Author : Rasheed Kidwai

Published on Nov 28, 2019 Updated 0 Hours ago

महाराष्ट्र की राजनैतिक उठापटक अनेक महत्वपूर्ण संदेशों व संभावनाओं से भरा हुआ है जिससे बीजेपी और विपक्ष बहुत कुछ सीख सकते हैं.

महाराष्ट्र की राजनीतिक करवट और राजनीति में पवार, सोनिया का शानदार कमबैक!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को सबसे पहले यह तय करना होगा की क्या वह अपने दमखम पर चुनाव लड़ेंगे या गठबंधन धर्म का पालन करेंगे. महाराष्ट्र के बाद झारखंड व बिहार के चुनाव में सहयोगी दलों की भूमिका कैसी होगी और राज्यों के होने वाले आगामी चुनाव में महाराष्ट्र जैसी स्थिति न पैदा हो, इसके लिए उसकी रणनीति अभी से तैयार करनी होगी. बीजेपी में एक विचार तेज़ी से उभर रहा है कि यदि पार्टी महाराष्ट्र में शिवसेना के बिना अकेले चुनाव लड़ती तो शायद नतीजे बेहतर होते और फज़ीहत भी नहीं होती. शीर्ष नेताओं को यह भी तय करना होगा की क्या वह गठबंधन धर्म का निर्वाह अटल बिहारी वाजपेयी की तर्ज़ पर कर सकते हैं या नहीं. यदि गठबंधन को साथ लेकर ही चलना है तो लचीला रवैया एवं एनडीए संयोजक की आवश्यकता होगी और संयोजक को ग़ैर बीजेपी दल से होने के साथ-साथ और कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति भी होना चाहिए.

इसमे कोई शक नहीं कि अभी मोदी और अमित शाह का राजनैतिक ग्राफ़ ऊचाइयों पर है और विपक्ष से भी कोई ख़तरा नहीं है लेकिन राजनीति में स्तिथियां बदलते वक़्त नहीं लगता. 1984-85 में राजीव गाँधी प्रचंड बहुमत पाने के बावजूद जल्द ही अपनी साख़ खो बैठे. जिन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और नियम 12 का दुरूपयोग किया गया उससे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की शान में बट्टा ज़रूर लगा है.

राजनीति में दांव खेलना या वह उल्टा पड़ जाना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन विषम परिस्थितियों में अपना घर ठीक रखना व जवाबदेही तय करना एक अच्छे लीडर की पहचान होती है.

महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था, “कभी-कभी हम अपने विरोधियों के कारण आगे बढ़ते हैं.” यह कथन विपक्ष के लिए सच साबित होता दिख रहा है. बीजेपी का अति आत्मविश्वास, चाणक्य नीति का बख़ान, मीडिया की ज़रूरत से ज्य़ादा उनकी प्रशंसा फायदे पहुंचाने के बजाय उल्टा सत्ता पक्ष को नुक़सान पहुंचा रही है. राजनीति में दांव खेलना या वह उल्टा पड़ जाना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन विषम परिस्थितियों में अपना घर ठीक रखना व जवाबदेही तय करना एक अच्छे लीडर की पहचान होती है. महाराष्ट्र के संदर्भ में एनसीपी के अजित पवार के साथ जाने का निर्णय किसका था? महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार यह बखूबी जानते हैं कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) शरद पवार की धरोहर है पवार के बिना वहां एक पत्ता भी नहीं हिलता. ऐसे क्या कारण थे की पवार के साथ गठबंधन का हाथ नहीं बढ़ाया गया?

शरद पवार के बारे में मीडिया में बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन कुछ बातों की चर्चा करना यहां अब भी ज़रूरी है. आज की राजनीति में प्रकाश सिंह बादल को छोड़ कर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो 1978 में मुख्य़मंत्री रहा हो और आज भी वो सक्रिय राजनीति में हो. पवार की तमाम राजनीति दिल्ली दरबार से लड़ने , टकराने और लोहा लेने में गुज़री है चाहे वह इंदिरा, राजीव व सोनिया गाँधी के विरुद्ध ही क्यों न रही हो. दरअसल, पवार अपने आप को शिवाजी महाराज का पैरोकार मानते हैं और मराठा मानसिकता में दिल्ली दरबार को नीचा दिखाना अपनी शान समझते हैं. पवार को यह पता था कि वे देवेंद्र फडणवीस के मुक़ाबले, उद्धव ठाकरे से बेहतर तालमेल बिठा पाएंगे जो कांग्रेस, एनसीपी व शिवसेना बीजेपी की काट में सफल होगी. अजित की घर वापसी शरद पवार के राजनैतिक कद को और बड़ा बनाती है.

कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र एक संजीवनी है. एक ही झटके में सोनिया गाँधी ने एक तीर से अनेक शिकार कर लिए. धर्मनिरपेक्षता पर चल रहा असमंजस समाप्त हो गया और ग़ैर-भाजपावाद के चलते अल्पसंख्यकों में किसी तरह न तो कोई निराशा रही न ही इस बात का मलाल कि उनका तिरस्कार किया गया है.

कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र एक संजीवनी है. एक ही झटके में सोनिया गाँधी ने एक तीर से अनेक शिकार कर लिए. धर्मनिरपेक्षता पर चल रहा असमंजस समाप्त हो गया और ग़ैर-भाजपावाद के के चलते अल्पसंख्यकों में किसी तरह न तो कोई निराशा रही न ही इस बात का मलाल कि उनका तिरस्कार किया गया है. कांग्रेस अपने आप को सत्ता व सरकार का ‘ वास्तविक’ उत्तराधिकारी मानती थी और उसके अधिवेशनों के अध्याय इससे भरे पड़े हुए हैं. कांग्रेस ने पंचमढ़ी व शिमला राजनैतिक प्रस्तावों के द्वारा गठबंधन में शामिल होने का वैचारिक रास्ता निकाला था. अब सोनिया ने छोटी भूमिका के लिए भी गुंजाईश निकाल ली. राहुल व प्रियंका गाँधी को सोनिया की यह गूढ़ राजनीति समझना होगी की वह कैसे वक़्त की नज़ाकत को भांप गई और और उसको अपना सिद्धांत बनाकर पेश कर दिया. लेफ्ट-लिबरल चाहे कुढ़ते रहें और छींटाकशी करें लेकिन सोनिया सत्ता और राजनीति में प्रासंगिक रहने का गुण जानती हैं. यह सही है की सोनिया के पास कोई बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं है. लेकिन स्वर्गीय जयपाल रेड्डी ने उन्हें “यूनिवर्सिटी ऑफ़ लाइफ़” की एक बेहतरीन स्नातक की उपाधि दी.

मुंबई में सरकार कब तक चलेगी? इसके लिए तरह-तरह के क़यास लगाए जा रहे हैं. आंकलन यह भी है की बहुत कुछ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्यशैली पर निर्भर करेगा. यदि विपक्ष झारखंड व दिल्ली जीत जाता है तब नितीश कुमार उद्धव ठाकरे की तर्ज़ पर समस्याएँ खड़ी कर सकते है और बंगाल में ममता बनर्जी की हार अथवा जीत के बड़े मायने हो सकते हैं. अंत में केवल यह कहा जा सकता है की भारतीय राजनीति कभी भी एकतरफ़ा नहीं रहा है और कांग्रेस मुक्त भारत केवल एक जुमला ही रहेगा जब तक सोनिया गाँधी सक्रिय राजनीति में रहती हैं और शरद पवार जैसे राजनेता मौजूद हैं, जो भले ही खुद प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति न बन पाये हों लेकिन अपने जीवनकाल में हीं उन्होंने अपना नाम भारतीय राजनीति के पन्नों पर अमर करा लिया है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.