Author : Prithvi Iyer

Published on Jan 06, 2020 Updated 0 Hours ago

जब तक, इस मद में उचित रक़म का प्रावधान नहीं किया जाएगा, तब तक मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण क़ानून के फ़ायदों से ये देश महरूम ही रहेगा.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण क़ानून की राह में अभी भी है कई रुकावटें

लोकसभा ने 7 अप्रैल 2017 को मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण क़ानून को सर्वसम्मति से पारित किया था. ये क़ानून 29 मई 2018 को पूरे देश में लागू हो गया था. इस क़ानून के बारे में ये दावा किया जा रहा है कि ये मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को लेकर भ्रांतियों को ख़त्म करने की दिशा में बड़ा क़दम है. और ये 1987 के पुराने पड़ चुके मानसिक स्वास्थ्य क़ानून से काफ़ी सुधरा हुआ एक्ट है. क्योंकि पुराना क़ानून, मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण को मरीज़ केंद्रित सोच में तब्दील करने में नाकाम रहा था.

भारत में हर दस लाख आबादी पर केवल तीन मनोचिकित्सक हैं. मनोवैज्ञानिक सलाहकारों का अनुपात तो इस से भी कम है. कॉमनवेल्थ देशों के नियम के मुताबिक़, हर एक लाख आबादी पर कम से कम 5.6 मनोचिकित्सक होने चाहिए

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी राष्ट्रव्यापी समस्या से निपटने के लिए नीतियों और क़ानूनी ढांचे की ज़रूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत की 7.5 फ़ीसद आबादी किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है. दुनिया भर में मानसिक और न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की समस्या से जूझ रहे लोगों में भारत का हिस्सा क़रीब 15 फ़ीसद है. रिपोर्ट से इस बात पर से भी पर्दा उठा था कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को फंड का आवंटन भी अन्य बीमारियों की तुलना में बहुत कम है. भारत में हर दस लाख आबादी पर केवल तीन मनोचिकित्सक हैं. मनोवैज्ञानिक सलाहकारों का अनुपात तो इस से भी कम है. कॉमनवेल्थ देशों के नियम के मुताबिक़, हर एक लाख आबादी पर कम से कम 5.6 मनोचिकित्सक होने चाहिए. लेकिन, इस अनुपात के बरक्स, भारत में इन की तादाद 18 गुना कम है. भारत में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित परिस्थितियों की ऐसी ख़राब स्थिति की वजह से ही दो साल पहले लागू हुए क़ानून की अहमियत और भी बढ़ जाती है.

जब कोई मरीज़ अपनी मानसिक अवस्था को लेकर ख़ुद ही इनकार की स्थिति में होता है, तो कोई भी एडवांस्ड डायरेक्टिव उन के ख़िलाफ़ ही जाता है. कम से कम कुछ अवधि के लिए तो ये बात कही ही जा सकती है

इन चुनौतियों के मद्देनज़र देखें, तो एमएचसीए एक्ट भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी व्यस्था की कुछ बुनियादी चिंताओं को दूर करने की कोशिश करता मालूम होता है. पुराने क़ानून में बदलाव के बाद ये क़ानून मानसिक बीमारियों के शिकार लोगों को इलाज के कुछ और विकल्प मुहैया कराता है. ख़ुदकुशी की कोशिशों को अपराध के दायरे से आज़ाद करता है. और बिजली के झटकों वाली तकनीक से मानसिक रोगियों के इलाज को प्रतिबंधित करता है. ऐसे में इसे भारत में मानसिक रोगियों को राहत देने वाला मील का पत्थर कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा. फिर भी, अगर हम इस की नज़दीकी से पड़ताल करें, तो पता चलता है कि इस क़ानून के लागू होने के बावजूद भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कई सवालों के जवाब अनुत्तरित हैं. इस क़ानून में कुछ मानसिक बीमारियों के बारे में जिन परिभाषाओं का इस्तेमाल किया गया है, उन की वजह से ये क़ानून कई समस्याओं को अधूरा ही छोड़ देता है. इस के अलावा इस एक्ट की वजह से ये सवाल भी खड़ा होता है कि इस क़ानून में किए गए क़ानूनी बदलाव क्या अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एसोसिएशन द्वारा तय मानकों के अनुरूप हैं. इन्हें विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है और लोग इन्हें DSM-5 मैन्युअल के नाम से जाने जाते हैं. मानसिक रोग को परिभाषित करने का ये पवित्र ग्रंथ माना जाता है. इस एक्ट से जुड़ी पहली कुछ चिंताएं मानसिक स्वास्थ्य की क़ानूनी परिभाषा को लेकर हैं. एमएचसीए में एडवांस्ड डायरेक्टिव नाम का एक प्रावधान है जो मरीज़ों को अपने एक प्रतिनिधि के माध्यम से इलाज के तरीक़े को चुनने की इजाज़त देता है. पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों के उलट, भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता और चेतावनी की व्यवस्थाओं की कमी है. इसी वजह से किसी व्यक्ति को मानसिक बीमारी कब से हुई और कब से उस का इलाज शुरू होना चाहिए, ये बात लोगों के बीच अस्पष्ट है. एक तो दिमाग़ी बीमारी को लेकर जागरूकता कम है. फिर उन के इलाज को लेकर पेशेवर सुविधाओं की भारी कमी है. इसी वजह से भारत में बहुत से लोग अपनी ख़राब मानसिक स्थिति से जूझते रहते हैं. इस के अलावा भारत में पागलपन को लेकर जो अवधारणाएं हैं, उन की वजह से लोग मानसिक परेशानियों के लिए पेशेवर मदद हासिल करने से परहेज़ करते हैं. क्योंकि उन्हें कठघरे में खड़े किए जाने का डर होता है. इस क़ानून में कुछ ऐसी व्यवस्थाएं हैं, जो समाज की सोच में दिमाग़ी बीमारियों को लेकर पीढ़ियों से चली आ रही अवधारणाओं को संस्थागत तरीक़े से ख़त्म करने की कोशिश करेगा. जब कोई मरीज़ अपनी मानसिक अवस्था को लेकर ख़ुद ही इनकार की स्थिति में होता है, तो कोई भी एडवांस्ड डायरेक्टिव उन के ख़िलाफ़ ही जाता है. कम से कम कुछ अवधि के लिए तो ये बात कही ही जा सकती है. क़ानून में कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं जिन के तहत एडवांस्ड डायरेक्टिव को हटाया भी जा सकता है. इस क़ानून के तहत स्थापित किया गया मानसिक स्वास्थ्य पुनरीक्षण बोर्ड (MHRB), मानसिक रोगियों की देखभाल करने वालों के दावों को पलटने के एडवांस्ड डायरेक्टिव के निर्देशों की समीक्षा और पलटने का अधिकार कुछ शर्तों के साथ रखता है. एमएचआरबी निम्नांकित वजहों से ऐसा कर सकता है-

-अगर किसी मानसिक रोगी की स्वतंत्र मन:स्थिति पर प्रश्नचिह्न लगा हो

-अगर किसी मानसिक रोगी को इस निर्देश को लागू करने की जानकारी ठीक से न दी गई हो

-अगर मरीज़ के अंदर फ़ैसला लेने की क़ुव्वत का अभाव हो

यहां ध्यान देने लायक़ बात ये है कि उपरोक्त पैमानों की मदद से मरीज़ों के हितों के संरक्षण का ही प्रयास किया गया है. ताकि उन्हें एडवांस्ड डायरेक्टिव के तहत मानसिक तकलीफ़ से गुज़रने वाले इलाज की तरफ़ न धकेला जाए. लेकिन, हल्के-फुल्के मानसिक रोगियों के कई मामलों में, फ़ैसला लेने की क्षमता और बुनियादी जानकारियों को समझने की क़ुव्वत पर असर नहीं पड़ता. फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि मरीज़ अपनी मानसिक अवस्था को लेकर हमेशा इनकार की स्थिति में ही रहे. इसी वजह से इस क़ानून के आने के बावजूद यह अस्पष्ट है कि मामूली मानसिक बीमारियों के शिकार लोगों के मूड और चिंताओं को कैसे दूर किया जाएगा.

इस क़ानून में चिंता की एक और बात मानसिक बीमारी की परिभाषा को लेकर है, जिसे इस एक्ट के सेक्शन 1 (s) के तहत परिभाषित किया गया है. इस में दर्ज परिभाषा कहती है कि, ‘मानसिक रोग सोचने, मूड, ख़यालात, नज़रिए या फिर याददाश्त में आई गड़बड़ी है, जिस से किसी इंसान की रोज़मर्रा के फ़ैसले लेने की क्षमता पर बुरा असर पड़ा हो.शराब और ड्रग लेने से जो मानसिक अवस्था हो जाती है, उसे भी इस के दायरे में ही रखा गया है.’ इस परिभाषा से किसी व्यक्ति की मानसिक बीमारी का पता लगाने के लिए उस के साथ दुर्व्यवहार को भी शामिल किया गया है, न कि उस के लक्षणों को. इस के अलावा, ‘शराब और ड्रग के दुरुपयोग से जुड़ी समस्याओं’ का दायरा स्पष्ट नहीं है. इस में ‘दुरुपयोग’ शब्द के क्या मायने हैं? आख़िर ये क़ानून उपयोग और दुरुपयोग में कैसे फ़र्क़ करता है. इस के अलावा सवाल ये भी है इन चीज़ों का इस्तेमाल क्या मानसिक बीमारी से जुड़ा हुआ है? अगर ऐसा नहीं है और ये क़ानून इसे सिर्फ़ आपसी संबंध के तौर पर देखता है, तो फिर इसे परिभाषा में क्यों शामिल किया गया है? ये वो सवाल हैं जो मानसिक रोग की सामान्य समझ को भी चुनौती देते हैं, जो कि चिंता की बात है. यहां ये बात भी ध्यान देने वाली है कि DSM-5 ने ‘दुरुपयोग’ शब्द की जगह ‘निर्भरता’ लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया है. क्योंकि निर्भरता को लेकर लोगों की सोच उतनी बुरी नहीं है. इस के अतिरिक्त DSM शराब और ड्रग जैसी चीज़ों के इस्तेमाल की लत को एक अलग तरह की बीमारी मानता है. इसी वजह से DSM ने इसे मानसिक स्वास्थ्य की व्यापक अवधारणा में शामिल नहीं किया है.

जैसा कि हम ने पहले भी सिद्ध किया है कि इस क़ानून ने सैद्धांतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण संशोधन किए हैं. ताकि भारत में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं में दूरगामी सुधार हो सके. इस के बावजूद, ज़हनी सेहत को ले कर कुछ ख़यालातों और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों को परिभाषित करने में जिस आज़ाद ख़याली से काम लिया गया है, उस से ऐसा लगता कि इस बारे में वाजिब और ज़रूरी वैज्ञानिक रिसर्च नहीं की गई है. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों का जो पैमाना इस क़ानून में तय किया गया है, उस के तहत अगर किसी के पास ‘मनोविज्ञान एवम मानस रोग’, होम्योपैथी, आयुर्वेद या यूनानी पद्धति की पोस्टग्रेजुएट की डिग्री है, तो वो क़ानूनी तौर पर मानसिक बीमारियों का इलाज करने वाला पेशेवर माना जाएगा. यूनानी और आयुर्वेदिक पद्धति के लोगों को ज़हनी बीमारियों की पहचान और उन के इलाज करने के तरीक़ों में शामिल करना एक परेशानी भरी हक़ीक़त है. इन पद्धतियों को लेकर जो वैज्ञानिक रिसर्च हुई हैं, उन से इन पर गंभीर सवाल उठते हैं. इस के अलावा ये नीतिगत फ़ैसला करने को लेकर किस तरह की रिसर्च की गई, ये बात भी अस्पष्ट है. हालांकि, ऐसे कई अध्ययन किए गए हैं जिन से आयुर्वेद से इलाज करने पर मानसिक रोग में काफ़ी सुधार देखा गया है. लेकिन, ये रिसर्च पारंपरिक रिसर्च के दायरे से आम तौर पर बाहर ही हुई हैं. मसलन, प्रोज़ैक या लिथियम जैसी मानसिक रोग की सभी दवाओं को अमेरिका के फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के मानकों से गुज़रना पड़ता है, तभी उन्हें बाज़ार में बिकने के लिए उतारा जा सकता है. लेकिन, ऐसे वैकल्पिक इलाज व्यवस्थाओं से इन की दवाओं की नियामक व्यवस्था से समझौता किया जाता है. इस की वजह से इन तरीक़ों के असरदार होने को लेकर भी ग़लत जानकारी फैल सकती है. इन चिंताओं को डॉक्टर सुमैया शेख़ ने भी उठाया था. डॉक्टर सुमैया डिजिटल वैज्ञानिक पत्रिका अनडार्क (Undark) की संपादक हैं. वो कहती हैं कि, ‘अक्सर ऐसा होता है कि आयुर्वेद और यूनानी दवाओं का असल और ठीक से परीक्षण नहीं होता. फिर इन्हें ऐतिहासिक ज्ञान पर आधारित दवाएं कह कर बेचा जाता है. लोग ये मान लेते हैं कि हमारे पूर्वजों ने इन के अच्छे असर की पड़ताल कर ली होगी.’ हालांकि, अगर हम इलाज के इन विकल्पों को लेकर यथार्थपरक रवैया भी अपना लें, तो ये मानना ठीक नहीं होगा कि आयुर्वेद और यूनानी तरीक़ों से इलाज करने वाले डॉक्टरों के पास वो तजुर्बा और वो काबिलियत है जो मानसिक बीमारियों की सही पड़ताल कर के उन का इलाज कर सके. इस एक्ट के सेक्शन 18 का सब सेक्शन 3 ने उन ‘ज़रूरी दवाओं की लिस्ट’ भी तैयार की है, जो मरीज़ों को मुफ़्त में दी जानी चाहिए. इस लिस्ट में आयुर्वेद और यूनानी पद्धति की दवाओं को भी शामिल किया गया है. अब अगर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थाएं इन तरीक़ों पर ही सवाल उठा रही हैं, तो फिर इन दवाओं से सही इलाज की क्या गारंटी है? हालांकि, मानसिक रोगियों को कुछ ज़रूरी दवाएं मुफ़्त में देने की व्यवस्था एक अच्छा विचार है. लेकिन, इस में इलाज के वैकल्पिक तरीक़ों को शामिल कर के इन की बिक्री को भी बढ़ावा देने की व्यवस्था हो गई है. जबकि वैज्ञानिक तरीक़ों में यक़ीन करने वाले आज भी आयुर्वेद और यूनानी इलाज व्यवस्था के असर को लेकर अभी भी संदेह करते हैं.

मानसिक स्वास्थ्य को समझने के कुछ पैमाने, विश्व स्तर पर मान्य संस्थाओं जैसे APA और DSM-5 की परिभाषाओं से अलग हैं. इन कमियों को तुरंत दूर किए जाने की ज़रूरत है ताकि इस क़ानून को जितना प्रभावोत्पादक बनाने का जो वचन दिया गया है, वो पूरा हो सके

हालांकि, इन सभी कमियों के बावजूद, इस क़ानून ने कई वादे पूरे किए हैं ख़ास तौर से ज़हनी तौर पर बीमार लोगों के अधिकारों के संरक्षण और सब को स्वास्थ्य सेवाएं देने के संदर्भ में. इस क़ानून का क्लॉज़-2 कहता है कि, ‘किसी ज़हनी बीमारी के शिकार सभी लोगों का बराबरी से इलाज होगा, ठीक उसी तरह जैसे शारीरिक रोग के शिकार मरीज़ों का इलाज होता है.’ इस बयान से हमारे नीति नियंताओं की उस सोच में बहुत बड़ा बदलाव दिखता है, जिस से वो मानसिक स्वास्थ्य को देखते समझते थे. सोच में आया ये बदलाव बेहद सकारात्मक है. इस से भारत में मानसिक बीमारियों के इलाज का भविष्य उज्जवल दिखता है. कुल मिलाकर, इस क़ानून की कमियों और मानसिक स्वास्थ्य को समझने के कुछ पैमाने, विश्व स्तर पर मान्य संस्थाओं जैसे APA और DSM-5 की परिभाषाओं से अलग हैं. इन कमियों को तुरंत दूर किए जाने की ज़रूरत है ताकि इस क़ानून को जितना प्रभावोत्पादक बनाने का जो वचन दिया गया है, वो पूरा हो सके.

लेकिन, यहां पर ये बात ध्यान देने लायक़ है कि इस क़ानून को लागू करने की राह में कई वित्तीय बाधाएं खड़ी हैं. हाल ही में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़, इस एक्ट को पूरे देश में लागू करने का ख़र्च क़रीब 94 हज़ार करोड़ रुपए प्रति वर्ष तक आएगा. इस में देश की ज़रूरतों के हिसाब से मानसिक  स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले और पेशेवरों को नौकरी पर रखने और ट्रेनिंग देने का ख़र्च शामिल नहीं है. इतनी भारी क़ीमत पर किसी क़ानू को लागू करने का नतीजा ये होता है कि राज्य सरकारें इस के लिए बज़ट आवंटित नहीं करती हैं. जब तक, इस मद में उचित रक़म का प्रावधान नहीं किया जाएगा, तब तक मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण क़ानून के फ़ायदों से ये देश महरूम ही रहेगा.

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