Author : Prithvi Iyer

Published on Feb 14, 2020 Updated 0 Hours ago

आतंकवाद आज बड़ी तादाद में युवाओं को कैसे आकर्षित कर रहा है. इसके लिए महत्वपूर्ण है कि आज उन कमज़ोरियों को समझा जाए, जिनका फ़ायदा उठा कर आतंकवादी संगठनों के आक़ा और हैंडलर्स युवाओं को अपने संगठन से जोड़ने में सफल हो रहे हैं.

मासूम युवाओं को आतंकी बनाने के पीछे का दिमाग़ी खेल और चालाक रणनीतियां

आज के दौर के आतंकवादी संगठनों की असल क्षमता उस वक़्त दिखती है, जब वो अपने मानव संसाधन प्रबंधन के हुनर को दिखाकर बड़ी तेज़ी से अपने संगठन के सदस्यों में लगातार इज़ाफा करते जाते हैं. यही कारण है कि आज ये आतंकवादी संगठन अपनी नीतियों से जुड़े लक्ष्य को हासिल करने में अक्सर कामयाब हो जाते हैं. आतंकवाद निरोधक संवाद का पारंपरिक तरीक़ा, लंबे समय से इस बात पर अटका हुआ है कि किस तरह से लोगों को कट्टरपंथी विचारधारा से प्रभावित होने से रोका जा सके. दिक़्क़त ये है कि किसी आतंकवादी संगठन की भर्ती प्रक्रिया की रणनीतियों से जुड़ी बुनियादी बातों और इसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने की दिशा में बहुत ही कम काम हुआ है. आज आतंकवाद से निपटने की नीतियां बनाने वालों को ये समझने में मदद करने की ज़रूरत है कि आख़िर आतंकवाद आज बड़ी तादाद में युवाओं को कैसे आकर्षित कर रहा है. इसके लिए महत्वपूर्ण है कि आज उन कमज़ोरियों को समझा जाए, जिनका फ़ायदा उठा कर आतंकवादी संगठनों के आक़ा और हैंडलर्स युवाओं को अपने संगठन से जोड़ने में सफल हो रहे हैं.

आतंकवाद की सीढ़ी

हम आतंकवादी संगठनों में भर्ती करने वालों के विशेष मनोवैज्ञानिक औज़ारों पर विस्तार से चर्चा करें, उससे पहले ये समझना आसान होगा, जिस रास्ते को आतंकवादी संगठनों का रुख़ करने वाले अपनाते हैं. इस मामले में कट्टरपंथ का सीढ़ी वाला एक मॉडल, जो फथाली मोघाद्दम ने पेश किया था, वो काफ़ी उपयोगी साबित हो सकता है. इस मॉडल से हम ये समझ सकते हैं कि किस तरह कट्टरपंथ का रुख़ करने वाले जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते हैं, वैसे-वैसे सीढ़ियां संकरी होती जाती हैं और आख़िर में वो किसी आतंकवादी घटना को अंजाम देते हैं. आतंकवादी बनने की शुरुआती सीढ़ी होती है, किसी का ये सोचना कि उसके साथ अन्याय हुआ है. समाज के हाशिए पर पड़े तबक़ों के बीच ये जज़्बात साझा होते हैं. हालांकि, कट्टरपंथ के इस शुरुआती दौर में बहुत से लोग असंतुष्ट होते हैं. लेकिन, इनमें से गिने-चुने लोग ही आतंकवाद की अगली सीढ़ी की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं. जहां वो अपनी नाख़ुशी का इज़हार करने के लिए किसी ऐसे वाजिब तरीक़े को तलाशते हैं, जिसका असल ज़िंदगी में इस्तेमाल हो सके. इसके बाद, जो लोग अगली सीढ़ी की तरफ़ बढ़ते हैं, वो अपनी हरकतों को जायज़ ठहराने के तर्क खोजते हैं. इनकी मदद से वो अपने काम को दिल ही दिल में सही ठहराते हैं. इससे बाहरी लोगों के प्रति नफ़रत का भाव और पुख़्ता हो जाता है. ये बाहरी लोग वो होते हैं, जिन्हें कोई

दहशतगर्द बनने की आख़िरी सीढ़ी तक पहुंचने वाले लोगों के पास एक मौक़ा ये भी आता है कि वो हिंसा करने से बचने के बहानों को दिल ही दिल में किनारे लगा सकें

आतंकवादी संगठन अपना दुश्मन मानता है. अगर कोई व्यक्ति इन पड़ावों से गुज़रता है, तो उसके आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने का उचित माहौल तैयार हो जाता है. दहशतगर्द बनने की आख़िरी सीढ़ी तक पहुंचने वाले लोगों के पास एक मौक़ा ये भी आता है कि वो हिंसा करने से बचने के बहानों को दिल ही दिल में किनारे लगा सकें. उदाहरण के लिए, किसी पीड़ित के गुहार लगा कर हमदर्दी हासिल करने की कोशिश से कोई व्यक्ति आतंकवादी घटना को अंजाम देने से परहेज़ कर सकता है. ऐसे मामलों में किसी का दिल मज़बूत करने के लिए हम बनाम वो के तर्क दिए जाते हैं. आतंकवादी बनने वालों को नैतिकता का सबक़ सिखाया जाता है. उन्हें वो पाठ याद कराए जाते हैं, जो आतंकवाद की शुरुआती सीढ़ियों के दौरान पढ़ाए जाते हैं. हालांकि, इस सीढ़ियों वाले मॉडल में दहशतगर्द बनने का रास्ता धीरे-धीरे संकरा होता जाता है. यानी किसी के कट्टरपंथ की ओर झुकाव होने की पेचीदगियों को समझने के विकल्प भी सीमित होते जाते हैं. फिर भी, इस मॉडल की मदद से आतंकवादी संगठनों के भर्ती करने की प्रक्रिया के शुरुआती चरणों को समझा जा सकता है. साथ ही ये भी जाना जा सकता है कि इंसान की बुनियादी कमज़ोरियों का आतंकवादी संगठन किस तरह लाभ उठाते हैं. और फिर इनकी मदद से किसी को कट्टरपंथ की पहली सीढ़ी की तरफ़ क़दम बढ़ाने को प्रेरित करने से लेकर आतंकवाद की आख़िरी सीढ़ी तक पहुंचाते हैं.

भर्ती के तौर-तरीक़े

आतंकवादी संगठन अपने यहां नए रंगरूटों की भर्ती के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए जो प्रमुख तरीक़ा अपनाते हैं उसे ‘फुट इन द डोर’ तकनीक कहते हैं. ये किसी को बड़े काम के लिए मनाने के लिए छोटी-छोटी बातों से शुरुआत करने वाला तरीक़ा होता है. आतंकवाद के संदर्भ में इस तकनीक का इस्तेमाल नए रंगरूटों की भर्ती करने वाले अक्सर करते हैं. क्योंकि वो किसी भी संभावित उम्मीदवार से सीधे तौर पर ये नहीं कहते कि वो उनके आतंकवादी संगठन में पूर्णकालिक लड़ाके के तौर पर शामिल हो जाए. इसके बजाय, दहशतगर्दों की भर्ती प्रक्रिया की शुरुआत हमेशा ऊपरी तौर पर बेहद छोटे दिखने वाले काम से होती है. जैसे कि किसी चैट रूम का हिस्सा बनने की गुज़ारिश. या फिर कुछ ख़ास प्रचार करने वाली वेबसाइट पढ़ने की अपील करना. जब ये बेहद मामूली अपील मान ली जाती है. उसके बाद दहशतगर्दों की भर्ती करने वाले धीरे-धीरे संभावित उम्मीदवार से अपनी मांगों का दायरा बढ़ाते हैं. पहले उन्हें किसी संगठन का सदस्य बनने को कहा जाता है. फिर विशेषाधिकार हासिल करने के लिए कोई क़दम उठाने को कहा जाता है. जब इन सदस्यों को इस बात का विश्वास हो जाता है कि वो किसी संगठन में ख़ास दर्जा रखते हैं, तो इन्हें भर्ती के लिए प्रेरित करने वाले इनके भीतर नई आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को बढ़ावा देते हैं. विशेषाधिकार का ये रणनीतिक इस्तेमाल किसी भी इंसान की विशेष होने की जन्मजात कमज़ोरी पर निशाना साधता है. फिर वो अपनी ख़ास पहचान को विशिष्ट दर्जा दिलाने की दिशा में प्रयास आरंभ कर देते हैं. इसलिए. ‘फुट इन द डोर’ तकनीक का इस्तेमाल करके दहशतगर्दी संगठन ये सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी व्यक्ति को लुभाने के लिए किसी ख़ास मक़सद से शुरुआत में ही जिहाद करने और आत्मघाती हमलावर बन जाने का प्रस्ताव नहीं दिया जाता. रिसर्च से ये बातें सामने आई हैं कि पैसे का लोभ दे कर और पारस्परिक लेन-देन के माध्यम से ऐसी परिस्थितियां बनाई जा सकती हैं, जिनसे आतंकवादी संगठनों की लोगों को अपने साथ जोड़ने की ये तकनीक नाकाम की जा सकती है. इसलिए ये बात चौंकाने वाली नहीं है कि आतंकवादी संगठनों में भर्ती के लिए शायद ही कभी पैसे या लेन-देन का लालच दिया जाए. इसके बजाय लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऊंचे मक़सद का लोभ दिया जाता है. इससे अभ्यर्थियों को किसी संगठन से जुड़ने के लिए उसकी वैचारिक बुनियाद तलाशने को मजबूर किया जाता है, ताकि वो इससे जुड़ने के लिए वैचारिक रूप से राज़ी हो सके.

आतंकवादी संगठन अपने यहां नए रंगरूट भर्ती करने के लिए जो तरीक़े अपनाते हैं, उनमें से एक की चर्चा कम ही होती है. ये तरीक़ा इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन इस्तेमाल करते हैं. जब वो धर्म के नाम पर युद्ध का महिमामंडन करते हैं. और इसके माध्यम से वो अपने संगठन की गतिविधियों को उचित ठहराते हैं, ताकि आम लोगों के इमोशन को इन हरकतों के साथ जोड़ सकें. उदाहरण के तौर पर, आईएसआईएस की सोशल मीडिया पोस्ट पर अक्सर इस बात का हवाला दिया जाता है कि उनकी ख़िलाफ़त या उनके राज में कोई व्यक्ति कैसे एक शानदार जीवन जी सकता है. इस्लामिक स्टेट अक्सर अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में उन विदेशी लड़ाकों की तस्वीरें भी जारी करता है, जो नटेला जार हाथों में लिए दिखाए जाते हैं. इससे वो उन विदेशी आतंकवादियों को लुभाने की कोशिश करते हैं, जो पश्चिमी सभ्यता और परंपराओं में रचे बसे रहते हैं. कॉमन सेंस पर आधारित भर्ती की ये प्रक्रिया हमें ये दिखाती है कि किस तरह दहशतगर्द संगठन भर्ती करने की प्रक्रिया के दौरान कई दौर से गुज़रते हैं. जहां पर पहले नए रंगरूटों को धीरे-धीरे, छोटे-छोटे काम देकर लुभाया जाता है. फिर उन्हें उनकी परिस्थितियों का एहसास कराने वाले दुष्प्रचार का निशाना बनाया जाता है. इसके बाद जाकर ज़्यादा कट्टरपंथी विचार और प्रश्न सामने रखे जाते हैं.

किसी आतंकवादी संगठन की भर्ती प्रक्रिया में विचारधारा की बहुत अहमियत होती है. इसे हम इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ ऐंड सीरिया के भर्ती कार्यकर्ता जेसी मोर्गन के उदाहरण से समझा जा सकता है. मोर्गन ने बताया था कि आईएसआईएस की भर्ती प्रक्रिया तीन चरणों से गुज़रती है. पहले दौर में ‘फुट इन द डोर’ तकनीक से लोगों को आकर्षित किया जाता है. फिर कुछ वैचारिक धारणाओं की रीपैकेजिंग करके नए रंगरूटों को ऐसे काम करने के लिए कहा जाता है, जिन पर सवाल उठ सकते हैं. किसी टेररिस्ट संगठन में भर्ती के ये तीनों चरण क़ुरान की व्याख्या पर आधारित होते हैं. हदीस पर आधारित संदर्भों की मदद से चलने वाली भर्ती प्रक्रिया के पहले चरण को तौहीद-अल-हकीमिया कहा जाता है. जिसका मतलब होता है कि अल्लाह ही इकलौता असली क़ानून निर्माता है. इसलिए, सीधे तौर पर एकेश्वरवाद का हवाला नहीं देते. इसकी जगह वो अल्लाह और क़ानून निर्माता के बीच सीधा ताल्लुक़ होने की बात कह कर किसी से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को तबाह करने की मांग करते हैं. जिसमें दहशतगर्दों के निशाने पर बैलट व्यवस्था और पश्चिमी विश्व व्यवस्था का व्यापक रूप होता है. आतंकवाद के नए रंगरूटों को ये समझाया जाता है कि पश्चिमी देश जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं, वो क़ुरान द्वारा प्रतिपादित की जाने वाली क़ानून बनाने की व्यवस्था के विरुद्ध है.

जब कोई इंसान आतंकवादी संगठन का हिस्सा बना लिया जाता है तो उसके दिमाग़ में कट्टरपंथी विचारधारा को कूट-कूट कर भर दिया जाता है. ताकि, वो पूरी तरह से संगठन और विचारधारा के प्रति समर्पित रहें. इसके लिए दंड देने और सबक़ को बार-बार याद दिलाना बेहद महत्वपूर्ण है

आतंकवादी संगठनों में भर्ती की प्रक्रिया के अन्य दो दौर हैं-कुफ्र बी ताघुत और अल वाला वल बारा. कुफ्र बी ताघुत का मतलब है केवल अल्लाह में भरोसा. जिसमें अन्य तरह की बुतपरस्ती को ख़ारिज किया जाता है. जबकि अल वाला वल बारा का मतलब होता है जिहादी आंदोलन का विरोध करने वाली हर चीज़ को ख़ारिज करना. आतंकवादी संगठन में भर्ती के इन तीनों चरणों के बारे में जेसी मोर्गन ने विस्तार से समझाया था. इनके माध्यम से किसी भी व्यक्ति की धार्मिक पहचान को लेकर उसके दिल में शक पैदा करने की अपार शक्ति का प्रयोग किया जाता है. कई संभावित रंगरूटों के लिए ये धार्मिक आस्थाएं अटल होती हैं. वो इनके प्रभाव में आकर अपने आक़ाओं के प्रति समर्पित हो जाते हैं. फिर ये भर्ती करने वाले इस्लाम में यक़ीन करने वाले और तौहीद में यक़ीन न रखने वालों के बीच फ़र्क़ का एक ताक़तवर फ्रेमवर्क तैयार किया जाता है. फिर, नए लोगों के दिमाग़ में ये शक पैदा किया जाता है कि वो असली इस्लामिक विश्व में नहीं रह रहे हैं. क़ुरान द्वारा दिखाए गए आदर्शों का पालन नहीं कर रहे हैं. किसी आतंकी संगठन के आदर्शों का अनुपालन नहीं कर रहे हैं. धीरे-धीरे ये शक़ और गहरा किया जाता है. फिर संभावित दहशतगर्दों ने नई-नई मांगें पूरी करने को कहा जाता है. जिन्हें पूरा करके वो अपनी वफ़ादारी साबित कर सकें. और अपनी वास्तविक पहचान से जुड़े रह सकें.

सीढ़ियों के इस खेल के शीर्ष पर

जब कोई इंसान आतंकवादी संगठन का हिस्सा बना लिया जाता है तो उसके दिमाग़ में कट्टरपंथी विचारधारा को कूट-कूट कर भर दिया जाता है. ताकि, वो पूरी तरह से संगठन और विचारधारा के प्रति समर्पित रहें. इसके लिए दंड देने और सबक़ को बार-बार याद दिलाना बेहद महत्वपूर्ण है. नियमित रूप से नकारात्मक बातें लोगों के ज़हन में भरी जाती हैं. लगातार कड़ी निंदा करते रहने का नतीजा ये होता है कि लोगों का आत्मविश्वास हिल जाता है. फिर वो अपने संगठन और हैंडलर्स के ऋणी महसूस करते हैं और उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं. अमेरिका पर 9/11 के आतंकवादी हमले के लिए ख़ुद को दोषी मानने वाले ज़कारियस मुसावी ने अपने इक़बालिया बयान में कहा था कि, वो अपनी ही नज़रों में पूरी तरह से गिर गया था. वो इस बात के लिए ख़ुद पर अफ़सोस करता था कि वो नाकारा है. फिर भी उसे बार-बार ये कहा जाता था कि उससे पहले, उसके जैसे कई लोग नाकामी से उबर कर सफल हो चुके हैं और उन्होंने महान काम किए हैं. और अगर वो इसी स्थिति में रहेगा तो इसका अंत बुरा होगा. अब चूंकि वो सिर्फ़ एक चीज़ ऐसी कर सकता है, जो किसी काम आ सकती है, वो है ख़ुद की जान दे देना. जैसा कि मुसावी ने बताया था कि उसके दिल में ऋणी होने का भाव कूट-कूट कर भर दिया गया था. और इससे उबरने का एक ही तरीक़ा उसे बार-बार बताया जाता था. और वो शहादत देकर ही अपनी आत्मा को इस क़र्ज़ से उबार सकता था. ये आतंकवाद का महिमामंडन करने का एक तरीक़ा है. जिससे कोई आतंकवादी संगठन किसी के दिल-दिमाग़ में ऋणी होने का ऐसा भाव पैदा कर देता है, जिससे प्रभावित होकर वो अकल्पनीय काम करने को भी राज़ी हो जाता है.

आज के दौर में आतंकवादियों की भर्ती प्रक्रिया आम तौर पर ऑनलाइन होती है. जहां कोई संभावित आतंकवादी अपने हैंडलर से सीधे तौर पर नहीं मिलता है और बात करता है. इंटरनेट के माध्यम से आतंकवाद के संभावित रंगरूटों के पास अपनी पहचान छुपाए रखने का मौक़ा होता है. इससे उनकी जवाबदेही कम हो जाती है. इससे उनका व्यक्तिगत क्षरण होता है. किसी व्यक्ति के किरदार के ऐसे क्षरण और पहचान सार्वजनिक न होने की वजह से किसी आतंकवादी संगठन की विशेषता और बढ़ जाती है. इसके बाद अज्ञात लोग उस समूह के नियमों का पालन और श्रद्धा से करने लगते हैं. ये अज्ञात होने की सोच किसी भी काम की जवाबदेही के भाव को भी कम कर देते हैं. क्योंकि किसी आतंकवादी को अपने कर्म का फल मिलने और सामाजिक बहिष्कार होने का डर कम हो जाता है.

तो, इंटरनेट ऐसी जगह है, जो आतंकवादियों की भर्ती करने वालों को नए अवसर प्रदान करता है. जहां वो कमज़ोर युवाओं से संवाद स्थापित कर सकते हैं. ऐसे आतंकवादियों की भर्ती रोकने की राह में नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. इसके बावजूद आतंकवादियों की भर्ती करने वालों के मनोवैज्ञानिक नुस्खों को बेहतर ढंग से जानकर हम उन लोगों की तकलीफ़ समझ सकते हैं, जिनका दिमाग़ फिरा दिया जाता है. और फिर इन अनुभवों के आधार पर इन कमज़ोर युवाओं के किसी आतंकवादी संगठन के जाल में फंसने के संकेत समझे जा सकते हैं. इनका फ़ायदा ये होगा कि हम इनकी मदद से आतंकवादी विचारधारा से प्रभावित युवाओं को किसी अन्य समूह से जुड़ने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, जो कम ख़तरनाक हों.

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