वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की परिकल्पना और संरचना जिस तरह से की गई है, उससे अप्रत्यक्ष करों की चोरी के ज्यादातर रास्ते बंद हो गए हैं। दरअसल, जीएसटी पहला ऐसा साधन है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों दोनों की ही चोरी पर अंकुश लगाएगा। दूसरे शब्दों में, जीएसटी प्रणाली ने कर प्रशासन के लिए ‘पैसे के गोलमाल पर करीबी नजर रखना’ बेहद आसान कर दिया है।
वैसे तो अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष करों के बीच स्पष्ट तौर पर कोई सीधा संबंध संभव नहीं है, लेकिन जिस डिजिटल बुनियादी ढांचे पर ये दोनों ही टैक्स अब आधारित हैं उसके द्वारा मुहैया कराई जा रही कड़ी से पारदर्शिता सुनिश्चित हो रही है जो हर इनवॉयस, हर लेन-देन और हर रुपये के आवागमन को उजागर कर देगा। चूंकि इनपुट क्रेडिट का दावा करने के लिए जीएसटी नेटवर्क (जीएसटीएन) पर समस्त जानकारी देना जरूरी है, इसलिए ऐसे में अप्रत्यक्ष करों के जरिए जिस रकम की चोरी की गई थी वह अब छिपी नहीं रह पाएगी। जीएसटीएन के जरिए समस्त लेन-देन को खंगालना संभव होने के कारण निश्चित रूप से किसी भी टैक्स चोरी के बारे में पता चल जाएगा। इसी तरह जीएसटी की चोरी के जरिए व्यक्तियों या संस्थानों की जेब में गई रकम के बारे में पता डिजिटल रिकॉर्ड की मदद से पैन (स्थायी खाता संख्या) और/या ‘आधार’ तथा बैंकिंग क्षेत्र से उसके जुड़े रहने के माध्यम से लगाया जा सकता है। डिजिटल रिकॉर्ड की मदद से आरंभ में बड़ी-बड़ी कर चोरियों और फिर उसके बाद छोटी-छोटी टैक्स चोरियों के बारे में भी पता लगना संभव हो जाने से प्रत्यक्ष करों की चोरी में कमी आएगी। दरअसल, यह ऐसी कर चोरी है जिसे अप्रत्यक्ष करों की प्रणाली में अंजाम दिया जाता है और जो आगे चलकर विभिन्न लोगों के प्रत्यक्ष खर्चों के रूप में उभर कर सामने आती है।
वित्तीय मोर्चे पर, ‘बेहिसाबी या अघोषित’ नकदी से लेन-देन करना काफी मुश्किल होता जा रहा है। उल्लेखनीय है कि ऐसी ‘हिसाबी या घोषित’ नकदी अर्थव्यवस्था जो, उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में खेती-बाड़ी या शहरों के छोटे विक्रेताओं से जुड़ी हुई, वह टैक्स चोरी वाली अर्थव्यवस्था नहीं है। जीएसटी ने 17 वर्षों तक चले प्रयासों के बाद सभी अप्रत्यक्ष करों को एकल प्रणाली के अंतर्गत ला दिया है। वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की देख-रेख में प्रथम जीएसटी पैनल का गठन किया गया था। इसके बाद मनमोहन सिंह द्वारा प्रयास किए गए थे, लेकिन यह बिल वर्ष 2014 में अटक गया था। तत्पश्चात इस बिल या विधेयक में नई जान फूंकी गई, फिर यह संसद में पारित हो गया और अंतत: 1 जुलाई 2017 को नरेंद्र मोदी द्वारा इसे लांच किया गया। जीएसटी की ही तरह प्रत्यक्ष कर सुधार को मूर्त रूप देने के लिए भी एक के बाद एक सभी सरकारें प्रयासरत रही हैं। जहां एक ओर जीएसटी प्रणाली में अगले 12 महीनों में स्थायित्व आ जाएगा और यह अपनी यात्रा के दौरान अप्रत्यक्ष कर से जुड़े नए करदाताओं को सृजित करेगी, वहीं दूसरी ओर प्रत्यक्ष करों से जो विशेष जुड़ाव है उसकी बदौलत राजकोषीय भारत को इसके अनपेक्षित नतीजों का लाभ मिलेगा।
जीएसटी, जिसने 17 वर्षों तक चले प्रयासों के बाद सभी अप्रत्यक्ष करों को एकल प्रणाली के अंतर्गत ला दिया है, की ही तरह प्रत्यक्ष कर सुधार को मूर्त रूप देने के लिए भी एक के बाद एक सभी सरकारें प्रयासरत रही हैं।
आइए, प्रत्यक्ष करों की चोरी पर लगाम लगाने के प्रयासों पर एक नजर डालते हैं। दो दशक पहले 28 फरवरी 1997 को पेश किए गए अपने बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रस्ताव किया था कि 12 बड़े शहरों के उन वाशिंदों को निश्चित तौर पर टैक्स रिटर्न दाखिल करना होगा जो इन चार पैमानों में से दो पैमानों पर खरे उतरेंगे (कोई चौपहिया वाहन रखना, ऐसी अचल संपत्ति रखना जो विशेष निर्धारित पैमाने पर सटीक साबित हो, टेलीफोन रखना, और पिछले वर्ष विदेश यात्रा करना)। अगले साल 1 जून 1998 के अपने बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने इस प्रस्ताव का दायरा बढ़ाकर कुल 35 शहरों को इसमें शामिल कर दिया और इसके साथ ही टैक्स रिटर्न अवश्य दाखिल करने के लिए दो और पैमानों को इसमें जोड़ दिया (क्रेडिट कार्ड रखना एवं ‘महंगे’ क्लबों की सदस्यता हासिल करना)। यही नहीं, इन छह पैमानों में से किसी भी एक पैमाने पर खरे उतरने पर टैक्स रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अलावा, उन्होंने ज्यादा मूल्य वाले लेन-देन के लिए भी पैन (स्थायी खाता संख्या) को अनिवार्य कर दिया। अचल संपत्ति या मोटर वाहनों की खरीद-बिक्री, 50,000 रुपये से ज्यादा मूल्य के शेयरों के लेन-देन, नए बैंक खाते खोलने या 50,000 रुपये से ज्यादा की फिक्स्ड डिपॉजिट (एफडी) कराना, टेलीफोन कनेक्शन के आवंटन के लिए आवेदन करना और 25,000 रुपये से अधिक के होटल बिल का भुगतान इनमें शामिल हैं। चार साल बाद 28 फरवरी 2002 के अपने बजट में सिन्हा ने गलत पैन का उल्लेख करने पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया और इसके साथ ही संबंधित लेन-देन की सूची का दायरा बढ़ाकर इसमें विदेश यात्रा पर 25,000 रुपये से अधिक की नकदी खर्च किए जाने, 50,000 रुपये से अधिक की नकदी देकर बैंक ड्राफ्ट खरीदे जाने और किसी भी बैंक खाते में 50,000 रुपये से अधिक की नकदी जमा करने को भी शामिल कर दिया।
अप्रत्यक्ष करों की चोरी रोकने के लिए भारत द्वारा उठाए जा रहे नीतिगत कदमों का उद्देश्य प्रत्यक्ष नियम-कायदे बनाकर प्रणाली में करदाताओं की संख्या बढ़ाना है। उदाहरण के लिए, चिदंबरम ने वर्ष 1997 के अपने बजट में खुदरा व्यापारियों के लिए ‘अनुमानित आय योजना’ शुरू करने की घोषणा की थी, जिसके तहत खुदरा व्यापार में संलग्न एवं 40 लाख रुपये से कम के कुल टर्नओवर वाले व्यक्तियों की आय उसके कुल टर्नओवर का 5 फीसदी मानी जाएगी। यदि घोषित आय 5 फीसदी से कम होती थी, तो संबंधित करदाता के लिए खाता-बही को दुरुस्त रखना और उसका ऑडिट कराना अनिवार्य कर दिया गया था। इसके बाद ‘1,400 रुपये’ की योजना शुरू की गई जो विफल साबित हुई थी। इस योजना के जरिए 5 लाख रुपये से कम के टर्नओवर और 35,000 रुपये से कम मुनाफा अर्जित करने वाले खुदरा व्यापारियों को नए करदाता बनाकर टैक्स दायरा बढ़ाने की कोशिश की गई थी। 1,400 रुपये की योजना 29 फरवरी 1992 के अपने बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने पेश की थी। उन्होंने कहा था, “इस योजना से इस श्रेणी के संभावित करदाताओं को अपनी मनोवैज्ञानिक झिझक दूर करके इस प्रणाली में शामिल होने में मदद मिलेगी।” यह योजना वर्ष 1992 में दो साल के लिए शुरू की गई थी, फिर वर्ष 1994 में इसका विस्तार ‘अनिश्चित काल के लिए’ कर दिया गया था और आखिरकार वर्ष 1997 में इसे बंद कर दिया गया।
इस पचड़े से दूर रहना, चर्चा में रहने से बचना, नकद लेन-देन को जारी रखना और स्थितियों के सामान्य होने का इंतजार करना ही बेहतर है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 1992 की ‘कर प्रणाली में शामिल होने की मनोवैज्ञानिक झिझक’ सदी की एक चौथाई अवधि गुजर जाने के बाद भी बदस्तूर बनी हुई है।
दो दशक बाद आर्थिक परिदृश्य बदल जाने और अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित हो जाने के बावजूद जिस भय के कारण 1,400 रुपये की योजना विफल साबित हुई थी वही डर फिर से व्याप्त नजर आया। 8 नवंबर 2016 के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) अभियान, जिसके तहत आरबीआई ने 500 और 1,000 रुपये के नोटों के चलन को अवैध घोषित कर दिया, को ध्यान में रखते हुए कई कारोबारी अपने ग्राहकों से पैसा लेने के लिए ईवॉलेट और क्रेडिट कार्ड मशीनें लगाने पर विवश हो गए। हालांकि, अनेक कारोबारी अब भी ये मशीनें लगाने से बच रहे हैं। कारण यह है कि सरकार के डेटाबेस से जुड़ जाने पर भविष्य में उनकी जांच-पड़ताल का खतरा बढ़ जाएगा और इसके साथ ही उन पर टैक्स अनुपालन का बोझ भी बढ़ जाएगा।
जीएसटी के लागू हो जाने के साथ-साथ संबद्ध डेटाबेस, चाहे इससे जुड़े या न जुड़े, की बदौलत विभिन्न लेन-देन की दोबारा जांच होने की व्यवस्था के कारण किसी कारखाने के मालिक द्वारा बिक्री प्राप्तियों को छिपा कर, सहयोगी कंपनियों के खाते में बिक्री दिखाकर या इनवॉयस में गलत मूल्य के मुद्रांकन इत्यादि के जरिए अपना उत्पादन कम दिखाने और इसके जरिए कर चोरी करने की संभावना अब अवश्य ही कम हो गई है, भले ही यह पूरी तरह समाप्त न हुई हो। कोई भी डाउनस्ट्रीम यूजर केवल तभी इनपुट क्रेडिट का दावा कर सकता है जब प्राथमिक फीडर जीएसटी का भुगतान कर देगा। इससे पहले, करों का भुगतान नहीं करके जो पैसा बचाया जाता था वह कारोबारी की जेब में बतौर नकदी चला जाता था, जिस पर वह प्रत्यक्ष कर का भी कोई भुगतान नहीं करता था। यह नकद अर्थव्यवस्था करीबी नजर रखने या ट्रैक करने वाली प्रणाली की पहुंच से बाहर होती थी।
अब न केवल जीएसटीएन का बुनियादी ढांचा अप्रत्यक्ष कर के मोर्चे पर हर इनवॉयस को ट्रैक करने की क्षमता रखता है, बल्कि ‘आधार’ से जुड़ा प्रत्यक्ष कर डेटाबेस इनसे आवश्यक जानकारी हासिल करके इन भी पर करीबी नजर रख सकता है। अप्रत्यक्ष करों के इस संग्रह और प्रत्यक्ष करों के साथ उसके एकीकरण की बदौलत कर चोरी की गति धीमी करने और टैक्स चोरी करने वालों को नियंत्रण में रखने के लिए इस प्रणाली की शक्ति को कई गुना बढ़ाने में मदद मिलेगी। जीएसटी प्रणाली को सही ढंग से काम करने देने के लिए नेटवर्क में दर्ज कराए गए सभी आंकड़ों को जोड़ना जरूरी है।
अत:, सैद्धांतिक रूप से, इस वैध प्रणाली में कर चोरी करने वालों के लिए हेर-फेर करने की बहुत कम गुंजाइश है। हालांकि, यह अक्सर कहा जाता है कि हमें आपराधिक दिमाग को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि यह सभी विनियामक परिवर्तनों से सदा ही कुछ कदम आगे रहा है और भविष्य में भी आगे रहेगा। हम केवल एक ही बात कुछ विश्वास के साथ कह सकते हैं कि जीएसटी की बदौलत अप्रत्यक्ष करों की चोरी के साथ-साथ प्रत्यक्ष करों की चोरी की भी भारी कीमत अब चुकानी होगी। यह अर्थव्यवस्था, सरकार और करदाताओं सभी के लिए समान रूप से अच्छा है। जिस भी कारोबारी व्यवस्था में टैक्स चोरी अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य बात होती है उसमें कोई भी नैतिक लांछन उससे जुड़ा नहीं होता है और जो भी व्यक्ति अपने टैक्स का भुगतान करते हैं वे उनसे अलग हटकर होते हैं। इसमें अब बदलाव दिखना शुरू हो जाएगा। सरकार ने अपनी ओर से प्रणाली में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही करों की दरें घटा दी हैं। आज ये किसी भी वैश्विक मानक के अनुरूप हैं। लेकिन चूंकि सामाजिक आदतें देर से जाती हैं, इसलिए भारत को इस दिशा में आगे भी कड़ी मशक्कत करनी होगी। हो सकता है कि टैक्स चोरी करने वाले ज्यादातर लोग सही मार्ग पर चलने लगें, लेकिन कर चोरी के अंतिम रास्ते को भी बंद करने के लिए प्रयास जारी रखने होंगे। जीएसटी मैराथन भारत द्वारा कर चोरी पर लगाम लगाने यानी गंतव्य पर पहुंचने की लंबी यात्रा की दिशा में एक और ठोस कदम है। हालांकि, यह एक गतिशील लक्ष्य आगे भी बना रहेगा।
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