बीती 28 जनवरी को दो जलपोत एम टी बी डब्ल्यू मैपल एवं एम टी डॉन कांचीपुरम चेन्नई के निकट एन्नोर में कामराजांर हार्बर के बाहर एक दूसरे से टकरा गए जिससे बड़े पैमाने पर समुद्र में तेल बिखर गया। राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर एक सप्ताह से अधिक समय से सुर्खियों में बनी रही है। अब फोकस भारत के सामुद्रिक सुरक्षा रिकॉर्ड तथा इन वजहों पर है कि आखिर क्यों इस दुर्घटना के लगभग 10 दिनों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार की एजेंसियां प्रदूषण फैलाने वाले तेल के प्रभाव से निपटने में जूझ ही रही हैं।
तेल के इस बिखराव को अब तक की भारत की पारिस्थितिकी से जुड़ी सबसे बुरी आपदा के रूप में देखा जा रहा है। यह भारत की सामुद्रिक गतिविधयों पर लगा एक ऐसा दाग है जिसे धोना मुश्किल होगा। चेन्नई के समुद्री तट जहरीले कीचड़ के आवरण से लिपटे हुए हैं और पर्यावरणविद् बड़े पैमाने पर सामुद्रिक जीवन के विनाश और इस क्षेत्र की समुद्री पारिस्थितिकी में लगभग एक स्थायी असंतुलन की आशंका को लेकर चिंताग्रस्त हैं।
इस दुर्घटना के कारणों को लेकर बड़ा ताज्जुब होता है कि आखिर यह हुआ कैसे। कुछ लोगों का अनुमान है कि यह एक असामान्य सी दुर्घटना थी। प्रारंभिक रिपोर्टों से संकेत मिला कि दोनों जलपोत दायें कोणों पर आपस में टकराए जब बड़ा जहाज एमटी डॉन बंदरगाह में आने का रास्ता बना रहा था। हालांकि, इस टक्कर से न तो जान माल की हानि हुई और न ही दोनों जहाजों के मुख्य भंडारण टैंकों को ही कोई नुकसान ही पहुंचा। ज्यादातर रिसाव एम टी डॉन में बंकर तेल ले जा रहे कॉफरडैम टैंक के फूटने से हुआ प्रतीत होता है, जिसे बंदरगाह के अधिकारियों ने तुरंत ही हटा दिया और रिसाव को रोकने केे लिए एक ‘ऑयल बूम’ तैनात कर दिया।
लेकिन यह तो कहानी का केवल एक हिस्सा भर है। ऐसा भी लगता है कि इस दुर्घटना को कमतर दिखाने की जान बूझ कर की गई एक कोशिश थी जिसका उद्वेश्य संभवतः व्यापक नुकसान को छुपाना और स्थिति का समझदारीपूर्वक आकलन करने में अधिकारियों की विफलता पर आवरण डालना था।
जब दुर्घटना के विवरण धीरे धीरे उभर कर सामने आने लगे, कामराजार बंदरगाह प्रशासन ने जल्दी से एक बयान जारी कर दिया:‘ इससे तेल प्रदूषण जैसा कोई भी नुकसान पर्यावरण को पहुंचा है।’ पर कुछ दिनों के बाद इसे अपने दावे पर पुनर्विचार करने और यह स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा कि वास्तव में बड़े पैमाने पर तेल का रिसाव हुआ है। तब भी अधिकारियों ने जोर देकर कहा कि हालात पूरी तरह नियंत्रण में है।
फिर जैसे जैसे मामला और आगे बढ़ा, स्पष्ट हो गया कि हालात किसी के भी नियंत्रण में नहीं है। पहले सप्ताह के आखिर तक, यह रिसाव नगर के तटीय क्षेत्र के 35 किलोमीटर से अधिक क्षेत्र को प्रदूषित कर चुका था और चेन्नई के ज्यादातर समुद्री तटों को अपनी आगोश में ले चुका था। अधिकारियों की शर्मिंदगी को बढ़ाने में उनके मुख्य उपकरण ‘सुपरसकर स्किमर्स’ की विफलता की भी बड़ी भूमिका रही जिसकी वजह से कीचड़ की परत और भी ज्यादा घनी होती चली गई। तटरक्षक जहाजों और हेलीकॉप्टरों द्वारा छिड़के गए ‘डिस्परर्सैंट’ भी प्रभावी नहीं हो पाए। जल्द ही बड़ी संख्या में तटों पर मरे हुए कछुए और मछलियां नजर आने लगीं जिससे आपदा की सही तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट होने लगी।
कई लोगों के लिए, यह घटना अपने आप में एक रहस्य है। जीपीएस नैवीगेशन के इस युग में जहाजों का आपस में टकरा जाना एक असामान्य सी घटना है-खासकर संबंधित पोत बंदरगाह की सीमाओं के पूरी तरह भीतर हो और उसका नैवीगेशन विशेषज्ञता प्राप्त पायलट ऑनबोर्ड द्वारा किया जा रहा हो। हालांकि सड़क के नियमों के उल्लंघन की संभावना हमेशा होती है, पर बंदरगाह छोड़ते या प्रवेश करते समय बहुत मुश्किल से कोई दुर्घटना होती है क्योंकि नैवीगेशनल कंट्रोल प्रशिक्षित एवं अनुभवी कर्मचारियों के हाथों में होता है।
जैसा कि स्वाभाविक है, सफाई करने के लिए जिम्मेदार समुद्री एजेन्सियों का प्रदर्शन मीडिया की आलोचना का अब बड़ा फोकस रहा है। इस दुर्घटना के बाद, कई एजेंसियां सफाई अभियान में जुड़ गईं-तट रक्षक(कोस्ट गॉर्ड), तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और चेन्नई बंदरगाह प्राधिकरण आदि इनमें शामिल हैं। अब तक इनमें से किसी ने भी हालात पर काबू पाने जैसा कोई प्रभाव नहीं छोड़ा है। रिसाव का प्रारंभिक आकलन जिस प्रकार धीरे धीरे एक टन तेल से बढ़कर 100 टन तक पहुंच गया है, यह पूरी तरह स्पष्ट है कि तेल रिसाव रोकने के लिए केवल अल्पकालिक उपाय ही उपयोग में लाए जा रहे हैं।
पहली ठोस प्रतिक्रिया देने में कामराजार बंदरगाह की विफलता विशेष रूप से चिंताजनक है। बंदरगाह पर कोई भी विशिष्ट उपकरण न होना और प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी की वजह से बंदरगाह के अधिकारी तेल रिसाव रोकने और सफाई कार्यों के संचालन के लिए पूरी तरह तट रक्षकों पर निर्भर हो गए। फिर भी, महत्वपूर्ण सूचनाओं को रोक कर रखा गया। दुर्घटना के पहले चार महत्वपूर्ण घंटों के दौरान, तटरक्षक कमांडर महत्वपूर्ण विवरणों को लेकर अंधेरे में थे, जबकि बंदरगाह के अधिकारियों के पास वह महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध थी।
अब समुद्र में तेल के बिखराव से संबंधित दिशानिर्देशों एवं प्रोटोकॉल की एक विस्तृत समीक्षा उपलब्ध है-खासकर, तटरक्षक बलों के अतिरिक्त अन्य एजेन्सियों की भूमिकाओं एवं कार्यों को लेकर। 1993 की राष्ट्रीय तेल रिसाव आपदा आकस्मिकता योजना (एनओएसडीसीपी) के अनुसार, तट रक्षक महानिदेशक समुद्र में तेल रिसाव से उत्पन्न गंदगी की सफाई के प्रयासों के लिए मुख्य समन्वयकारी प्राधिकरण (सीसीए) है। इसके लिए उसे अनिवार्य रूप से जहाजरानी मंत्रालय, सामुद्रिक विकास विभाग, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय, तेल कंपनियों, बंदरगाह अधिकारियों एवं राज्य प्रवर्तन एजेन्सियों जैसी विविध एजेन्सियों के साथ एकजुट होकर काम करना चाहिए। फिर भी, जब एक वास्तविक रिसाव होता है तो ऐसी धारणा बन जाती है कि सुधार संबंधी कार्रवाई का यह काम केवल तटरक्षक एवं अन्य केंद्रीय एजेन्सियों के लिए ही है। जैसाकि इस दुर्घटना से प्रदर्शित हुआ, तटीय समुद्र में किसी दुर्घटना की स्थिति में राज्य एजेन्सियां एवं पत्तन प्राधिकरण अक्सर पहली प्रतिक्रिया या कार्रवाई करने वाले होते हैं। समुद्र में होने वाली किसी आपातकालीन स्थिति से निपटने के प्रति उनकी उदासीनता और यह गलत धारणा कि सुधार संबंधी ऐसी स्थिति से निपटने में केवल कुछ ही ‘योग्य’ हैं, ऐसी घटनाओं से उबरने और सफाई प्रयासों की प्रभावशीलता पर प्रतिकूल असर डालते हैं।
कई लोग इसे योग्यता में कमी नहीं मानते बल्कि दोषपूर्ण ‘रवैया‘ मानते हैं। एनओएसडीसीपी के अनुसार, तेल कंपनियों को बंदरगाह के स्थानों (जहां जेटी का इस्तेमाल कर पेट्रोलियम उत्पादों को उतारा यां चढ़ाया जाता है) पर प्रथम श्रेणी की सुविधाओं को बनाये रखने की आवश्यकता है। यह एक मुख्य दिशानिर्देश है जिसका उद्देश्य 700 टन तक के तेल रिसाव को नियंत्रित करने तथा उसकी सफाई के लिए क्षमता का निर्माण करना है, लेकिन बंदरगाह के अधिकारी लगभग कभी भी इस दिशानिर्देश का गंभीरता से पालन नहीं करते। बंदरगाह के लापरवाह अधिकारियों की आकस्मिकता योजना निर्माण प्रक्रियाओं में तो कोई दिलचस्पी नहीं ही होती है, वे विशिष्ट प्रक्रियाओं में संशोधन करने और उनमें सुधार करने के लिए बुलाई गई एनओएसडीसीपी की समीक्षा बैठकों में भाग लेने से भी कतराते हैं।
विशेषज्ञ बताते हैं कि ऐसी आकस्मिकताओं से निपटने में बंदरगाहों की बेहतर तैयारी की वजह से अब दुनिया भर में सामुद्रिक तेल रिसाव की घटनाओं में लगातार कमी आ रही है, पर इसके बावजूद भारत का रिकॉर्ड खराब बना हुआ है। एनओएसडीसीपी इससे जुड़ी एजेन्सियों के लिए भूमिकाओं एवं जिम्मेदारियो की जो रूपरेखा बनाता है, उनका वजूद केवल कागजों तक ही सिमटा रह जाता है। जब कोई वास्तविक घटना घटती है तो सारी जिम्मेदारी तट रक्षक, गैरसरकारी संगठनों एवं बाल्टी लेकर सफाई करने वाले स्वयंसेवकों पर आ जाती है। जब समुद्र में कोई घटना होती है तो आधिकारिक जांच आम तौर पर केंद्रीय एजेन्सियों को किसी तेल रिसाव को नियंत्रित करने में विफलता के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। सामुद्रिक दुर्घटनाओं सेे निपटने के लिए उपयुक्त उपकरण एवं अनुभव के साथ संघीय संस्थानों को भी वास्तव में कुछ आरोप निश्चित रुप से अपने ऊपर भी लेने चाहिए। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय समुद्र सूचना सेवा केंद्र जैसे निकायों को भी, जो किसी तेल रिसाव की दिशा के बारे में सूचना उपलब्ध कराते हैं, को भी जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। लेकिन बंदरगाह के अधिकारी भी उतने ही जिम्मेदार हैं, खासकर जब वे अपने कार्य क्षेत्र में किसी संकट का समाधान करने में विफल हो जाते हैं। जब तक बंदरगाह के अधिकारियों को जवाबदेही के दायरे में नहीं लाया जाता, किसी सकारात्मक बदलाव के आने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
नीति निर्माताओं को निश्चित रूप से यह महसूस करना चाहिए कि तटीय सुरक्षा केवल 26/11 प्रकार की दूसरी कोई दुर्घटना रोकने से संबंधित ही नहीं है। प्रदूषण आपदा का प्रभाव इससे कहीं बढ़कर है जिसमें न केवल पारिस्थितिकी नुकसान है बल्कि मछुआरा समुदाय के लिए आजीविका का नुकसान भी है। इस प्रकृति की कोई दुर्घटना देश के लोगों एवं व्यापक रूप से विश्व समुदाय की भी सरकार की प्रतिबद्धताओं-सुरक्षित एवं स्वस्थ वातावरण प्रदान करने, भारतीय समुद्रों में नौवहन सुरक्षा, तटीय जलों में जहाजरानी संबंधी सुरक्षा और सामुद्रिक जीवन तथा जैवविविधता की हिफाजत कर पाने का भरोसा खत्म कर देती है।
कभी कभी केवल एक बुरा तेल रिसाव किसी राष्ट्र की सामुद्रिक सुरक्षा के रिकॉर्ड पर पूरी तरह कालिख पोत देता है।
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