होकर बॉन्ड बेचे थे.

फेडरल रिज़र्व की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में म्यूनिसिपल बॉन्ड मार्केट 3.853 लाख करोड़ डॉलर का था. अमेरिका से इसके लिए भारत में प्रेरणा तो ली गई, लेकिन इसका दायरा बहुत सीमित रहा.

अमेरिका में शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए 100 साल से ऐसे बॉन्ड की बिक्री होती रही है. एक अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में हजारों की संख्या में यूएलबी हैं और उनमें से करीब 60 प्रतिशत मार्केट से फंड जुटा चुके हैं. फेडरल रिज़र्व की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में म्यूनिसिपल बॉन्ड मार्केट 3.853 लाख करोड़ डॉलर का था. अमेरिका से इसके लिए भारत में प्रेरणा तो ली गई, लेकिन इसका दायरा बहुत सीमित रहा. पीएमसी के 200 अरब रुपये जुटाने से पहले 15 साल की अवधि में किसी भी निगम ने इस रास्ते से फंडिंग का इंतजाम नहीं किया था. पुणे नगर निगम के सफलतापूर्वक पैसा जुटाने से दूसरे निगमों को भी इस रास्ते से फंडिंग की प्रेरणा मिलेगी.

इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए बड़े पैमाने पर पैसा जुटाने का यह आकर्षक वैकल्पिक रास्ता है. इसकी शुरुआत निगम क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से अपनी रेटिंग करवाने से कर सकते हैं, जिनकी निवेशकों के बीच साख होती है. हालांकि, यह तब तक संभव नहीं होगा, जब तक कि स्थानीय निकाय अपनी वित्तीय स्थिति में सुधार नहीं लाते. उन्हें म्यूनिसिपल फ़ाइनेंस के लिए रिफ़ॉर्म करने होंगे. एकाउंट प्रैक्टिस, टैरिफ और गवर्नेंस में भी रिफ़ॉर्म की जरूरत है. खासतौर पर बॉन्ड जारी करने से संबंधित एकाउंटिंग रिफ़ॉर्म सबसे महत्वपूर्ण है. इसके लिए निकायों को पारंपरिक सिंगल एंट्री वाले नकद आधारित व्यवस्था से डबल एंट्री वाले एक्रुअल एकाउंटिंग सिस्टम में शिफ्ट होना होगा. इस फ़ाइनेंशियलरिपोर्टिंग का मकसद यह है कि इससे म्यूनिसिपल संस्थान के वित्तीय प्रदर्शन और उसकी वित्तीय स्थिति की सही जानकारी मिलेगी. दूसरी तरफ, सिंगल एंट्री कैश आधारित एकाउंटिंग सिस्टम से सारी वित्तीय जानकारियां नहीं मिल पातीं. इसलिए उनके सही होने पर शक होता है.

बढ़ती आबादी और क्षेत्रों के कारण निगमों पर अधिक लोगों तक सेवाओं की डिलीवरी का दबाव बढ़ रहा है. इसके साथ, जब किसी प्रोजेक्ट पर काम शुरू होता है तो कई ऐसी ग़लतियों का पता चलता है, जिनके बारे में पहले सोचा नहीं गया था.

हालांकि, हाल में पीएमसी के म्यूनिसिपल बॉन्ड को लेकर निराशाजनक ख़बर आई है. पता चला है कि बॉन्ड बेचकर निगम ने जो पैसा जुटाया था, उसे उसने फ़िक्स्ड डिपॉजिट और बचत खाते में रखा है. अभी तक वह इससे ब्याज़ के रूप में 20.73 करोड़ की कमाई कर चुका है, जबकि बॉन्ड खरीदने वालों को उसने 30.36 करोड़ का ब्याज़ चुकाया है. पीएमसी की जनरल बॉडी में पूछे गए सवाल के जवाब से यह जानकारी सामने आई. आपको यह भी जानना चाहिए कि केंद्र सरकार से 26 करोड़ की जो राहत पुणे नगर निगम को मिली थी, उसे भी उसने फ़िक्स्ड डिपॉजिट किया था. परेशान करने वाली बात यह है कि पीएमसी बॉन्ड बेचकर जुटाया गया पैसा वॉटर सप्लाई प्रोजेक्ट पर इसलिए खर्च नहीं कर पाई क्योंकि वह इस पर काम करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थी. अक्सर कहा जाता है कि स्थानीय निकायों के कामकाज में एक शख़्स की चलती है, जिससे ऐसी समस्याएं सामने आती हैं. यह आरोप कुछ हद तक सही है. हालांकि, निगम से जुड़ी प्रक्रियाएं लंबी होती हैं और उनके लिए कई चरणों में मंजूरी लेनी पड़ती है. इसमें इन बातों का ख़्याल नहीं रखा जाता कि बढ़ती आबादी और क्षेत्रों के कारण निगमों पर अधिक लोगों तक सेवाओं की डिलीवरी का दबाव बढ़ रहा है. इसके साथ, जब किसी प्रोजेक्ट पर काम शुरू होता है तो कई ऐसी ग़लतियों का पता चलता है, जिनके बारे में पहले सोचा नहीं गया था. पुणे के मामले में वॉटर मीटर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी ने ध्यान दिलाया कि मीटरों को सही ढंग से इंस्टॉल नहीं किया गया था. इसलिए उन्हें सही तरीके से फिर से इंस्टॉल करना होगा. दूसरी तरफ, इंस्टॉलेशन कंपनी ने कहा कि कंक्रीट की सड़कें होने के कारण सही ढंग से मीटर लगाने में दिक्कत हो रही है. इस तरह के कई मसलों के कारण प्रोजेक्ट में पहले ही काफी देरी हो चुकी है. इसलिए निगम तय समय पर परियोजना पूरा नहीं कर पाएगा. यह कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन होगा, जिसके कारण निगम पर जुर्माना लगाने की मांग हो सकती है. ऐसी स्थिति में मुकदमेबाजी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. पुणे नगर निगम बॉन्ड मामले में सबसे बड़ी बात यह सामने आई है कि वह उस पैसे को बैंक में रखकर ब्याज़ का भुगतान कर रहा था. यह निगम के क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के लिए अतिरिक्त टैक्स है, जिसका भुगतान आखिरकार उन्हें ही करना होगा. बॉन्ड से पैसा जुटाने से पहले ड्यू डिलिजेंस (मुकम्मल जांच-पड़ताल) की जानी चाहिए. किसी तरह का कॉन्ट्रैक्ट करने से पहले पूरी तैयारी होनी चाहिए. इस चरण में की जाने वाली ग़लतियोंसे प्रोजेक्ट को शुरू करने में बाधा खड़ी होगी. उसे पूरा करने में अधिक समय लगेगा, जिससे प्रोजेक्टकी लागत बढ़ेगी. पाठकों को इस पर ग़ौर करना चाहिए कि निगम की क्षमता, शहरी गवर्नेंस और उनकी प्रक्रिया के बारे में हमने जो भी चर्चा की, उनसे यह बात साफ हो गई है कि इसके लिए व्यापक रिफ़ॉर्म की जरूरत है.

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