Author : Manoj Joshi

Published on Jul 02, 2020 Updated 0 Hours ago

किसी भी मुद्दे को लेकर चीन की रणनीति आमतौर पर दबी ढंकी होती है. लेकिन, विश्व की इकलौती सुपर पावर होने के नाते अमेरिका को किसी भी मुद्दे पर अपनी नीति को ज़ाहिर करने में कोई संकोच नहीं होता

ट्रंप, चीन और हॉन्गकॉन्ग को लेकर पैंतरेबाज़ी

पहली तस्वीर का कैप्शन-28 सितंबर 2019 को 2014 के अम्ब्रेला आंदोलन की पांचवी सालगिरह पर हॉन्ग कॉन्ग की ‘लेनन दीवार’ पर लगाए गए पोस्टर. कॉपीराइट क्रिस मैक्ग्राथ/गेटी

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन पर एक के बाद एक लगातार कई आरोप लगाए हैं. इनमें से कई आरोप तो उन्होंने सीधे तौर पर लगाए हैं. और ट्रंप ने चीन पर कई आक्षेप अप्रत्यक्ष तौर पर भी लगाए हैं. पिछले ही महीने, ट्रंप ने एलान किया कि अमेरिका, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से ख़ुद को अलग कर रहा है. इस एलान के साथ ही उन्होंने ये घोषणा भी की कि उनका प्रशासन हॉन्ग कॉन्ग के साथ अमेरिका के विशेष संबंध ख़त्म करने की दिशा में भी आगे बढ़ने जा रहा है.

ट्रंप के इस भाषण में माहौल बनाने पर ज़ोर ज़्यादा था. लेकिन, उन्होंने इस भाषण में पांच प्रमुख बातों पर बहुत ज़ोर दिया-

  1. पहली बात तो ये कि अमेरिका इस बात पर विचार कर रहा है कि उसके शेयर बाज़ारों में लिस्टेड चीन की कंपनियों के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की जा सकती है.
  2. दूसरी बात ये कि अमेरिका में कुछ ख़ास विषयों की पढ़ाई के लिए आने वाले चीन के छात्रों पर प्रतिबंध लगाया जाएगा.
  3. तीसरी बात ये कि अमेरिका, हॉन्ग कॉन्ग को जो कुछ ख़ास सुविधाएं देता है, उन्हें हटाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ेगा.
  4. चौथी बात ये कि हॉन्ग कॉन्ग में मानवाधिकारों पर असर डालने वाले फ़ैसले लेने में चीन के जिन अधिकारियों की भूमिका रही है, अमेरिका उन पर पाबंदियां लगाएगा.
  5. ट्रंप के भाषण में पांचवीं और आख़िरी प्रमुख बात ये थी कि अमेरिका, विश्व स्वास्थ्य संगठन की अपनी सदस्यता को ख़त्म करेगा.

इस भाषण के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने इस बात का आदेश भी जारी किया कि चीन के कुछ ख़ास छात्रों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है. ये छात्र चीन के नागरिक और सैन्य सेवाओं में मेल के कार्यक्रम से जुड़े हुए हैं और अमेरिका आने के लिए ख़ास वीज़ा का इस्तेमाल करते हैं. राष्ट्रपति ट्रंप की इन कार्रवाइयों की जानकारी देने वाले नोटिफ़िकेशन में उन क़दमों का भी ज़िक्र किया गया है, जो ट्रंप प्रशासन ने चीन के ख़िलाफ़ उठाए हैं.

ये क़दम इस तरह से हैं:

  1. आर्थिक जासूसी, व्यापारिक भेद और हैकिंग के मुद्दे की पहचान करना और इन गतिविधियां चलाने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करना.
  1. अमेरिकी व्यापारियों और कामकाजी तबक़े के लोगों के हितों के संरक्षण के लिए चीन के साथ पहले चरण की व्यापार वार्ता करके इस विषय में समझौता करना.
  1. अमेरिकी उत्पादकों के हितों को नुक़सान पहुंचाने वाले चीन के नक़ली उत्पादों और भेदभाव भरी व्यापारिक गतिविधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना
  2. अमेरिका के सूचना के नेटवर्क तक पहुंच बनाने की कोशिश करने वाले ‘घातक विदेशी तत्वों’ को ऐसा करने से रोकना.

पर, महत्वपूर्ण बात ये है कि राष्ट्रपति ट्रंप के इन बयानों के बाद अमेरिका के शेयर बाज़ार में उछाल देखा गया. क्योंकि कारोबार के लिहाज़ से अमेरिकी सरकार के ये क़दम उतने गंभीर नहीं थे, जिनकी उम्मीद की जा रही थी. और इन क़दमों में इस बात की काफ़ी गुंजाईश छोड़ दी गई थी कि आने वाले समय में ट्रंप प्रशासन इन उपायों को किस तरह से लागू करता है.

राष्ट्रपति ट्रंप को इस बात की भी फ़िक्र सता रही है कि अगर वो चीन के विरुद्ध ज़्यादा सख़्ती दिखाते हैं तो इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की गाड़ी पटरी से उतर सकती है. अमेरिका के शेयर बाज़ार में भारी गिरावट आ सकती है. इससे ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतने पर भी ग्रहण लग सकता है

ट्रंप ने चीन के ख़िलाफ़ जिन क़दमों का एलान किया, वो कई मायनों में उनकी सरकार के पास उपलब्ध विकल्पों को दोहराने जैसा ही था. जिनके बारे में ट्रंप अब ये कह रहे हैं कि उनकी सरकार इन उपायों को लागू करने का मज़बूत इरादा रखती है. कम से कम अभी तक तो ट्रंप प्रशासन ने ये साफ़ नहीं किया है कि वो चीन के विरुद्ध क्या विशेष क़दम उठाने जा रही है. न तो ट्रंप प्रशासन ने चीन की उन कंपनियों का नाम बताया है, जिनके ऊपर प्रतिबंध लगाने का उसका इरादा है. और न ही चीन के उन नागरिकों के नाम बताए हैं जिनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से चीन भी अमेरिका के विरुद्ध कार्रवाई कर सकता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि चीन के ख़िलाफ़ किसी एक्शन से पहले अमेरिका को अपने नफ़ा-नुक़सान का बारीक़ी से आकलन कर लेना होगा. अगर, अमेरिका, चीन के ख़िलाफ़ ज़्यादा सख़्ती दिखाता है, तो चीन के उन कट्टरपंथियों को भी मौक़ा मिल जाएगा, जो अमेरिका से उसके तरीक़े से ही निपटने की वक़ालत करते रहे हैं. और अगर, चीन के ख़िलाफ़ कार्रवाई के नाम पर अमेरिका केवल खानापूर्ति करता है, तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनके सहयोगी, ट्रंप को काग़ज़ी शेर कहने में बिल्कुल भी देर नहीं करेंगे. इसके अलावा, राष्ट्रपति ट्रंप को इस बात की भी फ़िक्र सता रही है कि अगर वो चीन के विरुद्ध ज़्यादा सख़्ती दिखाते हैं तो इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की गाड़ी पटरी से उतर सकती है. अमेरिका के शेयर बाज़ार में भारी गिरावट आ सकती है. इससे ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतने पर भी ग्रहण लग सकता है और ये उनके लिए ज़्यादा गंभीर चुनौती है.

ट्रंप का भाषण, 27 मई को अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो द्वारा दिए गए भाषण का तार्किक परिणाम था. उस भाषण में पॉम्पियो ने कहा था कि अमेरिका अब ये नहीं मानता कि हॉन्ग कॉन्ग को ‘पर्याप्त स्वायत्तता’ हासिल है. अमेरिकी विदेश मंत्री का बयान ठीक उस समय आया था, जब चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (NPC) एक राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून पारित करने जा रही थी. इस क़ानून से चीन की सुरक्षा एजेंसियों को इस बात का अधिकार मिल जाता कि वो हॉन्ग कॉन्ग के निवासियों की स्वतंत्रताओं को सीमित कर सकती थीं. वहीं, अमेरिकी सरकार ने इसके ख़िलाफ़ हॉन्ग कॉन्ग रिलेशन्स एक्ट 1992 के अनुसार क़दम उठाए हैं. इस क़ानून के तहत अमेरिका को हॉन्ग कॉन्ग के साथ, वित्त और व्यापार के संबंध में ख़ास रिश्ते स्थापित करने का अधिकार मिलता है. और इसका आधार ये था कि चीन के अधिकार क्षेत्र में आने के बाद भी ‘हॉन्ग कॉन्ग को काफ़ी स्वायत्तता हासिल होगी.’

अब अगर चीन के दृष्टिकोण से देखें तो पिछले छह महीने में हॉन्ग कॉन्ग में कई बार क़ानून व्यवस्था बिगड़ती देखी गई. और इसमें सुधार के भी कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में चीन को लगता है कि हॉन्ग कॉन्ग के हालात सुधारने के लिए वो जो भी ज़रूरी क़दम उठा रहे हैं, उनसे इतना फ़ायदा होगा कि अमेरिका की कार्रवाई से होने वाले नकारात्मक प्रभाव अपने आप कम हो जाएंगे

2019 में अमेरिका ने हॉन्ग कॉन्ग मानवाधिकार और लोकतंत्र क़ानून को पारित किया था. इस क़ानून के अंतर्गत अमेरिकी सरकार के लिए इस बात की समीक्षा करना ज़रूरी है कि क्या हॉन्ग कॉन्ग को इतनी स्वायत्तता हासिल है कि उसके साथ अमेरिका द्वारा विशेष बर्ताव किया जाए. साथ ही साथ इस क़ानून के तहत अमेरिका को उन व्यक्तियों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का भी अधिकार मिलता है, जो हॉन्ग कॉन्ग के मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं. चूंकि अमेरिका के विदेश विभाग ने साफ़ कर दिया है कि अब हॉन्ग कॉन्ग के पास पर्याप्त स्वायत्तता नहीं रह गई है, तो इस क़ानून के तहत अमेरिका संबंधित व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगा सकता है.

अब अगर चीन के दृष्टिकोण से देखें तो पिछले छह महीने में हॉन्ग कॉन्ग में कई बार क़ानून व्यवस्था बिगड़ती देखी गई. और इसमें सुधार के भी कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में चीन को लगता है कि हॉन्ग कॉन्ग के हालात सुधारने के लिए वो जो भी ज़रूरी क़दम उठा रहे हैं, उनसे इतना फ़ायदा होगा कि अमेरिका की कार्रवाई से होने वाले नकारात्मक प्रभाव अपने आप कम हो जाएंगे. आप इस बात का इत्मीनान रख सकते हैं कि चीन ने हॉन्ग कॉन्ग के हालात को देखते हुए सभी समीकरणों और नफ़ा नुक़सान का बारीक़ी से अध्ययन कर लिया होगा. अभी चीन की बुनियादी चिंता इस बात को लेकर है कि हॉन्ग कॉन्ग लोकतांत्रिक आंदोलन का गढ़ न बन जाए. क्योंकि अगर ऐसा होता है, तो देर सबेर इसका असर चीन की मुख्यभूमि पर भी पड़ने का अंदेशा चीन की सरकार को है. और अब तक मिले संकेत ये बताते हैं कि हॉन्ग कॉन्ग की उठा-पटक से ताइवान के लोकतंत्र समर्थकों का हौसला बढ़ा है.

हॉन्ग कॉन्ग, चीन के लिए एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र है. जो अपने आप में एक विशिष्ट वित्तीय दुनिया जैसा है. हॉन्ग कॉन्ग ख़ुद को ‘दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था’ कहता है. हॉन्ग कॉन्ग का जीडीपी (GDP) पाकिस्तान, मलेशिया, सिंगापुर या दक्षिण अफ्रीका से भी अधिक है. हॉन्ग कॉन्ग का शेयर बाज़ार, चीन की कंपनियों के लिए पूंजी जुटाने का प्रमुख माध्यम है. हॉन्ग कॉन्ग के शेयर बाज़ार में चीन की मुख्य भूमि की एक हज़ार से ज़्यादा कंपनियां लिस्टेड हैं. हॉन्ग कॉन्ग का शेयर बाज़ार दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी शेयर मार्केट है. हॉन्ग कॉन्ग को ये मुकाम उसे मिलने वाली विशेष सुविधाओं की मदद से हासिल हुआ है. और उसे ये स्पेशल ट्रीटमेंट सिर्फ़ अमेरिका से ही नहीं, बल्कि चीन से भी मिलता रहा है.

लेकिन, हॉन्ग कॉन्ग में पिछले साल हुए विरोध प्रदर्शनों ने शायद चीन की सरकार को उसके इस क़दर ख़िलाफ़ कर दिया है कि अब चीन की सरकार गुआंगडॉन्ग-हॉन्ग कॉन्ग-मकाऊ के ग्रेटर बे एरिया के विकास की दिशा में आगे बढ़ने का फ़ैसला कर चुकी है. इसके साथ साथ अब चीन की सरकार हॉन्ग कॉन्ग की वित्तीय गतिविधियों को शेनझेन, शंघाई या फिर सिंगापुर की ओर विस्थापित करने के बारे में भी सोच रही है. 2019 में हुए विरोध प्रदर्शन और हॉन्ग कॉन्ग मानवाधिकार एवं लोकतंत्र क़ानून 2019 के पारित होने को चीन ने अपने ख़िलाफ़ साज़िश माना था और आरोप लगाया था कि ये चीन के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने की गहरी साज़िश है.

महत्वपूर्ण बात ये है कि अपने भाषण में राष्ट्रपति ट्रंप, चीन के साथ पहले चरण के व्यापारिक समझौते को लेकर ख़ामोश ही रहे थे. ये अभी भी उनकी सरकार के एजेंडे का हिस्सा है, जिससे चीन को अमेरिका से अपने आयात में काफ़ी इज़ाफ़ा करने के लिए बाध्य करेगा. चीन की सरकार की ओर से भी इस विषय में कोई बयान नहीं आया है. ऐसा लगता है कि दोनों ही देशों को लग रहा है कि अभी इस समझौते को क़ायम रखना दोनों के हित में होगा. लेकिन, आने वाले कुछ महीनों के दौरान, इस व्यापार समझौते को लेकर भी अमेरिका और चीन में तनातनी होने की आशंका बनी हुई है. ख़ासतौर से तब, जब ट्रंप को ये लगे कि चीन इस समझौते का पालन करने से पीछे हट रहा है और अमेरिका से सामान के आयात को बढ़ा नहीं रहा है. क्योंकि  चीन का ऐसा करना सीधे सीधे ट्रंप के समर्थक मतदाताओं को प्रभावित करेगा.

अभी तक ये बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है, कि आख़िर हॉन्ग कॉन्ग पर बात करने के लिए आए ट्रंप के भाषण में विश्व स्वास्थ्य संगठन से पीछे हटने के मुद्दे को शामिल किया गया. हो सकता है कि चीन को चोट पहुंचाने के असल इरादे को ज़ाहिर करने के लिए इस विषय का सहारा लिया गया. हालांकि, अंत में तो ये अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच हैसियत को ही चोट पहुंचाएगा. कोविड-19 को लेकर अपने रवैये के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की आलोचना भले हुई हो. लेकिन, आज भी दुनिया की बड़ी महामारियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य के अन्य संकटों से निपटने के लिए अभी भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ही एक विश्वसनीय और उपयोगी संस्था है. इस बात की संभावना कम ही है कि अमेरिका के बेहद क़रीबी देश भी उसके फ़ैसले का अनुपालन करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन को अलविदा कहेंगे.

किसी भी विषय पर चीन की रणनीति आम तौर पर बेहद ढंकी छुपी होती है. लेकिन, विश्व की इकलौती सुपर पावर होने के नाते अमेरिका को अपनी नीतियों के पीछे के मक़सद का खुल्लमखुल्ला एलान करने में कोई संकोच नहीं होता

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने ख़ास स्टाइल को एक बार फिर अपनाते हुए एकला चलो रे की नीति अपनाने का फ़ैसला किया. भले ही ट्रंप को अपने सभी क़दमों में सभी सहयोगी देशों का साथ न मिला हो, लेकिन, अगर वो इस फ़ैसले में यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और जापान को भी शामिल करते, तो आगे चलकर उनका ये फ़ैसला ज़्यादा असरदार साबित होता. लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन के ख़िलाफ़ अमेरिका का क़दम, उनके सहयोगियों को इस बात के लिए बाध्य करेगा कि वो ट्रंप के क़दमों का खुल कर समर्थन करने से बचें.

किसी भी विषय पर चीन की रणनीति आम तौर पर बेहद ढंकी छुपी होती है. लेकिन, विश्व की इकलौती सुपर पावर होने के नाते अमेरिका को अपनी नीतियों के पीछे के मक़सद का खुल्लमखुल्ला एलान करने में कोई संकोच नहीं होता. पिछले महीने, ट्रंप के भाषण के माध्यम से अमेरिकी सरकार ने चीन को लेकर अपनी संपूर्ण नीति को दुनिया के सामने रखा. ‘यूनाइटेड स्टेट्स स्ट्रैटेजिक एप्रोच टू द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ नाम के इस दस्तावेज़ में अमेरिका ने कहा है कि अब वो चीन को लेकर प्रतिद्वंदिता वाली रणनीति पर अमल कर रहा है. लेकिन, चीन को लेकर अभी उसने अभी अंतिम लक्ष्य का निर्धारण नहीं किया है. अभी चीन को लेकर अमेरिकी नीति का मक़सद केवल अमेरिकी हितों और रहन-सहन की रक्षा करना है. साथ ही अमेरिका अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने और विश्व शांति क़ायम करने के लिए भी लगातार प्रयत्नशील रहेगा. 16 पन्नों के इस दस्तावेज़ का निष्कर्ष ये निकलता है कि विवाद के तमाम मसले उठाने के बावजूद ‘अमेरिका, चीन के साथ ऐसे विषयों पर सकारात्मक और लक्ष्य आधारित संवाद और सहयोग के लिए तत्पर है, जहां पर दोनों देशों के हित आपस में मिलते हों.’

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.