Author : Sushant Sareen

Published on Sep 09, 2020 Updated 0 Hours ago

साफ़ है कि पाकिस्तान के हुक्मरान, सऊदी अरब में किसी ऐसे शख़्स को शाह की गद्दी पर देखना चाहेंगे, जो पुरातनपंथी हो और नए कूटनीतिक समीकरणों के बजाय पुराने इस्लामिक संबंधों को तरज़ीह देता हो. जिसके तहत कभी पाकिस्तान, सऊदी अरब का सबसे दुलारा देश था.

पाकिस्तान – सऊदी अरब के बीच बढ़ती खाई: सऊदी शाह को चुनौती या शाह महमूद क़ुरैशी का निजी दांव?

पिछले महीने जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने खुलेआम सऊदी अरब को कश्मीर मसले पर धमकाया. तो, ऐसा लगा कि वो पाकिस्तान की विदेश नीति के एक मज़बूत स्तंभ को ढहाने पर आमादा हुए हैं. क़ुरैशी ने कहा था कि सऊदी अरब को चाहिए कि वो जम्मू-कश्मीर में भारत के संवैधानिक सुधारों के ख़िलाफ़ मुस्लिम देशों और इस्लामिक देशों के संगठन OIC की ओर से ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाए. शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा था कि अगर सऊदी अरब ऐसा नहीं करता, तो वो अपने देश के प्रधानमंत्री को ये सलाह देने को मजबूर होंगे कि वो उन इस्लामिक देशों का सम्मेलन बुलाएं, जो कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़े होने को तैयार हैं. फिर चाहे, इस सम्मेलन में सऊदी अरब शामिल हो या न हो. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ख़ुद को कश्मीर का दूत कहते हैं. और चाहते हैं कि मुस्लिम देश मिलकर भारत के ख़िलाफ़ इस मुद्दे पर दबाव बनाएं. लेकिन, शाह महमूद क़ुरैशी ने जितने सख़्त लहज़े में सऊदी अरब के ख़िलाफ़ बयान दिया, वो चौंकाने वाला था. क्योंकि, पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने अपने ख़ास अंदाज़ में मुंह बनाते हुए नाटकीय तरीक़े से जिस मुल्क को धमकी दी थी, वो कई दशकों से पाकिस्तान को पालता पोसता आ रहा है. उसे तमाम तरह से मदद देता आ रहा है. ऐसे में क़ुरैशी का ये धमकी भरा बयान सिर्फ़ सऊदी अरब और पाकिस्तान के संबंधों को पटरी से उतारने वाला नहीं, बल्कि ख़ुद क़ुरैशी के सियासी करियर को ख़तरे में डाल देने वाला था.

हालांकि, अपने बयान के साथ शाह महमूद क़ुरैशी ने ज़ोर देकर ये भी कहा कि सऊदी अरब के ख़िलाफ़ उनका ये सख़्त रवैया उनकी निजी राय है. लेकिन, पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने शाह महमूद क़ुरैशी के बयान का समर्थन करते हुए कहा कि, ‘विदेश मंत्री क़ुरैशी का बयान, पाकिस्तान के अवाम की आकांक्षाओं और OIC देशों से अपेक्षाओं की सटीक अभिव्यक्ति है. पाकिस्तान चाहता है कि इस्लामिक देश जम्मू-कश्मीर के मसले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने का काम करें.’ सऊदी अरब के ख़िलाफ़ ये सख़्त बयान देने के एक दिन बाद क़ुरैशी ने अगले दिन सऊदी अरब के ख़िलाफ़ अपना रवैया नरम करने का भी संकेत दे दिया. बाद में एक इंटरव्यू में क़ुरैशी ने सऊदी अरब के सामने कोर्निश बजाते हुए कहा कि पाकिस्तान का अवाम सऊदी अरब का बेहद शुक्रगुज़ार है. क्योंकि, उन्होंने पाकिस्तान के लिए बहुत कुछ किया है. क़ुरैशी ने कहा कि चूंकि पाकिस्तान, सऊदी अरब को अपना असली दोस्त और भाई मानता है. इसलिए, पाकिस्तान ने बड़े हक़ से सऊदी अरब से ये बात कही. वरना, पाकिस्तान किसी और देश के ख़िलाफ़ ऐसा बयान दे ही नहीं सकता. हालांकि, क़ुरैशी के सऊदी अरब को चेतावनी देने के फ़ौरन बाद से ही, पाकिस्तान की सरकार, पर्दे के पीछे एक्टिव हो गई. ताकि, सऊदी अरब की नाराज़गी दूर की जा सके. पाकिस्तान के असल आक़ा, आर्मी चीफ जनरल क़मर जावेद बाजवा ने पाकिस्तान में सऊदी अरब के राजदूत से मुलाक़ात की. इसके कुछ दिनों बाद ही जनरल बाजवा सऊदी अरब के दौरे पर गए और कश्मीर मसले पर OIC में सऊदी अरब का सहयोग मांगा. माना जा रहा है कि जनरल बाजवा ने सऊदी अरब से पाकिस्तान को दी गई वो रियायत भी बहाल करने की अपील की, जिसके तहत सऊदी अरब, पाकिस्तान को 3.2 अरब डॉलर तक का तेल बाद में भुगतान की शर्तों पर देता है. सऊदी अरब ने इस रियायत को रद्द कर दिया था और उसे दोबारा बहाल करने में आनाकानी कर रहा था. इसके अलावा जनरल क़मर जावेद बाजवा ने सऊदी सरकार से ये गुज़ारिश भी की कि उसने पाकिस्तान को तीन अरब डॉलर का जो क़र्ज़ दिया है, उसे फ़ौरन भुगतान करने का दबाव न बनाए. सऊदी अरब अगर पाकिस्तान को मदद के नाम पर दी गई रक़म वापस मांग रहा है, तो ये बड़ी बात है. क्योंकि अब तक तो पाकिस्तान को सऊदी अरब से जो भी आर्थिक मदद मिलती रही थी, वो मुफ़्त की थी. उसका पाकिस्तान को वापस भुगतान नहीं पड़ना पड़ता था. वो ऐसे क़र्ज़ थे, जिसकी भरपाई का तनाव पाकिस्तान को नहीं लेना पड़ता था. लेकिन, अब अगर सऊदी अरब ने पाकिस्तान को उधार दी गई रक़म वापस मांगनी शुरू कर दी है, तो इसका ये अर्थ नहीं है कि सऊदी अरब आर्थिक संकट का शिकार है, बल्कि, इसका असल मतलब ये है कि पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्तों में भयंकर तनाव आ गया है.

साफ़ है कि पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच कुछ ऐसी खिचड़ी ज़रूर पक रही है, जो बाक़ी दुनिया की समझ से परे है. शाह महमूद क़ुरैशी कोई नए नेता नहीं हैं. वो पाकिस्तान की सियासत और विदेश नीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं, इमरान सरकार के अन्य अनाड़ी मंत्रियों के मुक़ाबले क़ुरैशी काफ़ी तज़ुर्बेकार मंत्री हैं. एक अनुभवी राजनेता के तौर पर क़ुरैशी से ये उम्मीद क़तई नहीं की जाती है कि वो जज़्बात में बहकर अनाप-शनाप बोल दें. ऐसे मंझे हुए नेताओं की ज़ुबान से हर लफ़्ज़ बहुत सोच-समझ कर निकलता है. इसीलिए, मेरा मानना है कि कश्मीर को लेकर वो जितने जज़्बाती हो रहे हैं, वो किसी न किसी और मक़सद से है. क़रीब बीस बरस पहले, जब मैं इस्लामाबाद गया था, तब शाह महमूद क़ुरैशी, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी में हुआ करते थे. इस्लामाबाद में पीपीपी के दफ़्तर में मेरी क़ुरैशी से मुलाक़ात हुई थी. उन्होंने मुझसे कहा था कि वो पाकिस्तान के मुल्तान शहर से ताल्लुक़ रखते हैं. और मुल्तान में कश्मीर कोई मसला ही नहीं. क़ुरैशी ने कहा था कि कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान के पंजाब में बस रावलपिंडी से लेकर रायविंड के बीच के इलाक़े में ही कोई मुद्दा है. लेकिन, अगर अब वो ये कह रहे हैं कि कश्मीर को लेकर उनका दिल रो रहा है, तो यक़ीन मानिए, क़ुरैशी के दिल में अचानक कश्मीरियों के लिए मोहब्बत नहीं उमड़ पड़ी हैं. बल्कि, सच तो ये है कि इसके पीछे क़ुरैशी का कोई न कोई नया एजेंडा है. ये उनका निजी सियासी दांव भी हो सकता है. जिसके ज़रिए शाह महमूद क़ुरैशी ख़ुद को कश्मीर के सबसे बड़े लड़ैया के तौर पर प्रस्तुत करना चाहते हैं. जिससे कि क़ुरैशी घरेलू सियासत में ख़ुद को मज़बूत बनाने के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर के मसले को उछालना चाहते हैं.

शाह महमूद क़ुरैशी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं से इतर, ये यक़ीन कर पाना मुश्किल है कि वो कश्मीर मसले पर बेलगाम होकर सऊदी अरब के ख़िलाफ़ बयान दे रहे थे. वो ऐसा तभी कर सकते हैं, जब उनके पीछे पाकिस्तान में कोई बेहद शक्तिशाली किरदार उनके पीछे खड़ा हो.

ऐसे बयानों से शाह महमूद क़ुरैशी अपनी ‘सच्चे देशभक्त’ वाली छवि को और चमकाना चाहते होंगे. ताकि, जब पाकिस्तान के ‘सेलेक्टर’ यानी आर्मी के जनरल जब इमरान ख़ान को हटाकर किसी और को प्रधानमंत्री बनाना चाहें तो क़ुरैशी ख़ुद को एक अच्छे विकल्प के तौर पर पेश कर सकें. और इसके लिए वो कश्मीर पर अपनी बयानबाज़ी को एक मिसाल के तौर पर पेश कर सकें. और अगर उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई होती है. जैसे कि मंत्री पद से हटाया जाता है, तो वो कश्मीर को लेकर अपनी शहादत का ढिंढोरा भी पीट सकते हैं. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि आज से क़रीब दस बरस पहले शाह महमूद क़ुरैशी ने कुछ ऐसा ही सियासी नाटक रचा था. जब 2011 में वो रेमंड डेविस केस को लेकर अपनी ही हुक़ूमत के ख़िलाफ़ खड़े हो गए थे. उस समय भी यही कहा गया था कि पाकिस्तान की फौज ने ही क़ुरैशी को अपनी सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा होने के लिए उकसाया था. और वर्ष 2011 की तह इस बार भी अटकलें इमरान ख़ान की हुक़ूमत के कार्यकाल को लेकर लगाई जा रही हैं. कई महीनों से पाकिस्तान में ये चर्चा चल रही है कि शाह महमूद क़ुरैशी, ख़ुद को प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के विकल्प के तौर पर पेश करने की जुगत भिड़ा रहे हैं. ये पाकिस्तान की सियासत का वो मॉडल है, जो ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने 1965 की जंग में भारत के हाथों पाकिस्तान के पिटने के बाद आज़माया था. जब वो फील्ड मार्शल अयूब ख़ां की सरकार में होने के बावजूद, उनके ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर रहे थे. मगर, क़ुरैशी के साथ दिक़्क़त ये है कि वो ज़ुल्फ़ी भुट्टो जैसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता नहीं हैं. साल 2018 के चुनाव में शाह महमूद क़ुरैशी ख़ुद अपनी सीट पर चुनाव हार गए थे. और उनका प्रभाव, पाकिस्तान की नेशनल असेंबली की कुछ गिनी चुनी सीटों पर ही है. और वो भी इसलिए है क्योंकि वो एक मज़हबी गद्दी के धार्मिक नेता भी हैं.

शाह महमूद क़ुरैशी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं से इतर, ये यक़ीन कर पाना मुश्किल है कि वो कश्मीर मसले पर बेलगाम होकर सऊदी अरब के ख़िलाफ़ बयान दे रहे थे. वो ऐसा तभी कर सकते हैं, जब उनके पीछे पाकिस्तान में कोई बेहद शक्तिशाली किरदार उनके पीछे खड़ा हो. और, पाकिस्तान की सियासत में सबसे ताक़तवर केवल फ़ौज ही है. हो सकता है कि पाकिस्तान आर्मी ने ही क़ुरैशी को इस बयान के लिए हरी झंडी दी हो. इसकी दो या तीन वजहें हो सकती हैं.

पहली वजह तो ये हो सकती है कि शायद क़ुरैशी के ज़रिए पाकिस्तान की फ़ौज कोई नया दांव आज़मा रही थी. असल में पाकिस्तान पिछले एक साल से इस कोशिश में जुटा है कि कश्मीर मसले पर OIC, भारत के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ से पेश आए. लेकिन, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने पाकिस्तान के इस प्रस्ताव में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई है. इसके बजाय, सऊदी अरब ने OIC कॉन्टैक्ट ग्रुप से ऐसे बयान जारी कर के पाकिस्तान को बहलाने फुसलाने की कोशिश की है, जिनका कोई मतलब नहीं निकलता. हालांकि, सऊदी अरब OIC कॉन्टैक्ट ग्रुप के पांच देशों में से एक है. इसके अन्य सदस्य पाकिस्तान, तुर्की, नाइजर और अज़रबैजान हैं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि सऊदी अरब और कुछ हद तक तुर्की के अलावा इस समूह के बाक़ी सदस्य देशों की कोई ख़ास अहमियत इस्लामिक देशों के बीच भी नहीं है. वहीं, जब ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC) ने मक्का घोषणापत्र जारी किया, तो सऊदी अरब ने उसमें कश्मीर के मसले का ज़िक्र करने की इजाज़त नहीं दी. और जब पाकिस्तान ने कश्मीर मसले पर OIC के विदेश मंत्रियों की एक असाधारण बैठक अपने यहां बुलाने की कोशिश की, तो सऊदी अरब ने पाकिस्तान की इस कोशिश पर भी ब्रेक लगा दिया. जबकि, पाकिस्तान ने OIC के विदेश मंत्रियों की असाधारण बैठक बुलाने के लिए पूरी ताक़त लगा दी थी. और इससे भी बुरी बात तब हुई, जब सऊदी अरब ने वर्ष 2019 में संयुक्त अरब अमीरात में हुई OIC की बैठक में भारत की उस वक़्त की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को माननीय अतिथि के तौर पर बैठक में आमंत्रित किया. ये बैठक पाकिस्तान के बालाकोट में भारत की एयर स्ट्राइक के बाद हुई थी. पाकिस्तान ने OIC की इस बैठक का बहिष्कार किया था. सऊदी अरब, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने अपने यहां के सर्वोच्च सम्मानों से नवाज़ा है. इनमें से बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात ने तो जम्मू-कश्मीर में पिछले साल किए गए संवैधानिक बदलावों के बाद प्रधानमंत्री मोदी को सम्मानित किया था. पाकिस्तान को इन क़दमों से करारा झटका लगा था. फिर भी वो कश्मीर मसले पर OIC के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने की कोशिश करता रहा. लेकिन, अब ये माना जा रहा है कि शाह महमूद क़ुरैशी के ज़रिए पाकिस्तान ने एक नया दांव मारा है. सऊदी अरब के ख़िलाफ़ क़ुरैशी का बयान असल में पाकिस्तान का कश्मीर मसले पर एक और दांव है. अगर ये काम कर जाता है, और सऊदी अरब पाकिस्तान के दबाव में आकर उसकी बात मान जाता है. तो, पाकिस्तान इस बात का शोर मचाएगा कि उसने बहुत बड़ी कूटनीतिक कामयाबी हासिल कर ली है. लेकिन, अगर सऊदी अरब, शाह महमूद क़ुरैशी के बयान को लेकर सख़्त क़दम उठाया, तो पाकिस्तान, घुटनों के बल झुक कर सऊदी अरब से माफ़ी मांग लेगा. जो जनरल क़मर जावेद बाजवा के सऊदी अरब के दौरे से साफ है. क्योंकि, पाकिस्तान ने सऊदी अरब को धमकी का पूरा ठीकरा शाह महमूद क़ुरैशी पर फोड़ दिया. वैसे भी सऊदी अरब, शाह महमूद क़ुरैशी को ज़्यादा पसंद नहीं करता. क्योंकि, सऊदी शाही घराना ये मानता है कि क़ुरैशी, एक क़ब्रिस्तान या उस मज़ार से कमाई करते हैं, जिसके वो संरक्षक हैं.

क़ुरैशी के सऊदी अरब के ख़िलाफ़ बयान की दूसरी वजह ये हो सकती है कि वो पाकिस्तान की विदेश नीति के नई दिशा में जाने का संकेत दे रहे थे. शायद पाकिस्तान अब इस्लामिक देशों के बीच एक नई तरह की नीति अपनाना चाह रहा है. वैसे भी पाकिस्तान के ज़्यादातर नागरि, OIC को बहुत तवज्जो नहीं देते. उन्हें लगता है कि OIC इस्लामिक देशों के हितों की बात करने में नाकाम रहा है. काफ़ी दिनों से इस्लामिक देशों के बीच एक नए देश के नेतृत्व में नया इस्लामिक संगठन बनाने की चर्चा हो रही है. एक ऐसा संगठन, जो अर देशों पर आधारित न हो. पाकिस्तान के अलावा जो अन्य देश, इस्लामिक मुल्कों का नया संगठन बनाने को लेकर उत्साहत हैं, उनमें ईरान, तुर्की और मलेशिया शामिल हैं. तुर्की और ईरान, दोनों के ही संबंध सऊदी अरब से काफ़ी ख़राब हैं. इसकी एक वजह ऐतिहासिक और सांप्रदायिक है, तो दूसरी वजह सांस्कृतिक और जातीय भी है. भौगोलिक सामरिक कारणों से भी तुर्की और ईरान, सऊदी अरब का विरोध करते रहे हैं. इस्लामिक मुल्कों के बीच अरब देश अव्वल माने जाते हैं. वहीं ईरान और तुर्की के लोगों को दूसरे और तीसरे दर्ज़े पर रखा जाता है. जबकि, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देश इस्लामिक उम्माह में चौथे दर्जे के कर्मचारी या चपरासी (जिन्हें पाकिस्तान में ग्रेड 10 से भी नीचे के दर्जे के सरकारी कर्मचारी कहा जाता है)माने जाते हैं.

पिछले साल पाकिस्तान ने कुछ अन्य देशों के साथ मिलकर OIC के एक वैकल्पिक संगठन की भूमिका तैयार की थी. जब उन्होंने एक वैश्विक इस्लामिक टीवी चैनल शुरू करने का प्रस्ताव रखा था. और मलेशिया की राजधानी कुआला लम्पुर में इस्लामिक देशों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस सम्मेलन में जिन मुद्दों को ज़ोर शोर से उछाला गया था, उसमें कश्मीर का मसला भी शामिल था. लेकिन, OIC के वैकल्पिक इस्लामिक संगठन के प्रस्ताव सऊदी अरब बुरी तरह भड़क उठा था. सऊदी अरब के वली अहद या क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान, जिन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में भाग लेने अमेरिका जाने के लिए अपना निजी विमान मुहैया कराया था. मगर, प्रिंस सलमान इस बात से इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने इमरान ख़ान से अपना विमान वापस ले लिया था. जिसके बाद इमरान ख़ान को एक कॉमर्शियल उड़ान से अपने देश वापस आना पड़ा था. बाद में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को ये चेतावनी भी दी थी कि अगर इमरान ख़ान, मलेशिया की राजधानी कुआला लम्पुर जाते हैं, तो सऊदी अरब न केवल पाकिस्तान को हर तरह की आर्थिक मदद बंद कर देगा. बल्कि, अपने यहां काम करने वाले पाकिस्तान के सभी नागरिकों को भी निकाल बाहर करेगा. और उनकी जगह बांग्लादेश के नागरिकों को नौकरी पर रख लेगा. सऊदी अरब ने पाकिस्तान को वर्ष 2018-19 में 6.2 अरब डॉलर की आर्थिक मदद दी थी. इसके अलावा, उसके यहां काम करने वाले पाकिस्तानी नागरिक हर साल अपने देश को पांच अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा भेजते हैं. सऊदी अरब की चेतावनी के बाद दबाव में आए इमरान ख़ान ने मलेशिया का दौरा रद्द कर दिया था. लेकिन, पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्ते में दरार तभी आ गई थी. पाकिस्तान को न केवल कश्मीर मुद्दे पर अरब देशों का समर्थन मिलना बंद हो गया. बल्कि, सऊदी अरब और भारत के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से नज़दीकी बढ़ गई. इसके अलावा भारत और सऊदी अरब अब सुरक्षा और आर्थिक क्षेत्र में भी काफ़ी सहयोग कर रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और सऊदी अरब के रिश्ते काफ़ी मज़बूत हो गए हैं. सऊदी अरब ने अपने यहां पनाह लेने वाले कई आतंकियों और भगोड़ों को भारत को सौंपा है. दोनों के बीच आर्थिक सहयोग का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है. आज की तारीख़ में सऊदी अरब और भारत के राजनीतिक संबंध भी काफ़ी अच्छे हो गए हैं. केवल सऊदी अरब ही नहीं, बल्कि उसके क़रीबी देशों जैसे कि संयुक्त अरब के रिश्ते भी भारत के साथ काफ़ी मज़बूत हो गए हैं. कभी पाकिस्तान, अरब देशों के इलाक़े का बड़ा खिलाड़ी हुआ करता था. लेकिन, आज की तारीख़ में भारत की तुलना में उसकी हैसियत काफ़ी कमज़ोर हो गई है.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और सऊदी अरब के रिश्ते काफ़ी मज़बूत हो गए हैं. सऊदी अरब ने अपने यहां पनाह लेने वाले कई आतंकियों और भगोड़ों को भारत को सौंपा है. दोनों के बीच आर्थिक सहयोग का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है.

सिर्फ़ भारत के कारण नहीं, बल्कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के रिश्ते कई और कारणों से भी बिगड़ने लगे थे. 2015 में पाकिस्तान ने यमन में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साझा सैन्य अभियान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था. अरब देशों को पाकिस्तान का ये रवैया बिल्कुल नहीं पसंद आया था. उस समय पाकिस्तान को चीन से काफ़ी पैसे मिल रहे थे. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC)की शक्ल में चीन, पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में निवेश कर रहा था. अपनी पुश्त पर चीन का हाथ पाकर, पाकिस्तान के हौसले बुलंद थे. कहा जाता है कि चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग ने उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को भरोसा दिया था कि अगर अरब देशों से पाकिस्तान के संबंध बिगड़ते हैं, तो चीन उसकी पूरी मदद करेगा. इसके अलावा चीन ने सऊदी अरब के CPEC में सामरिक साझीदार बनने के प्रस्ताव को भी ख़ारिज कर दिया था. जबकि, ख़ुद पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सितंबर 2018 में सऊदी अरब के दौरे के दौरान इसका एलान किया था. पाकिस्तान, सऊदी अरब और ईरान के सांप्रदायिक झगड़े में पिसने से भी ख़ुद को बचाना चाह रहा था, क्योंकि पाकिस्तान को डर था कि इसका असर उसकी घरेलू शिया सुन्नी राजनीति और हालात पर पड़ सकता है. इसके अलावा, पाकिस्तान पिछले कुछ वर्षों से तुर्की से काफ़ी नज़दीकी बढ़ा रहा है. और दोनों देश अहम सुरक्षा साझीदार बन गए हैं. आज भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के छद्म युद्ध में भी तुर्की साझीदार बन चुका है. ऐसे में सऊदी अरब और तुर्की के तनावपूर्ण संबंधों का असर पाकिस्तान को भी भुगतना पड़ा. क्योंकि, पत्रकार जमाल खशोज्जी की हत्या को लेकर तुर्की और सऊदी अरब के बीच पहले ही टकराव बढ़ चुका था. ऐसे में ईरान और तुर्की से पाकिस्तान की बढ़ती नज़दीकी, सऊदी अरब को बिल्कुल भी नहीं सुहा रही थी. लेकिन, शायद पाकिस्तान को इस बार ये लग रहा है कि अब समय आ गया है कि पाकिस्तान, सऊदी अरब से दूरी बनाकर सामरिक रूप से स्वायत्त नीति पर चले. या फिर ये भी हो सकता है कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब को धमकी देकर ये इशारा दिया है कि उसकी चिंताओं को सऊदी अरब गंभीरता से ले.

आज भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के छद्म युद्ध में भी तुर्की साझीदार बन चुका है. ऐसे में सऊदी अरब और तुर्की के तनावपूर्ण संबंधों का असर पाकिस्तान को भी भुगतना पड़ा.

शाह महमूद क़ुरैशी के सऊदी अरब को धमकी देने का तीसरा कारण थोड़ा संदिग्ध है. मगर हम पाकिस्तान के उल्टे दांव चलने के इतिहास को देखते हुए, इस वजह को पूरी तरह से ख़ारिज नहीं कर सकते. पाकिस्तान ने अपने लंबे संबंधों के दौरान सऊदी शाही घराने से गहरे ताल्लुक़ात बना लिए हैं. पाकिस्तान के सैनिक सऊदी अरब में ट्रेनिंग और सलाह-मशवरे के लिए तैनात किए गए हैं. कुछ ख़बरें तो ये भी दावा करती हैं कि पाकिस्तान के सैनिक वहां पर शाही परिवार की हिफ़ाज़त करने के लिए तैनात किए गए हैं. चूंकि, ख़ुद सऊदी अरब के अंदर काफ़ी मतभेद हैं. तो ऐसे में ये भी हो सकता है कि पाकिस्तान का ये दांव ख़ुद सऊदी अरब के शाही घराने के भीतर के किसी तबक़े की चाल भी हो सकती है. हालांकि, ये बात कुछ ज़्यादा ही दूर की कौड़ी लगती है. लेकिन, ऐसा भी तो हो सकता है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब के भीतर का कोई ऐसा राज़ पता हो, जिसकी आड़ में वो सऊदी शाह या मौजूदा क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को अपदस्थ करने की कोशिश कर रहा हो. भले ही ये दूर की कौड़ी हो. मगर, इस बात में अगर ज़रा भी सच्चाई है तो इसका ये मतलब है कि सऊदी अरब में तैनात पाकिस्तान के सैनिक, वहां के शाही परिवार के लिए ख़तरा बन सकते हैं. ऐसे में सऊदी अरब को अपने यहां एक हत्यारी सेना को अपनी सुरक्षा के लिए तैनात करने के फ़ैसले पर नए सिरे से विचार करना होगा. जहां तक पाकिस्तान की बात है, तो सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान ने पाकिस्तान के पीएम इमरान ख़ान को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलवाने की व्यवस्था भले ही की हो. और, वो पाकिस्तान में भारी निवेश का वादा भले कर रहे हों. लेकिन, जिस तरह से प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के चलते सऊदी अरब और भारत के बीच नज़दीकी बढ़ रही है. उससे पाकिस्तान और सऊदी अरब के संबंधों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता काफ़ी बढ़ गई है. साफ़ है कि पाकिस्तान के हुक्मरान, सऊदी अरब में किसी ऐसे शख़्स को शाह की गद्दी पर देखना चाहेंगे, जो पुरातनपंथी हो और नए कूटनीतिक समीकरणों के बजाय पुराने इस्लामिक संबंधों को तरज़ीह देता हो. जिसके तहत कभी पाकिस्तान, सऊदी अरब का सबसे दुलारा देश था.

ये भी हो सकता है कि पाकिस्तान का ये दांव ख़ुद सऊदी अरब के शाही घराने के भीतर के किसी तबक़े की चाल भी हो सकती है. हालांकि, ये बात कुछ ज़्यादा ही दूर की कौड़ी लगती है.

जिस तरह क़ुरैशी के बयान के बाद पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल क़मर जावेद बाजवा, सऊदी अरब के दौरे पर भागे, उससे लगता है कि फिलहाल तो पाकिस्तान ने सऊदी अरब के सामने घुटने टेक दिए हैं. क्योंकि, सऊदी अरब के ख़िलाफ़ जाने की पाकिस्तान को आर्थिक ही नहीं, कूटनीतिक और राजनीतिक तौर पर भी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. सऊदी अरब से टकराने का मतलब पाकिस्तान के लिए पूरे अरब क्षेत्र से टकराने जैसा होगा. हालांकि, पाकिस्तान और अरब देशों के बीच संबंधों में दरार और बढ़ गई है. मगर, शायद अभी कुछ और दिनों तक उन्हें सऊदी अरब से आर्थिक मदद मिलती रहेगी. पर, केवल आर्थिक मदद से दोनों देशों के संबंध नहीं सुधरने वाले. सवाल ये है कि क्या भारत इस मौक़े का फ़ायदा उठा कर सऊदी अरब और उसके क़रीबी देशों जैसे कि सयुंक्त अरब अमीरात के साथ अपने संबंधों को और मज़बूत बनाने का काम कर सकता है?

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