Author : Rasheed Kidwai

Published on Jul 05, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत में हिंसक उग्रवाद पर काबू पाने के लिए राष्ट्रीय रणनीति तैयार करने की सख्त जरूरत है।

मुस्लिम समुदाय को साथ लेकर व्यापक उग्रवाद विरोधी कार्यक्रम की जरूरत

देश में मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित मदरसों में व्यवस्थित पाठ्यक्रम का अभाव है और केन्द्र, राज्य सरकारों और मुस्लिम समुदाय के बीच नजदीकी समन्वय की भी कमी है, हांलाकि धार्मिक संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों और व्यक्तिगत स्तर पर छिटपुट स्तर पर हिंसक उग्रवाद विरोधी प्रयास होते रहे हैं।

राजनीतिक स्तर पर कई राजनीतिज्ञों का मानना है कि सब कुछ ठीक ठाक है। वे कुछ वर्ष पहले के वाकिये को बहुत गर्व से याद करते हैं जिसमें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने उस समय अमेरिकी दौरे पर आये भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए लॉरा बुश से, ऐसा बताते हैं, कहा था: “ये प्रधानमंत्री हैं ऐसे लोकतांत्रिक भारत देश के, जहां की 15 करोड़ की मुस्लिम आबादी में एक भी अलकायदा का सदस्य नहीं है।”

इस वर्ष अप्रैल में गुरूग्राम में चौथे आतंकवाद विरोधी सम्मेलन “Changing Contours of Global Terror” को संबोधित करते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने आबादी के एक वर्ग खास कर युवाओं के कट्टरपंथ की राह चुनने को एक प्रवृत्ति और पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप की सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण समस्याओं में से एक करार दिया था। अलकायदा नेटवर्क का पश्चिम एशिया से दक्षिण एशिया तक पहुंच जाना एक सच्चाई है जो भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है। केन्द्रीय गृह मंत्री का मानना था कि अत्याधुनिक संचार प्रणाली तक आतंकवादी समूहों की आसान पहुंच और साइबर स्पेस, इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक मेल जैसे अत्याधुनिक तकनीक की आसान उपलब्धता की वजह से आतंकवादी समूहों को अंतरराष्ट्रीय संचार प्रणाली हासिल हो गयी है।

राजनाथ सिंह ने कहा था कि गृह मंत्रालय आईएस (इस्लामिक स्टेट) के प्रसार और सोशल मीडिया के इस्तेमाल के तौर तरीके पर कड़ी नजर बनाये हुए है क्योंकि यही वो मुख्य साधन है जिसके जरिये युवा पीढ़ी के बौद्धिक मुस्लिमों को वैचारिक तौर पर भरमाया जाता है, उनकी भर्ती की जाती है और उनका नेटवर्क तैयार किया जाता है। गृह मंत्री ने कहा कि आईएस के मौजूदा दुष्प्रचार की वजह से भारत में आतंकवादियों की जेहादी मुहिम में काफी बदलाव आया है जो अभी तक मुख्य रूप से भारत सरकार/समाज के खिलाफ नाराजगी से जुड़ा था। गृह मंत्री ने कहा “हांलाकि मुझे खुशी है कि आईएस के उदय के बाद भारत की सामाजिक बनावट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और मुझे भरोसा है कि आगे भी देश पर इसका कोई असर नहीं होगा।”

भारत मुस्लिम समुदाय की आबादी के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है और इस बात को ध्यान में रखें तो ये आंकड़ा बहुत ही छोटा है।

गृह मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि एक आकलन के मुताबिक जनवरी 2014 से जून 2017 के बीच कुल 88 भारतीयों या भारतवंशियों ने इराक और सीरिया में आईएस की सदस्यता हासिल की है। इसके अलावा 80 लोगों को कई उपायों के जरिये आईएस में शामिल होने से रोका गया। इन उपायों में एजेंसियों की मदद और संबंधित परिवार का सहयोग लेना भी शामिल है। भारत मुस्लिम समुदाय की आबादी के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है और इस बात को ध्यान में रखें तो ये आंकड़ा बहुत ही छोटा है। हांलाकि जैसा कि ओआरएफ की सीनियर फेलो माया मीरचंदानी ने अपने शोध पत्र में कहा है कि ये आंकड़े दो बातों का संकेत देते हैं:

  • भारत के पथभ्रष्ट और दिग्भ्रमित मुस्लिमों के एक छोटे से वर्ग में उग्रवादी और धर्म के नाम पर अतिवादी मार्ग अपनाने की प्रवृति है और इस समुदाय को हिंसक उग्रवाद विरोधी राष्ट्रीय अभियान में साझीदार बनाये रखने की जरूरत है। भारत ने कुछ प्रमुख देशों के साथ आतंकवाद विरोधी और सुरक्षा संबंधी विषयों पर संयुक्त कार्य दल (JWGs) गठित करने की दिशा में कदम उठाये हैं और आपराधिक मामलों के लिए दूसरे देशों के साथ आपसी कानूनी सहायता संबंधी द्विपक्षीय संधियां (MLATs) भी की हैं ताकि सबूत जुटाने, गवाहों और जगहों के स्थानांतरण का कार्य संभव हो सके और अपराध को रोकने की कार्रवाई की जा सके लेकिन देश के अंदर समुदायों और सामुदायिक नेताओं को इस प्रयास में शामिल करने की दिशा में व्यवस्थित तरीके से काम नहीं हो सका है।

बतौर एक मीडिया कर्मी मैंने मौलवियों, बौद्धिक वर्ग और सामुदायिक नेताओं के साथ नजदीकी संपर्क रखा है और मेरा मानना है कि भारतीय मुस्लिम समाज के अंदर हिंसक उग्रवाद विरोधी अभियान सामुदायिक नेताओं, माताओं, मौलवियों अन्य संबंधित पक्षों की मदद लेकर चौबीसों घंटे चल रहा है खासकर 9/11 की घटना के बाद।

भारत में इस्लामिक विचारधारा का कोई भी मतावलंबी ऐसा वस्तुत: नहीं है जिसने धर्म के नाम पर आत्मघाती बमबारी या निर्दोषों की हत्या के खिलाफ फतवा नहीं जारी किया हो। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये कि कई भारतीय मुस्लिम उलेमा चाहते हैं कि भारत में अम्मान घोषणापत्र को स्वीकार किया जाये। अम्मान घोषणापत्र पर दस्तखत करने वालों में मौलाना महमूद मदनी, केरल के शेख अबूबकर मुसलियार और अन्य शामिल हैं। मौलवियों और सभी मतावलंबियों के मुस्लिम विद्वानों द्वारा वर्ष 2004 में स्वीकृत इस घोषणापत्र को लेकर मुस्लिम समुदाय में वैश्विक स्तर पर सहमति है। इस घोषणापत्र में ‘विधर्मियों को काफिर करार देने को भी अमान्य ‘ करार दिया गया है। यह इस्लाम धर्म में जड़ों तक फैला हुआ है लेकिन अब काफिर घोषित करने की परंपरा पर रोक लगाने मांग उठ रही है।

भारत में इस्लामिक विचारधारा का कोई भी मतावलंबी ऐसा वस्तुत: नहीं है जिसने धर्म के नाम पर आत्मघाती बमबारी या निर्दोषों की हत्या के खिलाफ फतवा नहीं जारी किया हो। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये कि कई भारतीय मुस्लिम उलेमा चाहते हैं कि भारत में अम्मान घोषणापत्र को स्वीकार किया जाये।

ग्यारह से 25 साल के बच्चों के मुस्लिम माता-पिता अपने बच्चों की सोशल मीडिया प्रोफाइल पर लगातार निगरानी रख रहे हैं। कई मामलों में उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, केरल और महाराष्ट्र के माता पिता ने उस समय खुद ही पुलिस को सूचना दी जब उनके युवा बेटे विदेश यात्रा के दौरान गायब हो गये या उनके कट्टरपंथी विचारधारा से जुड़ने के संकेत मिले।

भारत के मदरसे पाकिस्तान औऱ अफगानिस्तान के मदरसों से काफी अलग हैं। मदरसों में शिष्यों को ‘सलीका ए इख्लाक’ ( मतभेद दूर करने के तरीके) की शिक्षा दी जाती है ताकि आपसी मतभेदों को सौहाद्र पूर्ण तरीके से हल किया जा सके। ‘सलीका ए इख्लाक’ पाठ में इस बात का उल्लेख है कि पैगंबर मोहम्मद के सम्मानित सहयोगियों ने कैसे अपने मतभेदों को सौहाद्रपूर्ण तरीके से सुलझाया और कैसे इस्लाम के चार इमामों ने आक्रमण और हिंसा का रास्ता अख्तियार किये बगैर धर्म के अनुरूप अपने विचार व्यक्त किये।

मुस्लिम समुदाय के आंतरिक कट्टरपंथी मतभेद भी कड़ी चुनौती पेश करते हैं। अतिवादी विचारधारा की कुछ धाराएं उसी धर्म के दूसरे मतों के खिलाफ नफरत से शुरू होती हैं और कई बार ये हिंसक रूप ले लेती हैं। एक बार फिर यही कहना है कि, मसलों के समाधान और एकजुट तस्वीर पेश करने के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं।

लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कट्टरपंथ के प्रसार पर रोक लगाने के लिए साझा जिम्मेदारी के तहत परामर्शदाताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अन्य समुदाय के सदस्यों से मदद लेने की आवश्यकता है। ये प्रतीत होता है कि यहां पाठ्यक्रम या विस्तृत जानकारी वाले नोट्स के अभाव जैसे कुछ छोटे लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे मौजूद हैं। मुस्लिम समाज में अंग्रेजी की समझ का अभाव, मुस्लिम युवाओं को उर्दू पढ़ने लिखने में होने वाली दिक्कत और हिंदी में प्रासंगिक सामग्री की अनुलब्धता जैसे कुछ व्यवहारिक पहलू हैं जिन्हें ध्यान में रखने की जरूरत है।

मुस्लिम समुदाय की सहभागिता भी अनिवार्य है ना सिर्फ पहलकदमियों को दिशानिर्देश देने के लिए बल्कि उन्हें ये अहसास कराने के लिए कि इस प्रयास वे भी शामिल हैं और ये प्रयास उन्हीं के लिए है। इससे हिंसक उग्रवाद कम करने में मदद मिलेगी। इसे अंग्रेजी कहावत ‘हैविंग ए सीट एट दी टेबल ’ के जरिये उल्लिखित किया गया है इस तर्क के साथ कि जब तक मुस्लिम ये चाहते हैं कि उन्हें गंभीरता से लिया जाये और उनकी चिंताओं को सुना जाये तब तक उन्हें मेज पर बनाये रखने है की जरूरत है ताकि उन्हें जरूरी नीतिगत चर्चाओं से अवगत कराया जा सके। लोकतांत्रिक सहभागिता और सशक्तीकरण इस मामले में काफी महत्वपूर्ण है।

राजनीतिक फलक पर कई कारक हैं जो भय को बढ़ावा दे रहे हैं, सांप्रदायिक सद्भभाव बिगाड़ रहे हैं समूहों और उप समूहों के बीच ध्रुवीकरण विरोधी प्रयास कर रहे हैं। सरकार और विपक्ष के अंदर मौजूद तत्वों की जो भूमिका है वो सहायक या मददगार नहीं है। इसका परिणाम ये हो रहा है कि युवाओं का राजनीतिक प्रक्रिया और सिस्टम से लगातार मोहभंग हो रहा है। ये बहुत चिंतित करने वाली बात है। केन्द्रीय मंत्री एमजे एकबर ने 11 जून 2018 को ओरआरएफ के ‘Tackling Insurgent Ideologies’ विषय पर आयोजित कॉन्क्लेव के उद्घाटन भाषण में कहा था कि पिछले सात दशक में सतत लोकतंत्र वो मुख्य कारण है जिसकी वजह से भारतीय मुस्लिम इस्लामी हिंसा के लालच में नहीं फंसे हैं।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से लोकसभा और कई राज्यों की विधानसभाओ में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में काफी कमी आई है। इस समय संसद के निचले सदन लोकसभा में सिर्फ 23 मुस्लिम सदस्य हैं जो अब तक का सबसे छोटा आंकड़ा है। संसद में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कभी भी उनकी आबादी के अनुपात में नहीं रहा। लोकसभा में सबसे ज्यादा मुस्लिम सांसद 1980 में थे जब इनकी संख्या 49 थी। इसके अलावा 1952 में 21, 1957 में 24, 1962 में 23, 1967 में 29, 1971 में 30, 1977 में 34, 1980 में 49, 1984 में 46, 1989 में 33, 1991 में 28, 1996 में 29, 1999 में 36, 2009 में 30 और 2014 में 23 सांसद थे।

सांप्रदायिकता वो क्रियाशील कारक है जो संसद और राज्य की विधानसभाओं में मुस्लिमों के कम प्रतिनिधित्व के लिए जिम्मेदार है। प्रमुख राजनीतिक दलों की ओर से कम मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया जाता है। बहुसंख्यकवाद की भावना दिनों दिन प्रबल हो रही है। भीड़ द्वारा हत्या की घटनाएं तो छिटपुट हैं लेकिन इससे दहशत फैल रही है और इस वजह से उस वर्ग में एक स्तर पर अलगाव की भावना भी पैदा हो रही है। व्हाट्सऐप पर झूठी और फर्जी खबरों की बढ़ती तादाद, देशद्रोह के आरोप में निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी, कानून का मनमाना इस्तेमाल, लगातार बिगड़ते सामाजिक-आर्थिक संकेतक, बेरोजगारी और मुस्लिमों में मौजूद मायूसी की वजह से ऐसे हालात बन रहे हैं जिससे स्थिति बिगड़ सकती है। समय तेजी से बीत रहा है और इस समुदाय को साथ लेकर व्यापक हिंसक उग्रवाद विरोधी (CVE) कार्यक्रम शुरू करने की तत्काल आवश्यकता है।

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