Published on Aug 10, 2023 Updated 0 Hours ago

कर्ज़ लेने की ज़िम्मेदार व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए फ़िनटेक कंपनियों को साख के आकलन का ढांचा तैयार करना चाहिए. ये ढांचा निम्न-आय वाले परिवारों को कर्ज़ के जाल से दूर रखने में माइक्रोफ़ाइनेंस इंडस्ट्री के लिए मददगार साबित हो सकता है.

माइक्रो फाइनेंस, निम्न आय वर्ग के कर्ज़दार और डिजिटल लोन: इरादे नेक पर मिले-जुले संकेत!
माइक्रो फाइनेंस, निम्न आय वर्ग के कर्ज़दार और डिजिटल लोन: इरादे नेक पर मिले-जुले संकेत!

भारत की माइक्रोफ़ाइनेंस इंडस्ट्री असुरक्षित, बेहद छोटे आकार वाली (तक़रीबन 30,000 से 50,000), मध्यम मियाद (1 से 2 साल) और सामूहिक-देनदारियों के इर्द-गिर्द रची बसी है. इसके ज़रिए ग्रामीण/अर्द्धशहरी इलाक़ों में रहने वालों और नकदी पर आधारित असंगठित क्षेत्र से ताल्लुक़ रखने वाली महिलाओं और उनके परिवारों को (जो स्वरोज़गार या पारिवारिक पेशे से जुड़े हों) आजीविका से जुड़े ऋण मुहैया कराए जाते हैं. इस क्षेत्र में मज़बूत नीति और नियामक समर्थन के साथ-साथ निगरानी (और स्व-नियमन) का वातावरण रहा है. एक लंबे अर्से से तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद ये एक जांचा-परखा बिज़नेस मॉडल साबित हुआ है. नतीजतन माइक्रोफ़ाइनेंस एक कामयाब सामाजिक-आर्थिक उपकरण बन गया है. पिछले दशक में क़रीब 15 करोड़ परिवार इसके दायरे में आ चुके हैं. आम तौर पर कर्ज़ का जुगाड़ करने में महिलाओं को ख़ासी दिक़्क़तें पेश आती रही हैं. लघु वित्त के उपभोक्ता समुदाय की सामाजिक-आर्थिक बनावट के मद्देनज़र माइक्रोफ़ाइनेंस मॉडल के 2 ख़ास तत्व हैं- ऋण के स्रोत की अंडरराइटिंग सर्विसिंग के लिए घर की दहलीज़ तक भौतिक रूप से पहुंच और साख के आकलन के लिए न सिर्फ़ व्यक्तिगत आय बल्कि पारिवारिक आय पर विचार. इसके ज़रिए ऋण के रूप में दी जाने वाली रकम और कर्ज़ चुकता करने की मासिक क्षमताओं के बारे में फ़ैसले लिए जाते हैं. 

एक लंबे अर्से से तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद ये एक जांचा-परखा बिज़नेस मॉडल साबित हुआ है. नतीजतन माइक्रोफ़ाइनेंस एक कामयाब सामाजिक-आर्थिक उपकरण बन गया है. पिछले दशक में क़रीब 15 करोड़ परिवार इसके दायरे में आ चुके हैं.

बहरहाल, समय के साथ-साथ इस मॉडल के आधार पर लघु वित्त की दशकों पुरानी नियमन व्यवस्था के सामने दो प्रमुख चुनौतियां पेश आती रही हैं.

  • उपभोक्ता के हितों की रक्षा से जुड़े मानकों समेत तमाम नियमन और क़ीमतों पर लगाम लगाने की क़वायद सिर्फ़ एक प्रकार की इकाइयों (NBFC-MFIs) पर लागू होते हैं. इससे ऋण देने की व्यवस्था का दो-तिहाई हिस्सा नियमन के हिसाब से चलने वाली दूसरी इकाइयों- बैंकों, SFBs, NBFCs (ज़्यादातर NBFC-MFI के अतीत वाले) के पास चला जाता है. यही लघु वित्त की पेशकश करते रहते हैं. लघु वित्त की ऋण व्यवस्था में ऋण की रकम तय करने या कर्ज़ चुकाने की क्षमता के निर्धारण के लिए कर्ज़ लेने वाले की पारिवारिक आय पर ग़ौर किया जाता है. दूसरी ओर कर्ज़दारी तय करने के लिए पूरे परिवार पर कर्ज़ के बोझ की बजाए ऋण लेने वाले शख़्स की व्यक्तिगत कर्ज़दारी पर ही ध्यान दिया जाता है.

लघु वित्त के नियमन को लेकर रिज़र्व बैंक के हालिया नियामक अपडेट में इन ख़ामियों के निपटारे पर ज़ोर दिया गया है. ये सभी विनियमित ऋणदाताओं और निम्न आय (जिसे 3 लाख सालाना के रूप में परिभाषित किया गया है) वाले परिवारों (पति, पत्नी और अविवाहित बच्चों) को दिए जाने वाले असुरक्षित कर्ज़ पर लागू होता है. ताज़ा नियमन के तहत ऋणदाताओं को परिवार की आमदनी और कर्ज़ के बोझ- दोनों को ध्यान में रखना होता है. साथ ही परिवार की परिभाषा का सख़्ती से पालन करना भी ज़रूरी बना दिया गया है. इन क़वायदों का मक़सद बाज़ार में आर्बिट्रेज/ग़लत अनुमान से बचाव सुनिश्चित करना है. ब्याज़ दरों की सीमाबंदी हटाने से जोख़िम-आधारित प्रीमियम प्राइसिंग की छूट मिल जाती है. बाज़ार बर्तावों को आकार देने के लिहाज़ से ताज़ा नियमन लघु वित्त के लिए एक अहम पड़ाव है. इससे ऋणदाताओं पर उपभोक्ता संरक्षण के एक व्यापक ढांचे में पारिवारिक आय के आकलन, मूल्य निर्धारण और ऋण वापसी के दायरों के निर्धारण की ज़िम्मेदारी आ जाती है.

देश की विशाल युवा आबादी और सस्ती लागत वाले इंटरनेट डेटा पहुंच से भारत के कोने-कोने में उपभोक्ता बड़ी तादाद में डिजिटल वित्त का प्रयोग करने लगे हैं. आने वाले समय में हम फिजिटल (फिजिकल और डिजिटल का मिलाजुला रूप) से पहले डिजिटल और फिर सिर्फ़ डिजिटल की ओर बढ़ने लगेंगे.

भारतीय डिजिटल क्रेडिट की पैदाइश 

पिछले कुछ वर्षों में सरकारी प्रबंधन, देखरेख और अगुवाई में डिजिटल/कैशलेस अर्थव्यवस्था की और तेज़ी से क़दम बढ़े हैं. साथ ही इन क़वायदों को वित्तीय समावेश की दिशा में मोड़ने और उनके सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर भी ज़ोर दिया गया है. इसके लिए नियमन और नीतिगत स्तर पर प्रगतिशील ढांचा सामने रखा गया है. सार्वजनिक स्तर पर बुनियादी ढांचे (इंडिया स्टैक), तेज़ी से फलते-फूलते इंटरनेट और डेटा-इकोसिस्टम और गतिशील युवा आंकाक्षी जनसंख्या के बूते इन क़वायदों में काफ़ी तेज़ी आई है. इससे डिजिटल ऋण व्यवस्था के लिए बेहतरीन हालात पैदा हुए हैं. हालांकि इसे अब भी एक आदर्श परिभाषा (नियामक परिदृश्य समेत) की तलाश है. मोटे तौर पर इस श्रेणी के तहत- डिजिटल तरीक़े से ऋण देने (पेपरलेस, बग़ैर आमने-सामने मुलाक़ात, झंझंटों से मुक्त और भौतिक रूप से बिना संपर्क के) की बात आती है. मौजूदा और उभरती उपभोक्ता ज़रूरतों के निपटारे को लेकर साख के आकलन के लिए वैकल्पिक डेटा/रुख़ों का इस्तेमाल भी इसमें शामिल है.

डिजिटल ऋण व्यवस्था के ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण कारकों में कर्ज़ हासिल करने से जुड़ी सहूलियत, पसंद, सम्मान और निजता शामिल हैं. देश की विशाल युवा आबादी और सस्ती लागत वाले इंटरनेट डेटा पहुंच से भारत के कोने-कोने में उपभोक्ता बड़ी तादाद में डिजिटल वित्त का प्रयोग करने लगे हैं. आने वाले समय में हम फिजिटल (फिजिकल और डिजिटल का मिलाजुला रूप) से पहले डिजिटल और फिर सिर्फ़ डिजिटल की ओर बढ़ने लगेंगे. पिछले 15 वर्षों में इस मोर्चे पर हासिल कामयाबियों पर ग़ौर करें तो साफ़ दिखता है कि वित्तीय सेवाओं के दायरे (ख़ासतौर से साख और भुगतान तक पहुंच बनाने में) में हम कितना आगे आ चुके हैं. ये निराशावादियों की आंखें खोलने के लिए काफ़ी है.

वेतनभोगी और स्वरोज़गार में लगे युवाओं और बाक़ी लोगों को निजी ज़रूरतों, कारोबार, नकद प्रवाह और पसंदीदा वस्तुओं/सेवाओं की ख़रीद के लिए छोटे-छोटे अल्पकालिक व्यक्तिगत कर्ज़ों की दरकार होती है. इनमें से अनेक लोगों को कई वजहों से अपनी ज़रूरतों के मुताबिक औपचारिक ऋण हासिल करने में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है. इनमें आवश्यकता के हिसाब से सटीक और सुविधाजनक अल्पकालिक साख उत्पादों की ग़ैर-मौजूदगी और पारंपरिक साख उत्पाद हासिल करने के रास्ते की मुसीबतें (ज़मानत, साख से जुड़ा अतीत, काग़ज़ी कार्यवाही और कम आमदनी) शामिल हैं. कोई भी समझदार इंसान एक महीने की छोटी मियाद के लिए अपनी ज़रूरत के 5 हज़ार रु जैसी छोटी रकम (संस्थागत दृष्टिकोण से ‘छोटी’) ‘औपचारिक ऋण’ के तौर पर हासिल करने के लिए ऐसी जटिल प्रक्रिया से भला क्यों गुज़रना चाहेगा.

फ़र्क़ और बाक़ी मसले

माइक्रोफ़ाइनेंस में ऋणदाता आमदनी, जोख़िम और कर्ज़ चुकाने की क्षमता के आकलन के लिए संबंधित परिवार की सालाना/मासिक आय की भौतिक रूप से जांच करता है. बहरहाल, डिजिटल ऋण व्यवस्था में व्यक्ति विशेष को एक अलग नज़रिए से देखा जाता है. उपभोक्ताओं के साथ डिजिटल माध्यमों पर केवल ई-मीटिंग की जाती है, डिजिटल तरीक़े से उसका सत्यापन किया जाता है. ऋण देने और कर्ज़ की उगाही भी डिजिटल तरीक़े से ही होती है. हालांकि इन सबके लिए आमदनी को छोड़कर दूसरे आंकड़ों (जैसे भुगतान/ख़रीद इतिहास) का इस्तेमाल किया जाता है. 

बहरहाल, इंडस्ट्री में एक बात को लेकर चिंता की तलवार लटक रही है. दरअसल, लघु वित्त ऋणों की नियामक परिभाषा का विस्तार अब निम्न आय वाले परिवार से जुड़े व्यक्ति के असुरक्षित डिजिटल कर्ज़ तक है. लिहाज़ा ये दलील भी आगे बढ़ती है कि डिजिटल ऋणदाताओं को कर्ज़ हासिल करने के इच्छुक व्यक्ति विशेष की पारिवारिक आय की भी निश्चित रूप से पड़ताल कर लेनी चाहिए ताकि ये पता लग सके कि वो कर्ज़ एक ‘लघु वित्त ऋण’ है. 

बहरहाल, डिजिटल ऋण व्यवस्था से डिजिटल वातावरण में ‘लघु वित्त’ को लेकर सघन जांच पड़ताल की उम्मीद करना बुनियादी रूप से इस कारोबार के वजूद के ख़िलाफ़ है. इन जांच पड़तालों में परिभाषा के मुताबिक किसी व्यक्ति विशेष के परिवार की तस्दीक/सत्यापन और पारिवारिक आकलन का जुगाड़ (केवाईसी आय, कर्ज़दारी के लिए अंडरराइटिंग और साख से जुड़ा बर्ताव) शामिल है. ऐसे में ज़रा किसी डिजिटल लोन उपभोक्ता की पेचीदिगियों और कुंठा की कल्पना करिए- उसे किसी ई-कॉमर्स पोर्टल पर तत्काल चेक-आउट लोन की दरकार है और वो उसकी उम्मीद लगाए बैठा है. बहरहाल, पहले उसे अपने परिवार की सहमति लेनी होगी (हो सकता है सभी रज़ामंद न हों या इस प्रक्रिया से दूर रहना चाहें या हो सकता है कि उनमें डिजिटल माध्यमों में कामकाज करने की क़ाबिलियत न हो). इसके अलावा उसे अपने रिश्ते, वैवाहिक स्थिति, पहचान, आमदनी और क्रेडिट ब्यूरो रिपोर्ट्स का प्रमाण पेश करना होगा. मान लीजिए उसे तीन महीनों के लिए 10,000 रु के डिजिटल लोन की दरकार हो और तब उसे ये पता चले कि वो ये कर्ज़ पाने के क़ाबिल ही नहीं है क्योंकि उसके भाई (जिसकी आमदनी का स्रोत बिल्कुल अलग है) ने लघु वित्त को लेकर पारिवारिक कर्ज़ की सीमा (मासिक आमदनी का 50 प्रतिशत) का इस्तेमाल कर लिया है. दरअसल इस क़वायद में ये मानकर चला जाता है कि एक पारिवारिक ढांचे में सभी व्यक्तियों का एक साझा समान वित्तीय जीवन होता है.

तकनीकी या कारोबारी मॉडल से जुड़े तर्कों को एक तरफ़ रख दें तो भी ऐसे नियमों से परिवार के सदस्यों के सिलसिले में क्रेडिट जुटाने में व्यक्तिगत पसंद, सहमति और बाधाओं से जुड़े सवाल खड़े होते हैं. आख़िरकार कर्ज़ लेना एक व्यक्ति विशेष का विकल्प है और इसके लिए उसे परिवार के सदस्यों की रज़ामंदी, रुकावटों, आमदनी या क्रेडिट प्रोफ़ाइल के दायरे से बांधा नहीं जाना चाहिए. कुछ लोग ये दलील भी दे सकते हैं कि ये क़वायद उपभोक्ता और यहां तक कि उसके परिवार के सदस्यों की निजता के अतिक्रमण के बराबर है.

तकनीकी या कारोबारी मॉडल से जुड़े तर्कों को एक तरफ़ रख दें तो भी ऐसे नियमों से परिवार के सदस्यों के सिलसिले में क्रेडिट जुटाने में व्यक्तिगत पसंद, सहमति और बाधाओं से जुड़े सवाल खड़े होते हैं. आख़िरकार कर्ज़ लेना एक व्यक्ति विशेष का विकल्प है और इसके लिए उसे परिवार के सदस्यों की रज़ामंदी, रुकावटों, आमदनी या क्रेडिट प्रोफ़ाइल के दायरे से बांधा नहीं जाना चाहिए. 

सिर्फ़ डिजिटल माध्यमों पर सक्रिय ऋणदाताओं के लिए ये दोहरी मार साबित हो सकती है. इसमें ऐसी प्रक्रियाएं और काग़ज़ी कार्यवाही शामिल हैं जिनके लिए उनका मॉडल बना ही नहीं है. इसके साथ ही उनकी आंतरिक देनदारी श्रेणियों में उनके कर्ज़ों को लघु वित्त कर्ज़ के तौर पर समझा जाएगा. ऐसे में ऋण और कोष तक पहुंच बनाने की प्रक्रिया सुस्त हो सकती है या पूरी तरह रुक सकती है. दरअसल भारत का घरेलू ऋण बाज़ार छिछला है. यहां तमाम ग़ैर-बैंकिंग इकाइयां (NBFCs, HFCs, MFIs, डिजिटल ऋणदाता) अपनी देनदारी श्रेणी का एक बड़ा (या ज़्यादा से ज़्यादा) हिस्सा उन्हीं बैंकों से जुटा लेते हैं. ग़ौरतलब है कि ये बैंक उपभोक्ताओं के उन्हीं वर्गों के साथ प्रतिस्पर्धी कारोबार संचालित कर सकते हैं.

सामाजिक और कल्याणकारी उद्देश्य को प्राथमिकता

डिजिटल ऋण से जुड़े हिस्से और उनके ऋणदाताओं को माइक्रोफ़ाइनेंस मॉडल में उलझाने से वित्तीय समावेश के मक़सद से दिए जाने वाले डिजिटल ऋण की संभावनाएं सुस्त या कमज़ोर हो सकती हैं. इसके उलट फ़िनटेक कंपनियां निम्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं की कर्ज़दारी और ऋण हासिल करने की क्षमता के लिए साख का आकलन ढांचा तैयार कर सकते हैं. इसे माइक्रोफ़ाइनेंस सेक्टर इस्तेमाल में ला सकता है. संक्षेप में कहें तो ऋणदाताओं और नियामक का इरादा ये सुनिश्चित करना है कि कर्ज़ चाहने वाले भोले-भाले लोग कर्ज़ के जाल में न फंस जाएं. ऋण जुटाने का ज़िम्मेदार रवैया सुनिश्चित करने के लिए कर्ज़ के इच्छुक संभावित लोगों के साथ जुड़ाव बनाने की पहल की उद्योग जगत को अगुवाई करनी होगी. 

“वित्तीय समावेश में नई जान फूंकने” को लेकर सा-धन राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन संबोधन में रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के डिप्टी गवर्नर श्री एम. राजेश्वर राव ने कहा था कि “लघु वित्त की जड़ों और मूल को नहीं भूलना चाहिए और मुनाफ़े की बुनियाद गहरी करने के लिए उनकी क़ुर्बानी नहीं दी जानी चाहिए. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऋणदाताओं के लिए आत्मनिर्भरता और वित्तीय टिकाऊपन ही लक्ष्य हैं जिनकी उन्हें तलाश करना चाहिए. बहरहाल सामाजिक और कल्याणकारी उद्देश्यों की बजाए मुनाफ़े को प्राथमिकता देने से मुनासिब नतीजे हासिल नहीं हो सकते.”

इस बीच डिजिटल ऋण से जुड़ी पूरी व्यवस्था को उपभोक्ताओं के लिए और ज़्यादा सुरक्षित बनाने के लिए उसमें तमाम सुरक्षात्मक उपाय जोड़े जा सकते हैं. इसके तहत उपभोक्ताओं को शिक्षित करने, सस्ते और ज़रूरत के मुताबिक ऋण पर ज़ोर देने वाला मज़बूत प्रशासन और उत्पाद तैयार करने और क्रेडिट ब्यूरो को रियल-टाइम रिपोर्टिंग देने जैसे उपाय शामिल हैं. इन क़वायदों से हद से ज़्यादा कर्ज़दारी और बार-बार और अनेक श्रोतों से ऋण लेने के रुझानों का बेहतर तरीक़े से निपटारा किया जा सकता है. उपभोक्ता संरक्षण सिद्धांतों (निष्पक्षता, सटीकता, पारदर्शिता और शिकायत निवारण) पर अमल के लिए एक खुले नज़रिए की दरकार है. साथ ही डिजिटल ऋण से जुड़े कारोबारी मॉडल और मौजूदा उपभोक्ता वर्ग की ख़ासियतों की पहचान के लिए नए रुख़ अपनाने भी ज़रूरी हैं.

माइक्रोफ़ाइनेंस को डिजिटल तकनीक की मदद से सामुदायिक स्तर पर बैंकिंग समाधान का प्रमुख साधन बनाने में ये गेम चेंजर साबित हो सकता है. नियामक ढांचे के ज़रिए इस इंडस्ट्री को अपने मक़सद पर खरा उतरने, सावधानी और समझदारी से आगे बढ़ने और मुनाफ़ा कमाने की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए.

माइक्रोफ़ाइनेंस इंडस्ट्री और डिजिटल ऋण जगत की बनावट सकारात्मक सामाजिक प्रभावों के साथ मुनाफ़ा हासिल करने से जुड़ी है. समय के साथ-साथ डिजिटल क्षमताओं के ज़ोर से भारतीय बाज़ारों में निम्न-आय वर्गों के लिए डेटा की तुलना और मिलान की और ज़्यादा संभावनाएं दिखने लगेंगी. माइक्रोफ़ाइनेंस को डिजिटल तकनीक की मदद से सामुदायिक स्तर पर बैंकिंग समाधान का प्रमुख साधन बनाने में ये गेम चेंजर साबित हो सकता है. नियामक ढांचे के ज़रिए इस इंडस्ट्री को अपने मक़सद पर खरा उतरने, सावधानी और समझदारी से आगे बढ़ने और मुनाफ़ा कमाने की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए. इस पूरी क़वायद को सबके लिए फ़ायदे का सौदा बनाया जाना चाहिए. असली वित्तीय समावेश तभी होगा जब उपभोक्ता को विकल्प उपलब्ध हों और सभी को ना कहने का अधिकार भी हासिल हो. 

लेखक द्वारा प्रकट किए गए विचार उनके निजी हैं. इसका उन संगठनों या प्लेटफ़ॉर्मों से कोई लेना-देना नहीं है जिनसे लेखक जुड़े हुए हैं.

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