Published on Nov 05, 2018 Updated 0 Hours ago

चूंकि शिक्षण का वातावरण जड़ नहीं रहा, इसलिए यह ज़रूरी है कि इसके विस्तारित स्थान का पूरी क्षमता के साथ इस्तेमाल किया जाए और यहां तक पुस्तकालय जैसे पारंपरिक शिक्षण स्थलों में भी नई अंतर्दृष्टि और प्रयोगशीलता विकसित की जाए।

शिक्षा में शहरी साझेदारी की ओर

भारत के शहरीकरण की कहानी चौथी औद्योगिक क्रांति और लगातार सर्वव्यापी होते सूचना-युग के साथ-साथ चल रही है। इसलिए यह ज़रूरी है कि नागरिक कम से कम इतने सक्षम हों कि अपनी पहचान कायम रखते हुए सूचना की इस भूलभुलैया के बीच अपना रास्ता खोज सकें। इस लिहाज से मौजूदा और भावी शहरी विन्यास में शिक्षा और शिक्षण पर अलग तरह से विचार किया जाना चाहिए। जहां तकनीक और डेटा इस दौर में शिक्षण को बिल्कुल अनपेक्षित रास्तों की ओर ले जाएंगे, वहीं शहरों के भौगोलिक पर्यावरण के भीतर इसका प्रस्फुटन काफ़ी अलग और गतिशील होगा। इसमें कक्षाएं, प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय, सार्वजनिक परिवहन, मनोरंजन केंद्र, संग्रहालय और यहां तक कि कामकाज की जगहें भी शामिल (लेकिन यहीं तक सीमित नहीं) हो सकती हैं।

चूंकि शिक्षण का वातावरण जड़ नहीं रहा, इसलिए यह ज़रूरी है कि इसके विस्तारित स्थान का पूरी क्षमता के साथ इस्तेमाल किया जाए और यहां तक पुस्तकालय जैसे पारंपरिक शिक्षण स्थलों में भी नई अंतर्दृष्टि और प्रयोगशीलता विकसित की जाए। पारंपरिक ढंग से पढ़ने की जगह होने के अतिरिक्त शहरी केंद्रों में पुस्तकालयों की कल्पना मिलने-जुलने और संवाद करने की जगहों के तौर पर भी की जानी चाहिए। इनमें जहां मौजूदा संरचनाओं का पूरा इस्तेमाल शामिल है, वहीं इसके इस्तेमाल की अभिनव क्षमताओं का दोहन भी ज़रूरी है। ज्ञान के समाज में सार्वजनिक पुस्क पर इस बीज पत्र में लेखकों ने 31 सूचनात्मक वैश्विक शहरों (इस सूची में एक भी भारतीय शहर नहीं है) में पुस्तकालयों का विश्लेषण किया है और पाया कि 77 फ़ीसदी में मिलने-जुलने की जगहें हैं। साथ ही, करीब 97 फीसदी पुस्तकालयों में बच्चों के लिए अलग से शिक्षण की जगहें हैं। दिलचस्प ये है कि 70 फीसदी से ज़्यादा पुस्तकालयों में शहर में कहीं भी पुस्तकालय से ‘लिए गए मीडिया’ को वापस करने का विकल्प दिया गया है ताकि यूजर मोबिलिटी बनी रहे। सूचना हासिल करने के लिहाज से नागरिकों के लिए कहीं आना-जाना कोई मुद्दा नहीं है।

दुनिया भर में लोगों ने इस तरह की पहल ली है ताकि तेज़ शहरीकरण सभ्यतागत विकास के साथ क़दम मिला कर चल सके।

इनमें से ज़्यादातर पहलक़दमियां पैसे के लिहाज से समझदारी भरी हैं, मौजूदा ढांचे का अधिकतम इस्तेमाल करती हैं और शहर-निर्माण के विशाल कथानक में कुछ जोड़ती ही हैं। मिसाल के तौर पर, 2013 में बोस्टन में ‘बोस्टन वन कार्ड प्रोजेक्ट शुरू किया गया जिसमें बस एक कार्ड से सरकारी स्कूलों के छात्रों को शहर के सभी पुस्तकालयों, स्कूली-संसाधनों और साथ ही साथ सामुदायिक शिक्षण केंद्रों तक जाने की सुविधा दी गई। इसका मकसद शहर में शिक्षण की सारी जगहों से छात्रों को बिना किसी अवरोध के जोड़ना था। नतीजा यह हुआ कि शहर के अलग-अलग हिस्सों के शिक्षण केंद्रों की शुरुआत नीतिगत प्राथमिकता हो गई जिन्हें सरकारी स्कूलों के शैक्षणिक नतीजे सुधारने से सीधे जोड़ा जा सकता था। इसी तरह अर्जेंटीना के 77,000 की आबादी वाले शहर विला मारिया में हर नवजात शिशु और उसके परिवार को एक म्यूनिसिपल लाइब्रेरी कार्ड दिया जाता है ताकि छोटी उम्र से पढ़ने की प्रेरणा मिले और सामुदायिक जगहों पर पारिवारिक शिक्षण को बढ़ावा मिले। इसके अलावा शहर के अलग-अलग हिस्सों तक चलंत पुस्तकालय जाते हैं।

सॉफ्टवेयर के विकास में दुनिया के सबसे अहम मुल्कों में होने के बावजूद, भारत ने अब तक अपनी इस क्षमता का सार्वजनिक सूचना क्षेत्र में पूरा इस्तेमाल नहीं किया है। जहां दुनिया लाइब्रेरी साइंस की टेक्नोलॉजी में कुलांचे भर रही है, वहीं भारत के ज़्यादातर क़दम उन संस्थानों तक सीमित हैं जिन्हें केंद्र से पैसा मिलता है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक के आईआईटी मंगलौर ने हाल ही में अपना ई लाइब्रेरी सेक्शन शुरू किया जिसमें 11,000 पत्रिकाएं और 20 डेटाबेस तक पहुंच के साथ-साथ डिजिटल रीडिंग और डिस्कशन रूम है और इन सबको छात्र दिन भर किसी भी इंटरनेट वाली जगह से देख सकते हैं। इसके अलावा इसने छात्रों को समझाने के लिए ट्रेनिंग सेशन भी चलाए कि वे डिजिटल लाइब्रेरी के ढांचे में कैसे प्रासंगिक सूचना हासिल कर सकते हैं। इसके उलट, कोलकाता की चैतन्य लाइब्रेरी, जिसे 1889 में रवींद्रनाथ टैगोर सहित कई जानी-मानी हस्तियों ने शुरू किया, ज़्यादातर नॉस्टैल्जिया पैदा करने के ही काम आ रही है। यहां कई ऐतिहासिक पत्रिकाएं हैं, जिनमें से कई दीमकों और बारिश के पानी की शिकार हो चुकी हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि फंड की कमी आधुनिकीकरण को दूर का सपना बना देती है। बदक़िस्मती से, आईआईटी मंगलौर के मुक़ाबले चैतन्य भारत में पुस्तकालयों के हाल की ज़्यादा असली झलक दिखाता है।

सबसे पहले, भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों का कोई भरोसेमंद और एक जगह इकट्ठा डेटाबेस नहीं है। अलग-अलग सूत्र देश में आधे-अधूरे ढंग से बिखरे पुस्तकालयों की संख्या क़रीब 70,000 बताते हैं। जहां, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सौ से कम पुस्तकालय हैं, वहीं दक्षिणी राज्यों में उनकी तादाद हज़ारों में है।

दूसरे, पुस्तकालय भले राज्य का विषय हों, कई राज्यों को अब तक पुस्तकालय कानून बनाने हैं। इसकी वजह से एक अधिकार-क्षेत्र में समान तरीक़े और नीतियां रखने का जनादेश  तैयार होने में रुकावट आती है. नतीजा ये है कि भारत सरकार की संस्था राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन के पास फंड तो बहुत है, लेकिन राज्य सरकारों की ओर से शायद ही उतने प्रस्ताव हों।

अंत मेंडिजिटल सपने की भी कई शाखाएं मालूम होती हैं, लेकिन कोई पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर रहीं। राष्ट्रीय स्तर पर कुछ लाइब्रेरी पोर्टलों के लिए फंड का इस्तेमाल किया गया है- मसलन,  आइआइटी खडगपुर के साथ नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी (39 करोड़ रुपये) और आइआइटी बॉम्बे की साझेदारी में नेशनल वर्चुअल लाइब्रेरी (72 करोड़ रुपये)। जहां वर्चुअल लाइब्रेरी अब भी कुछ चुने हुए यूजर्स के लिए अपने प्रोटोटाइप दौर में है, डिजिटल लाइब्रेरी का एक कामचलाऊ पायलट वर्शन तैयार हो चुका है जिसे नेविगेट करना मुश्किल है, जो वास्तविक पोर्टल 35 लाख रजिस्टर्ड यूज़र होने का दावा करता है, वह यह लेख लिखे जाने के समय तक काम नहीं कर रहा है।

पुस्तकालय शहरीकरण के सांस्कृतिक चरित्र पर ध्यान देने व्यापक मुद्दे का हिस्सा हैं। ज़्यादातर शहरीकृत देशों ने अब भौतिक आख्यान के वर्चस्ववादी विमर्शों से परे जाकर उनकी ओर देखना शुरू किया है जिनका एक सभ्यतागत प्रभाव है। हर्फ़ और जज़्बे में शिक्षण का शहर होने की कोशिश में पूर्ी चीन के शेनजैंग प्रांत की राजधानी हांगझाऊ- जिसकी आबादी क़रीब एक करोड़ है- ने ‘पंद्रह मिनट के सांस्कृतिक दायरे’ की अवधारणा को आकार दिया है जिसमें यह कल्पना की गई है कि शहर के हर वाशिंदे के घर से अधिकतम 15 मिनट की पैदल दूरी पर एक म्यूज़ियम, थिएटर या पुस्तकालय हो। इसके अलावा 111 ऐतिहासिक इमारतों, संग्रहालयों और गैलरियों को स्कूली छात्रों की गतिविधियों के आयोजन के लिए गतिविधि केंद्र का नाम दे दिया गया है। ऐसी कई पहलक़दमियों के नतीजे से इस शहर को कई बार चीन के सर्वाधिक प्रसन्न शहर का पुरस्कार मिल चुका है।

जर्मनी का गेल्सेंकिर्चेन एक दूसरा दिलचस्प केस है। कोयला खानों के बंद होने के बाद इस औद्योगिक शक को घटती आबादी और राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा ऊंची बेरोज़गारी दर झेलनी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि शहर ने मिल-जुल कर (120 संगठनों ने) तय किया कि वे खुद को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए शहर को एक शिक्षण-नगर में बदलने पर ध्यान देंगे। साथ ही, खनन पर अपने ऐतिहासिक फोकस को संतुलित करने के लिए, शहर में अपने शिक्षण-विन्यास में टिकाऊ विकास और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे भी शामिल किए। मिसाल के तौर पर, बायोमासेनपार्क ह्यूगो- जो कभी कोयला खान था- अब एक टिकाऊ पार्क है जो (20 शैक्षणिक संस्थाओं की साझेदारी में) शिक्षण स्थल की भी दोहरी भूमिका निभाता है जिसमें कई पहलकदमियां हैं, जैसे- वनस्पतियों का इतिहास, pH वैल्यू और दूसरे रासायनिक संकेतक आंकना, वनस्पति संग्रहालय बनाना आदि।

भारतीय संदर्भों मेंशिक्षण कोदूसरे शहरी आख्यानों से जुड़े उपक्रम की तरह न देखकर ज़्यादातर सरकार के एक अलग-थलग काम के तौर पर देखना जैसे नीतिगत प्रवृत्ति है। अनौपचारिक और ढांचामुक्त शिक्षण एक अवधारणा के तौर पर अभी अपने शिशु दौर में ही है।

जहां नागरिक समाज की ओर से सिटी ऐज़ लैब जैसी कई पहलक़दमियां हैं जिनमें स्कूली छात्रों के बीच पानी की कमी या सड़कों के जाम जैसे स्थानीय मुद्दों का इस्तेमाल करते हुए शोधपरक रुझान विकसित करने की कोशिश की जा रही है, वहीं देश ने पारंपरिक परिसरों से बाहर, करीने से शिक्षण का माहौल बनाने की योजना के बहुत सारे फ़ायदों पर ध्यान देना भी शुरू नहीं किया है।

अंततः एक शहर उतना ही स्मार्ट होता है जितना उसके नागरिक होते हैं। नागर योजनाओं के भीतर अभिनव सूझ का प्रयोग, एक ठोस सामाजिक ढांचा सुनिश्चित करते हुए भविष्य के आर्थिक बदलावों की योजना आज का आदर्श है। ऊपर दिए गए अधिकतर उदाहरणों में साझेदारी वाली कोशिश है जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र, नागरिक संगठन और आम नागरिक शामिल हैं। शहर के भूगोल और उसक जनसांख्यिकी के माकूल पड़ने के लिहाज से हर किसी का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन हर पहल एक शिक्षण साझेदारी विकसित करने की दिशा में एक क़दम है जो उम्र, सामाजिक और आर्थिक हैसियत और पेशों के पार जाकर, अभिनव स्थानिक योजना और तकनीक का इस्तेमाल करती है। हालांकि नकल हमेशा कारगर नहीं हो सकती, लेकिन इन लक्ष्यों की दिशा में हर मौजूदा और भावी शहर में एक निरंतर संवाद ज़रूरी है।

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