Author : Deepak Sinha

Published on Feb 15, 2024 Updated 0 Hours ago

दस साल बाद भी दो सवालों का जवाब बाकी है। पहला, मुंबई ही क्यों? और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, क्या यह दुबारा हो सकता है, अगर हां तो क्या मुंबई इससे निपटने के लिए तैयार है?

मुंबई हमला और अनिश्चित भविष्य

दक्षिण एशिया और आतंकवाद रोधी उपायों के विशेषज्ञ ब्रुस रिडेल जो इस समय ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूट से जुड़े हैं, 2015 के पेरिस हमले की तुलना 26 नवंबर, 2008 को हुए भयावह मुंबई हमले से करते हैं। वे कहते हैं कि, “मुंबई का अध्ययन आतंकवादियों और आतंक से लड़ने में जुटे लोगों, दोनों ने ही किया है, क्योंकि यह एक छोटे से आत्मघाती दस्ते की ओर से एक बड़े शहर को अपंग बना देने, विश्व भर का ध्यान खींचने और एक महाद्वीप को आतंक से थर्रा देने का एक आदर्श उदाहरण है।” [1] वे अपने विश्लेषण का निष्कर्ष निकालते हुए कहते हैं कि “लश्कर-ए-तैयबा को इसके लिए कोई बड़ा नुकसान नहीं उठाना पड़ा और ना ही उसके पाकिस्तानी अभिभावकों को। इस समूह का शीर्ष नेतृत्व पाकिस्तान में खुले आम अपने काम को संचालित करता है और पाकिस्तानी सेना का समर्थन और संरक्षण पाता है।” [2] उस नरसंहार को याद कीजिए, लश्कर के दस आतंकवादियों को मार गिराया गया (उनमें से 9 को भारतीय सुरक्षा बलों ने निशाना बनाया) लेकिन इससे पहले 165 मासूम लोगों की जान गई, जिनमें 25 विदेशी भी शामिल थे और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए। दस साल बाद भी दो सवालों का जवाब बाकी है। पहला, मुंबई ही क्यों? और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, क्या यह दुबारा हो सकता है, अगर हां तो क्या मुंबई इससे निपटने के लिए तैयार है?

मुंबई को निशाना क्यों बनाया गया, इस पर चर्चा करते हुए अंतरराष्ट्रीय सीमा के संदर्भ पर ध्यान देना जरूरी है। साथ ही पाकिस्तान से संचालित और समर्थन पाने वाले कट्टर इस्लामी समूहों की जम्मू-कश्मीर के बाहर के ठिकानों को निशाना बनाने की लालसा और उसके पीछे की प्रेरणा को भी समझना होगा। यह है तो पूरी तरह से अस्वीकार्य लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के इतिहास और स्वरूप को देखते हुए इसे समझना होगा कि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ना सिर्फ जम्मू-कश्मीर में दखलंदाजी को सही ठहराने की कोशिश करता है, बल्कि भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान को निशाना बनाने के लिए क्षद्म युद्ध के इस्तेमाल को भी जायज पाता है। लेकिन राज्य के बाहर की जगहों पर हमले ने दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया है, संघर्ष का खतरा बढ़ाया है और संवाद प्रक्रिया को बाधित किया है। इससे ना सिर्फ पूरे क्षेत्र का आर्थिक विकास बाधित हुआ है और खास तौर पर पाकिस्तान का, बल्कि यह जिस तरह से इन हमलों के लिए जवाबदेह आतंकवादी समूहों से खुद को अलग बताने की कोशिश कर रहा है, उसने इसे आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले देश के तौर पर दुनिया भर के सामने ला दिया है।

यह है तो पूरी तरह से अस्वीकार्य लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के इतिहास और स्वरूप को देखते हुए इसे समझना होगा कि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ना सिर्फ जम्मू-कश्मीर में दखलंदाजी को सही ठहराने की कोशिश करता है, बल्कि भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान को निशाना बनाने के लिए क्षद्म युद्ध के इस्तेमाल को भी जायज पाता है। लेकिन राज्य के बाहर की जगहों पर हमले ने दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया है, संघर्ष का खतरा बढ़ाया है और संवाद को बाधित किया है।

जेहादी तत्वों के लिए इसकी प्रेरणा कहां से मिलती है, इस बारे में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद ने साफ बताया है। वह अक्सर कहता है कि, “जब तक भारत अखंडित है, कोई शांति आ ही नहीं सकती। उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दो, इतने टुकड़े करो कि वह घुटनों के बल आ जाए और आपसे दया की भीख मांगने लगे और भारत ने हमें यह रास्ता दिखाया है। हम भारत को उसी की भाषा में जवाब देना चाहेंगे और जिस तरह वह कश्मीर में मुसलमानों की हत्या कर रहा है, उसी तरह हम हिंदुओं को मारेंगे।” [3]

पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को मिलने वाली प्रेरणा के बारे में समझना ज्यादा जटिल है। वहां के राजनीतिक और नागरिक परिदृष्य पर पाकिस्तानी सेना के हावी होने में इसके संकेत देखे जा सकते हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृष्य में सेना की केंद्रीय भूमिका तब तक सुनिश्चित रहेगी जब तक कि वहां भारत को एक बाहरी खतरे के तौर पर देखा जाता रहेगा। यह ऐसी धारणा है जो पाकिस्तान के हर तबके में स्वीकार्य हो सकती है और जब तक कश्मीर विवाद कायम है, तब तक इसमें बदलाव की कोई संभावना भी नहीं। [4] इतना ही नहीं, वे उस बात का भी बदला लेने के लिए सतत प्रेरित रहते हैं जिसके तहत उनके मुताबिक भारत ने दखल दे कर बांग्लादेश के गठन को मजबूर किया और उनकी सेना को 1971 में अपमानजनक रूप से परास्त किया। आखिरी बात, वे मानते हैं कि अगर वे भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को ध्वस्त करने और यहां की बहुसंख्यक जनता को मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ उतारने में कामयाब हो गए तो उन्हें जम्मू-कश्मीर में जीत मिल सकती है। बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किए जाने और उसके बाद के 1992-93 के मुंबई दंगों या 2002 के गुजरात नरसंहार जैसे घटनाक्रम की वजह से जो ध्रुवीकरण हुआ है, उससे वे पूरा फायदा उठाना चाहते हैं।

यह स्पष्ट रहे, मुंबई पर पिछले तीन दशक से आतंक का कब्जा रहा है। स्तर भले ही अलग रहा हो, लेकिन 26-11 इस शहर पर अंतिम हमला नहीं था। महज तीन साल बाद ही, 13 जुलाई 2011 में इसे कई बम धमाकों के जरिए निशाना बनाया गया। इसमें 26 लोगों की जान गई और 121 लोग घायल हो गए। लगातार होते हमलों के बावजूद लचर सुरक्षा और खुफिया तंत्र की वजह से मुंबई पर हमले जारी रहे। [5] साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक मुंबई पर 1993 और 2011 के बीच 14 आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनमें 719 लोग मारे गए हैं और 2,393 लोग घायल हुए हैं। आतंकवादी समुद्र के रास्ते आए थे, यही अकेला तत्व नहीं है, जिसकी वजह से 26-11 को दूसरे हमलों से अलग किया जा सकता है, इससे पहले 1993 में हुए आतंकवादी हमलों में भी सामान शेखाडी और श्रीवर्धन तटों के जरिए ही आया था। यह पहला मौका नहीं था जब पाकिस्तान के इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस ने इस पूरे ऑपरेशन को संचालित किया, दशकों से यह पंजाब, जम्मू-कश्मीर और दूसरे इलाकों में ऐसा करता रहा है। मृतकों की संख्या भी इसे बिल्कुल अलग साबित नहीं करती, क्योंकि 1993 और 2006 दोनों ही बार कई बम धमाकों के जरिए बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए थे। 26-11 हमले की अहमियत इसकी भयावहता, स्तर, दायरे, विविधता और हमले की जटिलता में है। आतंकवादियों को काबू करने में पूरे तीन दिन लगे, यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि भारत की आतंकवाद रोधी नीतियों, ढांचे और क्षमता में सामंजस्य की कैसी कमी है। महाराष्ट्र सरकार की ओर से 26-11 हमलों के बारे में जांच के लिए गठित श्री राम प्रधान के नेतृत्व वाली उच्च स्तरीय जांच समिति (एचएलईसी) ने भी ऐसा पाया है। [6]

स्पष्ट रहे, मुंबई पर पिछले तीन दशक से आतंक का कब्जा रहा है। स्तर भले ही अलग रहा हो, लेकिन 26/11 इस शहर पर अंतिम हमला नहीं था। हालांकि हर बार इसका स्तर अलग रहा।

2001 में संसद पर हुए नाकाम हमले के बाद ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया गया, जो दो परमाणु क्षमता संपन्न पड़ोसियों के बीच पूर्ण युद्ध की ओर बढ़ रहा था। हालांकि दस महीने तक चले ऑपरेशन पराक्रम का वह नतीजा भले नहीं मिला हो जो सरकार ने चाहा था, लेकिन इसने पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया कि ऐसे ‘फिदायीन हमलों’ का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। इसके साथ ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सुरक्षा और खुफिया ढांचे को पर्याप्त मजबूती देने के लिए भी सक्रियता बढ़ा दी गई, जिसने मुंबई जैसा कमांडो हमला दिल्ली में किए जाने को बेहद मुश्किल बना दिया। इसकी वजह से भारत की वित्तीय और सांस्कृतिक राजधानी मुंबई ही किसी हाई-प्रोफाइल हमले के लिए पहला विकल्प बना। क्योंकि आतंकवादी हमले का पहला लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षण और राज्य को पंगु बना देने का था।

साथ ही, मुंबई की बड़ी आबादी, खचा-खच भरे इलाके, ढहती ढांचागत सुविधाएं और समुद्र से निकटता के अलावा इसके लंबे-चौड़े और आसानी से पार किए जा सकने वाले तटीय इलाके ने इसके अधिकतम विध्वंस को सुनिश्चित कर दिया। अंततः दाऊद इब्राहिम नियंत्रित अपराधी नेटवर्क भी इसकी मदद के लिए उपलब्ध था जिसने अपना दायरा बहुत विस्तृत कर लिया था, इलाके की सभी आपराधिक गतिविधियों पर नियंत्रण कर लिया था और साथ ही जिसका राजनीति, अफसरशाही और पुलिस संस्थान में भी अच्छा-खासा प्रभाव था। दाऊद खुद आईएसआई के सीधे संरक्षण में था और 1993 के आतंकवादी हमलों में सीधे उसका हाथ था। उसका आपराधिक नेटवर्क मुंबई में आतंकवादियों को अपने निशाने साधने के लिए जरूरी मदद मुहैया करवाने के लिए आदर्श स्थिति प्रदान करता था। इसलिए प्रधान समिति ने आतंकवादियों को स्थानीय नेटवर्क के सहयोग का मुद्दा उठाया। [7] ऐसी परिस्थितियों में आतंकवादियों की ओर से मुंबई को चुने जाने की जायज वजहें थीं और उनका यह फैसला उम्मीद के अनुरूप ही था।

जहां मुंबई ने हमले के बाद से अब तक के समय में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक माहौल में बिना किसी खास बदलाव के विकास का अपना सफर जारी रखा है, लेकिन अब यह 2008 के जैसा आसान निशाना नहीं रह गया है। इसकी वजह है तटीय निगरानी के ढांचे में पर्याप्त बढ़ोतरी के साथ ही नौसेना, तटरक्षक बल और मैरिन पुलिस के बीच जवाबदेही के स्पष्ट बंटवारे और इनके आपस में बेहतर तालमेल की व्यवस्था होना। इससे शहर के आस-पास के समुद्र में किसी के बेरोक-टोक घुस आने की आशंका बहुत कम हो गई है। दूसरा है, मुंबई में एनएसजी का एकीकृत हब बनाया जाना और मुंबई पुलिस की ‘अल्फा’ फोर्स और इसकी स्पेशल वीपन एंड टैक्टिक्स (स्वैट) टीम की क्षमता और प्रशिक्षण में बढ़ोतरी के बाद प्रतिक्रिया का समय बहुत कम हो गया है। साथ ही आतंकवादियों को पहले की तरह लंबे समय तक चलने वाले अपने ऑपरेशन के लिए समय और स्थान संबंधी छूट मिलनी मुश्किल है। पुलिस की तकनीकी क्षमता, संचार और प्रशिक्षण के उन्नयन के प्रयास भी हुए हैं। साथ ही स्टेशन और होटल जैसी खतरे की जगहों पर लोगों के प्रवेश पर नियंत्रण के उपाय भी किए गए हैं। हालांकि विभिन्न रिपोर्ट के मुताबिक अब भी इनमें गंभीर कमियां मौजूद हैं।

जहां मुंबई ने हमले के बाद से अब तक के समय में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक माहौल में बिना किसी खास बदलाव के विकास का अपना सफर जारी रखा है, लेकिन अब यह 2008 जैसा आसान निशाना नहीं रह गया है।

दुर्भाग्य की बात है कि आतंकवाद रोधी क्षमताओं को बढ़ाने के केंद्र सरकार के तीन बड़े प्रयासों में से दो ठीक से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। ये दो उपाय हैं — राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र (एनसीटीसी) की स्थापना और इसकी खुफिया सूचनाओं की साझेदारी की व्यवस्था (नैटग्रिड)। ये दोनों उपाय आगे नहीं बढ़ सके हैं क्योंकि विभिन्न राजनीतिक दलों में इनको ले कर सहमति नहीं बन सकी और इनमें से कुछ इसे संघीय ढांचे को खतरे के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस प्रयास को अगर उसी तरह आगे बढ़ाया जाए जैसा कि सोचा गया था, तो यह हमारे आतंकवाद रोधी क्षमता को काफी मजबूत कर सकता है। ऐसा होने से आतंकवादी खतरों को समय से और प्रभावी तरीके से काबू किया जा सकेगा। इसकी जरूरत और बढ़ गई है, क्योंकि पिछले दशक में पैन-इस्लामी आतंकवाद ने अपना प्रसार किया है और आईएसआईएस के आने के बाद से इसने सोशल मीडिया का इस्तेमाल नए लोगों को अपने साथ जोड़ने व दुनिया भर में हमलों की तैयारी करने में किया है। [8]

अंत में, हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हम अपने आतंकवाद रोधी ढांचे और खुफिया तंत्र को मजबूत करने में चाहे कितने भी संसाधन लगा लें, आतंकवादी गुटों की हम पर ऐसी जगहों पर हमला करने की क्षमता ज्यादातर इस बात पर निर्भर करेगी कि पाकिस्तान हमें एक नरम देश के तौर पर देखता है या सख्त देश के तौर पर। अगर पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को लगने लगता है कि यह अपने क्षद्म स्वरूपों के जरिए हम पर ऐसे हमले करेगा तो उसका गंभीर अंजाम इसे भुगतना पड़ेगा तो ऐसे जलिट हमलों के लिए जरूरी होने वाले संसाधन और प्रशिक्षण से वह आतंकवादी संगठनों को दूर रखेगा। दुर्भाग्य से, जैसा कि ब्रुस रिडेल तर्क देते हैं, पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के लिए भारत को नरम देश नहीं समझने की कोई वजह नहीं है। भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने बार-बार दिखाया है कि यह किसी दृढ़ संकल्प पर डटे रहने के लिए तैयार नहीं है और इसके अहम हितों को नुकसान पहुंचाने वाले प्रयासों और उकसावों से मुकाबले के लिए उचित, पर्याप्त और समय से कदम उठाने को ले कर बिल्कुल उदासीन है। हालांकि 2017 में ऊरी में हुई घटना के बाद के सर्जिकल स्ट्राइक ने राजनीतिक नजरिए को ले कर एक बड़ा बदलाव प्रदर्शित किया है, लेकिन यह पाकिस्तानी सेना और आतंकवादी समूहों के गठजोड़ को तोड़ने में पर्याप्त साबित नहीं हुआ है। इसके बावजूद पिछले एक दशक के दौरान मुंबई जैसे हमले को दुहराने से रोकने में पाकिस्तान को हुए उस एहसास की अहम भूमिका है कि भारत में जन दबाव की वजह से किसी भी विचारधारा की सरकार हो, उसे आतंकवादी हमले के खिलाफ जोरदार तरीके से जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, चाहे उसका अंजाम कुछ भी हो।


[1] Bruce Riedel, “Modeled on Mumbai? Why the 2008 India attack is the best way to understand Paris”, Markaz, 14 November 2015. (accessed on 6 September 2018)

[2] Ibid.

[3] Arundhati Roy, The Monster in the Mirror, The Guardian, 13 December 2008. (accessed on 2 October 2018)

[4] Wilson John and Vishwas Kumar, “Investigating the Mumbai Conspiracy”, Pentagon Press, New Delhi (2009) pp 7.

[5] Rajesh Basrur, Timothy Hoyt, Rifaat Hussain, Sujoyini Mandal, “The 2008 Mumbai Terrorist Attacks: Strategic Fallout”, S Rajaratnam School of International Studies: Monograph No. 17 (November 2009) pp12.

[6] Pradhan Committee Finds Serious Lapses on Gafoor’s Part, The Hindu, December 21, 2009. (accessed on 2 Oct 2018)

[7] A mole in Mumbai helped 26/11 attackers, The Hindu, 27 November 2013 (accessed on 4 October 2018)

[8] Sarita Azad and Arvind Gupta, A Quantitative Assessment on 26/11 Mumbai Attack using Social Network Analysis, CSTPV Journal of Terrorism Research: Volume 2, Issue 2 (November 2011). (accessed on 10 September 2018)

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