Author : Nandini Sarma

Published on Mar 20, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत में म्यूनिसिपल बॉन्ड का बाज़ार न बढ़ पाने के पीछे कई कारण हैं. लेकिन, सबसे अहम बात ये है कि ये संस्थानों की वित्तीय स्थिति को उजागर करता है.

म्यूनिसिपल बॉन्ड: भारतीय शहरों की आर्थिक मदद का स्थायी समाधान

अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने जिस आर्थिक पैकेज का एलान किया है, उसकी पांचवीं किस्त में राज्यों के क़र्ज़ लेने की राशि तीन प्रतिशत से बढ़ाकर 4.5 प्रतिशत कर दी है. हालांकि, पहले आधे प्रतिशत का क़र्ज़ बिना शर्त होगा. लेकिन, इसके बाद जो भी ऋण लिया जाएगा, उसके लिए चार प्रमुख क्षेत्रों में सुधार की शर्त को पूरा करना होगा. इनमें से एक है, शहरी स्थानीय निकायों का राजस्व सुधारना. ये भारत के शहरी निकायों की वित्तीय संरचना में सुधार करने का बहुत प्रतीक्षित अवसर है. ये स्थानीय निकाय, जनता को कई बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने और मूलभूत ढांचे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. भारत को अपने मूलभूत ढांचे के विकास के लिए वर्ष  2024-25 तक 1.4 ख़रब डॉलर के निवेश की आवश्यकता है. मूलभूत ढांचे के विकास में होने वाले इस निवेश का अधिकतर हिस्सा शहरों के विकास में व्यय किया जाएगा. कोविड-19 महामारी ने हमारे देश के स्वास्थ्य के ढांचे पर दबाव बढ़ा दिया है. अब इस क्षेत्र में और निवेश करने की सख़्त आवश्यकता है.

स्रोत- तमाम स्रोतों के अनुमान

चूंकि शहरों को अपने विकास के लिए भारी निवेश की ज़रूरत है. इसलिए आज शहरी नगर निकायों को अपनी पूंजी जुटाने के लिए बाज़ार तक पहुंच बनाना आवश्यक भी है. और, भविष्य के लिए यही उचित विकल्प भी है. विकसित देशों में शहरों की वित्तीय ज़रूरतें पूरा करने का प्रमुख माध्यम म्यूनिसिपल बॉन्ड हैं. इसके अलावा, चूंकि मूलभूत ढांचे के प्रोजेक्ट पूरे करने में काफ़ी समय लगता है, तो म्यूनिसिपल बॉन्ड के माध्यम से संपत्ति की जवाबदेही सुनिश्चित करना भी एक असरदार तरीक़ा है. भारत में सबसे पहले अहमदाबाद नगर निगम ने 1998 में म्यूनिसिपल बॉन्ड के ज़रिए से सार्वजनिक पूंजी निवेश को अपने यहां हिस्सेदारी के लिए आमंत्रित किया था. 1998 के बाद से कई अन्य शहरों जैसे कि नासिक, नागपुर, लुधियाना और मदुरै के नगर निकायों ने म्यूनिसिपल बॉन्ड के ज़रिए पूंजी बाज़ार तक पहुंच बनाई है. लेकिन, देश के पूरे क़र्ज़ बाज़ार में म्यूनिसिपल बॉन्ड की हिस्सेदारी अभी भी नगण्य ही है. देश में नगर निकायों की कुल वित्तीय ज़रूरत का केवल एक प्रतिशत हिस्सा ही म्यूनिसिपल बॉन्ड के ज़रिए पूरा किया जाता है. जबकि अमेरिका में म्यूनिसिपल बॉन्ड, नगर निगमों के वित्तीय स्रोत का दस प्रतिशत हिस्सा हैं.

छोटे नगर निकायों द्वारा पूंजी बाज़ार से पैसा जुटाने में जो दिक़्क़तें आती हैं, उनमें से प्रमुख ये है कि उनके पास इतनी संपत्ति नहीं होती, जिसके आधार पर वो क़र्ज़ हासिल कर सकें

लेकिन, पूंजी बाज़ार से अपने लिए वित्तीय संसाधन जुटाना केवल उन्हीं नगर निगमों के लिए उचित रहा है, जो बड़े हैं और वित्तीय रूप से काफ़ी मज़बूत हैं. छोटे नगर निकायों द्वारा पूंजी बाज़ार से पैसा जुटाने में जो दिक़्क़तें आती हैं, उनमें से प्रमुख ये है कि उनके पास इतनी संपत्ति नहीं होती, जिसके आधार पर वो क़र्ज़ हासिल कर सकें. क्योंकि उनके यहां सुधारों की प्रक्रिया बेहद धीमी होती है, आमदनी और ख़र्च का ठीक लेखा-जोखा नहीं रखा जाता. और, इन नगर निकायों की संस्थागत क्षमताएं भी बेहद कमज़ोर होती हैं. स्थानीय निकायों के लिए पूंजी जुटाने के कई प्रयास किए गए हैं. जैसे कि, 1994 में लाया गया FIRE-D प्रोजेक्ट. या फिर टैक्स में रियायत और संयोजित वित्तीय विकास योजना. इन कोशिशों के बावजूद म्यूनिसिपल बॉन्ड के बाज़ार का संतोषजनक रूप से विकास नहीं हो सका है. देश में वित्तीय संसाधन के लिए म्यूनिसिपल बॉन्ड के बाज़ार का अपेक्षित विकास न हो पाने के वैसे तो कई कारण हैं. लेकिन, ऐसा न हो पाने की बड़ी वजह ये है कि स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है. निम्नलिखित ग्राफ के ज़रिए हम देख सकते हैं कि कुछ देशों की कुल जीडीपी में उनके स्थानीय निकायों के राजस्व की कितनी हिस्सेदारी है. भारत इस मामले में मेक्सिको या दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों से भी काफ़ी पीछे है, जिनकी जीडीपी में स्थानीय निकायों के राजस्व की हिस्सेदारी क्रमश: 7.4 प्रतिशत और 6 प्रतिशत है.

ICRIER द्वारा देश के 37 नगर निकायों पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2012 से 2017 के दौरान इन नगर निगमों की केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाली वित्तीय मदद पर निर्भरता बढ़ गई है. जबकि इन नगर निकायों की अपनी आमदनी घटती जा रही है. इसे आप नीचे के ग्राफ़ से समझ सकते हैं. राजस्व में अपनी हिस्सेदारी इस बात का मानक माना जाता है कि किसी संस्था का राजस्व प्रशासन कितना अच्छा या बुरा है.

ये पहली बार है कि शहरी विकास और आवास मंत्रालय स्थानीय निकायों के वार्षिक खातों के ऑडिट का डेटाबेस तैयार कर रहा है. इससे उनकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और उन्हें निजी क्षेत्र व बाज़ार से पूंजी हासिल करने में मदद मिलेगी.

इसके अतिरिक्त नगर निगमों की अपनी आमदनी, उनके राजस्व का प्रमुख स्रोत नहीं हैं. प्रति व्यक्ति नगर निगम के राजस्व में वृद्धि को अगर हम 2012-13 से 2017-18 के दौरान देखें, तो वो उस दौरान देश की कुल जीडीपी विकास दर का आधा ही हैं. मौजूदा महामारी ने केंद्र और राज्यों की आमदनी और व्यय पर दबाव और बढ़ा दिया है. कुल केंद्रीय राजस्व से राज्यों को दिया जाने वला हिस्सा जो वर्ष  2015-19 के दौरान लगभग 30 प्रतिशत रहता था. वो अब घटकर 2020-21 में केवल 26 प्रतिशत रह गया है. ऐसे में म्यूनिसिपल बॉन्ड के ज़रिए, नगर निकायों को सीधे पैसा जुटाने में काफ़ी मदद मिलेगी. और इससे उनकी केंद्र और राज्यों से मिलने वाली मदद पर निर्भरता भी कम होगी. हाल के वर्षों में केंद्र सरकार और सेबी (SEBI) दोनों ही नगर निकायों को म्यूनिसिपल बॉन्ड बाज़ार में उतारने के लिए प्रोत्साहन देते रहे हैं. पिछले ही साल सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार एकीकृत रिपोर्टिंग सिस्टम लागू करने का फ़ैसला किया था. ये पहली बार है कि शहरी विकास और आवास मंत्रालय स्थानीय निकायों के वार्षिक खातों के ऑडिट का डेटाबेस तैयार कर रहा है. इससे उनकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और उन्हें निजी क्षेत्र व बाज़ार से पूंजी हासिल करने में मदद मिलेगी. मौजूदा आर्थिक पैकेज, राज्य सरकारों को इस बात का प्रोत्साहन देता है कि वो ऐसे सुधार लागू करें, जिससे प्रशासन व्यवस्था बेहतर हो और नगर निकायों की वित्तीय स्थिति में बी सुधार हो. और आख़िर में इन उपायों से शहरी निकायों के क़र्ज़ ले पाने की क्षमता का भी विकास होगा. CARE के अनुमानों के मुताबिक़, बड़े नगर निगम हर साल म्यूनिसिपल बॉन्ड के ज़रिए क़रीब पंद्रह सौ करोड़ की रक़म जुटा सकते हैं. लंबी अवधि में म्यूनिसिपल बॉन्ड को बाज़ार से मदद लेने की ज़रूरत पड़ेगी ताकि वो बढ़ी हुई आबादी की ज़रूरतों को कुशलतापूर्वक पूरा करने में सक्षम हो सकें.

कोविड-19 ने जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को भी उजागर कर दिया है. अब इस बात के तमाम सबूत हमारे सामने हैं कि हम इस चुनौती को हल्के में नहीं ले सकते. और कोई भी आर्थिक सुधार योजना बने, उसमें जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के तौर तरीक़ों को शामिल किया जाना ज़रूरी हो गया है. इसीलिए अब ये आवश्यक है कि शहरी स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति में सुधार की प्रक्रिया में हरित नीतियों को शामिल किया जाना आवश्यक है. ताकि हम भविष्य के लिए शुद्ध और जलवायु परिवर्तन से निपट सकने वाले बुनियादी ढांचे का विकास कर सकें. ऐसा होने पर, शहरी स्थानीय निकाय, भारत के ‘राष्ट्रीय प्रतिबद्धता योगदान’ का भी हिस्सा बन सकेंगे. और भारत के स्मार्ट शहर योजना और राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन को लागू करने में भी अपना बहुमूल्य योगदान दे सकेंगे. जैसा कि नीचे के ग्राफ से स्पष्ट है, भारत हरित बॉन्ड का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाज़ार है. 2030 तक जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत के क़रीब 2.3 ख़रब डॉलर तक के निवेश की क्षमता बताई जा रही है. जैसा कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के हरित बॉन्ड पर 2019 में आई रिपोर्ट कहती है, 2019 में हरित बॉन्ड ने वैश्विक स्तर पर बॉन्ड बाज़ार के सामान्य बेंचमार्क के मुक़ाबले काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया है.

शहरी स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति में सुधार की प्रक्रिया में हरित नीतियों को शामिल किया जाना आवश्यक है. ताकि हम भविष्य के लिए शुद्ध और जलवायु परिवर्तन से निपट सकने वाले बुनियादी ढांचे का विकास कर सकें

स्रोत- उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में ग्रीन बॉन्ड पर रिपोर्ट, 2019

हालांकि, इनमें से अधिकतर बॉन्ड को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा जारी किया गया है. इसीलिए, ग्रीन बॉन्‍ड, नगर निकायों को एक ऐसा अवसर प्रदान करते हैं, जिसके ज़रिए वो बाज़ार से पैसा जुटा सकते हैं. इसके साथ ही साथ वो पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकते हैं. शहरी स्थानीय निकायों की टैक्स व्यवस्था, गैर कर क्षेत्रों, प्रशासनिक और लेखा-जोखा के मानकों में सुधार की सख़्त ज़रूरत है. जिससे वो अपनी बढ़ती ज़िम्मेदारियों और घटती वित्तीय व संस्थागत क्षमताओं के बीच की खाई को पाट सकेंगे. सरकार द्वारा प्रदान किया गया मौजूदा आर्थिक पैकेज, स्थानीय निकायों को ये सुधार करने का मौक़ा देता है. अगर वो ऐसा कर पाते हैं, तो आगे चलकर इन संस्थाओं को और अधिक वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद करेगा. इससे वो अपनी पूंजी और वित्तीय शक्ति का इस्तेमाल करके बाज़ार से और रक़म जुटा पाने में सफल हो सकेंगे.

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