Published on Apr 18, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत दुनिया का दूसरा बड़ा फल और सब्ज़ी उत्पादक देश है. इनमें से ज़्यादातर बर्बाद होते हैं. कुछ स्टार्टअप कोल्ड चेन लॉजिस्टिक विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन और ज़्यादा की ज़रूरत है.

प्रवासी मज़दूरों का पलायन: सरकार के लिए मौक़ा और चुनौती साथ-साथ

भारत में कोविड-19 लॉकडाउन के बाद असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले हज़ारों दैनिक मज़दूर झुंड बनाकर बड़े शहरों को छोड़ रहे हैं. उनके पास अपने गांव लौटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है हालांकि उनका भविष्य वहां भी निराशाजनक है. सार्वजनिक परिवहन का कोई साधन न होने की वजह से काफ़ी मज़दूर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से पैदल ही बिहार जैसे दूर-दराज के इलाक़े रवाना हो गए. कुछ ने अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए रिक्शे का सहारा लिया. उन्हें अपने गांव तक पहुंचने में लंबा वक़्त लगेगा. उनकी दुर्दशा कल्पना से परे है.

शहर में वायरस से संक्रमित होने की आशंका के मद्देनज़र गांव लौटने पर वो कुछ लोगों को संक्रमित भी कर सकते हैं. कोविड-19 के लक्षण नज़र आने में 14 दिन तक का समय लगते हैं. ऐसे में आसानी से वो गांव में वायरस को फैला सकते हैं. हमारे गांवों में मूलभूत स्वास्थ्य ढांचा न होने और वेंटिलेटर से लैस अस्पताल की गैर-मौजूदगी में हालात और ख़राब बन जाएंगे. 1,000 की आबादी पर एक से भी कम डॉक्टर हैं. इन हालात में ग्रामीण भारत के लिए कोविड-19 वायरस से मुक़ाबला करना बेहद मुश्किल है. 450 व्यक्ति प्रति वर्ग मील के सघन जनसंख्या घनत्व की वजह से सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन का सही फ़ैसला लिया है. शहरों में साफ़-सफ़ाई बनाए रखने में मुश्किल होगी और यहां तक कि झुग्गियों में साबुन से हाथ धोना भी समस्या है क्योंकि इसके लिए ज़्यादा पानी की ज़रूरत पड़ती है. सामाजिक दूरी भी एक समस्या है क्योंकि 10 गुना 10 फीट के घर में चार-चार आदमी रहते हैं.

एक प्रवासी मज़दूर शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में अमानवीय हालात में रहता है. ज़रूरी सेवाओं पर भी भारी दबाव है. उनके पास पानी, शौचालय की सुविधा और रहने की जगह की कमी है. वास्तव में पिछले कुछ सालों के दौरान शहरों से मज़ूदरों के पलायन का रुझान रहा है

सामान्य हालात में शहरों की भीड़-भाड़ दूर करना अच्छा विचार होता. एक प्रवासी मज़दूर शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में अमानवीय हालात में रहता है. ज़रूरी सेवाओं पर भी भारी दबाव है. उनके पास पानी, शौचालय की सुविधा और रहने की जगह की कमी है. वास्तव में पिछले कुछ सालों के दौरान शहरों से मज़ूदरों के पलायन का रुझान रहा है. कोलकाता और हैदराबाद में पिछले कुछ सालों के दौरान पहले के मुक़ाबले कम मज़दूर आए हैं. पर्यावरण से जुड़ी वजहों से निर्माण कार्यों की कम रफ़्तार के कारण मज़दूरों को मजबूर होकर लौटना पड़ा. कुछ मज़दूर इसलिए वापस गए क्योंकि वो इतने ख़राब हालात में नहीं रह सकते थे. लेकिन मज़दूरों का स्वैच्छिक पलायन ज़बरन थोपे गए पलायन के मुक़ाबले कम रहा है.

कुछ जोखिम उठाने के लिए तैयार नौजवान बड़े शहरों से ग्रेड II शहर एग्रीटेक या इससे मिलते-जुलते स्टार्टअप की शुरुआत करने के लिए गए हैं. लेकिन उद्यमियों के लिए सही सह-कर्मी की तलाश लगातार चुनौती बनी रही है. घर लौटने वाले प्रवासियों के लिए पैसे कमाने के कुछ ही विकल्प हैं. अगर उनके पास ज़मीन है भी तो उस ज़मीन से उनका खर्च नहीं चल सकता और दैनिक मज़दूरी और कारीगरी के काम उस अर्थव्यवस्था में मुमकिन नहीं जो पहले से ही बोझ तले दबे हुए हैं. वास्तव में बेरोज़गारी की वजह से ग्रामीण डिमांड कम हो रही है. कुछ गांवों को छोड़कर कहीं छोटे उद्योग नहीं हैं और नज़दीकी शहर एकमात्र जगह है जहां उन्हें काम मिल सकता है. अक्सर छोटे शहरों से वो काम की तलाश में बड़े शहर चले जाते हैं. हाल के सालों में जाने वाले ज़्यादातर मज़दूर छोटे शहरों से बड़े शहर गए हैं.

चीन में वुहान के नज़दीक हुबेई ज़िले में जो अब कोविड-19 का केंद्र बन गया है, जब ये लेखिका कुछ साल पहले गई थी तो एक साधारण गांव में सिगरेट लाइटर और जुराब बनाने वाले छोटे कारखाने में वहां का हर आदमी काम करता था. उन्होंने हमें कहा कि दुनिया की हर लाइटर और जुराब यहीं बनता है. गांव के लोग अपनी ज़िंदगी से पूरी तरह संतुष्ट नज़र आ रहे थे. वो अच्छे घर में रहते थे जिसमें सभी मूलभूत सामान जैसे टीवी, फ्रिज और वॉशिंग मशीन थी. लेकिन घर की हर चीज़- दरवाज़े, खिड़कियां और फर्नीचर प्लास्टिक से बने थे. उनके पास आठ तरह की सामाजिक बीमा पॉलिसी थी. उनके लिए गांव से शहर जाने की कोई ख़ास वजह नहीं थी.

चीन ने गांव से शहरों की तरफ़ लोगों के जाने को हुकोई सिस्टम के ज़रिए भी काबू किया है जो अभी भी वहां हल्के रूप में मौजूद है. ये एक पारिवारिक रजिस्ट्रेशन कार्यक्रम है जो घरेलू पासपोर्ट की तरह काम करता है और ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में जनसंख्या के वितरण को दुरुस्त रखता है

चीन ने गांव से शहरों की तरफ़ लोगों के जाने को हुकोई सिस्टम के ज़रिए भी काबू किया है जो अभी भी वहां हल्के रूप में मौजूद है. ये एक पारिवारिक रजिस्ट्रेशन कार्यक्रम है जो घरेलू पासपोर्ट की तरह काम करता है और ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में जनसंख्या के वितरण को दुरुस्त रखता है. ये मज़दूरों के गांवों से शहर जाने पर नियंत्रण रखता है लेकिन शहरों के बड़े कारख़ानों में मज़दूरों की कमी के कारण इसमें छूट दी गई है और मज़दूरों को शहर जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है.

हमारे देश में भी गांवों में छोटे उद्योग हो सकते हैं ख़ास तौर से खाद्य प्रसंस्करण में. भारत दुनिया का दूसरा बड़ा फल और सब्ज़ी उत्पादक देश है. इनमें से ज़्यादातर बर्बाद होते हैं. कुछ स्टार्टअप कोल्ड चेन लॉजिस्टिक विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन और ज़्यादा की ज़रूरत है. मगर इसमें नई प्रतिभा को आकर्षित करना मुश्किल है. इसके लिए बेहतरीन स्टार्टअप इकोसिस्टम होना चाहिए. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि गांवों में बुनियादी ढांचा जर्जर और अपर्याप्त है.

ऐसे हालात ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमज़ोर बनाते हैं. साथ ही घरेलू और विदेशी- दोनों तरह के निवेशक गांवों में जाकर कारखाना बनाने से पीछे भागते हैं. बिजली की नियमित सप्लाई, पानी, अच्छी सड़क और कनेक्टिविटी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. यहां तक कि दूर-दराज के हिस्सों में भी पक्की सड़क होनी चाहिए. ऐसा नहीं होने पर दूर-दराज के क्षेत्रों में हमेशा ग़रीबी बनी रहेगी और लोग बड़ी संख्या में शहर की तरफ़ भागेंगे.

इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सलाह याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि पहले ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करो और उसे आत्मनिर्भर बनाओ. लेकिन उस वक़्त प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मशहूर अर्थशास्त्री पी. सी. महालनोबिस ने विकास का सोवियत मॉडल अपनाया जिसके तहत भारी उद्योगों को विकसित करने और तीव्र औद्योगिकरण पर ज़ोर दिया गया. ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नज़रअंदाज़ करना लंबी प्रक्रिया रही है.

उन मज़दूरों को अच्छा रोज़गार देना जो शहर की तरफ़ नहीं जाना चाहते हैं जैसा कि नोटबंदी के दौरान हुआ था, सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. अन्यथा वो रोज़ी-रोटी कमाने के लिए फिर से शहर के ख़राब माहौल में रहने के लिए लौट जाएंगे. गांवों को तेज़ी से विकसित करना होगा नहीं तो बेरोज़गार श्रम बल से बाहर हो जाएंगे जैसा कि 2016 में हुआ था.

इस संकट के समय प्रधानमंत्री मोदी का 1.7 ट्रिलियन रुपये का राहत पैकेज काफ़ी काम आएगा बशर्ते जो लाभार्थी हैं उन्हें पैसा मिलने में कोई दिक़्क़त न हो क्योंकि कई के पास बैंक खाता नहीं है. ज़्यादा काग़ज़ी कार्रवाई से सभी फ़ायदे ख़त्म हो जाएंगे और लोग लंबे वक़्त तक दिक़्क़त में रहेंगे.

लॉकडाउन का ये संकट आकस्मिक विपदा है लेकिन ऐसा फिर से हो सकता है. अच्छा होगा कि शहरों में भीड़ कम हो और प्रवासी मज़दूरों को ये विकल्प मिले कि वो गांव में रहना चाहते हैं या शहर जाना चाहते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.