Published on Feb 14, 2017 Updated 0 Hours ago

सीमावर्ती राज्यों में अवैध रूप से रह रहे विदेशियों के कारण न केवल इन क्षेत्रों की जनसांख्यिकीय संरचना बदल गई है, बल्कि भारत के लिए खतरनाक राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न हो गई हैं।

देश में अवैध विदेशियों की संख्‍या बढ़ाएगी यूबीआई

बांग्लादेश में बाढ़ में जलमग्‍न खेत, जिसकी तस्‍वीर मेघालय से ली गई है।

स्रोत: फ्लि‍कर यूजर नीलिमा वी.

भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी देश के हर नागरिक को हर माह निर्धारित आमदनी (यूबीआई) सुनिश्चित करने पर चर्चा महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक दोनों ही है। यह महत्‍वपूर्ण इसलिए है क्‍योंकि इस आर्थिक सर्वेक्षण में यूबीआई पर विस्तृत एवं गहन चर्चा हुई है। इसी तरह यह आश्चर्यजनक इसलिए है क्‍योंकि आर्थिक सर्वेक्षण जैसे एक रूढ़िवादी या अपरिवर्तनवादी विजन दस्तावेज में यूबीआई जैसी क्रांतिकारी अवधारणा को इतनी अहमियत दी गई है। आर्थिक सर्वेक्षण में इस वर्ष भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने न केवल महात्मा गांधी की इस उक्ति ‘कोई श्रम नहीं, कोई भोजन नहीं’ को उद्धृत किया, बल्कि अपनी विशिष्‍ट अभिव्यक्ति के जरिए यह भी प्रतीत कराया कि महात्मा गांधी यूबीआई के सिद्धांत के पक्ष में थे।

आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, यह भारत में यूबीआई को लागू करने का न सही, लेकिन इस पर चर्चा करने का बिल्‍कुल उपयुक्त समय है, क्‍योंकि यहां पर बात ‘हर आंख से हर आंसू पोंछने’ के सिद्धांत की हो रही है। चूंकि यूबीआई सार्वभौमिक एवं बिना शर्त होने के साथ-साथ एक अहम साधन भी है, इसलिए इसका विशेष आकर्षण है। सर्वेक्षण में यह कहा गया है कि यूबीआई किसी पेशे को चुनने में स्वायत्तता हासिल करने के लिए किसी भी व्यक्ति को अहम साधन प्रदान करके गरीबी को काफी कम कर सकती है, इसलिए इसके जरिए बेहतर जीवन शैली सुनिश्चित करने की काफी गुंजाइश है।

सर्वेक्षण में यह उम्मीद जताई गई है कि जैम (जन धन, आधार और मोबाइल) की मदद से यूबीआई देश में नौकरशाही की अक्षमता एवं भ्रष्टाचार को कम करके समाज कल्याण और सुरक्षा को वास्तविकता में तब्‍दील कर सकती है।

सरकार द्वारा अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाएं शुरू करने के बावजूद भारत में गरीबी के स्‍तर में अपेक्षित कमी नहीं आई है। इसका कारण ‘समावेशी या शामिल करने’ और ‘अलग करने या हटाने’ जैसी त्रुटियां हैं जिनका वास्‍ता सही लाभार्थियों को लक्षित करने और भ्रष्टाचार से है। अत: भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के लिए यूबीआई देश में गरीबी की समस्‍या का एक त्वरित समाधान है क्‍योंकि देश के हर नागरिक के लिए हर माह निर्धारित बुनियादी आमदनी सुनिश्चित करने से इस समस्‍या का कारगर समाधान निकल सकता है।

देश के आर्थिक सर्वेक्षण में लोगों के लिए एक बुनियादी आमदनी सुनिश्चित करने के प्रस्ताव हेतु जो कारण गिनाए गए हैं वे पश्चिम देशों से अलग हैं। पश्चिमी देशों में यूबीआई की वकालत यह दलील देते हुए की जा रही है कि स्‍वचालन के कारण बढ़ती बेरोजगारी और पारिश्रमिक या वेतन में आए ठहराव का ठोस समाधान यूबीआई से निकल सकता है। हालांकि, इसकी तुलना में भारत में स्थिति भिन्‍न है। भारत में न तो पश्चिमी देशों की तरह बड़े पैमाने पर स्वचालन हुआ है और न ही यहां वेतन में ठहराव जैसी स्थिति देखने को मिल रही है। भारत में जिस उत्‍साहवर्धक ढंग से आर्थिक विकास हो रहा है उसे देखते हुए भारत में आने वाले समय में गरीबी कम होना एक तरह से तय है।

पश्चिमी देशों में यूबीआई की वकालत यह दलील देते हुए की जा रही है कि स्‍वचालन के कारण बढ़ती बेरोजगारी और पारिश्रमिक या वेतन में आए ठहराव का ठोस समाधान यूबीआई से निकल सकता है।

यूबीआई की शुरुआत पर विचार करने से पहले सरकार को यह सलाह देना संभवत: उपयुक्‍त होगा कि वह देश में इसके कार्यान्वयन से सुरक्षा पर पड़ने वाले असर पर भी अवश्‍य गौर करे। यह सब जानते हैं कि भारत में विशेष रूप से इसके सीमावर्ती राज्यों में अवैध रूप से बड़ी संख्‍या में रह रहे विदेशी चिंता का एक प्रमुख विषय है। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 30,84,826 बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। यदि सरकारी और मीडिया रिपोर्टों को ध्‍यान में रखें तो वर्ष 2003 में भारत में दो करोड़ अवैध बांग्लादेशी अपना डेरा यहां जमा चुके थे। इसी तरह, वर्ष 2009 में 50,000 से लेकर 1,00,000 तक बर्मी चिन अन्य भारतीय राज्यों के साथ-साथ मुख्‍यत: मिजोरम में रह रहे थे। इसी तरह बड़ी संख्‍या में अफगान, पाकिस्तानी और रोहिंग्या मुसलमान भारत के विभिन्न भागों में रह रहे हैं। असम और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के बंगाली मुसलमानों के अवैध प्रवास के कारण इन राज्यों में जनसांख्यिकीय बदलाव देखने को मिल रहा है जिस वजह से इन भारतीय राज्यों में गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं।

 इन सीमावर्ती राज्यों में अवैध रूप से रह रहे विदेशियों के कारण न केवल इन क्षेत्रों की जनसांख्यिकीय संरचना बदल गई है, बल्कि भारत के लिए खतरनाक राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न हो गई हैं। ब्रह्मपुत्र नदी की बदलती दिशा के कारण भारत-बांग्लादेश सीमा पर बाड़ लगाना लगभग अव्यावहारिक हो जाने के अलावा भारत में बेहतर रोजगार अवसर उपलब्‍ध होने और ज्‍यादा पारिश्रमिक या वेतन मिलने के परिणामस्‍वरूप बांग्लादेश से अवैध आव्रजन को काफी बढ़ावा मिल रहा है। इसी तरह जाली दस्तावेजों की आसान उपलब्धता, भ्रष्ट नौकरशाही की मिलीभगत और वोट बैंक की राजनीति के चलते आगे भी विभिन्‍न राज्यों में इस तरह के अवैध प्रवास का सिलसिला जारी रहने का अंदेशा है।

नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के अनुसार, असम के धुबरी जिले में 27,000 से भी अधिक विदेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। असम की वर्तमान सरकार ने अवैध घुसपैठ की समस्‍या से निपटने के लिए ‘पता लगाने, हटाने और निर्वासन करने’ की योजना शुरू की है। यही तो अवैध घुसपैठ से जुड़ी वास्तविक समस्या है। दरअसल, जब एक बार अवैध तरीकों से नागरिकता हासिल कर ली जाती है तो भारत जैसे अत्‍यंत विशाल एवं अधिक आबादी वाले देश में इस तरह के घुसपैठियों का पता लगाना और उन्‍हें देश से बाहर निकालना असंभव तो नहीं, लेकिन बेहद कठिन अवश्‍य हो जाता है। अपने अवैध नागरिकता दर्जे को ध्‍यान में रखते हुए इस तरह के आप्रवासी अत्‍यंत कम वेतन पर भी रोजगार करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

आइए, अब इस समग्र तस्‍वीर पर गौर करें। यूबीआई के सभी तीनों घटकों अर्थात इसके सार्वभौमिक, बिना शर्त और उपयुक्‍त साधन साबित होने के कारण अन्य बातों के अलावा आगे चलकर देश में अवैध आव्रजन या विदेशियों के अवैध प्रवेश को काफी बढ़ावा मिलने का अंदेशा है। यदि कोई व्‍यक्ति महज देश का नागरिक होने के नाते बुनियादी आमदनी पाने का हकदार हो जाता है तो वैसी स्थिति में संभावित अवैध आप्रवासी किसी भी तरह से यहां की नागरिकता प्राप्त करने में जुट जाएंगे और यह बात संबंधित अधिकारियों को अभी से ही मान लेनी चाहिए। इसके अलावा, ‘बिना शर्त’ के सिद्धांत के कारण यूबीआई और भी ज्‍यादा असुरक्षित नजर आ रही है। चूंकि यूबीआई के तहत हस्तांतरण किफायती यानी ‘नो-फ्रिल’ ढंग से होने की उम्मीद है, इसलिए लाभार्थियों की चयन प्रक्रिया कमोबेश यंत्रवत ही रहेगी। यही नहीं, चूंकि प्रत्येक नागरिक बुनियादी आमदनी पाने का हकदार होगा, इसलिए नौकरशाही के स्तर पर जांच-पड़ताल की प्रक्रिया संभवत: कोई खास कठोर नहीं होगी।

यह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है कि बहु-प्रशंसित ‘जैम’ व्‍यवस्‍था अपने शब्‍द के अनुरूप सही मायने में अपने लाभार्थियों को ‘उपयुक्‍त साधन’ प्रदान करने के अलावा ‘पता लगाने, हटाने और निर्वासित करने’ जैसी पहल की प्रभावकारिता को कुंद भी कर सकती है। वर्तमान सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत खाद्य सुरक्षा का फायदा उठाने के इच्छुक लाभार्थी को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन (बीपीएल) कार्ड, जाति, आय और यहां तक कि निवास स्थान प्रमाणपत्र, इत्‍यादि प्राप्त करने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इन औपचारिकताओं के लिए अधिक जांच-पड़ताल की आवश्यकता होती है और ये लाभार्थी को अपने जन्म स्थान से ही जुड़े रहने के लिए विवश करती हैं और ऐसे में देश के अंदर कहीं और जाकर उनके प्रवास (माइग्रेशन) करने की गुंजाइश कम हो जाती है। यहां तक कि रोजगार गारंटी योजना ‘मनरेगा’ भी स्थानीय स्‍तर पर ही रोजगार मु‍हैया कराती है। वहीं, इसके विपरीत ‘जैम युक्‍त यूबीआई’ लोगों को देश के अंदर कहीं और जाकर बस जाने (माइग्रेशन) से नहीं रोक पाती है, क्‍योंकि इस लाभ को पाने के लिए देश में अवैध रूप से रह रहे विदेशियों को केवल एक ‘फर्जी आधार कार्ड’ ही बनवाना होगा, जिसे प्राप्‍त सूचनाओं के मुताबिक हासिल करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है।

यूबीआई के सभी तीनों घटकों अर्थात इसके सार्वभौमिक, बिना शर्त और उपयुक्‍त साधन साबित होने के कारण अन्य बातों के अलावा आगे चलकर अवैध आव्रजन को काफी बढ़ावा मिलने का अंदेशा है।

यह सच है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाएं भ्रष्टाचार एवं अक्षमता से ग्रस्त हैं। हालांकि, यह भी सच है कि इस तरह की कल्याण योजनाएं चलाकर सरकारें देश के नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को दर्शाती हैं। एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को दिए जाने वाले नैतिक और वैचारिक समर्थन की पुष्टि इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के जरिए ही होती है। महज ‘समावेश या शामिल करने’ और ‘हटाने या अलग करने’ की त्रुटियों को सही करने के उद्देश्‍य से सभी नागरिकों के लिए यूबीआई को यंत्रवत लागू करना विवेकपूर्ण नहीं माना जाएगा। स्विट्जरलैंड का उदाहरण आपके सामने है, जिसने एक अमीर देश होने के बावजूद हाल ही में आयोजित जनमत संग्रह के तहत अपने नागरिकों को बुनियादी आमदनी सुलभ कराने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। अर्थशास्त्री गॉय स्‍टैंडिंग की ओर से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने के बावजूद मध्य प्रदेश में यूनिसेफ और स्व रोजगार महिला संघ (सेवा) द्वारा यूबीआई के लिए शुरू की गई दो पॉयलट परियोजनाएं देश भर में इस तरह के जोखिम भरे उपक्रम शुरू करने के लिहाज से पर्याप्त नहीं हैं।

इन समस्‍त कारणों को ध्‍यान में रखते हुए जम्मू-कश्मीर के वित्त मंत्री हसीब द्राबू द्वारा राज्‍य के बजट में प्रस्तावित यूबीआई पर गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार करने की जरूरत है। ऐसे राज्‍य में जहां की पूरी सरकारी मशीनरी, केंद्रीय अर्धसैनिक बल और सेना भी दक्षिणी कश्मीर में ‘पत्थरबाजों’ को नियंत्रण में रखने में असमर्थ हैं, वहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि यूबीआई जैसी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना पर वहां के निवासी न केवल नाक-भौं सिकोड़ेंगे, बल्कि इसका जमकर दुरुपयोग भी किया जाएगा।

वैसे तो आर्थिक सर्वेक्षण में यूबीआई के खिलाफ कुछ तर्क भी पेश किए गए हैं, लेकिन इनके साथ ही देश में विदेशियों के अवैध रूप से रहने, संवेदनशील सीमावर्ती राज्यों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन और इस वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे जैसी समस्‍याओं का भी उल्‍लेख इस विजन दस्तावेज में किया जाना चाहिए था। संभवत:, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) को एक अप्रयोगात्मक प्रस्ताव मानकर और इसको राजनीतिक दृष्टि से अव्यावहारिक मानते हुए इसे खारिज कर बिल्‍कुल सही किया है।


यह समीक्षा मूल रूप से स्वराज्य में छपी थी।

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